पुरातन काल में ग्वालियर के अनेक नाम जैन वांगमय में उपलब्ध होते हैं। ग्रोपादि, गोपागिरि, गोपाचल, गोपालचल, गोवागिरि, गोपालगिरि, गोवालागिरि, गोवालचलंहु, ग्वालियर। ये सभी नाम ग्वालियर के दुर्ग के कारण पड़े हैं। इस दुर्ग का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। कुछ लोगों का कथन है कि यह दुर्ग ईसा से ३००० वर्ष पूर्व का है। कुछ पुरातत्व से इसे ईसा की तीसरी शताब्दी में निर्मित मानते हैं। इस दुर्ग की गणना भारत के प्राचीन दुर्गों में की जाती है। जैन धर्म की दृष्टि से इसका अपना एक विशिष्ठ स्थान है। ग्वालियर काष्ठा संघ, माथुर गच्छ का भट्टारक पीठ था। ग्रंथ प्रशस्तियों और मुर्ति लेखों में इस संघ के साथ काष्ठांसघ, माथुरान्वय, बलात्कार गण, सरस्वति गच्छ का प्रयोग मिलता है। ग्वालियर के भट्टारकों का उल्लेख कविवर रधू के ग्रंथों, मुर्तियों और पट्टावलियों में प्राप्त होता है। उनसे प्रतीत होता है कि इस शाखा का प्रारम्भ माधव सेन से हुआ। भट्टारक माधव सेन के दो शिष्य थे। उद्धरसेन और विजयसेन। उद्धरसेन की शिष्य परम्परा में देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रर्कीित, गुणर्कीित, मलयर्कीित, गुणभद्र और गुणचन्द्र भट्टारक हुए। भट्टारक गुणचन्द्र के शिष्य ब्रह्ममण्डल ने संवत् १५७६ में सोनपत में इब्राहिम लोदी के शासनकाल में स्तोत्रादि का एक गुटका लिखा था। उसकी प्रशस्ति में अपने गुरुओं की पट्टावली का उल्लेख इस प्रकार किया है
स्वस्तिश्री विक्रमांक संवत्सार १५७६ जेठ वदि पडिवा शुक्र दिने कुरूजांगले सुवर्णपथनाम्नि सुदुर्गे सिकंदरसाहि तत्पुत्र सुल्तान इब्राहिम राज्य प्रवर्तने काष्ठासंघ माथुरगच्छे पुष्कर गणे आचार्य श्री माहवसेनदेवा: तत्पट्टे भगवान भावसेन देवा: तत्पट्टे य सहस्रकीर्ति देवा: तत्पट्टे भ: गुणकीर्तिदेवा: तत्पट्टे, भगवान यशकीर्तिदेवा: तत्पट्टे भगवान मलयर्कीितदेवा तत्पट्टे भगवान श्री गुणभद्रदेवा: तत्पट्टे भगवान श्री गुणचन्द्र तच्छिष्य ब्रहमांडय।
एषां गुरुणामाम्नायें—
इसी प्रकार माधवसेन के दूसरे शिष्य विजयसेन से दूसरी परम्परा प्रारम्भ हुई। इस परम्परा में इविजयसेन, नयनसेन, श्रेयांससेन, अनन्तसेनकीर्ति, कलमकीर्ति, क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, कमलकीर्ति हुए। कमलकीर्ति के दो शिष्य थे, शुभचन्द्र और कुमार सेन। शुभचन्द्र ने अपनी पीठ सोनागिरि में स्थापित की। इस शिष्य परम्परा में हेमचन्द्र, पद्मनंदि, यश:कीर्ति हुये। यश: कीर्ति के पट्ट शिष्य दो हुए, गुणचन्द्र और क्षेमकीर्ति। गुणचन्द्र के शिष्य सकलचन्द्र और उनके शिष्य महेन्द्रसेन हुए। यशकीर्ति की शिष्य परम्परा में क्षेमकीर्ति और त्रिभुवनकीर्ति हुए। इनका पट्टाभिषेक हिसार में हुआ। इनकी परम्परा में सहस्रकीर्ति, महीचन्द्र, देवेन्द्रकीर्ति, जगकीर्ति, ललितकीर्ति, राजेन्द्रकीर्ति और मनीन्द्रकीर्ति हुए। इन भट्टारकों का अपने समय में राजा और प्रजा दोनों पर ही अद्भुत प्रभाव था। इन्होंने अनेक मंदिरों और मुर्तियों की प्रतिष्ठा की। अनेक भट्टारकों ने स्वयं शास्त्र लिखे तथा दूसरे विद्वानों को प्रेरणा देकर शास्त्र लिखवाये। इनके द्वारा किये गये विशेष कार्यों का संक्षिप्त उल्लेख यहां किया जा रहा है।
१. विमलसेन— इनका समय १४ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। विक्रम संवत् १४१४ में इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक पद्मासन धातु चौबीसी जयपुर के पाटौदी मंदिर में विराजमान है। सं. १४२८ में प्रतिष्ठित आदिनाथ की एक मूर्ति दिल्ली के नया मंदिर में विद्यमान है।
२. धर्मसेन— इनका समय विक्रम सं. १५ वीं शताब्दी ठहरता है। इनके द्वारा प्रतिष्ठित पाश्र्वनाथ, अजितनाथ और वर्धमान तीर्थेंकरों की प्रतिमाएँ जैन मंदिर, हिसार में विराजमान हैं।
३.गुणकीर्ति— इनके तप और चारित्र का प्रभाव तोमरवंश के शासकों पर पड़ा और वे जैनधर्म की ओर आर्किषत हुए: ये अत्यन्त प्रभावशाली थे। राजा डूगरिंसह के शासनकाल में जैन र्मूितयों के उत्कीर्णन का जो महत्वपूर्ण कार्य हुआ उसका श्रेय इन्हीं भट्टारकों को जाता है।
४. यशकीर्ति— पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण, आदित्यरकथा और जिनरात्रिकथा इनकी मुख्य कृतियाँ हैं। इन्होंने महाकवि स्वयंभू के खण्डित और तीर्ण—शीर्ण हरिवंशपुराण का उद्धार ग्वालियर के पास पनिहार जिन चैत्यालय में बैठकर किया था।
५. गुणभद्र— ये प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने लोगों के आग्र से १५ कथाओं की रचना की थी।
६. भानुकीर्ति— इनकी लिखी हुई रविव्रत कथा प्राप्त होती है।
७. कमलकीर्ति— इनके समय में कविवर रइधू ने चन्द्रवाड़ में भगवान चन्द्रप्रभु की र्मूित की प्रतिष्ठा की। उपरोक्त भट्टारकों का जैनधर्म को ग्वालियर में बनाये रखने के लिये एक महत्वपूर्ण योगदान रहा।