एक सेठ जी सुबह अपनी चौकी पर बैठे दातून कर रहे थे। इधर से घोड़ी पर बैठे ठाकुर साहब आए। जान न पहचान पर सेठजी ने ‘जयश्री हुक्म खम्मा घणी’ का अभिवादन कर दिया। ठाकुर घोड़ी से नीचे उतर कर पास आए और मधुर स्वर में कहा—सेठां ! ई घोड़ी ने कठे बांधा ? यानी कि घोड़ी को भी दाना पानी आप खिलाने वाले है और मुझे भी कलेवा करायेंगे’ ही। मूंजी सेठ ने अपनी भूल तत्काल सुधारते हुए कहा—हुजूर ! यह मेरी जीभ के बांधिस। ठाकुर ने कहा—सेठ साहब ! घोड़ी तो खूंटे से बांधी जायेगी। सेठ ने कहा—जबान चल गई सो आप घोड़ी इसी के ऐसी बाँधों कि आइंदा यह चलना छोड़ दे। ठाकुर ने देखा—यहाँ दाल गलने वाली नहीं लगती। वापस घोड़ी पर बैठे और अपनी राह चले। इस कथा से ही यह कहावत चली कि—घोड़ी कठे बांधू—जीभ रे।
गूढ़ार्थ में कहे हुए भाव साधारण नर नारियों की समझ में नहीं आते। इस पर एक कहानी है। दो बहिनें एक शहर की दो कालोनियों में रहती थी। एक बहिन ने अपनी नौकरानी के साथ भगोना भरी खीर और चूरमे के सोलह लड्डू भेजे। साथ ही संदेश भी भेजा और ताकीद की —यह संदेश मेरी बहन को देना। वो जो कहे वो संदेश वापस मुझे बताना, भूलना नहीं। नौकरानी ने ग्यारह लड्डू और अच्छी खासी खीर अपने घर रख ली और बहिन के यहाँ संदेशा दिया—
घटा टोप रात बाई, अंधियारी छाई है।
सोलवीं कला ती, थारे द्वारे आई है।।
बहिन ने माल पाकर वापस संदेश दिया
चाँदनी चट रात बाई, तारा कोई कोई है।
पांचमी कला तांई, म्हारे द्वारे आई है।।
यानी तूने तो सोलह भेजे होंगे पर मेरे पास पांच लड्डू पहुँचे हैं। तथा खीर भी अमावस की तरह घटा टोप नहीं आई। चावल के दानें रूपी तारे भगोनी के तल पर नजर आ रहे हैं। खीर थोड़ी पहुँची है।
भेजने वाली ने दासी को आड़े हाथ लिया कि उसने ग्यारह लड्डू और इतनी खीर चट कैसे कर ली ?
पंडित प्यारेलाल जी भांग पीते थे। बालक जीवराज को यह पसंद नहीं था। वह रोज टोकाटोकी करता रहता था। पंडितजी ने उसे थोड़ी थोड़ी रोज चखा कर भांग अभ्यस्त कर दिया। एक दिन यथासमय जीवराज समय पर पंडित के घर पहुँचा तो दरवाजा बंद था। उसने दरवाजा खटखटाया तो भीतर से आवाज आई—
कौन है भाई ?
उसने कहा—
पंडित दरवाजा खोलो। मैं हूँ जीवो।
पंडितजी ने जवाब दिया—घरे घोटो ने घरे पीवो।
आदत को डालना सरल है पर उससे उबरना बहुत मुश्किल है। जीवा भांग का कब अभ्यस्त हो गया उसे स्वयं पता ही नहीं चला।
एक सेठ जी को इस बात कीचिंता खाए जा रही थी कि छह पीढ़ी तक तो अगर सभी अनकमाऊ निकलेंगे तो भी उनकी गुजर बसर हो जायेगी पर सातवीं पीढ़ी अगर निकम्मी निकलेगी तो उसका क्या होगा ?
सेठानी जी ने एक सुबह उनसे कहा कि बगीची वाले बाबाजी को भोजन करने का निमंत्रण देकर आओ। वे गए तो जवाब मिला—भोजन का आमंत्रण आ चुका। घर आए तो सेठानी ने वापस भेजा कि शाम के लिए कह कर आओ। बाबाजी ने जवाब दिया—भोजन एक टाईम ही करता हूँ।
सेठ वापस आए और संदेश दिया। सेठानी ने कहा—वापस जाओ, कहो कि कल मेरे यहाँ पधारना है। वापस गए तो बाबा बोले बच्चा ! कल की कल देखी जाएगी। सेठ वापस आकर बोले तो सेठानी ने कहा—अब आप के समझ में क्या बात आई ? सेठ ने कहा—कल जाऊंगा और फिर कहूँगा। सेठानी ने कहा—मैंने आपको जो बात समझाने के लिए इतनी दौड़ धूप करवाई वह यह है कि जब बाबाजी सुबह मिल गया तो शाम कीचिंता नहीं करते और आज भोजन मिला तो कल कीचिंता नहीं करते तो आप सात पीढ़ी कीचिंता क्यों कर रहे हैं ?
क्या यह कथा हमें व्यर्थ कीचिंता से बचने की सटीक शिक्षा नहीं दे रही है ?