वर्तमान में विभक्ति लगाकर ‘चत्तारिमंगल पाठ’-नया पाठ पढ़ा जा रहा है। जो कि विचारणीय है। यह पाठ सन् १९७४ के बाद में अपनी दिगम्बर जैन परम्परा में आया है।
देखें प्रमाण-
‘ज्ञानार्णव’ जैसे प्राचीन ग्रंथ में बिना विभक्ति का प्राचीन पाठ ही है। यह विक्रम सम्वत् १९६३ से लेकर कई संस्करणों में वि.सं. २०५४ तक में प्रकाशित है। पृ. ३०९ पर यही प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठातिलक जो कि वीर सं. २४५१ में सोलापुर से प्रकाशित है, उसमें पृष्ठ ४० पर यही प्राचीन पाठ है। आचार्य श्री वसुविंदु-अपरनाम जयसेनाचार्य द्वारा रचित ‘प्रतिष्ठापाठ’ जो कि वीर सं. २४५२ में प्रकाशित है। उसमें पृ. ८१ पर प्राचीन पाठ ही है।
हस्तलिखित ‘श्री वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ संग्रह’ में भी प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठासारोद्धार जो कि वीर सं. २४४३ में छपा है, उसमें भी यही पाठ है। ‘क्रियाकलाप’ जो कि वीर सं. २४६२ में छपा है, उसमें भी तथा जो ‘सामायिकभाष्य’ श्री प्रभाचंद्राचार्य द्वारा ‘देववंदना’ की संस्कृत टीका है, उसमें भी अरहंत मंगलं-अरहंत लोगुत्तमा, अरहंत सरणं पव्वज्जामि, यही पाठ है पुन: यह संशोधित पाठ क्यों पढ़ा जाता है। क्या ये पूर्व के आचार्य व्याकरण के ज्ञाता नहीं थे ? इन आचार्यों की कृति में परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन कहाँ तक उचित है ?
मैंने पं. सुमेरचंद्र दिवाकर, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रो. मोतीलाल कोठारी, फलटन आदि अनेक विद्वानों से चर्चा की थी। ये विद्वान भी प्राचीन पाठ के समर्थक थे। एक बार पं. पन्नालाल जी सोनी ब्यावर वालों ने कहा था कि जितने भी प्राचीन यंत्र हैं व प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ हैं सभी में बिना विभक्ति का प्राचीन पाठ ही मिला है अत: ये ही प्रमाणीक हैं।
यह विभक्ति सहित अर्वाचीन पाठ श्वेताम्बर परम्परा से आया है ऐसा पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने कहा था। जो भी हो, हमें और आपको प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिए। सभी पुस्तकों में प्राचीन पाठ ही छपाना चाहिए व मानना चाहिए। नया परिवद्र्धित पाठ नहीं पढ़ना चाहिए।
करोम्यहम्-कई एक मुनियों की ‘श्रमणचर्या’, ‘विमलभक्ति संग्रह’ आदि पुस्तकों में प्रतिज्ञावाक्य में ‘कुर्वेऽहम्’ पाठ छपा हुआ है। यह पाठ कब और क्यों परिवर्तित हुआ ? चिंतन का विषय है।
इन सभी ग्रंथों में तथा क्रियाकलाप ग्रंथ जो कि वी. सं. २४६२ में छपा है उसमें सर्वत्र ‘करोमि’ ‘करोम्यहम्’ यही पाठ है। सामायिकभाष्य जो कि ‘देववंदना’ की संस्कृत टीका है, उसमें भी सर्वत्र ‘करोम्यहम्’ यही पाठ है। क्या ये आचार्य संस्कृत व्याकरण के ज्ञाता नहीं थे ? ये तो व्याकरण, छंद, अलंकार व जैन आगम के महान् से भी महान् ज्ञाता थे। उनकी कृतियों में परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन कथमपि उचित नहीं है।
एक विद्वान से चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा-
माताजी! ‘करोमि’ क्रिया ‘परस्मैपदी’ है ये पर के लिए है। हमें स्वयं के लिए ‘आत्मनेपदी’ क्रिया का प्रयोग करना चाहिए। तो भव्यात्माओं ? चिंतन करें। ‘‘अहं गच्छामि, अहं अद्मि, अहं पश्यामि, अहं जानामि, अहं करोमि।’’ ये सब परस्मैपदी क्रियाएँ हैं। क्या ये ‘मैं जाता हूँ, मैं खाता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं जानता हूँ, मैं करता हूँ।’’ इस प्रकार मेरे लिए नहीं होगी ?
पर के जाने, खाने, देखने, जानने व करने के लिए होंगी? यह एक हास्यास्पद ही कथन है। अत: यह संशोधन तर्क संगत भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि-‘करोम्यहम्’ के स्थान में ‘कुर्वेऽहम्’ पाठ आगम से व तर्क से भी संगत नहीं है। पूर्व के टीकाकारों, आचार्यों ने कहीं पर भी आचार्यों की कृति में परिवर्तन नहीं किया है। अत: हमें और आपको भी मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावक व श्राविकाओं की इन क्रियाओं के किसी भी पद या वाक्य में परिवर्तन, परिवर्धन या संशोधन नहीं करना चाहिए।
इसे हम ऐसा भी नहीं कह सकते हैं कि-हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथों की प्रतिलिपि करते समय लेखक से कहीं भूल हो गई होगी। चूँकि मूल श्लोकों में व टीका की पंक्तियों में सर्वत्र जो पाठ पाया जा रहा है, वही हमारे व आपके लिए प्रमाण है।
अत: हमें व आपको सर्वत्र भक्तिपाठ की क्रिया के प्रारंभ में व देववंदना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में ‘करोम्यहम्’ पाठ ही पढ़ना चाहिए।
यहाँ पर मैंने कृतिकर्म विधि के शास्त्रीय प्रमाण, कृतिकर्म की प्रयोग विधि आदि देकर चत्तारिमंगल का प्राचीन पाठ एवं संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘‘करोम्यहं’’ क्रिया के प्राचीन उद्धरण देकर यह बताया कि हमें पूर्वाचार्यों की प्राचीन कृतियों में किसी तरह का पाठ परिवर्तन नहीं करना चाहिए। क्योंकि हम सब अल्पज्ञ हैं और अपनी अल्पबुद्धि को मात्र स्वाध्याय-अध्ययन में ही लगाकर उसे वृद्धिंगत करने का पुरुषार्थ करें यही मानव जीवन की सार्थकता है।