म.प्र के अशोकनगर जिले मेंस्थित चन्देरी जैन कला के प्रयोग तो महत्त्वपूर्ण है ही यहाँ पर स्थित पाषाण यंत्र भी अनूठे हैं। सम्पूर्ण देश के जैन मन्दिरों में वेदिकाओं पर जिन प्रतिमाओं के साथ धातु यंत्र भी विराजमान हैं किन्तु यहाँ पर १२ – १३वीं श.ई में निर्मित विशालकाय पाषाण यंत्र विराजमान है। इनका विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत आलेख में लक्ष्य है।
मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले में स्थित चन्देरी अपने बहुआयामी कलाभिधानों के लिए विख्यात रहा है। प्राचीनकाल से ही चन्देरी को केन्द्र बनाकर उसके आसपास के स्थलों में कला स्थापत्य की परम्परागत अभिव्यक्ति के साथ-साथ नवीन प्रयोगों का प्रकटीकरण हुआ है। चाहे वह कला व स्पापत्य किसी भी धार्मिक विचाराधारा से प्रेरित रही हो। इस परिप्रेक्ष्य में चन्देरी एवं उसके आसपास के स्थलों पर जैन धर्म सम्बन्धित कला में स्वरूपगत प्रतिमा वैज्ञानिक अवयवों की परम्परागत शास्त्रीय अभिव्यक्ति के साहचर्य में नवीन व अपारम्परिक तत्त्वों के समावेश की संघटना की भी अभिव्यंजना प्रकट होती है। इसकी प्रस्तुति तीर्थंकर ऋषभनाथ की परम्परागत पहचान कंधे पर लटकती केश-वल्लिरियों के सिवाय अन्य जिनों के कंधों भी केश-वल्लरियों का प्रदर्शन (देवगढ़,बूढ़ी चन्देरी ), तीर्थंकर मल्लिनाथ की श्वेताम्बर परम्परानुकूल प्रतिमा (थूबोन) तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के जीवन्तस्वामी स्वरूप का विलक्षण प्रयोग (गोलाकोट एवं गूड़र), बूढ़ी चन्देरी स्थित सवैतो भद्र जिनालय के प्रवेश-द्वार के उत्तरंग पर सोलह स्वप्नों का प्रभावी अंकन, द्वितीर्थीका एवं त्रितीर्थी का स्वरूप में विविधता व प्रचुरता (बूढ़ी चन्देरी, देवगढ़), जिन के चरण-पादुका पर योगिक लक्षणों का अनुपम निरूपण (बूढ़ी चन्देरी ), जिनों के विशालकाय अंकन आदि निर्माण / परिष्कारों में स्पष्टता दृष्टिगोचर है।
ये सारे विलक्षण कलातत्त्व चन्देरी और उसे आसपास के क्षेत्र को काल-परिष्कार की एक प्रयोगशाला के रूप में स्थापित करते हैं, जिनका वेंद निश्चित ही चन्देरी रहा था। हाल ही में लेखक द्वारा श्री १००८ पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन स्वर्ण मंदिर, पुरानी सहेली, सराफाबाजार, लश्कर (ग्वालियर) में संगृहीत हस्तलिखित पोथियों के अभिलेखीकरण एवं अध्ययन के दौरान चन्देरी का एक और नवीन पहलू सामने आया है कि चन्देरी दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रन्थों के पोथा-लेखन एवं प्रतिलिपिकरण में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। इस मंदिर में संरक्षित बहुत-सी पोथियों की पुष्पिका में उनके लेखकों के रूप में पंडित रामनाथ शर्मा, श्री भगवानदास मिश्र, पंडित कल्याण पांडे, श्री हीरानाथ, पंडित रामदीन चौबे आदि ब्राह्मण मतावलम्बियों के नामोल्लेख है, जिन्होंने अपने-आप को मूलरूपेण चन्देरी का निवासी बताया है । इन लेखकों ने जैनग्रन्थों के प्रतिलिपिकरण या लेखन में अभूतपूर्व योगदान दिया था। इनमें से पंडित रामनाथ शर्मा ने इंदौर (मध्यप्रदेश) के उदासीन आश्रम में रहकर अनेक पोथियों जैसे-सिद्धचक्र विधान (ज्येष्ठ वदि ७, वि.स. १९९६ ), प्रबोध श्रावकाचार (आषाढ़ वदि ३०, वि.सं.१९९६) आदि लिखी, जो उपरोक् त मंदिर में सुरक्षित हैं। इसी प्रकार श्री भगवानदास मिश्र (अष्टपाहुड सं.१९०१, पुरुषार्थ सिद्धियुपाय सं.१९०१), पंडित कल्यान पांडे (समयसार नाटक सं. १७०३), श्री हीरानाथ (आदिजिन रास) व पंडित रामदीन चौबे (तत्वार्थ बोध सं. १९८७, सिद्धान्तसार सं.१९८८) ने लश्कर के तेरापंथी, पुरानी सहेली (स्वर्ण मंदिर) में कई पोथियों का सृजन किया।इस मंदिर में संरक्षित कुछ पोथियाँ ऐसी भी हैं, जिनका प्रतिलिपिकरण एवं लेखन चन्देरी में हुआ था और वे वर्तमान में उक्त मंदिर में सुरक्षित हैं।
हाल ही में श्री विनाश कुमार जैन, चन्देरी (शोध छात्र) द्वारा प्रदत्त सूचना एवं छायाचित्रों के आधार पर चन्देरी का प्रमुखत: जैन कला के रूप में एक नया आयाम उद्घाटित हुआ है। वह है-जैन यंत्रों का पाषाणखण्ड़ों पर प्रस्तुतिकरण। सामान्यत: दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में यन्त्रों का प्रचलन धातुपट्टों (तांबा एवं कांसा) पर देखने को मिलता है और इसके उदाहरण संपूर्ण भारतवर्ष के जैन मंदिरों में प्रचुरता से उपलब्ध हैं, किन्तु पाषाणखण्डों को यन्त्र आकार देकर उस पर मंत्रलेखों का अंकन अन्यत्र किंचित ही देखने को मिला है। इन पाषाणखण्डो को आश् चर्यजनक रूप से धातुपट्टों के समान ही आकार-प्रकार दिया गया है और जलाभिषेक के दौरान जल के निकास की सुविधा हेतु निकास भी दिया गया है। ये आकार-प्रकार में इतने बड़े हैं कि इन्हें आसानी से मानव बल के द्वारा उठाया भी नहीं जा सकता है। यन्त्र जिनों एवं शासनदेवाताओं के उपरान्त या किंचित शासनदेवताओं से पहले जैन परम्परा में परम पूजनीय स्थान रखते हैं, जिनका जिनों के समान पूजन-प्रक्षाल-अभिषेक होता है और वे अत्यन्त प्रभावकारी होते हैं। यन्त्रों का सीधा सम्बन्ध मांत्रिक एवं अंकीय अभिगणना से है। जैन धर्म में विभिन्न प्रकार की मांत्रिक क्रियाओं के फलस्वरूप यन्त्रों की स्थापना का प्रावधान है और तद्नुसार ये यन्त्र भी विभिन्न प्रकार के उपलब्ध हैं। सामान्यत: इन यन्त्रों पर मन्त्र या अंक अथवा दोनों का प्रावधान मिलता है। महत्त्वपूर्ण रूप से अधिकांश उदाहरणों में इन पर ऐतिहासिक अभिलेख भी उत्कीर्ण मिलते हैं, जिनमें इनकी स्थापना-तिथि, प्रतिष्ठाकारक श्रावक एवं उसके परिवाजनों का विवरण, भट्टारक परम्परा, सम्बन्धित नगर एवं ग्रामों का नामोल्लेख आदि जानकारियों सन्निहित होती हैं। लेखक को अपने विविध अध्ययनों के दौरान इन यंत्रलेखों से विभिन्न भट्टारक परम्परा के भट्टारकों के काल निर्धारण मे महती सहायता मिली हैं। चन्देरी से पाषाणखण्डों निर्मित तीन यन्त्र ज्ञात हैं, जो वहाँ स्थित भी १००८ पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन छोटा मन्दिर में विराजमान हैं। वस्तुत: धातुपट्ट पर उत्कीर्ण यन्त्र आकर में बहुत छोटे हैं, किन्तु पाषण से निर्मित ये यन्त्र बहुत बड़े हैं। पाषाण पर निर्मित इन यन्त्रों पर मन्त्र आकार में एवं ऐतिहासिक लेखों का अंकन हुआ है। इनका विवरण निम्नलिखित है-
इस यन्त्रपट्ट के मध्य में आठ पत्तियों से युक्त एक पुष्प का अंकन है। इस पुष्प के मध्य वृत्त में तीन पक्तियों में ‘‘श्री सम्यक दर्शनाय नम’’ अंकित है। वृत्त से जुड़ी ८ पंक्तियों में से प्रत्येक में ३ से ४ पंक्तियों में एक-एक मंत्रलेख उत्कीर्ण हैं
ॐ ह्रीं निशंकिताय नम:, ॐ ह्रीनिकाक्षिताय नम, -ॐ ह्रीं निर्विचित्किताय नम:,
ॐ ह्रीं अमूढ़दृष्टिताय नम:, ॐ ह्रीं उपगूहनाय नम:, ॐ सुस्थितीकरणाय नम:,
ॐ ह्रीं वात्सल्यताय नम:, ॐ ह्रीं प्रभावनोद्भवताय नम:।
इन मंत्रलेखों में सम्यग्दर्शन के आठ गुण-नि:शकित, नि:काक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टितत्व, उपगूहनत्व, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना को नमस्कार किया गया है। इस पुष्पीय वृत्त को गोलाकार तीन रेखाएँ घेरे हुए हैं, जिसका उद्गम एवं अन्त ह्रीं से होता है। यंत्र के चारों कोनों पर ‘‘लं’’ अंकित है और मध्य में पुष्प के दाँयी ओर ‘‘क्ष’’ तथा बाँयी ओर ‘‘क्रों’’ उत्कीर्ण है। इसके बाद बाहरी उठे हुए किनारों पर चारों ओर नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में ७ पक्तियों का ऐतिहासिक लेख अंकित है, जिसके अनुसार इस यंत्र की स्थापना नंमकंचुक अन्वय के साधु दावधान की पत्नी गायति से उत्पन्न पुत्र सतप्र व उसकी पत्नी सलाषण एवं अन्य परिवारजनो के द्वारा करवाई गई थी इस अभिलेख का पाठ निम्नांकित है-
१. ॐ ह्रीं स्रुद्ध…………..पादन्यस्याभि (मु) खी रूचि: व्य-
२. वहारण सम्य च निश्र्चयेन तथात्मन।।१।।
३. नंमकंचुकाअन्वे सार्धु दावधानस्य भार्या सहुणि
४. गायति सुत साधु सतप्र भा (र्या) सलाषण……..देवे हमे
५. रत्नत्रय प्रणम-
६. ति नित्यं सुभ भवत
७. यीक्षरणि धरदेव।सम्य………स्थिापितं।।
इस यंत्रपट्ट के मध्य में आठ पक्तियों से युक्त एक पुष्प का अंकन है। इस पुष्प के मध्य के गोल घेरे में ३ पक्तियों में ‘‘ॐ हृीं सम्यग्ज्ञानाय नम:’’ अंकित है। गोल घेरे से लगी ८ पक्तियों में से प्रत्येक ३ से ४ पक्तियों में एक-एक मंत्र उत्कीर्ण हैं, जो बुंरी तरह घिस चुके हैं और उनका निश्चित पाठ कर पाना आसान नहीं है। इन मंत्रों में से कुछ का संभावित पाठ है-
ॐ हृीं विनयोन्मदि (त) महात्म्याय नम:, ॐ हृीं गुवद्यनप……. वसमधिताय नम:
ॐ हृीं …… पवानय…… य नम: ॐ हृी बहुमानस्यम……न नम:
ॐ ह्रीं…….. यनो …….तय नम:।
यंत्रपट्ट के चारो कोनों पर पूर्व यन्त्र के समान ही ‘‘ल’’ अंकित है और मध्य में पुष्प के दाँयी ओर ‘‘क्ष’’ तथा बाँयाी ओर ‘‘क्रों’’ उत्कीर्ण है। इसके बाद बाहरी उठे हुए किनारों पर नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में ३ पंक्तियों में मंत्र एवं तिथि व प्रतिष्ठाकर्ता का विवरण अंकित है। आरंभिक २ पक्तियों में मंत्रोल्लेख है और अंतिम पंक्ति में तिथि एवं किसी पंडित का नाम अंकित पंक्ति में तिथि एवं किसी पंडित का नाम अंकित है। इस लेख का पाठ निम्नलिखित है-
१. ॐ हृीं निर्विकल्यस्य सावेत्र्रि रमप्यि तप रपहा……..
२. निश्र्चयाद्र कं व्यवहारनंयात्परे:।।पंडित उर……….
३. संमत् १३२५ भद्रम सुदि १२ सोमे दि (नि) पंडित डर…….रिषित
३. महाव्रत यंत्रपट्ट-तिथिविहीन इस यंत्रपट्ट के मध्य में एक वृत्त में ५ पांक्तियों में मंत्रलेख अंकित है, जो काफी मिट चुका है और उसका स्पष्ट पाठ कर पाना सरल नहीं है। इसका संभावित पाठ निम्नलिखित है-
‘‘ ॐ हृीं श्री…..सा महाव्रताय त्रया……. सम्यका…….. वा नम’’।
उसके उपरान्त वृत्त से जुड़े वृत्ताकार में दो सोपानों मतें क्रमश: ४ व ८ पत्तियाँ जुड़ी हैं और प्रत्येक पत्ती में २ से ३ पंक्तियाँ में मंत्रलेख उत्कीर्ण है, जो काफी अस्पष्ट हो चुके हैं। प्रथम सोपान की ४ पंक्तियों में अंकित लेख का संभावित पाठ निम्नलिखित है-
ॐ हृीं रिततृ महाव्रताय नम, ॐ ह्रीं श्री……… महाव्रताय नम,
ॐ श्री ब्राह्मचर्य महाव्रताय नत (म:), ॐ हृीं श्री………चत्य महाव्रताय नत (म:)।
द्वितीय सोपान की ८ पक्तियों में अंकित लेखों पाठ निम्नलिखित हैं-
ॐ ह्रीं मनो गुपतये नम: वय्यण गुपतये नम:, ॐ ह्रीं काय गुपतये नम:,
ॐ हृीं ईया समतिये नम: ॐ ह्रीं भाषा समितये नम, ॐ ह्रीं एषणा समितये नम:
ॐ ह्रीं श्री दारिनिषेपण (आदाननिक्षेपण) समि (तये नम), ॐ ह्रीं प्रतिष्ठा पना समितये नम:
इन मंत्रों त्रिगुप्तियों (मनो, वचन एवं काय) और पच्च समितियाँ (ईर्या, भाषा, एषणा, आदानानिक्षेपण व उत्सर्ग या प्रतिष्ठापना) को नमस्कार किया गया है। इसके बाद बाहरी उठे हुए किनारों पर नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में ३ पंक्तियों में मंत्र एवं प्रतिष्ठा कर्ता का विवरण अंकित है। इस लेख में साधु श्री जाग का ही नाम पठनीय है। इस लेख का पाठ निम्नलिखित है-
१. भव वृतसर्वे साधु श्री: जागस्य।व्रतिराल……स २. यमक …….छदा…..जरि पं……. १२वीं- १३वीं शती ई. के उपर्युक्त तीनो पाषाणनिर्मित यंत्रलेख अपने-आप में विशिष्ट हैं।
अभी तक लेखक को ग्वालियर-चम्बल संभाग के विविध स्थलों व मंदिरों और उज्जैन के नमक मण्डी क्षेत्र में स्थित दिगम्बर जैन मंदिर तथा जयसिंहपुरा संग्रहालय में संरक्षित कलावशेषों के सर्वेक्षण के दौरान उनमें विद्यमान यन्त्रों मे १४वीं शतीं ई. से पूर्व के एक भी यंत्र प्राप्त नहीं हुए हैं और जितने भी यन्त्र मिले हैं वे सभी धातु पर निर्मित हुए हैं। पाषाण पर निर्मित एक भी यन्त्र नहीं मिला है। इससे जैन धर्म में यन्त्र-निर्माण की परम्परा में एक अनुमान को बल मिल सकता है कि चन्देरी में विद्यमान उपर्युक्त पाषाणनिर्मित यन्त्रो को क्या यन्त्र-निर्माण की आरंभिक अवस्था के रूप में देखा जा सकता है? संभव है कि यंत्र निर्माण की आरंभिक अवस्था में यंत्रों का निर्माण पाषाणखण्ड़ों पर किया गया था और संभवत: चन्देरी से ज्ञात उपर्युक्त पाषाणनिर्मित यंत्र उसका उदाहरण हो सकते हैं। किन्तु बाद में अर्थांत १४ वी १५ वीं शती ई. में मूर्ति – निर्माण पर में धातु के भारी प्रयोग से यन्त्रो का निर्माण धातु से किया जाने लगा था यन्त्रों का निर्माणक पाषाण पर होने में कई समस्याओं में से सबसे बड़ी समस्या रहीं होगी कि उनके विशालकार एवं वजनी होने के कारण उनका रख – रखाव व उनका आवागमन शोध की आवश्यकता है ताकि जैन धर्म में यंत्र-निर्माण परम्परा का रहस्योद्घाटन हो सके। इस हेतु जैन साहित्यिक साक्ष्यों के भी विवेचनात्मक अध्ययन को सम्मिलित करना होगा।