‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ यह वाक्य श्री कुंदकुंददेव का है। उन्होंने धर्म को ही चारित्र कहा है। व्याकरण की निरुक्ति के अनुसार ‘‘यच्चरति तच्चारित्रं’’ जो आचरण किया जाय वह चारित्र है और धर्म की व्युत्पत्ति में ‘‘उत्तमे सुखे य: धरति स: धर्म:’’ जो उत्तम सुख में पहुंचाता है वह धर्म है।
श्री गौतमस्वामी ने भी पांच महाव्रत आदि रूप मुनियों के चारित्र को और पांच अणुव्रत आदि रूप गृहस्थों के चारित्र को धर्म संज्ञा दी है।२
श्रीकुन्दकुन्ददेव ने अन्यत्र अपने ‘‘चारित्रपाहुड़’’ नामक ग्रन्थ में व्यवहारचारित्र की अपेक्षा रखते हुये हम व्यवहारी लोगों के लिये बहुत ही सुंदर विवेचन किया है-
‘‘जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित चारित्र के दो भेद हैं – सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण । मिथ्यात्व को छोड़कर नि:शंकित आदि आठ अंगरूप सम्यक्त्व धारण करना-श्रद्धा को समीचीन बनाना यही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। संयमाचरण के भी दो भेद हैं-सागारचारित्र और अनगारचारित्र। यह सागारचारित्र अथवा सागारधर्म गृहस्थोें-श्रावकों के लिये माना गया है और अनगार धर्म मुनियों के ही होता है।
इस श्रावकधर्म के दर्शन,व्रत,सामायिक आदि की अपेक्षा से ग्यारह भेद हो जाते हैं जो कि ग्यारह प्रतिमा रूप से प्रसिद्ध हैं तथा सामान्यतया गृहस्थाश्रम में बारह व्रतों का विधान है।
पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप इन बारह व्रतों में पांच अणुव्रत प्रधान हैं-ंत्रसहिंसा का त्याग करना अहिंसा अणुव्रत है, स्थूल झूठ नहीं बोलना सत्य अणुव्रत है, बिना दिये अन्य की वस्तु ग्रहण नहीं करना अचौर्य अणुव्रत है, परस्त्री का त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है और परिग्रह का परिमाण कर लेना परिग्रह परिमाण नाम का पांचवां अणुव्रत है।
जिस गृहस्थ ने अपने जीवन में इन व्रतों को अपनाया है वह परलोक में नरक, तिर्यंच और मनुष्यगति में न जाकर नियम से देवगति को ही प्राप्त करता है, आगे परंपरा से मोक्ष को भी प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है।
इन व्रतों का फल आगे भविष्य में ही मिले ऐसी बात नहीं है बल्कि इन व्रतों के निमित्त से वह मनुष्य इस लोक में भी अपने गृहस्थाश्रम को स्वर्ग तुल्य बना लेता है। हिंसा,झूठ, चोरी, व्यभिचार और अतिसंग्रहरूप पांच पापों के छूट जाने से उसे मानसिक शांति विशेष तो मिलती ही है। साथ ही साथ वह सभी लोगोें का विश्वासपात्र और प्रेमभाजन भी बन जाता है क्योंकि हिंसा आदि पापों से लिप्त मनुष्यों को लोग क्रूर, निर्दयी, झूठा, दगाबाज, विश्वासघाती, चारित्रभ्रष्ट, नीच, दुराचारी, कंजूस, लोभी आदि अप्रशस्त वचनों से जानते हैं तथा हिंसा आदि पापों के त्यागी को दयालु, सदाचारी, सत्यव्रता, निर्लोभी, दानी, महापुरुष आदि संज्ञायें मिलती हैं।
अणुव्रती श्रावक नीतिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले होते हैं अत: उनके जीवन में नैतिकता बनी रहती है।
इस अहिंसाव्रत के पालन की भूमिका में सर्वप्रथम आचार्यों ने मद्य, मधु और बड़,पीपल,पाकर, गूलर, कठूमर इन आठ चीजों का त्याग कराया है।
समयसार , प्रवचनसार आदि महान् ग्रंथों के टीकाकार श्रीअमृतचन्द्रसूरि ने तो यहाँ तक कह दिया है कि-
अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवज्र्य।
जिनधर्मदेशनाया भवंति पात्राणि शुद्धधिय:१।।७४।।
अनिष्ट, दुस्तर और पाप के स्थान ऐसे इन आठों के त्याग करने वाले शुद्धबुद्धि श्रावक ही जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को सुनने के पात्र होते हैं।
यही कारण है कि आचार्यों ने भिल्ल, चांडाल आदि हिंसक, मांसाहारी लोगों को सर्वप्रथम मद्य, मांस, मधु के त्याग का उपदेश दिया है। उदाहरण के लिये देखिये-विंध्याचल निवासी एक खदिरसार नाम का भील किसी दिन समाधिगुप्त नाम के मुनिराज को देखकर भक्ति से उन्हें प्रणाम करता है। मुनिराज आशीर्वाद देते हैं ‘धर्मलाभोऽस्तु तेऽद्य’ आज तुझे धर्मलाभ हो । वह पूछता है प्रभो! धर्म क्या है ? और उससे लाभ क्या है ? मुनिराज कहते हैं-मद्य,मांस,मधु आदि का सेवन पाप का कारण है और इनको छोड़ देना धर्म है। उस धर्म की प्राप्ति होना धर्मलाभ है। उस धर्म से पुण्य होता है और पुण्य से स्वर्ग में परमसुख की प्राप्ति होती है२।यह सुनकर भील कहता है मैं ऐसे धर्म को ग्रहण नहीं कर सकता, तब मुनिराज कहते हैं-हे भव्य! क्या तूने कभी कौवे का मांस खाया है ? भील सोचकर कहता है-नहीं खाया है। तब मुनि कहते हैं-हे भद्र! तो तुम उसी का त्याग कर दो उतने मात्र के त्याग से भी तुम्हें लाभ होगा। वह कौवे का मांस त्याग कर देता है।
किसी समय उस भील को असाध्य रोग हो जाता है तब कोई वैद्य उसे कौवे का मांस खाना बतलाते हैं। वह भील मरना मंजूर कर लेता है किन्तु व्रत भंग करना मंजूर नहीं करता है। तब उसे समझाने के लिये ‘सारसौख्य’ नामक उसका साला बुलाया जाता है। वह आते हुये मार्ग में वन के मध्य एक स्त्री को रोती देखकर कारण पूछता है। तब वह महिला कहती है-भद्र ! मैं इस वन की यक्षी हूँ आज तेरा बहनोई मरकर मेरा पति होने वाला है। यदि तू जाकर उसे कौवे का मांस खिला देगा तो वह मरकर नरक में चला जायेगा इसीलिये मैं रो रही हूँ । सारसौख्य उसकी बात को सुनकर उसे आश्वासन देता है और जाकर अपने बहनोई खदिरसार की परीक्षा हेतु कौवे के मांस के लिये समझाता है। खदिरसार के नहीं मानने पर वह रास्ते की घटना सुना देता है तब वह खदिरसार सोचने लगता है-
‘‘अहो! मैंने मात्र कौवे का मांस छोड़ा है तो यक्ष योनि में जन्म ले सकता हूँ, यदि भला सभी मांसों का त्याग कर दूं तो कितने उत्तम सुखों का भोक्ता बनूंगा फलस्वरूप वह संपूर्ण मांस का त्याग करके पांच अणुव्रत ग्रहण कर लेता है और मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो जाता है, पुन: वापस आते हुये सारसौख्य उसी स्थान पर उस महिला से पूछता है तब वह कहती है कि तुमने जाकर उसे संपूर्र्ण मांस का त्यागी बना दिया अत: वह अब भी मेरा पति न होकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया है। वही देव वहाँ की आयु पूर्ण कर आकर यहाँ राजा श्रेणिक हुआ है। जो कि आगे ‘महापद्म’ तीर्थंकर होने वाला है।
यहाँ कहने का अभिप्राय यह था कि जैनाचार्य सर्वप्रथम इन मद्य, मांसादि का ही त्याग कराते हैं और उसे ही ‘धर्मलाभ’ कहते हैं। मधु,मांस आदि का त्यागी मनुष्य ही सदाचारी कहलाता है और तभी वह आगे जिनेन्द्रदेव की देशना का पात्र बनता है।
आज पाश्चात्त्य सभ्यता से प्रभावित लोगों की संगति से कुछ उच्चकुलीन नवयुवक शराब ,अंडे आदि का प्रयोग करने लगे हैं। उनके जीवन में चारित्र एवं नैतिकता को स्थान वैâसे मिल सकता है ? वास्तव में वे अपनी आत्मा की ही वंचना कर रहे हैं-अपने आपको ही दुर्गति का पात्र बना रहे हैं। इस लोक में सज्जनों के द्वारा हीन दृष्टि से देखे जाते हैं, धन और शारीरिक स्वास्थ्य को बर्बाद करते हैं और अगले भव में दुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे लोगों के लिये आज के युग में ‘‘खदिरसार भील,मृगसेन धीवर,यशोधर महाराज आदि की कथाओं को आधुनिक रोचक शैली में लिखाकर प्रकाशित करना चाहिये, उन्हेें ऐसे-ऐसे उदाहरणों के माध्यम से पापकार्य से छुड़ाना चाहिये ।
जैनाचार्यों ने अनेकों भीलों को, चांडालों को, सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियों को भी मांसाहार आदि के त्याग कराये हैं, ऐसे प्रकरण जैन इतिहास में भरे हुये हैं। आज के युग में जैन इतिहास की कथाओं को नाटक, उपन्यास आदि रूप से छपाना चाहिये और भी जो वैज्ञानिक साधन हंैं उनके माध्यम से भी इन पौराणिक घटनाओं को जनता तक पहुंचाना चाहिये।
श्रीगौतमस्वामी भी कहते हैं-
‘‘महुमंसमज्जजूआवेसादिविवज्जणासीलो ।
पंचाणुव्वयजुत्तो सत्तेहिं सिक्खावयेहिं संपुण्णो।।’’
जो एदाइं वदाइं धरेइ साविया सावियाओ वा१…….’
मधु, मांस,मद्य,जुआ, वेश्यासेवन आदि का त्याग करने वाले, पांच अणुव्रत से युक्त और सात शील से परिपूर्ण श्रावक अथवा श्राविका नियम से उत्तम देवगति को प्राप्त करते हैं।
आजकल कुछ लोगों का कहना है कि हिंसा, झूठ,चोरी आदि छोड़ करके रात्रिभोजन त्याग करके अथवा दान, पूजन, स्वाध्याय आदि में समय यापन करके हम अपनी आजीविका नहीं चला सकते हैं। उनके लिये श्री गुणभद्रस्वामी कहते हैं-
धर्म: सुखस्य हेतुर्हेतुर्न विरोधक: स्वकार्यस्य।
तस्मात् सुखभंगभया माभूर्धर्मस्य विमुखस्त्वम्।।२०।।
यह धर्म सुख का कारण है और कभी भी अपने कार्य का विरोधी नहीं होता है इसलिये सुख नष्ट होने के भय से तुम धर्म से विमुख मत होेवो।
सुखितस्य दु:खितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्य:।
सुखितस्य तदभिवृद्ध्यै दु:खभुजस्तदुपद्याताय।।१८।।
आप चाहे सुखी हों चाहे दु:खी, इस संसार में आपको धर्म ही करना चाहिये। यदि आप सुखी हैं तो यह धर्म उस सुख की और वृद्धि करेगा और यदि आप दु:खी हैं तो यह धर्म उस दु:ख का नाश करेगा।
जो व्यक्ति जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार,चोरी और परस्त्री सेवन इन सात व्यसनों से अपने को दूर रखते हैं। परिग्रह का परिमाण कर लेते हैं अपनी निरंकुश वृत्ति पर नियंत्रण रखते हैं। प्रात:काल देवपूजा, गुरु उपासना करते हैं, स्वाध्याय करते हैं, न्यायपूर्वक धन का संग्रह करते हुये अर्थ पुरुषार्थ का सेवन करते हैं और अभक्ष्य भक्षण, मांसाहारी की संगति आदि से बचते हुये स्वस्त्री में ही संतोष रखते हैं, वे धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का अबाधित रूप से सेवन करते हुये कालांतर में मनुष्य भव के फलस्वरूप मोक्ष पुरुषार्थ को भी प्राप्त कर लेते हैं। समाज में उन्हीं का नैतिक स्तर ऊँचा माना जाता है। वे ही समाज में लोगों के लिये भी कुछ दिशानिर्देश कर सकते हैं, धर्म के नेता बन सकते हैं। जैनधर्म की दृष्टि में उन्हीं का जीवन स्व-पर के हित के लिये होता है। इनसे अतिरिक्त लोगों का जीवन स्व और पर दोनों की वंचना करने वाला ही होता है।