एकान्तवादी ज्ञान की महिमा कहते हुए उसे ही मोक्षदायक मानते हैं। इस संबंध में स्पष्टीकरण आवश्यक है।मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक््âचारित्र है। अकेला सम्यग्ज्ञान मोक्षसाधक नहीं है। यह सत्य है कि ज्ञान का मोक्षमार्ग में महत्वपूर्ण स्थान है, किन्तु बिना सम्यव्âचारित्र के वह ज्ञान निर्वाण नहीं प्रदान करता। वे विचारते हैं— ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन, इह परमामृत जन्म जरा मृत्यु रोग निवारन।। जे पूरब शिव गए और अब आगे जे हैं, सो सब महिमा ज्ञान तनी मुनिनाथ कहे हैं।। कोटि जन्म तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरे जे, ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्तितें सहज टरें ते।। अत: केवल चारित्र का कोई महत्व नहीं है। केवली भगवान के परिपूर्ण केवलज्ञान है, पूर्ण सम्यक्त्व है फिर भी वे बहुत काल तक मुक्त न हो पुण्य विहार करते हुए दिव्यध्वनि द्वारा जगत का कल्याण करते हैं। मोहनीय का क्षय हो जाने से केवली में वीतरागता तथा विज्ञानता का संगम होते हुए भी तत्काल मोक्ष नहीं होता अत: वीतरागता विज्ञानता मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है। मोक्ष का साक्षात् कारण सम्यक्चारित्र है। व्युपरतक्रियानिवृत्ति रूप शुक्लध्यान द्वारा अयोग केवली पंच लघु अक्षर के उच्चारण प्रमाण काल में मोक्ष चले जाते हैं। ध्यान चारित्र के अन्तर्गत अन्तरंग तप का भेद है। एक बार आचार्य श्री शांतिसागर महाराज से मैंने पूछा था, ‘‘महाराज ! मोक्ष का कारण क्या है’’? उन्होंने कहा था, ‘सम्यक््âचारित्र है।’ मैंने कहा, आपका कथन बड़ा अपूर्व है। सम्यक्चारित्र कहकर आपने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का भी समावेश कर लिया, कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यक्चारित्र नहीं होता है। राजवार्तिक में लिखा है—
उत्तर चारित्र लाभे तु नियत: पूर्वलाभ:—
उत्तर चारित्र लाभे तु नियत: सम्यग्दर्शन ज्ञानलाभ:
(अ.१ सूत्र १ पृष्ठ १२)
पश्चात् वही चारित्र के होने पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान का लाभ होता ही है, इससे मोक्षमार्ग में सम्यक्चारित्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, यह अवधारण करना चाहिये। इस चारित्र की पात्रता मनुष्य पर्याय में है। पशु भी यथाशक्ति देशसंयम को प्राप्त करते हैं किन्तु देव पर्याय वाले व्रत नहीं पाल सकते। सौधर्म इन्द्र पंचकल्याणक भगवान के करता है। प्रभु को दीक्षा लेते समय उस सम्यक्त्वी सुरेन्द्र के मन में संयमी बनने की तीव्र लालसा पैदा होती है किन्तु उसका शरीर महाव्रत के लिए उपयुक्त नहीं है। द्यानतराय की वाणी मार्मिक है— तप चाहें सुरराय कर्म शिखर को वङ्का सम। द्वादश विधि सुखदाय क्यों न करै निज सकति सम।।
सम्यक्त्वी के बंध की मीमांसा
शंका—सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता है।
णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स’’।।समयसार।। १६६।।
उत्तर—यह कथन यथाख्यात चारित्र वाले महामुनियों को लक्ष्य करके कहा गया है। अज्ञानतावश इसे अविरत सम्यक्त्वी नाम के चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के साथ जोड़कर कहा जाता है कि उसके बंध नहीं होता। इस छक्खंडागम सुत्त का कथन स्मरण योग्य है।
सम्मादिट्ठी बन्धा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि।
अकसाई बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि।
केवलणाणी बंधा वि अत्थि अबंधादि अत्थि।।
(खुद्दाबंध सूत्र ३६, २०, २३)
सम्यग्दृष्टि के बंध के कारण जो मौजूद हैं, उनके द्वारा बंध होता है, बंध के जो हेतु नहीं हैं, उनकी अपेक्षा वह अबंधक भी है। अविरत सम्यक्त्वी के मिथ्यात्वनिमित्तक बंध नहीं है। अविरति, कषाय तथा योग का सद्भाव होने से उनके निमित्त से होने वाला बंध भी कहा गया है। अकषायी के योग होने से बंध कहा है। अकषाय होने से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय निमित्तजन्य बंध का अभाव है। केवली के तेरहवें गुणस्थान में योग का सम्भाव होने से बंध कहा है, अन्य कारणों के अभाव होने से अबंधक कहा है। परमागम में केवली भगवान के भी बंध सद्भाव माना है, तब चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्वी के बंध न होने का एकांत आग्रह आगमविरुद्ध है।
रत्नत्रय से बंध
जिनशासन का रहस्य समझने के लिए स्याद्वाद दृष्टि का आश्रय लेना आवश्यक है। जिस रत्नत्रय को मोक्ष का कारण माना गया, उस रत्नत्रय से बंध भी होता है, ऐसा आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में प्रतिपादन करते हैं।
दंसण—णाण चरित्ताणि मोक्खमग्गोत्ति सेविदव्वाणि।
साधूहि इदं भणिदं तेहि दु बंधो य मोक्खो य।।१६४।।
साधुओं के द्वारा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मोक्षमार्ग सेवनीय है। उनके द्वारा बंध भी होता है, मोक्ष भी होता है।
शंका—रत्नत्रय के द्वारा बंध होता है, यह आर्षवाक्य शिरोधार्य है किन्तु यह बंध किस अपेक्षा से कहा गया है, रत्नत्रय रूप आत्म परिणाम को बंध का कारण मानने की बात मन को ठेस पहुंचाती है। इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है।
समाधान—‘‘ शुद्धात्माश्रितानि सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्राणि मोक्षकारणानि भवंति, पराश्रितानि बंधकारणानि भवंति च। पंचपरमेष्ठ्यादि—प्रशस्त—द्रव्याश्रितानि साक्षात् पुण्यकारणानि भवंति (पंचास्तिकाय टीका २३७ पृष्ठ) शुद्धात्मा से सम्बन्धित सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र मोक्ष के कारण होते हैं। पराश्रित बंध के कारण होते हैं। पंचपरमेष्ठी आदि प्रशस्त द्रव्याश्रित रत्नत्रय साक्षात् पुण्य का कारण है। इस विवेचन से यह मान्यता अयोग्य प्रमाणित होती है कि अविरत सम्यक्त्वी के सर्वथा बंध नहीं होता अत: उसे मनचाहा आचरण करने में बाधा नहीं है। जब महाशास्त्र षट्खंडागम सूत्र में केवलज्ञानी के बन्ध का सद्भाव माना है तब चौथे गुणस्थान वाले को सर्वथा बन्धरहित मानने का एकान्त भयंकर भूल है। मोक्षपाहुड में कुन्दकुन्द ऋषि रत्नत्रय की निर्दोष पालना करने वाले वर्तमान काल के मुनीश्वर को देव आयु का बंधक कहते हैं—
अज्जवितिरयण सुद्धा अप्पाझाए विलहदिइंदत्तं
लोयंतिय देवत्तं तत्थ चओ णिव्वुदिज्जंति।।७७।।
इस काल में भी शुद्ध रत्नत्रयधारी जीवात्मा का ध्यान करके इंद्रपद, लौकांतिक देव पद पाते हैं, पश्चात् वहां से चयकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।