सारांशभगवान आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक वर्तमान में जैनधर्म अविरलरूप से निर्विरोध गतिमान है। जैनधर्म में श्रमण और श्रावक ये दो मोक्षमार्ग के मुमुक्षु भव्यात्माएँ हैं। उपरोक्त दोनों आत्माएँ क्रम से अणुव्रत और महाव्रतों को धारण करके मोक्षमार्ग को प्रशस्त करती हैं। प्रमाद व अज्ञानवश इन व्रतों का पालन करने में अतिचार व अनाचारादि दोष लग जाते हैं तो जैनागम में दोषों का निराकरण करने के लिए प्रायश्चित विधान आया है। आलोचना, प्रत्याख्यान एवं प्रतिक्रमणादि सभी प्रायश्चित्त के ही भेद हैं। प्रायश्चित्त के माध्यम से आत्मा निर्विकल्प होकर संयम व समता से सिद्धत्व, जिनत्व को प्राप्त होती है। प्रस्तुत लेख में आगम के आलोक में र्विणत प्रायश्चित्त का स्वरूप, प्रायश्चित्त के भेद, प्रायश्चित्त क्यों? प्रायश्चित्त कब? प्रायश्चित्त कैसे? प्रायश्चित्त कहा? और प्रायश्चित्त किससे? लेना चाहिए आदि प्रसंगों पर प्रकाश डाला जायेगा।
प्रतिदिन प्रतिसमय लगने वाले अन्तरंग व बाह्य दोषों की, अपराधों की निवृत्ति करके अन्तर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चाताप या बहिरंग शुद्धि करने के लिए दण्ड के रूप में उपवासादि का ग्रहण प्रायश्चित्त कहलाता है, जो शास्त्रानुसार अनेक प्रकार का होता है।‘अपराधो वा प्राय: चित्तं शुद्धि: प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तं अपराध विशुद्धि:।’’प्राय: अर्थात् अपराध, चित्त अर्थात् शुद्धि, अपराध की शुद्धि जिससे हो वह प्रायश्चित्त कहलाता है। अनगार धर्मामृत में भी प्रायश्चित्त का रूवरूप इसी प्रकार से मिलता है। यथा—‘‘प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धि कृत्क्रिया। प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तनिन्नरूच्यते।।’’प्राय: शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है। जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं। धवलाकार आचार्य वीरसेन ने प्रायश्चित्त शब्द की निरूक्ति करते हुए कहते हैं कि प्राय: यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मन का है। इसलिए उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है। यथा—
‘‘प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत्।
तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्।।’’
प्राकृत भाषा में प्रायश्चित्त के लिए ‘पायच्छित्तं’ शब्द आया है।
‘पाय’ का अर्थ ‘पाप’ है। जो पाप छेदन करता है वह पायच्छित्त है।
यथा—‘पावं छिंददि पायचिछत्तं।
मूलाराधना में प्रायश्चित्त शब्द के अनेक पर्यायवाची नाम इस प्रकार मिलते हैं—
‘‘पोराणकम्मखमणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुमणं।
पुच्छणमुछिवणं छिदणं ति प्रायश्चित्तस्स णामादि।।’’
अर्थात् पुराने कर्मों का नाम क्षेपण निर्जरा, शोधन, धावन, पृच्छन (निराकरण), उत्क्षेपण, छेदन ये सब प्रायश्चित्त के नाम है।
मुख्यत: अन्तरंग और बहिरंग शुद्धि के भेद से प्रायश्चित्त के दो भेद कर सकते हैं। वैसे बाह्य दोषों का प्रायश्चित्त पश्चाताप मात्र से हो जाता है, पर अन्तरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष सरल मन से आलोचनापूर्वक होता है। नयों की अपेक्षा प्रायश्चित्त के दो भेद है—
निश्चय प्रायश्चित्त, व्यवहार प्रायश्चित्त।
‘‘अवद्ययोगाविरतिपरिणामो विनिश्चयात्।
प्रायश्चित्तं समुद्दिष्टमेतत्तु व्यवहारत:।।’’
निश्चयनय की अपेक्षा से संपूर्ण सावद्ययोग पाप कर्मों के संबंध से विरक्त परिणाम ही प्रायश्चित्त है और यहाँ जो दण्डस्वरूप प्रायश्चित्त कहा गया है वह सब व्यवहारनय की अपेक्षा से है। भावार्थ — निश्चयनय और व्यवहारनय ये दोनों नय अनादि संबंद्ध हैं और दोनों ही एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं तभी सुनय कहलाते हैं अन्यथा वे कुनय हैं। इसी तरह निश्चय प्रायश्चित्त और व्यवहार प्रायश्चित्त ये दोनों भी अनादि संबद्ध हैं और एक दूसरे की अपक्षा रखते हैं तभी प्राणियों के अपराधों को शुद्धकर सकते हैं अन्यथा नहीं। अत: व्यवहार प्रायश्चित्त के समय निश्चय प्रायश्चित्त और निश्चय प्रायश्चित्त के समय व्यवहार प्रायश्चित्त अवश्य होना चाहिए। पाप कर्मों से विरक्त परिणामों का होना निश्चय प्रायश्चित्त है और निर्विकृति आचाम्ल आदि व्यवहार प्रायश्चित्त हैं। यहाँ दोनों प्रायश्चित्तों के बारे में संक्षिप्त स्पष्टीकरण इस प्रकार हैं—
१.निश्चयनय की अपेक्षा— आचार्य कुन्दकुन्ददेव नियमसार ग्रन्थ में लिखते हैं—
कोहादिसब्भावक्खयपहुदिभवणाए णिग्गहणं।
पायच्छित्तं भणिदं णियगुणिंचता य णिच्छयदो।।
उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं।
जो धरदि मुणी णिच्चं प्रायश्चित्तं हवे तस्स।।
किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं।
पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेदु।।
अर्थात् क्रोधादि स्वकीय भावों के क्षयादि की भावना में रहना और निजगुणों का चिन्तवन करना वह निश्चय से प्रायश्चित कहा है। उसी अनंत धर्म वाले आत्मा को जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो मुनि नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित कहते हैं। बहुत कहने से क्या ? अनेक कर्मों के क्षय का हेतु का ऐसा जो मर्हिषयों का उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित जान। र्काितकेयानुप्रेक्षा में उत्कृष्ट प्रायश्चित्त का वर्णन इस प्रकार मिलता है—
जो चिंतदी अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी।
विकहाविरत्तचित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स।।
अर्थात् जो ज्ञानी मुनि ज्ञानस्वरूप आत्मा का बारम्बार चिन्तवन करता है और विकरादि प्रमादों से जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट अर्थात् निश्चय प्रायश्चित्त होता है। निश्चय प्रायश्चित्त श्रमण तथा साधक दोनों ही मोक्षार्थी जीव आत्माराधना करके कर्मक्षय का उद्यम कर सकते हैं।
२. व्यवहार की अपेक्षा— शास्त्रों में १२ प्रकार का तप बताया गया है। उसमें जो प्रायश्चित्त नाम का तप है वह व्यवहार प्रायश्चित्त है। इसी व्यवहार प्रायश्चित्त के ९ भेद हैं। जो कि इस प्रकार हैं
आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापना:।
आलोचना, प्रतिक्रमण तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है। इन पारिभाषिक शब्दों का शाब्दिक अर्थ लेख के विस्तार भय से यहाँ देना उपरोक्त नहीं समझा, सुधीजन इसका विशेष वर्णन आगम ग्रंथों से अवलोकन करें। विशेष बात यह है कि आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में, आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में, आचार्य अकलंकदेव ने राजर्वाितक में, आचार्य विद्यानन्दि ने श्लोकवार्तिक में तथा आचार्य भास्करनंदि न तत्वार्थभाष्य में व्यवहार प्रायश्चित्त के ९ ही भेद किए किन्तु धवलाकार आचार्य वीरसेन, मूलाराधना, अनगार धर्मामृत, चारित्रसार आदि में प्रायश्चित्त के दश भेद भी मिलते हैं।
व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम्।
निश्चययात्तदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते।।
अर्थात् व्यवहार नय से प्रायश्चित्त के दश भेद हैं किन्तु निश्चयनय से उसके असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं।‘‘सै षा दशतयी शुद्धिर्बलकालाद्यपेक्षया। यथा दोषं प्रयोक्तव्या चिकित्सेव शिवार्थिभि:।।जैसे आरोग्य के इच्छुक दोष के अनुसार बल,काल आदि की अपेक्षा से चिकित्सा का प्रयोग करते हैं। वैसे ही कल्याण के इच्छुकों को बल, काल, संहनन आदि की अपेक्षा से अपराध के अनुसार उक्त दश प्रकार के प्रायश्चित्तों का प्रयोग करना चाहिए। प्रायश्चित्त क्यों लें ? हमारे जीवन में प्रायश्चित्त का प्रयोजन एवं उसका महत्व क्या है इस बात पर अनेकों जैनाचार्यों ने इस विषय पर दृष्टि डाली है। दैनिक जीवन में जाने—अनजाने में या जान बूझकर छोटे—बड़े अपराध होते रहते हैं। इन अपराधों से चित्त में सदा आकुलता बनी रहती है। उस आकुलता व शल्य का निराकरण पश्चाताप पूर्वक किया हुआ प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त ग्रहण करने से चित्त शुद्ध व आनंदमय होता है। अपराध हो जाने पर प्रायश्चित्त क्यों लेना चाहिए ? इस बात को स्पष्टीकरण करने के लिए आचार्य अकलंकदेव कहते हैं—
‘‘प्रमाददोषव्युदास: भवप्रमादो नै: शब्दल्यम अनवस्थावृत्ति: मर्यादात्याग:।
संयमादाढ्र्यमाराधनमित्येवमादीनां सिद्धयद्र्धं प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते।।’’
अर्थात् प्रमाद दोष व्युदास भाव प्रसाद, नि:शल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढ़ता, आराधना सिद्धि आदि के लिए प्रायश्चित्त से विशुद्ध होना आवश्यक है।
और भी—
‘नवविधप्रायश्चित्ते किं फलं ? भावप्रसादोद्धनवस्था
शल्याभावदाढ्र्यादिकं फलं वेदितव्यं।
भावों की निर्मलता, अनवस्था, अस्थिता और शल्य का अभाव तथा दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त का फल जानना चाहिए। यह प्रायश्चित्त प्रमाद जनित दोषों को दूर करने के लिए, भावों की अर्थात् संक्लिष्ट परिणामों की निर्मलता के लिए, अन्तरंग परिणामों को विचलित करने वाले दोषों को दूर करने के लिए, अनवस्था अर्थात् अपराधों की परम्परा का विनाश करने के लिए, प्रतिज्ञात व्रतों का उल्लंघन न हो इसलिए और संयम की दृढ़ता के लिए किया जाता है।
प्रायश्चित्त कब लें ? अपराध हो जाने पर प्रायश्चित्त कब लें यह हमारे मन में प्रश्न स्वाभाविक रूप से आ जाता है। इस समस्या का समाधान जैनाचार्यों ने बहुत ही सरलीकरण से किया है। वे कहते हैं— अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए। छोटे—छोटे अपराध होने पर स्वयं ही मन में संकल्प लेकर आत्मिंनदा पूर्वक प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए किन्तु बड़े अपराध होने पर गुरु के सम्मुख विधिपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त लेना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रायश्चित्त करने में व्यर्थ समय नहीं खोना चाहिए। आचार्य शिवकोटि कहते हैं—
‘‘कल्ले परे वा परदो काहं दंसणणाणचरित्तसोधत्ति।
इय संकप्पमदीया गयं पि कालं ण याणंति।।
अर्थात् कल परसों अथवा नरसों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शुद्धि करूँगा, ऐसा संकल्प करने वाले बीतते हुए आयुकाल को नहीं जानते। इसी से उनका मरण शल्य सहित होता है। इसलिए कहा गया है कि—
‘उप्पण्णाणुप्पणा माया अणुपुव्वसो णिहंत्तवा।
जैसे ही मायाशल्य उत्पन्न हो, उत्पन्न होते ही उसे आनुपूर्वी क्रम से नष्ट कर देना चाहिए। ‘‘व्याधि, शत्रु और कर्म की यदि उपेक्षा की जाये तो उनकी जड़ जम जाती है फिर सुखपूर्वक उनका विनाश नहीं होता है। अथवा अपराध की उपेक्षा करने वाले साधु दोष लगने के काल को बहुत दिन बीत जाने पर भूल जाते हैं। जो अतिचार प्रतिदिन होते हैं उनका काल सन्ध्या में अतिचार लगा था या रात में या दिन में इत्यादि भूल जाते हैं। पीछे आलोचना करते समय गुरु के पूछने पर नहीं कह पाते क्योंकि बहुत काल बीतने से भूल जाते हैं अथवा बीते अतिचार के काल को और अतिचार के हेतु क्षेत्र को और भाव को नहीं जानते उन्हें उनका स्मरण नहीं होता। भाव यही है कि अपराध होने पर तत्काल ही प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। प्रायश्चित्त कैसे लें ? पाप — अपराध हो जाने पर पश्चाताप का जो भाव है वास्तविकता में वही प्रायश्चित्त है, फिर भी अंतरंग की विशुद्धता होने के कारण गुरु सन्निधि में विनम्र भावपूर्वक दोषों की निर्जरा करने के जो भाव है वह उत्तमोत्तम है। गुरु से प्रायश्चित्त कैसे लें इसका शास्त्रों में बृहत्रूप से वर्णन है। अनेक दोषों को टालकर प्रायश्चित्त लेने का विधान आया है। ऋजुभाव सहित आलोचना पूर्वक ही प्रायश्चित्त लिया जाता है। यथा—
‘‘एन्थ दु उज्जुगभावा ववहारिदव्वा भवंति ते पुरिसा।
संका परिहरिदव्वा सो से पट्ठाहि जहि विसुद्धा।।
पडिसेवणादिचारे जदि आजंपदि तहाकम्मं सव्वे।
कुव्वंति तहो सोिध आगमववहारिणो तस्स।।’’
अर्थात् जो ऋजुभावों से आलोचना करते हैं, ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त लेने योग्य हैं और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनको प्रायश्चित्त आचार्य नहीं देते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करने वालों में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है। सरल परिणामों से लिया गया प्रायश्चित्त ही मोक्षमार्ग को प्रशस्त करता है। प्रायश्चित्त कहाँ लें ? प्रायश्चित्त विधान में एक आत्मिंनदा दूसरी आत्मगर्हा होती है। दोष हो जाने पर प्रायश्चित्त स्वरूप स्वयं सर्वप्रथम आत्मिंनदा करना दूसरा गुरु के समक्ष आत्मगर्हा करना। गुरू के समक्ष आत्मगर्हा कहाँ करना चाहिए और कहाँ नहीं करना चाहिए इसका विस्तार पूर्वक वर्णन आचार्य शिवकोटि ने अत्यंत सुन्दर ढंग से किया है। लेख के विस्तार भय से यहाँ मात्र आत्मगर्हा कहां करना चाहिए इसका संक्षिप्त रूप आख्यान इस प्रकार है—
‘‘अरिहंतसिद्धसागरपउमसरं खीरपुप्फफलभरियं।
उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्खरं।।
अण्णं य एवमादिया सुपसत्थं हवदि जं ठाणं।
आलोचणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं।।’’
अर्थात् अर्हन्त का मंदिर, सिद्धों का मन्दिर, समुद्र के समीप का प्रदेश, जहाँ क्षीरवृक्ष हैं, जहाँ पुष्प व फलों से लदे वृक्ष हैं ऐसे स्थान, उद्यान, तोरणद्वार सहित मकान, पद्मावती का मन्दिर, क्षेत्रपाल का मन्दिर ये सब स्थान आलोचना सुनने के योग्य स्थान है। और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य है। उपर्युक्त शुभस्थानों में आलोचना पूर्वक निग्र्रन्थ गुरू से प्रायश्चित्त ग्रहण करें। प्रायश्चित्त किससे लें ? बहिरंग दोषों का प्रायश्चित्त पश्चाताप मात्र से सम्पन्न हो जाता है परन्तु अंतरंग दोषों का प्रायश्चित्त निग्र्रन्थ गुरू के समक्ष ऋजुमन आत्मगर्हा पूर्वक दण्ड को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता है। किन्तु किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दण्ड को शास्त्र में अत्यन्त निपुण और कुशल निग्र्रन्थ गुरू ही शिष्य की शक्ति व योग्यता को देखकर देते हैं, अन्य नहीं। आचार्य वीरसेन भगवन कहते है गुरु के समक्ष ‘अपनी गर्हा करने से, दोषों का प्रकाशन करने से और उनका संवर करने से किये गये अतिदारूण कर्म कृश हो जाते हैं।’’१८ प्रायश्चित्त लेने के भाव आते ही कर्म की निर्जरा होने लगती है। कहा भी है—
‘‘उपयोगद्व्रतारोपात् पश्चातापात् प्रकाशनात्।
पादांशर्धतया सर्वं पापं नश्येद्विरागत:।।’’
किसी अपराध के बन जाने पर उपयोग (सावधानी) रखने से कोई न कोई व्रत ले लेने से पश्चाताप करने से तथा अपना दोष दूसरे को कहने से वह अपराध चौथे हिस्से प्रमाण और आधा हिस्सा नष्ट हो जाता है।
‘‘प्रायश्चित्तं तप: श्लाघ्यं येन पापं विशुद्धयति।’’
प्रायश्चित नय का तपश्चरण अत्यन्त ही श्लाघ्य तपश्चरण है जिसके कि अनुष्ठान से इस जन्म में और पर्वूजन्म में उपार्जन किये गये पाप नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार के प्रायश्चित्त कौन दे या किससे ले जिससे हमारे समस्त पाप का क्षय हो जाये। शास्त्रों में कहा है—प्रायश्चित्त देना साधारण मनुष्यों का कार्य नहीं है। उसको देने में बुद्धिमान पुरुष ही नियुक्त है। ऐसे बुद्धिमान निग्र्रन्थ साधु ही दश प्रकार के प्रायश्चित्त देने के अधिकारी है। कहा भी है—
‘‘प्रायश्चित्तविधावत्र यथानिष्पन्नमादित:।
दातव्यं बुद्धियुक्तेन तदेतद्दशधोच्यते।।
अपने गुरू द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त ही वास्तविकता में प्रायश्चित्त है कहा भी है—
‘प्रायश्चित्तं गुरुद्दिष्टम्ं।’’
प्रायश्चित्त देने वाले आचार्य प्रमाद से दोष लगने पर आगमोक्त प्रायश्चित्त देवे
‘प्रायश्चित्तं प्रमादेद्धद: प्रदातव्यं मुनीश्वरै:।’
सारांश यह है कि प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्यों, गुरुओं को है। साधक लोगों को अपने निज गुरु से प्रायश्चित्त लेना चाहिए। किन्तु जो आचार्य प्रायश्चित्त विधि नहीं जानते उनसे प्रायश्चित्त नहीं लेना चाहिए। क्योंकि प्रायश्चित विधि को न जानने वाले आचार्य प्रथम अपने को, अनन्तर शिष्य को भी कलंकित मलिन कर देता है। अत: वह अपने को और शिष्यों को दोषों से नहीं बचा सकता। प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य से ही मुनिवृन्द प्रायश्चित्त लेते हैं तथा संघ की प्रमुख गणिनी से र्आियकाएँ प्रायश्चित्त लेती है। कुशल गणिनी (समस्त आर्यिकाओं की प्रमुख साध्वी) द्वारा आर्यिकाओं का प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार है—
‘‘समाचार: कथित: आर्याणां चेह यो विशेषस्तु।
तस्य च भंगेन पुन: गणिना कुशलेन निर्दिष्टम्।।
आर्याणां अर्थात् र्आियकाओं का आचरण सम्बन्धी जो कथन यहाँ किया गया है, उसकी विशेषता यह है कि उस संघ की प्रमुखा गणिनी द्वारा वह भिन्न प्रकार से यहाँ विधिवत् निर्दिष्ट है।
‘‘यत् श्रमणानामुक्तं प्रायश्चित्तं तथा यत् आचरणम्।
तेषां चैव प्रोक्तं तत् श्रमणीनामपि ज्ञातव्यम्।।’’
श्रमणों के लिए मुक्ति पर्यन्त जो प्रायश्चित्त तथा जो आचरण कहे गये हैं, वही प्रायश्चित्त तथा आचरण श्रमणियों के लिए भी जानना चाहिए। साधक व साध्वियाँ अथवा श्रावकों द्वारा अपराध हो जाने पर अपने गुरुजन से कोई भी बात नहीं छिपाना चाहिए। अपना हित चाहने वाले पुरुषों को हितकारी राजा, वैद्य, और गुरू इन तीनों को कभी कुछ नहीं छुपाना चाहिए। यथा—
‘‘गृहीत्व्यं त्रयाणां न हितं स्वस्मै समीप्सुभि:।
नरेन्द्रस्यापि वैद्यस्य गुरोर्हित विधायिन:।।’’
आचार्यगण व श्रमणीगण स्वशिष्यों को प्रायश्चित्त उनके परिणामों को देखकर दे, ऐसा शास्त्रों का विधान है क्योंकि जितने परिणाम है उतने ही प्रकार के प्रायश्चित्त है। गुरू के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त को शिष्य द्वारा सरल चित्त होकर बालक के समान ग्रहण करना चाहिए। दिये हुए प्रायश्चित्त में किसी प्रकार का अयूथा विचार नहीं लाना चाहिए। यथा—
‘‘जं किं पि तेण दिण्णं, तं सव्वं सो करेदि सद्धाए।
सो पुण हिदए संकदि,किं थोवं किं पि बहुयं वा।।’’
दोषों की आलोचना करने के बाद में जो कुछ आचार्य ने प्रायश्चित्त दिया हो उस सब ही को श्रद्धापूर्वक करे और हृदय में ऐसी शंका न करे कि यह प्रायश्चित्त दिया सो थोड़ा है या बहुत है।
अब तक जितने सिद्ध हुए हैं और आगे जितने सिद्ध होंगे वह सब प्रायश्चित्त तप की ही महिमा है क्योंकि प्रायश्चित्त आत्मा की विशुद्धि को बढ़ाता है, भावों में निर्मलता उत्पन्न करता है। जीवन को ऋजु व मृदु बनाता है। प्रायश्चित्त तप को ग्रहण करने वाला जीव कुछ ही भवों में मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है। प्रायश्चित्त तप का फल व महत्व क्या है ? इसके बारे में इस प्रकार वर्णन आया है—
‘‘प्रायश्चित्तमिदं सम्यग्ययुजाना: पुरूषा: परं।
लभंते निर्मलां र्कीित सौख्यं स्वर्गापवर्गजं।।’’
शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त को अच्छी तरह से करने वाले पुरुष अग्रगण्य होते हैं, निर्मलर्कीित को प्राप्त करते हैं और स्वर्ग तथा मोक्षमार्ग सम्बन्धी सुख को भोगते हैं। प्रायश्चित्त के बिना व्रतों की व्यर्थता बताते हुए आचार्य गुरुदास इस प्रकार कहते हैं—
‘‘प्रायश्चित्तेऽसति स्यान्न चारित्रं तद्विना पुन:।
न तीर्थं न विना तीर्थान्निर्वृत्तिस्तद् वृथा व्रतं।।’’
प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं है। चारित्र के अभाव में धर्म नहीं है और धर्म के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति नहीं है इसलिए व्रत अर्थात दीक्षा धारण करना व्यर्थ है।
निर्मल बुद्धि धारी पुरुष आलसरहित होता हुआ किए हुए अपराध दोषों का निराकरण करने तथा अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए प्रायश्चित्त स्वरूप परमोत्कृष्ट पंचपरमेष्ठी का प्रतिदिन जाप—माला तथा ध्यानादि करें। जो भव्य जीव मन, वचन, काय से अपराजित पंच नमस्कार मंत्र को भक्तिपूर्वक स्मरण व जप करता है उसे उपवास करने जैसे फल की प्राप्ति होती है। कहा भी है—
‘पणतीस सोलसयं छच्चउपयं च वण्णवीयाइं।
एउत्तरमट्ठसयं साहिए पंच खमणट्ठं।।’
एक सौ आठ बार जपा हुआ पैंतीस अक्षरों का जाप, दो सौ बार जपा हुआ सोलह अक्षरों का जाप, तीन सौ बार जपा हुआ छह अक्षरों का जाप, चार सौ बार जपा हुआ चार बीजाक्षरों का जाप और पांच सौ बार जपा हुआ पद एक अकार या ओंकार बीजाक्षर का जाप एक उपवास के लिए होता है और भी—‘‘णवपंचणमोक्कारा काउसग्गम्मि होंति एगम्मि। एदेिह बारसेिह उपवासो जायदे एक्को।।’’एक कायोत्सर्ग में नौ पंच नमस्कार होते हैं और एक सौ आठ बार पंच नमस्कारों का जप करने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है। अर्थात् बारह कायोत्सर्गों का एक उपवास होता है। यही बात आचार्य नरेन्द्रसेन ने कही है—
‘‘नवद्या सुनमस्कारैस्तत्तूत्सर्गैंर्वि निर्मित:।
एनैद्र्वादशभिस्तावदुपवास: प्रजायते।।’’
इस प्रकार भूत, वर्तमान, भविष्य में होने वाले दोषों को दूर करने के लिए साधक जनों को आलोचना, प्रतिक्रमण, जप—ध्यान करके एवं योग्य गुरू से प्रायश्चित्त ग्रहण करके अपनी आत्मा को पावन व पवित्र करना चाहिए। प्रस्तुत लेख अभी और शोध का विषय है सुधीजनों को आगम ग्रंथ का अतिसूक्ष्मता से अध्ययन करके जिनधर्म के रहस्य को समीचीन रूप से समझना चाहिए।
लेखक- श्वेतपिच्छाचार्य विद्यानन्द मुनि