प्राकृतिक सौन्दर्य से सम्पन्न चित्रकूट जनपद के दक्षिण में मध्य प्रदेश, उत्तर में जनपद फतेहपुर, पूर्व में जनपद इलाहाबाद, पश्चिम में जनपद बाँदा तथा— पूर्व दिशा में जनपद कौशाम्बी स्थित है। इस जनपद के उत्तरी सिरे को यमुना नदी आच्छादित करती है। चित्रकूट जनपद का दक्षिणी हिस्सा विन्ध्य पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ है। १८६५ ई. में चित्रकूट की मुख्य बस्ती सीतापुर को कस्बे का दर्जा मिला। १ अप्रैल १९४८ ई. को सीतापुर को कर्वी— तरौहां के साथ मिलाकर चित्रकूटधाम नामक एक चतुर्थ श्रेणी नगरपालिका का गठन किया गया। १३.५.१९९७ को पैत्रिक जनपद बाँदा की कर्वी एवं मऊ तहसीलों को समाविष्ट करके छत्रपति शाहूजी महाराज नगर नाम से नया जिला बनाया गया। जनभावनाओं का सम्मान करते हुये ०८.०९.१९९८ को जनपद का नामकरण चित्रकूट किया गया। ३१६४ वर्ग किमी. क्षेत्रफलचित्रकूट जनपद की सांख्यिकीय पत्रिका, वर्ष २००५, सातवां अंक एवं संख्याधिकारी चित्रकूट द्वारा प्रकाशित । में विस्तृत पूरे क्षेत्र को दो तहसीलों—कर्वी और मऊ में विभाजित किया गया। जनपद में ५ विकासखण्ड हैं। कर्वी, पाहड़ी एवं मानिकपुर विकासखण्ड तहसील कर्वी में तथा रामनगर और मऊ विकासखण्ड मऊ तहसील के अन्तर्गत हैं। जनपद का मुख्यालय कर्वी में स्थापित किया गया है। यह जनपद चित्रकूटधाम मण्डल के अन्तर्गत आता है। चित्रकूट, जो कि सहस्राब्दियों से हिन्दू तीर्थयात्रियों का एक मान्यता प्राप्त विशेष स्थान है, भगवान् राम के समागम के साथ जुड़ा हुआ है जिन्होंने अपने भ्राता लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपने वनवास का प्रथम चरण यहाँ व्यतीत किया था। माहात्म्य सम्पन्न चित्रकूट का नाम चित्रकूटवाल्मीकि रामायण, २.९४.४.५.६. क्यों पड़ा? इस सन्दर्भ में कतिपय मत प्रचलित हैं।
१. ‘चित्रकूट’ शब्द दो शब्दों (चित्र +कूट) के मेल से बना है। ‘चित्र’ शब्द का अर्थ है— (चि +ष्ट्रन) उज्ज्वल, स्पष्ट, चितकबरा, धब्बेदार, रूचिकर, मनोहर, अद्भुत, विभिन्न रंगयुक्त तथा ‘कूट’ शब्द का अर्थ है— (कूट +अच्) अचल, स्थिर , पहाड़ का शिखर या चोटी। ‘चित्र’ और ‘कूट’ से निष्पन्न चित्रकूट में ‘चित्र’ का अर्थ है— विभिन्न रंगयुक्त और ‘कूट’ का अर्थ है— पर्वत शिखर। अत: ‘चित्रकूट’ का शाब्दिक अर्थ— विभिन्न रंगयुक्त शैलों वाला पर्वत है। इसी चित्रकूट की उपत्यका में श्रीराम ने निवास किया था एवं कामनाओं को पूर्ण करने के विशेष गुण के कारण ही उसे कामदगिरि कहा गया है।ज.ए.सो.बं., खण्ड ३, १८८९, पृ. ५६—६४, ‘चित्र’ का अर्थ अशोक भी होता है और कूट अर्थात् पर्वत शिखर। अत: चित्रकूट का शाब्दिक अर्थ ‘शोकरहित शिखर’ हुआ। इस प्रकार शोकरहित शिखर बन जाने के कारण इसका नाम चित्रकूट पड़ा। भारत के विभिन्न स्थलों की तरह चित्रकूट जनपद में भी पाषाण काल के औजार विभिन्न क्षेत्रों से मिले हैं। जे काकबर्न३, सी.ए. सिल्वेरॉडसिल्वेरॉड , सी.ए., राक ड्राइंग इन बाँदा डिस्ट्रिक्ट, ज.ए.सो.बं., खण्ड ८, १९०७, पृ. ५६७—५७०. , जी.आर.शर्मा, वी.डी.मिश्रमिश्र, वी.डी., सम आस्पेक्ट्स ऑव इण्डियन आर्कियोलॉजी, इलाहाबाद, १९७७, पृ.२९—३०., जे.एन. पाण्डेय, जगदीश गुप्तगुप्त, जगदीश, प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, १९६७, पृ. ८६—८७., पी.सी.पन्तपन्त, पी.सी., प्री हिस्टोरिक उ.प्र., अगम कला प्रकाशन, दिल्ली, १९८२,पृ.३८—१४०., बी.बी. लाल आदि पुरातत्वविदों ने समय—समय पर यहाँ अन्वेषण कार्य किया । जनपद में पुरापाषाण काल से लेकर नवपाषाण काल तक निरन्तर मनुष्य के प्रमाण पाषाणोपकरणों के माध्यम से देखे जा सकते हैं। चित्रकूट का प्रथम साहित्यिक परिचय हमें आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के आदिग्रन्थ रामायण में मिलता है। पुरातात्विक साक्ष्य चित्रकूट की प्राचीनता को पुरापाषाण काल के प्रारम्भिक चरण तक ले जाते हैं, जिसकी तिथि १ लाख ई.पू. के आस—पास निर्धारित की जा सकती है। वहीं साहित्यिक साक्ष्य चित्रकूट की प्राचीनता को ईस्वी सन् से ३०० वर्ष पूर्व पहुँचा देते हैं। चित्रकूट जनपद के पुरातात्विक स्तल मड़फा और रामनगर में जैन धर्म के अस्तिव के प्रमाण प्राप्त हुये हैं। मड़फा ऐतिहासिक दृष्टि से चित्रकूट जनपद का महत्वपूर्ण स्थल है। यह ग्राम बदौसा (रेलवे स्टेशन) से १३ किमी. दक्षिण की ओर पर्वत की चोटी पर स्थिति है तथा भरतकूप से ८ किमी. दूर है। मड़फा दुर्ग एक समतल मैदानी पहाड़ी पर २५०७’ अक्षांश उत्तर और ८००४५’ देशान्तर पूर्व में स्थित है।वरूण, डी.पी. (संपा.), बाँदा जिला गजेटियर, लखनऊ, १९७७, पृ. २९८. इस दुर्ग की स्थिति कालंजर जैसी है। यह चारों तरफ पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ है। इसका एक हिस्सा ढालदार है। सम्पूर्ण पर्वत में बलुआ पत्थर पर्याप्त मात्रा में है। चन्देल शासनकाल में मड़फा उन ८ दुर्गों में से एक था जिन्हें चन्देलों के मुख्य दुर्गों की मान्यता प्राप्त थी।उपरोक्त, पृ. २९९. यहाँ आज भी चन्देलकालीन अनेक ऐतिहासिक स्थल उपलब्ध होते हैं । पाहड़ी के ऊपर जो दुर्ग के अवशेष उपलब्ध होते हैं वे निर्माण की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं। मड़फा दुर्ग कालंजर दुर्ग से २५—२६ किमी.दूर उत्तर—पूर्व में है। यह दुर्ग कालंजर दुर्ग से बघेलाबारी मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। दुर्ग के ऊपर पहुँचने के लिए कोई पक्का रास्ता नहीं है। दुर्ग में पहुँचने के लिए तीन मार्ग हैंउपरोक्त, पृ. २९८.— प्रथम रास्ता मानपुर गाँव से है। यह गाँव पूर्वोत्तर में है, यहीं से दुर्ग के ऊपर चढ़ा जा सकता है। दूसरा मार्ग खमरिया गाँव से है । यह गाँव दक्षिण —पूर्व में है। तीसरा मार्ग कुरहम गाँव से है, जो दक्षिण —पश्चिम में है। मड़फा दुर्ग की ऊँचाई समुद्र तल से ३७८ मीटर है।उपरोक्त, पृ. २९८. इस दुर्ग की सम्पूर्ण पर्वत श्रेणी पर विविध प्रकार की वनस्पतियाँ उपलब्ध होती हैं। इसके निचले हिस्से में चारों तरफ जंगल है। सर्वप्रथम इस क्षेत्र का दौरा १८वीं शताब्दी ई. में टीपेन्थलर नामक डच पादरी ने किया था।उपरोक्त, पृ. २९९. टीपेकन्थलर के सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि उस समय यहाँ का नाम मन्डेफा था।उपरोक्त, पृ. २९९. इस स्थल के सन्दर्भ में अनेक कथायें उपलब्ध होती हैं । कहते हैं कि ऋषि च्यवन का यहीं निवास स्थान था। उन्होंने सुकन्या से विवाह करने के लिए पुन: वृद्धावस्था से युवावस्था धारण की थी। सुसिद्ध वैद्य एवं ऋषि चरक का यहीं आश्रम था। पुराणों में इस स्थान को माण्डव ऋषि की तपस्थली कहा गया है।अग्रवाल, कन्हैयालाल, विन्ध्य क्षेत्र का ऐतिहासिक भूगोल, सुषमा प्रेस, सतना, म.प्र., १९८७, पृ. १२९. माण्डव ऋषि के आश्रम में कण्ठ आदि ऋषि भी रहते थे। मड़का दुर्ग में जैन धर्म से सम्बन्धित अनेक पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुये हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से उनका वास्तुशिल्प उच्चकोटि का है। जैन पुरातात्विक साक्ष्य निम्नलिखित हैं। जैन मन्दिर सं.१ प्रथम जैन मन्दिर के तलच्छन्द में केवल गर्भगृह शेष बचा है। वर्गाकार गर्भगृह की लम्बाई तथा चौड़ाई ७.७ फुट है। इस मन्दिर के ऊध्र्वच्छन्द में क्रमश: अधिष्ठान एवं वेदिबन्ध, जंघा तथा शिखर शेष बचा है। अधिष्ठान एवं वेदिबन्ध लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है। मन्दिर का प्रवेश द्वारा ५ फुट ऊँचा तथा ३ फुट चौड़ा है। गर्भगृह का प्रवेश द्वारा अलंकरणरहित है। मंदिर पंचरथ योजना से निर्मित है। सम्प्रति गर्भगृह में कोई प्रतिमा नहीं है। शिखर वक्ररेखीय नागर है। अनलंकृत शिखर के निर्माण में कदलि का कर्ण तकनीक का प्रयोग किया गया है। शिखर पंचरथ प्रकार का तथा अनलंकृत है।शिखर के पूर्व दिशा का भद्ररथ ध्वस्त हो चुका है। शिखर के ऊपरी भाग का आमलक तथा कलश के भाग नष्ट हो चुके हैं ।(चित्र १) जैन मन्दिर सं. २ प्रथम जैन मन्दिर के पाश्र्व में दाहिनी ओर यह मन्दिर स्थित है। इस मन्दिर के तलच्छन्द में अद्र्धमण्डप,महामण्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह बने हुए हैं। अद्र्धमण्डप का निर्माण बाद के काल में हुआ है। । महा मण्डप ४.५ मीटर ऊँचे १६ अनलंकृत स्तम्भों पर बना हुआ है। महामण्डप के कुछ भाग का निर्माण भी परिवर्ती काल में हुआ है। अद्र्धमण्डप, महामण्डप तथा गर्भगृह के द्वारा पूर्व दिशा की ओर है। इस मन्दिर के ऊध्र्वच्छन्द में क्रमश: जगती , जंघा तथा शिखर शेष बचा है। इसकी जगती ५६ फुट लम्बी तथा ४२ फुट चौड़ी है। इस जगती पर बने सम्पूर्ण मन्दिर की लम्बाई ३८ फुट तथा चौड़ाई ३६ फुट है। गर्भगृह १६ फुट वर्गाकार है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार अलंकरण रहित है। मंदिर पंचरथ योजना से निर्मित है। सम्प्रति गर्भगृह में कोई प्रतिमा नहीं है। शिखर वक्ररेखीय नागर शिखर है। शिखर के निर्माण में कदलिकाकर्ण तकनीक का प्रयोग किया गया है तथा अलंकरण रहित है। शिखर के ऊपरी भाग का आमलक तथा कलश के भाग नष्ट हो चुके हैं ।(चित्र २) जैन मन्दिर के समीप एक खण्डित जैन तीर्थंकर की प्रतिमा का उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं है। इसकी पादपीठिका पर एक लेख उत्कीर्ण है। यह पादपीठ ३ फीट लम्बा १ फीट चौड़ा है। पादपीठिका के दोनों तरफ हाथ जोड़े यक्षिणी की प्राप्त हुई है। शोधकर्ता के द्वारा खोजी गई इस भग्न जैन प्रतिमा उत्कीर्ण है। लेख इस प्रकार है :
१. संवत् १४०८ वर्षे माघ सुदि ५ रवौ श्री मूलसंघे
२. बलात्कारगणे सरस्वतीगछे।। भट्टारक श्री रत्नकीर्ति देवा:
३. भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा: ।।— ।। सा० धने भार्या तो
४. ण। तयो: पुत्र सा. गोसल पे ऊँ।। तस देव पदम।। गोसल भार्या सलप्र
५. ण। तयो: पुत्र सेवीजनौ । राम।। नित्यं प्रणमंति।। सुभं भवतु ।
६. रूपकार गोसल पुत्र छीतम।। पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख में ६ पंक्तियां हैं। (चित्र ३)
भाषा संस्कृत है। लेख के सभी अक्षर स्पष्ट व पठनीय है। तीसरी पंक्ति के बायें भाग के कुछ अक्षर अस्पष्ट हैं। लेख के अनुसार यह प्रतिमा संवत् १४०८ माघ सुदि ५ रविवार को प्रतिष्ठापित की गयी थी। लेख में गोसल के पिता का नाम धने तथा माता का नाम तोण है। गोसल तथा उसकी पत्नी सलप्रण का नाम स्पष्ट उत्कीर्ण है। गोसल के पुत्र छीतम ने इस प्रतिमा का निर्माण किया था। इस समय चन्देल शासकों में भिलमादेव का शासन था। भिलमादेव १४०३ संवत् में गद्दी पर बैठा तथा संवत् १४४७ तक शासन किया।तिवारी, गोरेलाल, बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास, नगरी प्रचारिणी सभा, काशी, वि.सं., १९९० पृ.४३. इस प्रतिमा लेख के आधार पर जैन मन्दिर का समय१३वीं शताब्दी निश्चित किया जा सकता है।
यहाँ सरोवर के पास जैन धर्म से सम्बन्धित बारह छोटी—छोटी मंडपिकाएं (चित्र ४)उपलब्ध होती हैं, इनमें ज्यादातर खण्डित मूर्तियाँ हैं। यहाँ के ग्रामीणों ने धन के प्रलोभन में प्रत्येक मंडपिका के गर्भगृह को गहराई से खोदकर स्थल को नष्ट करने का प्रयास किया है। वास्तुशिल्प की दृष्टि से ये मूर्तियाँ और मंडपिकाएं उच्चकोटि की प्रतीत होती हैं। इनके सन्दर्भ में एक कहावत प्रचलित है कि एक जैन व्यापारी यहाँ से होकर किसी स्थल की ओर जा रहा था। उसे मार्ग में अचानक असंख्य धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने मड़फा दुर्ग पर अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। यह घटना चन्देल युग की है।
इन्हीं मंडपिकाओं से थोड़ी दूरी पर अनेक मूर्तियाँ वृक्षों के नीचे रखी हुई हैं। इनमें से कुछ मूर्तियाँ पूरी तरह सुरक्षित हैं और कुछ लापरवाही के कारण खण्डित हो गई हैं। ऐसा लगता है कि मूर्ति चोरों ने यहाँ की काफी मूर्तियाँ समय—समय पर चुराकर बेच डाली हैं। ये मूर्तियाँ जैन धर्म से सम्बन्धि हैं। मड़फा से एक ऋषभनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा १.७० मीटर १०० मीटर नाप की है। ऋषभनाथ सिंहासन के ऊपर पद्मासन मुद्रा में ध्यान मग्न बैठे हैं। अपने दोनों हाथों की हथेली एक के ऊपर एक पलथी पर रखे हैं। उनके सिर पर कुंचितकेश, कानों में कुण्डल और वक्षस्थल पर श्री वत्स अंकित है। उनके दाहिनी ओर गोमुख तथा बाँयी ओर चव्रेश्वरी आदि विराजमान हैं। ऋषभनाथ त्रिछत्र धारण किये हुए हैं। छत्र के पास बाँये तथा दाँये तरफ ऐरावत कलश लिये हुए अंकित हैं । धड़ के पास बाँयी तरफ चामरधारिणी नायिकाएं हैं। सिंहासन के नीचे अगल—बगल दो सिंह बनाये गये हैं तथा बीचोबीच उनका लांछन वृक्षभ अंकित है। रामनगर जनपद मुख्यालय से लगभग ३२ किमी. पूर्व दिशा में कर्वी—इलाहाबाद मार्ग पर स्थित है। यह मऊ तहसील के अन्तर्गत आता है। सड़क के किनारे ‘कुंवर जू तालाब’ (रामनगर का तालाब) स्थित है। तालाब की दक्षिण दिशा में चन्देलकालीन एक शिवमन्दिर स्थित है। इसी शिवमन्दिर के पास चन्देलकालीन एक ऋषभनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा की लम्बाई १.७६ मीटर तथा चौड़ाई १.४७ मीटर है। यह प्रतिमा लाल बलुए पत्थर पर बनी है। मूर्ति के पादपीठ पर चरण चौकी है, उसके दोनों किनारे पर आमने—सामने की ओर एक—एक सिंह बने हैं और चरण चौकी के बीच के भाग में तेईस तीर्थंकरों की छोटी—छोटी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। प्रतिमा के वक्षस्थल पर श्रीवत्स अंकित है, सिर पर घुंघराले बाल हैं, दोनों पैर पद्मासन मुद्रा में हैं और दोनों हाथ खण्डित, सिर प्रभामण्डल युक्त और धड़ से खण्डित है। प्रतिमा दिगम्बर है।(चित्र ६) हमारे विवेच्य क्षेत्र में चन्देल काल से पूर्व के जैन पुरावशेष नहीं प्राप्त हुये हैं। किन्तु चन्देल काल में इस जनपद के अलावा सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में जैन धर्म का विकास प्रचुर मात्रा में हुआ। चित्रकूट जनपद सहित बाँदा, महोबा, झाँसी, ललितपुर आदि स्थानों से जैन मन्दिर और मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। चन्देल शासकों ने हिन्दू धर्म के पोषण के साथ जैन धर्म से समता का व्यवहार कर उसे विकास प्रदान किया। चित्रकूट जनपद में चन्देलों के काल में जैन धर्म का काफी विकास हुआ, जिसके कलात्मक एवं अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं।