(गणिनी ज्ञानमती विरचित)
त्रिभुवन के जितने चैत्यालय, अकृत्रिम उनको नित वंदूं।
भव भव के संचित पाप पुंज, उन सबको इक क्षण में खंडूं।।
असुरों के चौंसठ लाख नागसुर, के चौरासी लाख कहे।
वायुसुर के छ्यानवे लाख सुपरण के बाहत्तर लक्ष कहे।।१।।
विद्युत् अग्नी स्तनित उदधि, दिव् द्वीपकुमार भवनवासी।
इन छह में पृथक़-पृथक़ जिनगृह, छीयत्तर लक्ष सुगुण-राशी।।
सब लक्ष बहत्तर सात कोटि, ये जिनगृह भवनालय सुर के।
ये अधोलोक के जिनमंदिर, नितप्रति वंदूं अंजलि करके।।२।।
इस मध्यलोक के पांच मेरु, के अस्सी तीस कुलाचल के।
रजताचल के इक सौ सत्तर, अस्सी हैं वक्षाराचल के।।
गजदंत गिरी के बीस भवन, जंबू शाल्मलि के दश मानें।
इष्वाकृति नग के चार चार, मनुजोत्तर के भी भव हानें।।३।।
अंजनगिरि के चउ दधिमुख के, सोलह रतिकर के बत्तिस हैं।
नंदीश्वर द्वीप जिनालय ये, बावन अतिशय गुणमंडित हैं।।
कुंडलगिरि रुचकगिरी के भी, हैं चार चार सब मिल करके।
ये चार शतक अट्ठावन हैं, जिनमंदिर मध्यलोक भर के।।४।।
व्यंतरवासी ज्योतिष सुर के, सब संख्यातीत जिनालय हैं।
इक ऊपर ऊध्र्वलोक में भी, वैमानिक वंदित आलय हैं।।
सौधर्म स्वर्ग में जिनमंदिर, बत्तीस लाख शाश्वत मानो।
ईशान स्वर्ग में अट्ठाइस, हैं लाख जिनालय सरधानो।।५।।
सानत्कुमार में बारह लख, माहेन्द्र स्वर्ग में आठ लक्ष।
दिव ब्रह्मयुगल में चार लाख, लांतव युग में पच्चास सहस।।
चालिस हजार दिव शुक्र युगल में, छह हजार युग शतार में।
जिननिलय सात सौ आनत औ, प्राणत आरण अच्युत दिव में।।६।।
ग्रैवेयक तीन अधो में हैं, इक सौ ग्यारह मध्यम त्रय में।
हैं इक सौ सात तथा जिनगृह, हैं निन्यानवे ऊध्र्व त्रय में।।
नव अनुदिश में नव जिनमंदिर, पंचानुत्तर में पांच कहें।
इन सबका वंदन करते ही, भविजन मनवांछित सिद्धि लहें।।७।।
तीनों लोकों के ये जिनगृह, सब आठ कोटि छप्पन सुलक्ष।
सत्तानवे सहस चार सौ औ, इक्यासी प्रमित कहे शाश्वत।।
नव सौ पच्चीस कोटि त्रेपन, हैं लाख सताइस सहस सही।
नव सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, प्रति जिनगृह इक सौ आठ कहीं।।८।।
सब जिनगृह में अनुपम शाश्वत, मानस्तंभादिक रचनायें।
वर्णन पढ़ते ही जन मन में, दर्शन की इच्छा प्रकटायें।।
जिनबिंब पांच शत धनुष तुंग, उन वीतराग छवि मनहारी।
मैं केवल ‘‘ज्ञानमती’’ हेतू, नित नमूँ जिनालय सुखकारी।।९।।
दोहा– त्रैकालिक कृत्रिम सभी, जिनप्रतिमा जिनधाम।
कहे अनंतानंत ही, तिन्हें अनंत प्रणाम।।१०।।