किसी की गिरी पड़ी भूली हुई वस्तु को उठा लेना चोरी है। चोरी करने से दोनों लोकों में अपयश एवं महान दु:ख उठाना पड़ता है। किसी के यहाँ डाका डाल कर धोखा देकर उनकी वस्तुओं को हड़पना चोरी है। चोरी से अनेकों हानियाँ होती हैं। एक बहुचर्चित कथा इस प्रकार है- बनारस में एक शिवभूति नामक ब्राह्मण सत्यघोष नाम से प्रसिद्ध था। वह कहता था कि मैं असत्य कभी न बोलूँगा। यदि बोलूँगा तो छुरी से जिव्हा काट लूंगा। एक दिन एक सेठ उसकी सच्चाई से प्रसन्न होकर अपने कीमती चार रत्न उसके पास रखके व्यापार के लिए चला गया। बारह वर्ष बाद बहुत सा धन लेकर आ रहा था। उसकी नाव डूब गई, सब धन नष्ट हो गया। सेठ ने सत्यघोष के पास आकर अपने चार रत्न मांगे। पुरोहित ने पागल कहकर घर से निकाल दिया। न्याय हेतु राजा के पास गया। राजा ने कुछ न सुना परन्तु रानी ने अपनी युक्ति से सत्यघोष की चोरी को पकड़ लिया और उसके घर से रत्न मंगवा लिये। राजा ने सत्यघोष के लिए गोबर भक्षण या मुक्के खाने का या सब धन लेने का दंड दिया। सत्यघोष दोनों ही दण्ड सहन नहीं कर पाया, मरकर राजा के भण्डार में सर्प हुआ। इसलिए कभी भी चोरी नहीं करना चाहिए। इसी पर एक लौकिक दृष्टांत है- एक नगर में अचानक डाकुओं ने आक्रमण कर दिया। नगर के प्रतिष्ठित एक व्यक्ति जैन साहब थे। उनके पास लाखों की सम्पत्ति थी-हीरा, पन्ना, मोती, माणिक और जवाहरात से तिजोरियाँ भरी हुई थीं। डाकुओं के सरदार ने जैन साहब से कहा कि आप कोई भी एक बहुमूल्य वस्तु इस घर से ले सकते हैं और सब हम ले जायेंगे-बोलो क्या ले जा रहे हो? जैन साहब प्रसन्नता से एक स्वाध्याय ग्रंथ ले जाने लगे तो सरदार ने कहा-यह क्या-पोथी उठा लाये हो मैंने तो किसी बहुमूल्य रत्न को ले जाने के लिए कहा था। जैन साहब बोले-मैं अपने घर में इससे बहुमूल्य अन्य रत्न नहीं समझता, यह रत्न आत्मिक शान्ति प्रदान करने वाला है और अन्य जो नाममात्र के रत्न हैं, अशान्ति को उत्पन्न करने वाले हैं। डाकुओं का सरदार आश्चर्यचकित रह गया उसने और अन्य डाकुओं ने जैन साहब की भूरि-भूरि प्रशंसा की। डाकूदल बिना लूटे ही नगर से लौट गया और सदा के लिए अशान्ति को उत्पन्न करने वाली सम्पत्ति को न लूटने का नियम ले लिया अर्थात् चोरी करने का त्याग कर दिया।