आर्यखण्ड में नाना भेदों से संयुक्त जो काल प्रवर्तता है, उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं। कालद्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है-जो द्रव्यों की पर्यायों को बदलने मे सहायक हो, उसे वर्तना कहते हैं। यह काल अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु बराबर है और असंख्यात होने के कारण समस्त लोकाकाश से भरा हुआ है अर्थात् काल द्रव्य का एक-एक परमाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित है। उस काल में अनन्त पदार्थों के परिणमन कराने की सामथ्र्य है अत: वह स्वयं असंख्यात होकर भी अनन्त पदार्थों के परिणमन में सहकारी होता है। जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में काल द्रव्य सहकारी कारण है। संसार के समस्त पदार्थ अपने-अपने गुण-पर्यायों द्वारा स्वयमेव ही परिणमन को करते रहते हैं और काल द्रव्य उनके परिणमन में मात्र सहकारी कारण होता है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल द्रव्य बहुप्रदेशी न होने से अस्तिरूप है ‘अस्तिकाय’ नहीं है।
काल के भेद
काल द्रव्य के निश्चय और व्यवहार के भेद से दो भेद हैंं। इनमें से निश्चय काल के आश्रय से व्यवहार काल की प्रवृत्ति होती है। यह व्यवहार काल वर्तना लक्षणरूप निश्चय काल द्रव्य के द्वारा ही प्रवर्तित होता है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानरूप होकर संसार का व्यवहार चलाने के लिए समर्थ होता है। वह व्यवहार काल समय, आवली, उच्छ्वास, नाड़ी आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। यह ज्योतिष्चक्र के घूमने से ही प्रकट होता है। घड़ी, घंटा, दिन आदि सब व्यवहार काल कहलाते हैं।
व्यवहार काल
एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने काल में एक आकाश प्रदेश का उल्लंघन करे, उस अविभागी काल को ‘समय’ कहते हैं। असंख्यात समयों की एक आवली और संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है। इसे ‘प्राण’ भी कहते हैं। सात उच्छ्वास का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, साढ़े अड़तीस लवों की एक नाली-घड़ी, दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है। एक समय कम एक मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त या अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। तीस मुहूर्त का एक दिन, पन्द्रह दिनों का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक वर्ष और पाँच वर्षों का एक युग होता है। दो युगों के दस वर्ष होते हैं। दस वर्षों को दस से गुणा करने पर शतवर्ष, शतवर्ष को दस से गुणा करने पर सहस्र वर्ष होता है। इसे दस से गुणा करने पर दस सहस्र वर्ष, इसको भी दस से गुणा करने पर लक्ष वर्ष होता है। लक्ष वर्ष को ८४ से गुणा करने पर एक ‘पूर्वाङ्ग’ इस पूर्वाङ्ग को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘पूर्व’ होता है। पूर्व को ८४ से गुणा करने पर ‘पर्वाङ्ग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर पर्व होता है। पर्व को ८४ से गुणा करने पर ‘नयुतांग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘नयुत’ होता है। नयुत को ८४ से गुणा करने पर ‘कुमुदांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘कुमुद’ होता है। कुमुद को ८४ से गुणा करने पर ‘पद्मांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘पद्म’ होता है। पद्म को ८४ से गुणा करने पर ‘नलिनांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘नलिन’ होता है। नलिन को ८४ से गुणा करने पर एक ‘कमलांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘कमल’ होता है। कमल को ८४ से गुणा करने पर एक ‘त्रुटितांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘त्रुटित’ होता है। त्रुटित को ८४ से गुणा करने पर ‘अटटांग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘अटट’ होता है। अटट को ८४ से गुणा करने पर ‘अममांग’, इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘अमम’ होता है। अमम को ८४ से गुणा करने पर ‘हाहांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हाहा’ प्रमाण होता है। हाहा को ८४ से गुणा करने पर ‘हूहांग’ और हूहांग को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हूहू’ नामक काल का प्रमाण होता है। हूहू को ८४ से गुणा करने पर ‘लतांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘लता’ नामक प्रमाण होता है। लता को ८४ से गुणा करने पर ‘महालतांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘महालता’ का प्रमाण होता है। महालता को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘श्रीकल्प’ होता है और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हस्त प्रहेलित’ नामक संख्या का प्रमाण मिलता है। हस्त प्रहेलित को ८४ लाख से गुणा करने पर एक ‘अचलात्म’ नाम का काल होता है। इकतीस स्थानों में पृथक्-पृथक् चौरासी को रखकर परस्पर गुणा करने से अचलात्म नाम का प्रमाण प्राप्त होता है, जो नब्बे शून्यांक रूप है। इस प्रकार यह संख्यात काल वर्षों की गणना द्वारा उत्कृष्ट संख्यात जब तक प्राप्त हो, तब तक ले जाना चाहिए। जो वर्षों की संख्या से रहित है, वह असंख्य काल माना जाता है। इसके पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक भेद हैं।
पल्य-सागर का स्वरूप
कुलकरों की, देव-नारकियों की अवगाहना के प्रमाण में जो ‘धनुष’ शब्द आया है और आयु तथा अन्तराल में ‘पल्य’ शब्द का प्रयोग आया है, अब उनको समझने के लिए धनुष और पल्य को बनाने की प्रक्रिया को बतलाते हैं-
अंगुल, धनुष, पल्य आदि की प्रक्रिया- पुद्गल के एक अविभागी टुकड़े को परमाणु कहते हैं। अनन्तानन्त परमाणुओं से एक अवसन्नासन्न बनता है अर्थात्- अंगुल का प्रमाण-अनन्तानन्त परमाणुओं का- १ अवसन्नासन्न ८ अवसन्नासन्न का १ सन्नासन्न ८ सन्नासन्नों का १ ऋुटिरेणु ८ त्रुटिरेणुओं का १ त्रसरेणु ८ त्रसरेणुओं का १ रथरेणु ८ रथरेणुओं का उत्तम भोगभूमिजों का १ बालाग्र ८ इन बालाग्रों का मध्यम भोगभूमिजों का १ बालाग्र ८ इन बालाग्रों का जघन्य भोगभूमिजों का १ बालाग्र ८ इन बालाग्रों का कर्मभूमिजों का १ बालाग्र ८ कर्मभूमिज के बालाग्रों की १ लिक्षा ८ लिक्षा की १ यूका ८ यूका की १ जौ ८ जौ का १ अंगुल
अंगुल के तीन भेद
उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। उपर्युक्त परिभाषा से सिद्ध हुआ अंगुल उत्सेधागुंल कहलाता है। पाँच सौ उत्सेधांगुल का एक प्रमाणांगुल होता है। जिस काल में भरत और ऐरावत में जो-जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल होता है। किस अंगुल से किसका माप होता है?-उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है। प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, वुंड या सरोवर, जगती और भरत आदि क्षेत्रों का प्रमाण जाना जाता है।
धनुष का प्रमाण
छह अंगुलों का १ पाद, २ पादों की १ वितस्ति, दो वितस्तियों का १ हाथ, २ हाथों का १ रिकु, दो रिकु का १ दण्ड या धनुष अर्थात् ४ हाथ का १ धनुष और दो हजार धनुष का एक कोस होता है।
योजन का प्रमाण
चार कोस का एक योजन होता है, इसे लघु योजन कहते हैं। इसी योजन को पाँच सौ से गुणा करने पर १ महायोजन बनता है यथा-४²५००·२०००, इन २००० कोस का एक महायोजन होता है।
पल्य का प्रमाण
चार कोस के योजन विस्तार वाले गोल गड्ढे का गणित शास्त्र से घनफल निकाल लीजिए अर्थात् एक योजन व्यास वाले एक योजन गहरे गड्ढे का घनफल कर लीजिए। एक योजन वाले गोल क्षेत्र का घनफल-१²१²१०·१०, १०·१९/६ परिधि, १९/६²१/४·क्षेत्रफल, १९/२४²१·१९/२४ घनफल उत्तम भोगभूमि के एक दिन से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न हुए मेंढ़े के करोड़ों रोमों के अविभागी खंड करके उन खंडित रोमाग्रों से उस एक योजन विस्तार वाले प्रथम गड्ढे को पृथ्वी के बराबर अत्यन्त सघन भरना चाहिए। इस गड्ढे के रोमों की संख्या- ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२००००००००००००००००००। व्यवहार पल्य-सौ-सौ वर्षों में एक-एक रोम खण्ड के निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो, उतने काल को ‘व्यवहार पल्य’ कहते हैं।
उद्धार पल्य
व्यवहार पल्य की रोमराशि में से प्रत्येक रोमखण्ड को असंख्यात करोड़ वर्षों के जितने समय हो, उतने खण्ड करके, उनसे दूसरे पल्य को भरकर पुन: एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकाले, इस प्रकार जितने समय में वह दूसरा पल्य खाली हो जाये, उतने काल को ‘उद्धार पल्य’ समझना चाहिए।
अद्धा पल्य
उद्धार पल्य की रोम राशि में से प्रत्येक रोम खण्ड के असंख्यात वर्षों के समय प्रमाण खण्ड करके तीसरे गड्ढे के भरने पर और पहले के समान एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो जाये, उतने काल को ‘अद्धापल्य’ कहते हैं। मध्य के उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है, इस अद्धापल्य से नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की आयु तथा कर्मों की स्थिति का प्रमाण जाना जाता है।
सागर
दस कोड़ा-कोड़ी व्यवहार पल्य का एक व्यवहार सागर, दस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों का एक उद्धार सागर, दस कोड़ा-कोड़ी अद्धापल्यों का एक अद्धासागर होता है अर्थात् एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ा-कोड़ी बनता है, ऐसे दस कोड़ा-कोड़ी पल्यों का एक सागर होता है। कुलकरों की, देव-नारकियों की आयु में जो पल्य और सागर का प्रमाण आया है और ऊँचाई में धनुष का प्रमाण आया है, उनको समझने के लिए इन परिभाषाओं को याद रखना चाहिए। अब संख्या के विषय रूप जो चौदह धारा हैं, उनके नाम – सर्वधारा , समधारा, विषमधारा ,कृतिधारा, अकृतिधारा, घनधारा, अघनधारा, कृतिमातृक धारा, अकृतिमातृक धारा, घन- मातृक धारा, अघनमातृक धारा, द्विरूप वर्गधारा, द्विरूप घनधारा , द्विरूप घनाघन धारा
१. सर्वधारा – एक संख्या से लेकर दो, तीन आदि केवल ज्ञान पर्यन्त उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्रमाण सर्वधारा के भेद हैं अर्थात् एक संख्या सर्वधारा का प्रथम स्थान है, दो संख्या दूसरा स्थान, तीन संख्या तीसरा स्थान, ऐसे उत्कृष्ट अनन्तानन्त पर्यन्त उत्कृष्ट अनन्तानन्त स्थान हो जाते हैं।
२. समधारा – जिसमें सम रूप संख्या पाई जाती है, उसको समधारा कहते हैं। इसके पहले स्थान में दो, दूसरे स्थान में चार, तीसरे स्थान में छह, चौथे स्थान में आठ, ऐसे दो-दो बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान पर्यन्त जानना इसके सर्व स्थान केवलज्ञान के आधे प्रमाण हैं। सर्वधारा में सम्पूर्ण संख्या के जितने भेद थे, उनमें आधे तो समरूप हैं, आधे विषमरूप हैं, इसलिए इस समधारा के स्थान केवलज्ञान के आधे प्रमाण हैं।
३. विषमधारा – इसी समधारा में विषमरूप संख्या को विषम धारा कहते हैं। इसका पहला स्थान एक, दूसरा स्थान तीन, तीसरा स्थान पाँच, चौथा स्थान सात, ऐसे दो-दो बढ़ते हुए एक कम केवलज्ञान पर्यन्त जानना इसके सब स्थान आधे केवलज्ञान प्रमाण हैं।
४. कृतिधारा –जिसमें वर्गरूप संख्या पाई जाती है, उसको कृतिधारा कहते हैं। इसका प्रथम स्थान एक है। क्योंकि एक को एक से गुणा करने पर एक ही होता है। दूसरा स्थान ४, २ को २ से गुणा करने से ४ होता है। ३ को ३ से गुणा करने पर ९ होता है, किसी भी संख्या को उसी संख्या से गुणा करने पर जो संख्या आती है, उसको कृतिधारा कहते हैं। इस प्रकार इस कृतिधारा के सर्वस्थान केवलज्ञान के वर्गमूल प्रमाण हैं।
५. अकृतिधारा – सर्वधारा के स्थानों में से कृतिधारा के स्थान घटाने पर बचे हुए सभी स्थान अकृतिधारा के जानना। इसका पहला स्थान २ संख्या का, दूसरा स्थान ३ संख्या का, तीसरा स्थान ५ संख्या का, चौथा स्थान ६ का, पाँचवां स्थान ७ का, छटवाँ स्थान का इत्यादिक सब स्थान एक कम केवलज्ञान पर्यन्त जानना। इसके सभी स्थान केवलज्ञान के वर्गमूल से हीन केवलज्ञान प्रमाण हैं क्यों कृतिधारा में १, ४, ९ आदिक जो अंक आये हैं, वो इसमें नहीं लिये जा सकते।
६. घनमूलधारा – जिसमें घनमूल संख्या पाई जाती है, उसको घनमूल धारा कहते हैं। जैसे एक का घनमूल धारा एक, क्योंकि ३ बार लिखकर परस्पर में गुणा करने पर एक ही आयेगा। घनधारा का दूसरा स्थान ८ का है, क्योंकि २ को ३ बार लिखकर गुणा करने पर ८ होता है, तीसरा स्थान २७ का है, क्योंकि ३ को ३ बार लिखकर गुणा करने से २७ होते हैं। चौथा स्थान ६४ का है, ४ को ३ बार लिखकर गुणा करने पर ६४ होते हैं। इसके सभी स्थान केवलज्ञान के आसन्न घन पर्यन्त हैं। केवलज्ञान का आसन्न घन क्या है ?-उसको अङंक संदृष्टि से बतलाते हैं मान लीजिए केवलज्ञान का प्रमाण ६५५३६ है, इसका आधा ३२७६८ है, ये घनधारा का स्थान है, इसका घनमूल ३२ है। पुन: इसके ऊपर ३३ से गुणा करके ४० तक घनमूल के स्थान हैं। क्योंकि ४० का घन करने पर ६४ हजार होते हैं, इसको आसन्न घन कहते हैं। क्योंकि ४१ का घन करने पर ६८९२१ हो जाता है, सो केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जाता है, सो यहाँ संभव नहीं है, इसलिए केवलज्ञान के नीचे जो प्रमाण घनस्थ होवे, उसको केवलज्ञान का आसन्न कहते हैं। इस आसन्न घन का जो घनमूल उसका जो प्रमाण उतने ही धारा के स्थान है।
शंका – केवलज्ञान के अर्धप्रमाण को तुमने कैसे जाना।
समाधान –द्विरूप वर्गधारा के जो स्थान कहेंगे, उसमें पहला, तीसरा, पाँचवां को आदि करके जो विषम स्थान हैं, उनका तो चौथा भाग घनधारा का स्थान जानना। जैसे-द्विरूप वर्गधारा का पहला स्थान ४ है। उसका चौथा भाग है, यह घनधारा का स्थान है। पुन: तीसरा स्थान २५६ उसका चौथा भाग ६४ घनधारा का स्थान है, ऐसे सभी जगह जानना। पुन: जो दूसरे, चौथे, छठे को आदि करके सम स्थान हैं, उनका आधा प्रमाण घन स्थान जानना। जैसे-दूसरा स्थान १६ उसका आधा स्थान ८ तो घनधारा का स्थान है। ४ स्थान ६५५३६ उसका आधा ३२७६८ ये भी घन स्थान है। यह केवलज्ञान भी द्विरूप वर्गधारा के समस्थान में है, इसलिए इसके आधे प्रमाण को घन स्थान कहा जाता है।
प्रश्न – केवलज्ञान को द्विरूप वर्गधारा के सम स्थान में कैसे जाना।
उत्तर – केवलज्ञान की वर्गशलाका का भी प्रमाण द्विरूप वर्गधारा के समस्थान में कहा है और द्विरूप वर्गधारा के जो स्थान हैं, उनमें प्रमाण समरूप ही हैं, इसलिए जाना। ऐसे घनधारा कही।
७. अघनधारा –जिसमें घनरूप संख्या न पाई जावे, उसे अघन धारा कहते हैं। सर्वधारा में जो स्थान हैं, उनमें घनधारा के स्थान घटाने पर सर्व स्थान इस अघ धारा के जानना इसका प्रथम स्थान में २, दूसरे स्थान में ३, इत्यादिक केवलज्ञान पर्यन्त जानना। इसके सभी स्थान घनधारा के स्थान के प्रमाण से हीन केवलज्ञान प्रमाण जानना।
८. कृतिमातृका धारा –एक से आदि लेकर सब ही का वर्ग होता है, उसको कृतिमातृका धारा कहते हैं। इसका अन्त स्थान केवलज्ञान का ही वर्गमूल जानना केवलज्ञान के वर्गमूल से भी अधिक का यदि वर्ग करिये तो केवलज्ञान से अधिक प्रमाण हो जावेगा, परन्तु केवलज्ञान से अधिक प्रमाण होता ही नहीं है। इसलिए इसके स्थान १ से लगाकर १, १ बढ़ते हुए केवलज्ञान के वर्गमूल पर्यन्त होते हैं।
९. अकृतिमातृक धारा – जिसका वर्ग न होवे, ऐसी संख्या जिसमें पाई जाती है, उसको अकृतिमातृक धारा कहते हैं। केवलज्ञान के वर्गमूल से ऊपर १, १ बढ़ते हुए केवलज्ञान पर्यन्त इसकी संख्या है। इसका वर्ग नहीं होता है। इसके सभी स्थान केवलज्ञान के वर्गमूल से हीन केवलज्ञान मात्र जानना। जैसे-मान लीजिए केवलज्ञान का प्रमाण १६ है। १६ का वर्गमूल ४ तो ४ पर्यन्त का वर्ग होता है और ५ से लेकर १६ पर्यन्त का वर्ग नहीं हो सकता है। अगर करिये तो केवल से अधिक प्रमाण हो जायेगा, तो संभव नहीं है।
१०. अघनमातृक धारा – जिसमें घन हो सकता है, ऐसी संख्या जिसमें हो उसको अघनमातृक धारा कहते हैं। सो केवलज्ञान का। अधिक आसन्न घनमूल से लगाकर १, १ बढ़ते हुए केवलज्ञान पर्यन्त इसके स्थान है। अंक सन्दृष्टि से बतलाते हैं। मान लीजिए केवलज्ञान का प्रमाण ६५५३६ है, इसका आसन्न घन ६४ हजार है। इसका घनमूल ४० है, सो ४० पर्यन्त का तो घन होवे और ४१ से लेकर केवलज्ञान पर्यन्त सब अघन मातृक धारा हैं।
१२. द्विरूप वर्गधारा – द्विरूप के वर्ग से लेकर पूर्व-पूर्व का वर्ग करते हुए जो संख्या होती है, उसको द्विरूप वर्गधारा कहते हैं। इसका प्रथम स्थान २ का वर्ग ४ है। दूसरा स्थान ४ का वर्ग १६ हैं। तीसरा स्थान १६ का वर्ग २५६ है, चौथा स्थान २५६ का वर्ग ६५५३५ है। पाँचवां स्थान बादाल है ४२९४९६७२९६ है, छठा स्थान एकट्ठी है। ८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ पुन: इसी एकट्ठी को एकट्ठी से गुणा करने पर ७वाँ स्थान बन जायेगा, ऐसे संख्यात स्थान हुए जघन्य परीता संख्यात की वर्गशलाका होने तक। वर्ग शलाका किसको कहते हैं-जितनी बार वर्ग किये जो राशि आती है, उतनी बार ही उसको वर्ग शलाका जानना। जैसे-दूसरी वर्ग शलाका १६ है। जघन्य परीता संख्यात की वर्ग शलाका के स्थान से लगाकर संख्यात स्थान हुए तब जघन्यपरीता संख्यात के अद्र्ध छेदों का प्रमाण होता है।
अर्द्धच्छेद किसको कहते हैं ? किसी राशि का जितनी बार आधा होवे, उतने उस राशि के अद्र्धच्छेद होते हैं। जैसे १६ के अद्र्धच्छेद ४ हुए पुन: इस जघन्य परीतासंख्यात के अद्र्धच्छेदरूप स्थान से संख्यात वर्ग स्थान होने पर जघन्य परीता संख्यात वर्गमूल होता है। इससे एक स्थान गये वर्गमूल का वर्ग करने पर अर्थात् जघन्य परीता संख्यात के वर्गमूल को जघन्य परीतासंख्यात के वर्गमूल से गुणा करने पर परीत संख्यात होता है। पुन: संख्यात स्थान जाने पर जघन्य युक्तासंख्यात होता है, सो आवली का प्रमाण है। अर्थात् जघन्य युक्तासंख्यात को आवली कहते हैं।
प्रतरावली किसको कहते हैं ?आवली को आवली से गुणा करने पर प्रतरावली होती है। पुन: इससे असंख्यात स्थान हो जाने पर अद्धापल्य की वर्ग शलाका राशि होती है। पुन: इससे असंख्यात स्थान और होने पर अद्धापल्य की अद्र्धच्छेद राशि होती है। पुन: इसके ऊपर असंख्यात प्रमाण बीतने पर अद्धापल्य का वर्गमूल होता है। पुन: इससे असंख्यात स्थान होने पर सूच्यंगुल होता है। सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल होता है। पुन: इससे असंख्यात स्थान और होने पर जगत् श्रेणी का घनमूल होता है।
१३. द्विरूपघन धारा –द्विरूप वर्ग धारा में जिस राशि का जहाँ वर्ग ग्रहण किया था, वहाँ उसका घन इस धारा में जानना इस धारा के सब स्थान दो कम केवलज्ञान की वर्ग शलाका मात्र है।
१४. द्विरूप घनाघन –धारा घनराशि का पुन: घन करने पर घनाघन होता है। द्विरूप वर्गधारा में जो-जो राशि वर्गरूप हैं, उन प्रत्येक राशि का घनाघन इस धारा में प्राप्त होता है। ये १४ धाराएँ संख्या प्रमाण का विवेचन करते हुए त्रिलोकसार१ ग्रंथ में आई हैं। उसमें भी अच्छा विस्तार है, फिर भी आचार्यदेव ने कहा है कि यहाँ मैंने इन धाराओं का दिङ्मात्र वर्णन किया है। विशेष जानने वालों को ‘‘बृहत्धारा परिकर्म’’ नाम के ग्रंथ से जानना चाहिए। गोम्मटसार जीवकांड की टीका२ में भी कहा है कि इन धाराओं का विस्तार से स्वरूप त्रिलोकसार या ‘बृहत्धारा परिकर्म’ ग्रंथ से जानना चाहिए।