बुन्देलखण्ड की सुरम्य धरा पर छत्तरपुर नगर बसा हुआ है, वैसे तो इस क्षेत्र में आदिमानवकाल से मानव बस्ती होने के प्रमाण प्राप्त होते हैं, यहाँ पर प्राप्त आदिमानव द्वारा बनाये गये शैल चित्रों से उस काल की संस्कृति का भी बोध होता है। छतरपुर नगर की स्थापना वीर बुन्देला शासक महाराज छत्रसाल द्वारा १७०७ ई. में किया गया था, व इसके चारों ओर दूर—दूर का क्षेत्र उनके अधिकार में था। महाराज छत्रसाल की मृत्यु के उपरान्त पारिवारिक झगड़ों व राज्य में फैली अशान्ति का लाभ उठाते हुऐ उनके मंत्री सोनेिंसह पंवार ने छतरपुर नगर पर अधिकार कर लिया व नये राजतंत्र की नींव डाली, जो कि छतरपुर राज्य के नाम से भारत के स्वतन्त्र होने के ठीक पूर्व तक स्वतंत्र सत्ता का भोग कर रहा था। महाराज छत्रसाल द्वारा छतरपुर नगर की स्थापना करने के उपरान्त आस—पास के गाँवों से कई जैन धर्मावलम्बी परिवार भी यहाँ आकर धीरे—धीरे बसने लगे, व व्यापार व्यवसाय करने लगे थे। सोनेिंसह पंवार द्वारा जब छतरपुर को एक प्रथक राज्य घोषित किया गया व आन्तरिक अशान्ति को कम कर एक स्थाई प्रशासन प्रदान किया गया तो यहाँ के व्यापारियों का व्यवसाय भी उन्नति की ओर अग्रसर होने लगा। शीघ्र ही यहाँ पर दिगम्बर जैन मत के विभिन्न अनुयायी लोगों द्वारा दस के लगभग अलग—अलग मन्दिरों का निर्माण कराया गया था। जिसमें से आज ६ मन्दिर पूजा अर्चना के दैनिक प्रयोग में आते हैं, शेष या तो बन्द हो गये हैं, या अन्य प्रयोजन हेतु प्रयोग किये जा रहे हैं। वर्तमान में यहाँ पर निम्न तीन मन्दिरों में भित्तिचित्र प्रमुख रूप से दर्शनीय हैं, शेष मन्दिरों में भित्तिचित्रों को या तो अज्ञानवश मिटा दिया गया है अथवा उन्हें नवीन रूप प्रदान किया गया है।
सबसे पुराने काल के भित्ति चित्र
सर्वप्रथम सबसे पुराने काल की भित्तिचित्रों की वीथी नया जैन मन्दिर में देखने को मिलती है। इस मन्दिर में मूल नायक की वेदी के बगल से एक १० – २० फीट के बरामदे की चारों ओर की दीवारों व छत पर हिन्दू व जैन धर्म के विभिन्न कथानकों का चित्रण अत्यन्त ही मनोहारी ढंग से किया गया है। यहाँ पर सभी चित्र चूने की चिकनी सतह पर ‘आला—गीला’ तकनीक से बने हैं, जो १५० वर्षों के भी अधिक पुराने हैं, व शैली में बूंदी शैली के चित्रों से साम्य रखते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि सभी चित्र र्धािमक कथानकों के आधार पर आधारित हैं, पर कहीं कहीं चित्रकार ने अपने तूलिका का स्वतंत्र प्रयोग किया है, जो हमें अनजाने में ही चित्रकला के काल को निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिये मुगल शैली में बने लैला—मजनू का चित्र, यूरोपियन महिला का चित्र, छतरपुर शासन का राज दरबार, शासक का जुलूस आदि तत्कालीन इतिहास व परिवेश का बोध भी कराते हैं। इस मन्दिर के एक तिहाई भाग में चीनी की टाइलें दीवार पर चिपका दिये जाने से उस भाग के समस्त चित्र नष्ट हो चुके हैं, शेष चित्र उचित देखरेख के अभाव में तेजी से नष्ट होते जा रहे हैं। द्वितीय स्थान पर पंचायती जैन मन्दिर है, इसमें बने हुए चित्र लगभग एक सौ वर्ष पुराने हैं, व चूने की दीवारों को लाल व अन्य रंगों के माध्यम से रंगकर उस पर बनाये गये हैं, जो स्थानीय चित्र शैली की विशेषता है।
पंचायती जैन मन्दिर के सभी चित्र
पंचायती जैन मन्दिर के सभी चित्र जैन मिथिकों एवं धार्मिक कथानकों पर आधारिक हैं। मन्दिर के मेहराबदार दरवाजों के निम्न भागों में आदमकद द्वारपालों को बनाया गया है, तो ऊपरी भाग को सुन्दर रंग बिरंगे फूल पत्तियों से सजाया गया है। मन्दिर की छत पर सुन्दर गलीचे की भाँति चित्रांकन किया गया है। नर—नारियों के शरीर का अंकन आनुपातिक है, वेषभूषा राजसी है, जो कि एक वैभवशाली भावोत्पत्ति प्रदान करता है। इस भित्तिचित्र कक्ष के निचले भाग में बने सभी चित्र नमी के कारण नष्ट हो चुके हैं, जिस पर दुबारा सीमेन्ट का प्लास्टर कर उनके अस्तित्व को ही नाकारा जा चुका है, शेष कक्ष में एनामल पेन्ट कर अज्ञानवश भित्तिचित्रों के महत्व को न समझते हुए मिटा दिया गया है। तृतीय देवालय चौधरियों का मन्दिर है, जो भगवान नेमिनाथजी को सर्मिपत है, इस मन्दिर में चार कक्ष हैं जिन्हें भित्ति चित्रों की सहायता से सजाया गया है। इस मन्दिर की दीवारों को भी गहरे रंगों के माध्यम से रंगा गया है जिसमें लाल रंग प्रधान है। प्रथम कक्ष में सभी प्रमुख जैन तीर्थ स्थलों का चित्रण किया गया है, व अत्यधिक सुन्दर व विभिन्न नयनाभिराम रंगों की सहायता से बेलबूटों का अंकन किया गया हैं शेष तीन कक्षों को जैन ग्रंथों में र्विणत विभिन्न कथानकों, तीर्थंकरों की माता के सोलह स्वप्न, चौबीसी व अन्य आयोजनों आदि से सजाया गया है। यहाँ पर बनाये गये चित्रों में स्थानीय दैनिक जीवन को भी दर्शाया गया है, जैसे मेले में चरखी के झूले में झूलते हुए बालक, हाट बाजार को सामान बेचने जाती हुई ग्रामीण महिलायें इत्यादि। महिलाओं की वेशभूषा एवं सिगार स्थानीय बुन्देला संस्कृति का रूप लिये हुए हैं। जो भित्तिचित्र की राजस्थानी शैली व बुन्देला चित्र शैली का मिश्रित भाव प्रगट करता है। इस मन्दिर के सभी कक्षों के चित्र पुराने होने के कारण धूल—मिट्टी के कारण घुंघले व कालेपन को प्राप्त हो रहे हैं, हाल ही में मन्दिर के प्रबन्धकों द्वारा चित्रों की सुरक्षा की दृष्टि से उन पर लिकर पालिस किये जाने के कारण धूल—मिट्टी और भी अधिक जम गई है, जो चित्रों की प्रभावोत्पत्ति एवं चमक को तेजी से कम कर रही है। संरक्षण सहायक अधिकारी श्री आनन्द के अनुसार छतरपुर के जैन मन्दिरों के भित्तिचित्र अपना पृथक् महत्त्व रखते हैं जिनका संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है।