जंबूद्वीप-पण्णत्ति– संग्रहो यह करणानुयोग का ग्रंथ माना जाता है तथा इसकी रचना ई. सन. की ग्यारहवीं सदी की मानी जाती है । इस संबंध में ‘जैन साहित्य और इतिहास’ में पं. नाथूराम प्रेमी ने तथा ‘जंबूद्वीव-पण्णत्ति-संगहो’२ ग्रंथ की प्रस्तावना में डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने यह ग्रंथ दसवीं-ग्यारहवीं सदी का होने की चर्चा की है । शायद इसी के आधार पर जिनेन्द्र वर्णी जी ने जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग—१३ में इस ग्रंथ का काल ई. सन ९६७-१०१४ दिया है । वर्णीजी का क्या आधार होगा ? इसका तो मुझे पता नहीं है, किन्तु डॉ. ए. एन. उपाध्ये और प्रेमी ने जो आधार दिये हैं, वे निम्नवत् हैं—
(१) बारा नगर में भट्टारकों की गद्दी इसी दरम्यान स्थापित हुई थी ।
(२) इसी दरम्यान बारा नगर में शक्तिकुमार नाम का राजा भी हुआ था ।
(३) त्रिलोकसार में जंबूद्वीवपण्णत्ति की कुछ गाथा समान रूप में मिलती है । त्रिलोकसार नेमिचंद्राचार्य की रचना है । वे ई. सं. १० वीं सदी के उत्तरार्ध में हुये हैं ।
यदि त्रिलोकसार से वह गाथा जंबूदीवपण्णत्ति में ली गयी हो, तो जंबूदीवपण्णत्ति के कर्ता ग्यारहवीं शताब्दी के हो सकते हैं । किन्तु यदि ये गाथाएँ जंबूदीव पण्णत्ति में त्रिलोकसार से ली गयी हों तो जंबूदीवपण्णत्ति यह त्रिलोकसार के पहले की रचना सिद्ध होगी। अत: पहला और दूसरा जो हेतु दिया है उस पर भी विचार करना होगा। पहले हेतु का विचार करते समय असुविधा यह आती है कि प्रेमी या उपाध्ये ने बारा नगर के भट्टारकों की परंपरा प्रकाशित नहीं की है । उसमें यदि पद्मनंदी का नाम भी मिलता हो, तो भी परंपरा यदि नहीं मिलती है तो ये (पद्मनन्दि) यही हैं, ऐसा मानना कठिन है । दूसरो जो हेतु दिया है कि इसी समय बारा ग्राम के एक शक्ति कुमार राजा का पता शिलालेखों से चलता है । इस बाबत मैं यह बताना चाहता हूँ कि डॉ. उपाध्ये इसका पाठभेद भी बताते हैं । पाठभेद में ‘संतभूपाले’ ऐसा उल्लेख तीन प्रति में पाया जाता है । ये संति (शांति) राजा और देवसेन के दर्शनसार में उल्लेखित श्वेतांबर संघ के उत्पादक आचार्य शांति यदि एक ही हों तो, उनके कथन की पुष्टि ही होती है । नवांगधारी यशोभद्र (वी. नि. ४७४-४९१) के समय आचार्य विशाख (गुप्तिगुप्त या अर्हद्बली) ने बारा नगर के इस शांति भूपाल को वीर नि. सं. ४४४/८४ में दीक्षा देकर एक गण का नायक बनाया हो तो उनका गुजरात में वल्लभी जाना और वी नि. सं. ४८५ में भ्रष्ट होना संभव ही है । इसकी पुष्टि तिलोयपण्णत्ति, से भी होती हैं । ४ यहाँ तक वीर नि. सं. ४८४ का काल बताकर लिखा है—‘तत्तो भत्थट्ठणा जादा’ (तत: भ्रष्ट अर्थना जाता)। यदि मूल में भट्ठत्थमा ऐसा शब्द हो तो उसका संस्कृत रूप भ्रष्ट अर्थना (भ्रष्टाचार) ही होगा। यह द्वितीय अकाल तो वीर नि. सं. ४८६ में समाप्त हुआ होगा, किन्तु उसका डर दो वर्ष तक चलता ही रहा होगा। अत: वीर नि. ४८८ में अर्हद्बल्याचार्य के कहने से शांति आचार्य ने छेदोपस्थापना आदेश निकाला भी था । किन्तु उसी रात उनके एक शिष्य ने उनका ही घात कर दिया। वे व्यंतर हुये और संघनायक (जिनचंद्र) तथा संघ पर उपसर्ग करने लगे । जिनचंद्र ने उनको वचन दिया था कि, ‘वे यथा समय उनके आदेश का पालन करेंगे तथा उनका नाम भी लेते रहेंगे ।’
इसी कारण जिनचंद्र ने शांति आचार्य के नाम का एक पूजन रचा था । उसकी प्रथा भी एक हजार वर्ष तक चलती रही। वीर नि. ४९१ में जिनचंद्र ने छेदोपस्थापना कर ली और आगे वीर नि. ५१० से ५१८ तक अर्हब्दली के मूलसंघ का नेतृत्व भी किया। लगता है कि छेदोपस्थापना के समय जिनचंद्र का नाम सकलचंद्र (या चन्द्रनंदी) रखा हो। सकल परमात्मा को जिन परमात्मा ही कहते हैं, अत: सकल और जिन ये दो शब्द एक ही अर्थ में लिये हो। प्रेमी ने कहा है कि ये सकलचन्द्र माघनंदी के श्रेष्ठ (जेष्ठ) शिष्य थे । यथा—तस्सेव य वरसिस्सो सिद्धंतमहोदधिंम धुय कलुसो। णवणियम सील कलिदो गुणउत्तो सयलचंद गुरु।।१५५-१३।।
मैं यहाँ ‘धुय कलुसो’ तथा ‘णवणियम सील कलि दो’ इन दो विशेषणों पर पंडितों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। णव का अर्थ यद्यपि नव संख्या वाचक भी होता है, किन्तु णव का दूसरा अर्थ नूतन भी होता है । छेदोपस्थापना कर जिन्होंने कलंक को धो डाला था ऐसे ‘धुय कलुसो’ वे सकलचंद्र जिनचंद्र गुरु थे । डॉ. उपाध्ये ने णव शब्द का ‘तव ृ तप’ ऐसा शुद्धपाठ दिया है, किन्तु उससे सही इतिहास की पुष्टि नहीं होती। यदि ये सयलचंद्र (सकलचन्द्र) याने जिनचंद्र ही हो तो, उनकी परम्परा इस प्रकार होगी। यशबाहु (भद्रबाहु की) विक्रम सं. ४ से २६ या वि. सं. २२ से ४५ अर्हब्दली श्रीदत्त जिनसेन (जिननंदी) लोहाचार्य २६-३६ ४०-६० ४५ -९५ माघनंदी अपराजित (विजय) वियज (समकालीन शिष्य) धरसेन श्री विजय वीरनंदी जिनचन्द्र (चंद्रनंदी) ३० – ५० ४० – ४८ बलनंदी पुष्पदत्न भूतबली पद्मनंदी श्रीनंदी ५० – ७० ५० – ५० ४९ – १०१ इसी की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण भी दिये जाते हैं ।
(१) पद्मनंदी अपरनाम कुन्दकुन्द के साहित्य की भाषा जो शौरसेनी प्राकृत है वही इस जंबूदीवपण्णत्ति की भाषा है ।
(२)पउमणंदी ने जंबूदीव पण्णत्ति में दी हुई आचार्य परंपरा मात्र लोहाचार्य तक ही दी है । यदि ये आचार्य ग्यारहवीं सदी के होते तो दसवीं सदी तक के किसी आचार्य का तथा गणगच्छ का जरूर उल्लेख करते।
(३) इस ग्रंथ में जो २४७२ गाथायें हैं उसमें एक भी जगह ‘उक्त’ ऐसा उल्लेख नहीं है । तथा इसमें भरत, ऐरावत आदि का जो वर्णन है, वह तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा संक्षिप्त ही है ।
(४) पउमणंदी अपर नाम कुन्दकुन्द का संबंध बारा नगर से भी था । (देखो ज्ञानप्रबोध, सूर्य प्रकाश) तथा कुन्दकुन्द की गिरनार यात्रा भी प्रसिद्ध है ।
(५) धवला पुस्तक, भाग—१ के प्रस्तावना पृष्ठ १४ पर ‘जंबूदीव पण्णत्ति में उद्धृत माधनंदी को श्रुतावतार के कत्र्ता (धरसेन) के गुरु होने की शंका प्रकट की है ।
(६) यहां पउमणंदी के गुरु माघनंदी जिनचंद्र का उल्लेख तो अन्यत्र जैसा ही है । हाँ उनके साथ श्रीविजय, श्रीनंदी, बलनंदी का जो उल्लेख है, उसका अभ्यास करने से पता चलता है कि, एक विजय अपरनाम अपराजित सूरिका उल्लेख भगवती आराधना के टीकाकार के रूप में आया है । तथा वे अपराजित अपने गुरु रूप से चंद्रनंदी तथा जिननंदी आदि का उल्लेख भी करते हैं, भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य भी अपने गुरु का नाम—जिननंदी, सर्वगुप्तगणी, मित्रनंदी ऐसा ही बताते हैं (गाथा नं. २१६९), तथा डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल ने एक अपराजित का समय विक्रम सं. १०१ तक माना भी है । यदि उनके गुरु जिनसेन याने जिननंदी ही हों तो मित्रनंदी का उल्लेख संक्षिप्त मात्र नंदी रूप में होना भी असंभव नहीं है ।
(७) यहां एक आक्षेप उठाया जा सकता है कि, पद्मनंदी (कुन्दकुन्द) ने समयसार आदि ग्रंथों में अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है । किन्तु यहाँ हर अध्याय के अंत में तथा दूसरे से तेरहवें अध्याय के मंगलाचरण में ‘पउमणंदी’ नाम का उल्लेख मिलता ही है । अत: यह कृति समयसारादि के कत्र्ता की नहीं हो सकती। इसका समाधान यह है कि, यदि वीर नि. ५१५ से ५१८ तक की यह रचना हो तो उसमें कत्र्ता का नाम अपना असंभव नहीं है । वीर नि. ५१९ से ये आचार्य बने थे, अत: बाद की रचना में अपने नाम का उल्लेख न करना योग्य ही है ।
(८) सामान्य मुनि अवस्था में इसकी रचना हुई थी, इसके प्रमाण—
सिरि गुरु विजयस्स पासे सोऊणं आगमं सुपरिसुद्धं।
मुनि पउमणंदिणा खलु विहियं एयं समासेण।।१६४ -१३।।
अर्थ— श्री गुरु विजय के पास सुनकर मुनि पउमनंदी ने यह सुपरिशुद्ध आगम संक्षिप्त में लिखा है ।
तथैव—
छदुमत्थेण विरइयं जं किंपि हवेज्ज पवयण विरुद्धम्।
सो धंतु सुगीदत्था पवयणवच्छलताए णं।। १७०-१३
अर्थ— मुझ जैसे अल्पज्ञों के द्वारा रचे गये इसमें जो कुछ भी आगमविरुद्ध लिखा गया हो, उसको प्रवचन वत्सल्ता से शुद्ध कर लेवें।। लगता है कि भगवती आराधना के अंत में आई हुई गाथा का ही यह भाव है ।
यथा—
छदुमत्थदाह एत्थ दु जं बध्दं होज्ज पवयणाविरुद्धं।
सोधिंतु सुगीदत्था, पवयण वच्छलदाए दु।। (२१७१)
यह सब भगवती आराधना में वर्णित उस समय का आचार का ही प्रभाव है । ‘‘श्वेताम्बर परम्परा बारहवें अंग दृष्टिवाद का उच्छेद मानती है, दिगंबर परम्परा इसके कुछ अंश का अस्तित्व स्वीकार करती है ।’’
बारहवें अंग दृष्टिवाद में— १ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्व, तथा ५ चूलिका का अंतर्भाव होता है।
और परिकर्म में १ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, २ द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, ३ सूर्य प्रज्ञप्ति, ४ चंद्र प्रज्ञप्ति तथा ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति का अंतर्भाव होता है । इसी कारण जंबूदीव पण्णत्ति का विषय परिचय दिया जाता है । ग्रंथ का नाम और विषय ग्रंथकार स्वयं द्वितीय अधिकार के मंगलाचरण में कहते हैं—
‘‘उसभजिणींदं पणमिय दसध्द सय चाव दीहरं णाहं।
जंबुदीवस्स तहा खेत विभागं पवक्खामि।।१।।
२ तेरहवें अध्याय में प्रशस्ति में लिखा है कि—
परमेठ्ठि भासियत्थं उड्ढा धोतिरिय लोय संबध्दं।
जंबूदीव णिबद्धं पुव्वावर दोस परिहीणं।।१४०।।
अर्थ— उर्ध्व, अध: व तिर्यक् लोक से संबद्ध जो ‘जंबूदीव’ नाम का शास्त्र निबद्ध किया है, इसका विषय परमेष्ठि द्वारा भासित होने से यह शास्त्र पूर्वापर (विरोधरूप) दोष से रहित है । इस प्रकार दोनों जगह ‘जंबूद्वीप’ का उल्लेख होने से नाम के विषय में शंका नहीं रहती। तथापि इस ग्रंथ के सभी अध्यायों के अंतिम पुष्पिका वाक्य में ‘जंबुद्वीवपण्णत्तिसंगहे’ ऐसा उल्लेख आने से शंका उत्पन्न होती है कि क्या वह मात्र ‘जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति’ का निबंध है, या प्रज्ञप्ति संग्रह याने इसमें पांचों प्रज्ञप्ति का संग्रह है ? परिकर्म में अंतर्भूत पांचों प्रज्ञप्ति के नाम ऊपर दिये ही हैं । उन सभी प्रज्ञप्तियों का इस ग्रंथ में संग्रह सिद्ध करने के लिये मैं कुछ पुष्पिका वाक्यों को दे रहा हूँ
इससे स्पष्ट होता है कि लेखक ने पहला अध्याय मात्र उपोद्घात प्रस्ताव के लिये लिखा। अध्याय २ से ९ तक जंबूद्वीप का वर्णन किया। अध्याय १० तथा ११ में द्वीप सागरों का वर्णन किया। अध्याय १२ में ज्योतिषलोक का याने सूर्य—चंद्र प्रज्ञप्ति का वर्णन किया। अध्याय १३ में प्रमाणों का अर्थात् व्याख्या प्रज्ञप्ति का ही वर्णन किया है । अत: इस ग्रंथ का नाम ‘जंबूद्वीव—पण्णति—संगहो’ अधिक शोभा ही देता है । कारण परिकर्म गत पांच प्रज्ञप्ति का ही संक्षेप में इस ग्रंथ में वर्णन है । इसी का समर्थन अध्याय १३ के गाथा नं. ६ से भी होता है । इसके आगे गाथा नं. १२ से १७ तक में लोहाचार्य तक की आचार्य परम्परा ही दी है । और गाथा नं. १८ में कहा कि ‘‘आचार्य परम्परा से प्राप्त सागर द्वीप तथा अन्य समस्त प्रज्ञप्ति को मैं संक्षेप में कहता हूँ।।’’ यहाँ मात्र लोहाचार्य तक ही आचार्य परम्परा दी होने से ये पद्मनंदी उनके समकालीन होने की संभावना अधिक है । यदि ये पद्मनंदी ग्यारहवीं सदी के होते तो कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समंतभद्र, यतिवृषभ, वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्यों का नाम या वचन इसमें होते। इसी का समर्थन १३ वें अध्याय की गाथा नं. १४१ से १४३ तक में भी किया है । आगे दो गाथाओं में लिखा है कि ‘‘जिनेन्द्र के मुख से निर्गत परमागम के उपदेशक, महाशक्तिशाली, लक्ष्मी के निवास भूत, गुणों की खान ऐसे श्री विजयगुरु विख्यात है ।।१४४।। जिन भगवान के मुख से निकले हुए अमृत स्वरूप परमागम को उनसे सुनकर तथा अर्थपद को पाकर तेरह उद्देश्यों में यह ग्रंथ रचा है ।।१४५।। गाथा नं. १५२ तथा १५३ में इसी का समर्थन करते हुए लिखा है कि ‘‘उक्त माणुस क्षेत्र में अढाईद्वीप, दो समुद्र तथा अन्य भी जो वहां बहुत से विकल्प ज्ञातव्य है । तथा अधोलोक, तिर्यक्लोक, और ऊध्र्वलोक में जो बहुत विकल्प है श्री विजय गुरु के महात्म्य से मैंने यहाँ उन सबका िंकचित वर्णन किया है ।’’ आगे और भी लिखा है—पूव्वंग विपुल विदवं, वत्थुव साहा दि मंडियं परमं। पाहुड साहा निवहं, अनिओय पलास संछण्णं।।१७१।। अव्भुदय कुसुम पडरं, णिस्सेयस अमदसाद फलणिवहं। सुद देवदाभिरक्खं सुद कप्पतरुं णमंसामि।।१७२।।अर्थ — अंगपूर्व रूप विशाल विटप से संयुक्त, वस्तुओं रूप उपशाखा से मंडित, श्रेष्ठ, प्राभृत शाखा सहित, अनुयोग रूप पत्तों से व्याप्त, अभ्युदय रूप प्रचुर पुष्पों से परिपूर्ण, अमृत समान स्वाद वाले, निश्रेयस रूप फलों से संयुक्त और श्रुत देवता से रक्षित ऐसे श्रुतकल्पतरु को मैं नमस्कार करता हूँ।।१७१—१७२।। इन उद्धरणों से ग्रंथकार पद्मनंदी के समय तक अंग, पूर्व, वस्तु, प्राभृत आदि का ज्ञान उपलब्ध था, तथा श्रुत देवता ने जिसका रसण (पूजन) किया था उनके समकालीनता की सिद्धि ही होती है ।
तथैव—
सम्मदूंसणसुद्धो कदवयकम्मो सुसील संपण्णो।
अणवस्य दाण सीले जिणसासण वच्छलो वीरो।।१६५।।
णाणा गुणगण कलिओ, णरवई संपूजिओ कल कुसले।
वारा णयरस्स पहू, णरुत्तमो संति भूपाले।।१६६।।
पोखरणि वावि पऊरे, बहुभवण विभूसिये परम रम्मे।
णाणा जण संकीण्णे, धण धण्ण समाउले दिव्वे।।१६७।।
सम्मादिट्ठि जणोधे मुणिगणणिवहे हि मंडिये रम्मे।
देसम्मि पारियते जिणभवण विहूसिये दिव्वे।।१६८।।
जंबूदीवस्स तहा पण्णत्ति बहु पयत्थ संजुत्तं।
विहियं संखेवेण वाराए अच्छमाणेण।।१६९।।
अर्थ — सम्यग्दर्शन से शुद्ध, व्रत क्रिया को पालने वाला, सुशील से संपन्न, निरंतर दान देने वाला, जिनशासन वत्सल, वीर, अनेक गुणगणों से शोभित, राजाओं से पूजित, कलाओं से निपुण और मनुष्य में श्रेष्ठ ऐसा शांति भूपाल बारा नगर का शासक था । वह बारा नगरी प्रचुर पुष्करणिओं और वापिओं से संयुक्त, बहुत भवनों से विभूषित, अति रमणीय, नाना जणों से संकीर्ण, धन धान्य से व्याप्त, दिव्य, सम्यग्दृष्टि जनों से भी सहित, मुनि समूह से वेष्ठित राम्य और जिन भवनों से विभूषित ऐसे परियात्र देश के अंतर्गत थी । ऐसे बारा नगर में रहते हुये मैंने (पद्मनंदी ने) अनेक पदार्थों से संयुक्त यह जंबूद्वीप तथा (अन्य) प्रज्ञप्ति संक्षेप में लिखी है । यहां ‘पारियात्र’ नाम के देश का जो उल्लेख है उससे यह स्थान आबू पहाड़ से बारा नगर तक का राजस्थान का भाग घोषित होता है । इसका उद्देश्य रावराजा, गौतमीपुत्र सातकर्णि तथा युवराज वासिठी पुत्र श्री पुलुमावी के शिलालेख (क्रमांक १८) में परिचात—परियात ृ पारियात्र के रूप में आया है । दसवीं—ग्यारहवीं सदी में जहाँ शक्ति भूपाल का उल्लेख है वहाँ पारियात्र देश का उल्लेख नहीं है । अत: ये पउमणंदी गौतमी पुत्र सातकर्णी के समय के होने की महती आशंका है । इसी कारण यह रचना वीर नि. ५१६ से ५१८ के मध्य की ही होगी। पद्मनन्दी ने जिनके निमित्त इस ग्रंथ की रचना की थी, उनका नाम श्रीनंदी दिया है (गाथा नं. १५६ / १३)। संभव है कि उनका पूरा नाम श्री मित्रनंदी हो। भगवती आराधना के कत्र्ता ने भी जिननंदी तथा मित्र नंदी के पादमूल में रचना करने का उल्लेख किया है । (गाथा नं. २१६९)। अत: बहुत संभव है कि भगवती आराधना और उसकी श्री विजयाटीका तथा जंबूद्वीव—पण्णति यह समकालीन रचना हो।
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, डॉ. ए. एन. उपाध्ये तथा डॉ. कुसुम पटोरिया, जंबूद्वीव—पण्णत्ति की तुलना तिलोयपण्णति के साथ करते ही हैं । यदि ये पद्मनंदी अपर नाम कुन्दकुन्द ही सिद्ध है तो इससे कुन्दकुन्द को परिकर्म विषय का पूर्ण ज्ञान था, इसकी पुष्टि ही होगी। बताया जाता है कि षट्खंडागम के प्रथम तीन खंड ( १ + २) आ. भूतबलि ने जिनपालित मुनि के हाथ से आत्र पुष्पदंत के पास भेजे थे । फिर आ. पुष्पदंत ने संघनायक (गणी या आचार्य) कुन्दकुन्द के पास इसको देखने के लिये भेजा था । इन तीन खंडों पर ही आचार्य कुन्दकुन्द ने परिकर्म नाम की टीका भी रची थी, जो आज अनुपलब्ध है । किन्तु, यह बात सुनिश्चित है कि, तृतीय और चतुर्थ खंड के बीच में दो—तीन वर्ष का अंतर जरूर पड़ा था । इसी कारण आ. भूतबली को चतुर्थ खंड के आदि में फिर से मंगलाचरण करना पड़ा था ।
धवला एवं जंबूद्वीव—पण्णति—संगहो के अभ्यासी विद्वान इस पर अधिक प्रकाश डाल सकेगे । आपकी प्रतिक्रियाओं एवं सुझावों की प्रतीक्षा है ।