व्यक्ति ने अपने घर में बिल्ली और कुत्ता—दोनों को पाल रखे थे। बिल्ली दिन—रात म्याउं—म्यांउ करती रहती थी। मालिक सोचता कि यह सारे दिन म्याउं—म्याउं करती है, आराम भी नहीं करने देती, नींद में भी बाधा डालती है। एक दिन उसे खूब पीटते हुए मालिक बड़बड़ाया—’ क्या सारे दिन म्याउं—म्याउं करती है ?’ …….. कुत्ते ने भी देखा— यह बोलती है, इसलिए पीटी गई है, अब मैं बोलूंगा (भोकूगा) ही नहीं। रात को घर में चोर घुस गए। चोरी हो गई ।
सुबह हुई कि मालिक लाठी लेकर कुत्ते पर बरस पड़ा। बोला—‘ तुझे क्यों पाला है ? इतनी रोटियां किस लिए खिलाई हैं ? इसलिए पाला है कि चोर आए तो भौंके भी नहीं, पड़ा रहे…..! ’ यह कहते हुए मालिक ने उसे खूब पीटा। बिल्ली की मरम्मत हुई ज्यादा बोलने के कारण और कुत्ते को मार पड़ी न बोलने के कारण। प्रश्न खड़ा हो जाता है कि मौन अच्छा है या बोलना ? क्या करें ? हमें यह विवेक करना होता है कि मौन कहां करना अच्छा है और बोलना कहां अच्छा है। बोलना भी जरूरी है और मौन भी जरूरी है। जो आदमी विवेक नहीं कर पाता है, अविवेक के साथ चलता है— तो समस्या पैदा होती है।