जैनधर्म की संस्कृति एवं कला बहुत प्राचीन है- ऐसी सभी साहित्यकार, शास्त्रकार एवं विद्वतगण स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन की प्राचीनता का सर्व प्रमुख कारण है उसकी कला, सिद्धान्तों की प्रमाणिकता, वस्तु स्वरूप का स्पष्टीकरण, जैनाचार्यों के विचारो की एकरूपता, अरिहंतों से गणधर तथा गणधरों से मुनियों की अविच्छिन्न उपदेश परम्परा। आचार्य कुन्दकुन्द देव सरस्वती देवी की आराधना करते हुए कहते हैं कि उस श्रुतज्ञान रूपी महासमुद्र को भक्ति से युक्त होकर सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ, जो अरिहन्त द्वारा कहा गया है एवं गणधरों द्वारा सम्यव् प्रकार से रचा गया है। यथा-
अरिहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं। पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा।। (श्रीश्रुतभक्ति)
जैन दर्शन में अरिहंतों की वाणी को जिनवाणी, सरस्वती, भारती, शारदा एवं श्रुतदेवी आदि सोलह नामों से पुकारा जाता है। यथा-
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती। तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसगामिनी।।
पञ्चमं विदुषां माता षष्ठं वागीश्वरी तथा। कुमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।
नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा। एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत्।।
पञ्चदशं श्रुतदेवी, षोडशं र्गौिनगद्यते।।
अर्थ:- प्रथम वह भारती हैं, द्वितीय सरस्वती। शारदा देवी उनका तृतीय नाम है और चतुर्थ हंसगामिनी ।।४।। विदुषी,वागीश्वरी, कुमारी, ब्रह्मचारिणा ये उनके पंचम-पष्ठ-सप्तम और अष्टम नाम हैं ।।५।।नौवाँ नाम जगन्माता, दशवाँ नाम ब्राह्मिणी, ग्याहरवाँ नाम ब्रह्माणी और बारहवाँ नाम वरदा है।।६।। तेरहवाँ नाम वाणी, चौदहवाँ नाम भाषा, पन्द्रहवाँ नाम श्रुतदेवी, सोलहवाँ नाम गौ हैं। इस प्रकार ये सरस्वती देवी के सोलह नाम हैं। कोशकारों ने भी सरस्वती के अनेक नाम व उनकी स्पष्ट विवेचना की है—ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग् वाणी सरस्वती।
(व्याख्या – ब्राह्मी द्वारा लोक में प्रचारित होने से ब्राह्मी, भारत में बोली जाने से ‘भारती ’ मुख से उच्चार्यमाण होने से ‘भाषा’ शब्दार्थों का निगरण करने से ‘गी:’ अथवा ‘गिरा’ उच्चारित होने से वाक शब्दार्थ के … से ‘वाणी’ तथा गतिशील होने (सरकने) से ‘सरस्वती’ कहलाती है।)
ब्राह्मी भाषा ब्राह्माणी गौर्गिरागी-र्वाणी वाचा वाव् सरस्वत्यपीड़ा।
भारत्युक्ता शारदा शब्ददेवी। भेद्यधीनं वाङ्मयं तद्विकारे।।
अर्थ — ब्राह्मी, भाषा, ब्राह्मणी , गौ:, गिरा, गी:, वाणी, वाचा, वाक, सरस्वती, इडा, भारती, शारदा आदि नामों से शब्ददेवी कही जाती हैं, उनके ही विभिन्न रूप वाङ्मय की सृष्टि करते हैं।
वाग्देवी शारदा ब्राह्मी भारतीगी: सरस्वती। हंसयाना ब्रह्मपुत्री सा सदा वरदास्तु व:।।
अर्थ:— वाग्देवी, शारदा, ब्राह्मी, भारती, गी, सरस्वती, हंसयाना, ब्रह्मपुत्री नाम वाली (देवी) सदा आप लोगों को वर प्रदान करने वाली हो । पाठकगणों को यह स्पष्ट करना उचित है कि जो यहाँ सरस्वती आदि नाम जिनवाणी के पर्यायवाची नाम हैं। ये सरस्वती आदि नाम चार प्रकार के (देवाश्चतुर्णिकाया:-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्य एवं वैमानिक) देव – देवियों में किसी भी देव-देवी का नाम नहीं है यहाँ पर जो सरस्वती शब्द का सम्बोधन है, वह एकमात्र भगवान की वाणी का आकार-प्रकार व रूप देने के लिए एक प्रतीकात्मक चित्र अंकित किया गया है। प्रतिमा, र्मूित चित्र के माध्यम से अरिहंतो की वाणी द्वादशांग को स्पष्ट किया गया है। यथा—
बाहर-अंगगिज्झा वियलियमलमूढदंसणु त्तिलया।
विविह वर चरण भूसा, पसियदु सुददेवदा सुचिरं।।
अर्थ:- बारह प्रकार के अंग (द्वादशांग) जिससे ग्रहण होते है, जिससे समस्त प्रकार के कर्ममल और मूढताएँ दूर होती हैं—इस प्रकार के सम्यग्दर्शन की जो तिलक स्वरूप है, विविध प्रकार के श्रेष्ण सदाचरण रूपी भाषा से युक्त है, जिसके चरण विविध प्रकार के आभूषणों से मण्डित हैं—ऐसी श्रुतदेवी दीर्घकाल तक के लिए मेरे ऊपर प्रसन्न हो। इसी बीच को आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक (पृष्ठ ३६१) में स्पष्ट किया है-
बारह अंगंगिज्जा दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दसपुव्वाहरणा ठावे दव्याय सुददेवी।।१।।
अर्थ:- बाहर अंगों (द्वादशांग) को ग्रहण करने वाली, सम्यव्दर्शन को तिलक स्वरूप धारण करने वाली, सम्यक्चारित्र्यादि रत्नत्रय रूपी वस्त्र धारण करने वाली एवं चौहद पूर्वों को धारण करने वाली सरस्वती देवी का ध्यान करना चाहिए।
आचारशिरसं सूत्रकृतवक्त्रां सुकंठिकाम्। स्थानेन समवायांगव्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम्।।२।।
अर्थ:- आचार ही जिनका सिर है, सूत्रकृत जिनका मुखमण्डल है जो स्थानांग रूपी सुन्दर कण्ठ वाली है, समवायांग और व्याख्याप्राप्ति जिनकी दो सुन्दर भुजाएँ हैं।
वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनीम्। अंतकृद्दशसन्नाभिमनुत्तरदशांगत:।।३।।
अर्थ:- प्रश्न व्याकरणांग ही जिनके सुन्दर नितम्ब एवं सुन्दर जघन (जंघा) हैं, विपाकसूत्रांग तथा दृग्वाद (दृष्टिवाद) जिनके चरण हैं और जो चरणरूपी अम्बर वस्त्र धारण करने वाली है।
सम्यक्त्वतिलकां पूर्व चतुर्दशविभूषणाम्। तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारपत्रांकुरश्रियम्।।५।।
अर्थ:- सम्यव्त्व का तिलक धारण करने वाली, चौदह पूर्वों का आभूषण करने वाली, प्रकीर्ण एवं कोदीर्ण रूपी सुन्दर पत्रांकुर जिनकी शोभा है।
आप्तदृष्टप्रवाहौघद्रव्यभावाधिदेवताम् । परब्रह्मपथादृप्तां स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम्।।६।।
अर्थ:- जिनेश्वर देव ने जिन सभी द्रव्यों को सभी पर्यायों को देखा है उन सभी पर्यायों की अधिष्ठात्री देवता सरस्वती देवी हैं, अर्थात् इनके आश्रय से भी पदार्थों की सभी अवस्थाओं का ज्ञान होता है। यह परब्रह्म अर्थात् मोक्षमार्ग का अवलोकन करने तथा लोगों को स्याद्वाद का रहस्य बताने वाली सांसारिक सुख एवं मोक्ष को देने वाली हैं।
सर्वदर्शनपाखंडदेवदैत्यखगार्चिताम्। जगन्मातरमुद्धर्तुंजगदत्रावतारयेत्।।७।।
अर्थ:- आप सभी दर्शनों अर्थात् मतान्तरों के लोगों, पाखण्डी, देव, दैत्य विद्याधर आदि से पूजित विश्व की माता हैं। हमें जगन्माता की स्तुति करनी चाहिए। ==
जिनवाणी के साथ देवता और भगवती शब्दों का प्रयोग मात्र आदरसूचक है सरस्वती (स + रस + वती) पद का प्रयोग मात्र जिनवाणी के रूप में हुआ है और उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण दिया गया है। मथुरा से उपलब्ध जैन स्तूप की पुरातात्विक साम्रगी में विश्व की अभिलेखयुक्त प्राचीनतम जैन श्रुतदेवी सरस्वती की प्राप्ति हुई है। जैन परम्परा में बहुत ही सुन्दर सरस्वती प्रतिमाएँ पल्लू (बीकानेर) और लाडनूँ आदि से उपलब्ध हैं, जो ९वीं, १०वीं शती के बाद की हैं। जैनगम में जैनाचार्यों ने सरस्वती देवी का स्वरूप भगवान की वाणी से तुलना की है। यथार्थत: सरस्वती देवी की प्रतिमा द्वादशांग का ही प्रतीकात्मक चिह्न है। ग्रंन्थ प्रतिष्ठासारोद्धार में जैन सरस्वती देवी के संबंध में निम्न श्लोक उपलब्ध हैं-
वाग्वादिनी भगवती सरस्वती, ह्रीं नम:इत्यनेन मूलमन्त्रेणवेष्टयेत्।
ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नम:, इति वाग्देवतां स्थापयेत्।।
जैनचार्य वीरसेन ने भी सरस्वती देवी को जयदु सुददेवता से सम्बोधन कर यह प्रमाणित कर दिया कि जो जैनागम में चार प्रकार के देव-देवियों के देव-देवियों का वर्णन है, उसमें श्रुतदेवी कोई देवी नहीं है वरन् जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि स्वरूप श्रुतदेवी सरस्वती है। कहा भी है-
जिनेश्वरस्वच्छसर:सरोजिनी, त्वमंगपूर्वादिसरोजराजिता।
गणेशहंसव्रजसेविता सदा, करोषि केषां न मुदं परामिह।।
अर्थ:— हे माता! हे सरस्वती! तुम जिनेश्वर रूपी निर्मल सरोवर की तो कमलिनी हो और ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूपी कमल से शोभित हो और गणधर रूपी हंसों के समूह से सेवित हो, इसलिए तुम इस संसार में किसको उत्तम हर्ष की करने वाली नहीं हो? अध्यात्मयोगी आत्मस्वरूप के अमर गायक आचार्य कुन्दकुन्ददेव श्रुतभक्ति/ सरस्वती की स्तुति करते हुए अपने जिन भावों को शब्दाक्षर द्वारा इस प्रकार लिपिबद्ध करते हैं—
सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मम्चक्कमुक्काणं। कादूण णमोक्कारं, भक्तीए णमामि अंगादिं।।
अर्थ:- जिनका अिंहसामय उत्कृष्ट जैनशासन लोक में प्रसिद्ध है तथा जो (घातिया और अघातिया रूप अष्ट) कर्मों के चक्र से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर भक्तिपूर्वक द्वादशांग रूप सरस्वती (बारह अंगों को मैं आचार्य कुन्दकुन्द नमस्कार करता हूँ।
इच्छामि भंते! सुदभत्ति काउस्सग्गो कदो तस्स आलोचेदुं, अंगोवंगपइण्णए-पाहुड-परिकम्म-सुत्त-पढमाणुओग-पुव्वगद-चूलिया चेव सुत्तत्थ वथुदि धम्मकहादियं णिच्चकालं अञ्चेमि,पूजेमि, वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओं बोहिलाओ सुगदिगमणं सामहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होदु मज्झं।।
अर्थ:- मैंने जो श्रुत भक्ति संबंधी कायोत्सर्ग किया है, उसकी (मैं ) आलोचना करना चाहता हूँ।अंग, उपांग, प्रकीर्णक, प्राभृत, परिकर्म, सूत्र, प्रथमोनुयोग, पूर्ववत, चूलिका तथा सूत्र, स्तव, स्तुति तथा धर्मकथा आदि की नित्यकाल अर्चना करता हु” पूजा करता हूँ, उन्हें वन्दना करता हूँ। नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दु:खों का क्षय हो कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और मेरे लिए जिनेन्द्र भगवान के गुणों की संप्राप्ति हो। इसी बात को आचार्य नेमिचन्द ने प्रतिष्ठातिलक (पृष्ठ ३६१) में श्रुतदेवी सरस्वती का स्तवन करते हुए कहा है—
निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं न्यक्षेण सर्व जगदुज्जवलनैकतानम्।
सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणी नूनं, प्राचीमतो जयसि देवि तदल्प सूतिम्।
अर्थ:- हे जिनवाणी! निराधार मोहरूपी अंधकार के विनाश में निपुण, अंधकार से समस्त जगत की मुक्त कर प्रकाशित करने में निपुण चिन्मय (ज्ञान) को अवश्य फैलाओ। हे देवी सरस्वती! इसीलिए अल्प प्रकाशित प्राची दिशा का (अपने ज्ञानालोक से ) विजय कर रही हो।
आभवादपि दुरासदमेव, श्रायसं सुख मनन्तमचिंत्यं।
जायतेद्य सुलभं खलु पुंसां, त्वत्प्रसादत इहाम्ब नमस्ते।।२।।
अर्थ:- हे माँ सरस्वती! संसारी लोगों को आजन्म अत्यन्त दुर्लभ एवं अचिन्त्य अनन्त सुख आपकी प्रसन्नता से सुलभ हो जाते हैं। अत: आप को नमस्कार है।
चेतश्चमत्कारकरी जनानां, महोदयाश्चाभ्युदया: समस्ता: हस्ते कृता:
शस्तजनै प्रसादात्, तवैव लोकाम्ब नमोस्तु तुभ्यम्।।३।।
अर्थ:- हे माँ! लोगों के चित्त में चमत्कार पैदा करने वाले समस्त श्रेष्ठ अभ्युदय आपकी कृपा से भद्रपरिणामी लोग प्राप्त करते हैं। अत: आपको नमस्कार है।
सकलयुवतिसृष्टेरम्बचूडामणिस्त्वं, त्वमसि गुणसुपुष्टे धर्मससृष्टेश्च मूलं।
त्वमसि च जिनवाणि स्वेष्ट मुक्त्यङ्गमुख्या, तदिह तव पदाब्जं भूरिभक्त्या नमाम:।।४।।
अर्थ:— हे माँ! आप संसार की समस्त युवतियों में सर्वश्रेष्ठ हो, आप गुणों से परिपुष्ट हो, धर्मसृष्टि की मूल हो, आप जिनवाणी हो, वैâवल्यबोध का मुख्य साधन हो। अत: आपके चरण कमलों में अतिशय भक्ति के साथ प्रणाम करता हूँ।
इति श्रुतदेवीस्तवनं पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अर्थ:- इस प्रकार देवी स्तवन का पाठ करके भगवती सरस्वती की प्रतिमा पर पुष्पांजलि समर्पित करें। इस प्रकार द्वादशांग स्वरूप सरस्वती देवी का स्वरूप जिनागम में वर्णित है। सर्वत्र सरस्वती देवी की जो आराधना है, वह श्रुतपूजा है। पं. आशाधर सूरि विरचित पूजापाठ प्रारम्भ (पृष्ठ १५३) में सरस्वती देवी की प्रतिष्ठा की विधि में सरस्वती की भक्ति करते हुए अपने निर्मल भावों को इस प्रकार प्रकट किया है-
स्याद्वादकल्पतरूमूलविराजमानां, रत्नत्रयांबुलसरोवरराजहंसी।
अंगप्रकीर्णकचतुर्दशपूर्वकाया-मार्हंत्यसद्गुणमयीं मिरमाह्वयामि।।
अर्थ:— स्याद्वाद रूपी कल्पवृक्ष के मूल में विराजमान रत्नत्रय रूपी कमलों के सरोवर की राजहंसी, चतुर्दश अंग प्रकीर्णक (द्वादशांग रूप सरस्वती ) शरीर वाली, अर्हद् के सदगुणों से युक्त वाणी का मैं आह्वान करता हूँ। अभिधानराजेन्द्र कोश में श्रुतदेवता के प्रसाद की चर्चा निम्न गाथा द्वारा उद्धृत की गई है-
सुददेवता भगवदी,णाणावरणीय कम्मसंघायं। तेसिखवेदु सययं जेसिं सुदसायरे भत्ति।।
अर्थात् जिनकी श्रुसागर (द्वादशांग) में भक्ति है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म के समूह हो श्रुत देवता सरस्वती सतत रूप में क्षीण करें। उपर्युक्त विषय का आशय यह है कि प्रत्येक मंदिर में तीर्थंकरों की प्रतिमा, उनकी यक्ष-यक्षिणी एवं द्वादशांग की प्रतिकात्मक सरस्वती देवी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। यह कथन व्यक्ति वाचक नहीं वरन् आगम का कथन है जैसा कि यतिवृषभ आचार्य ने ग्रन्थराज तियोयपण्णत्ति में जिनमंदिर के स्वरूप का कथन किया है,यथा-
सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं। रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्ठविहमवि होदी।।
इस पर पंडित प्रवर टोडरमल जी का भावार्थ निम्नानुसार है- जिनप्रतिमा के निकट इन चारिनि (चारों) का प्रतिबिम्ब होइ है।यहाँ पर प्रश्न ‘जो श्रीदेवी तो धनादिरूप है और सरस्वती जिनवाणी है, इनका प्रतिबिम्ब कैसे होय है?’ ताका समाधान-‘श्री और सरस्वती-ये दोऊ लोक में उत्कृष्ट हैं, तातैं इनका देवांगना का आकार रूप प्रतिबिंब होइ है। बहुरि दोऊ यक्ष विशेष भक्त हैं। तातें तिनके आकार हो हैं। अरु आठ मंगलद्रव्य हो हैं।
जिन मंदिर/ जैन मंदिर का स्वरूप और उसकी व्यवस्था को भी जैनाचार्यों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-
सिरिसुददेवीण तहा सव्वाण्हसणक् कुमारजक्खाणं। रूवाणि पत्तेक्वकं पडि वर रयणाइरइदाणिं।।
प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्री देवी की, श्रुतदेवी तथा सर्वाह्न व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं। सरस्वती देवी की आराधना, पूजा, विनय, आदि यथार्थ में जिनेन्द्र भगवान की आराधना ही है। कहा भी है—
ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम्।
न किञ्चदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो:।।
अर्थ:- जो श्रुतदेवी (सरस्वती) की पूजा करते हैं, वे जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं क्योंकि केवली भगवान ने श्रुतदेवी में और जिनेन्द्र की पूजा में कुछ अन्तर नहीं कहा है। आचार्य मनीषियों ने शास्त्रों की रचना करते समय मंगलाचरण आदि में सरस्वती, भारती, शारदा, वाग्देवी एवं ब्राह्मी आदि के नानों से जो स्तुति, वंदना, नमस्कार आदि किया है, वह वस्तुत: जिनोपदेश, श्रुतज्ञान अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति स्वरूप किया गया है। नमस्कार प्रयोजन अष्टकर्मों का क्षय रूप एवं अष्टगुणों की प्राप्ति है। जैनाचार्यों, विद्वानों और कवियों द्वारा अनेक स्थानों में सरस्वती देवी से मंगलरूप एवं प्रार्थनापरक स्तुति की है।यथा-
ॐकारं विन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन:।
कामदं मोक्षदं देवमोंकाराय नमों नम:।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलमलंकृता:।
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।।
अर्थ:- बिन्दु संयुक्त (ॐ) को नित्य योगी ध्यान करते हैं।यह काम (सांसारिक सुख) को एवं मोक्ष (आध्यात्मिक सुख) को देने वाला है। भगवती सरस्वती ने निरन्तर बरसने वाले शब्दरूप जलधरों से समस्त संसार के मालिन्यरूप कलंक (दुर्लाच्छन) को प्रक्षालित कर दिया है। मुनियों ने इसी वाग्देवता द्वारा तीर्थों की उपासना की है। वह सरस्वती देवी हमारे पापों का हरण करे।
अनंतधर्मणस्तत्वं पश्यंती प्रत्यगात्मन:। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्।।
अर्थ:- जो शुद्ध आत्मा के स्वरूप को झलकाती है तथा जिसमें वस्तु के अनन्तधर्मों को बतलाया गया है, वह अनेकान्तमयी सरस्वती मूर्ति नित्य प्रकार करे।
सर्वज्ञं तमहं वन्दे परं ज्योतिस्तमोपहम्। प्रवृत्ता यन्मुखादेवी सर्वभाषा सरस्वती।।
अर्थ:— उन सर्वज्ञ की वंदना करता हूँ , कि जिनकी उत्कृष्ट ज्ञानरूपी ज्योति अज्ञानरूप अंधकार को नष्ट करती है, जिनके मुख से सर्वभाषात्मक सरस्वती देवी प्रवृत्त हुई।
तमस्तस्यै सरस्त्यै विमलज्ञानमूर्तये। विचित्रा लोकयात्रेयं यत्प्रसादात् प्रवर्तते।।
सर: प्रसरणं सर्वज्ञानमया मूत्र्तिरस्या अस्तीति सरस्वती तस्यै।
विगतं मलं यस्मात्तद्विमलं।
ज्ञायतेऽनेन इति ज्ञानं विमलं च तत् ज्ञानं च विमलज्ञानम्।
विमलज्ञानमेव मूर्तिर्यस्या: सा विमलज्ञान मूर्ति: तस्यै।
अर्थ:- विमल (सम्यव्) ज्ञान की साक्षात् प्रतिमा उस भगवती सरस्वती को नमस्कार हो, जिसकी प्रसन्नता प्राप्तकर यह अद्भुत संसार यात्रा प्रवर्तित हो रही है।
टीकार्थ:- सर: का अर्थ है प्रसरणशीलता और सभी प्रकार के ज्ञान स्वरूप मय जो मूर्ति है वही सरस्वती है जिसका मल अर्थात अज्ञान, नष्ट हो गया हो उसे विमल कहते हैं जससे किसी वस्तु के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, उसे ज्ञान कहते हैं। और दोष रहित ज्ञान ही विमल या निर्मल ज्ञान कहा जाता है। विमलज्ञान ही जिसका स्वरूप है उसे ही विमलज्ञान मूर्ति कहा गया है और यही भगवती सरस्वती हैं, जिन्हें यहाँ नमस्कार किया गया है।
चंचच्चंद्ररुचं कलापिगमनां य: पुंडरीकासनां,
संज्ञानाभयपुस्तकाक्षवलयप्रावारराजोज्ज्वलां।
त्वामध्येति सरस्वस्ति त्रिनययां ब्राह्ये मुहूर्ते मुदा।
व्याप्ताशाधरकीर्तिरस्तु च महाविद्य:सवन्द्य: सतां।।
अर्थ:— जिसकी कांति प्रकाशमान चन्द्रमा के समान है, मयूर पर जिसकी सवारी है कमल जिसका आसन है, जिसके हाथ में ज्ञानमुद्रा है, एक हाथ में शास्त्र है एक हाथ में अक्षमाला है, एक हाथ प्राणियों को अभयदान दे रहा है, जो श्रेष्ठ उत्तरांग (दुपट्टा चादर) पहने हुए हैं सरस्वती का जो ब्राह्य मुहूर्त में ध्यान स्मरण करता उसकी कीर्ति दशों दिशाओं में फैलती है। वह महान विद्वान हो जाता है और सज्जनों द्वारा अभिनन्द्नाीय होता है।
प्रणम्य तां जगत्पूज्यां गुरूश्च देवीसरस्वतीम्।
यस्या: प्रसादमात्रेण स्याद् रुद्रोऽपि कवीश्वर:।।
सुप्रसादं चतुष्कस्य लिखितां दुण्ढिकामिमाम्।
करोतु में महायोगिध्यायां परमेश्वरी।।
अर्थ:- जगत्पूज्या और सरस्वती देवी को नमस्कार कर प्रसन्न मयी चतुष्क (कातन्त्र व्याकरण) की इस ढुण्ढिका टीका को मैंने लिखा है, जिसकी कृपा मात्र से रुद्र भी कवीश्वर हो गया। वह परमेश्वरी ध्यान करने पर मुझे महायोगी बनाए।
प्रणम्य शारदां देवीं ज्ञाननेत्रप्रबोधिनीम्। शार्ववर्मिकसूत्राणां प्रक्रियां च क्रमाद ब्रुवे।।
अर्थ:- ज्ञान नेत्रों को खोलने वाली शारदा देवी को प्रणाम कर मैं आचार्य शर्वशर्मा के सूत्रों की प्रक्रिया क्रम से कहता हूँ।
सरस्वत्या: प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति मानवा:। तस्मान्निश्चलभावेन पूजनीया सरस्वती।।१।।
श्रीसर्वज्ञमुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी। अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या बहुविकासिनी।।२।।
अर्थ:- सरस्वती देवी की कृपा से विद्वज्जन काव्यरचना में कुशल होते हैं, इसलिए अटल भक्तिभाव से वह सरस्वती देवी सदा पूज्य है। जो सरस्वती देवी श्री वीतराग सर्व प्रभु के मुख कमल से उत्पन्न हुई है, जो अनेक भाषा रूप है और जिससे विद्याओं का उदय हुआ है, वह सरस्वती देवी भव्यजीवों के अज्ञान अंधकार का नाश करती है।।१-२।।
सरस्वत्या: प्रसादेन रच्यतेऽमरकीर्तिना। भाष्यं धञ्जयस्येवं बालानां धीविवृद्धये।।
यद्यपि धनञ्जयो (येनो) क्तो भावो वक्तुंन शक्यते।
तथाऽप्यहं प्रवक्ष्यामि वाग्देव्याश्च प्रसादत:।।
अर्थ:— धनञ्जय द्वारा विरचित नाममाला का भाष्य बालकों की बुद्धि के विकास हेतु भगवती सरस्वती की कृपा से अमरकीर्ति द्वारा रचा जा रहा है। यघपि धनञ्जय के भावों को प्रकाशित नहीं किया जा सकता है, फिर भी वाग्देवी की प्रसन्नता से मैं कहूँगा।
अर्थ:— सर: का अर्थ है प्रसरणशीलता और प्रसरण से युक्त होने के कारणज्ञान की देवी को सरस्वती कहा गया हैं, क्योंकि जिस तरह जलवायु का प्रवाह होता है, उसी प्रकार ज्ञान का भी प्रवाह होता है।
जहि संभव जिणवर-मुहकमल। सत्तभंग-वाणी जसु अमल।।
आगम-छंद-तक्क वर वाणि। सारद सद्द-अत्थ-पय खाणि।।१।।
गुणणिहि बहु विज्जागमसार। पुठि मराल सहइ अविचार।।
छंद बहत्तरि-कला-भावती। सुकइ ‘रल्ह’ पणवइ सरसुती।।२।।
अर्थ:- जो शारदा जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी कमल से प्रकट हुई है, जिसकी सप्तभंगमयी वाणी है, जो आगम, छंद एवं तक्र से युक्त है, -ऐसी शारदा शब्द, अर्थ एवं पद की खान है। जो गुणों की निधि एवं विद्या तथा आगम की सार-स्वरूपा है, जो स्वभावत: हंस की पीठ पर सुशोभित है, जिसे छंद एवं बहत्तर कलाएँ प्रिय हैं—ऐसी सरस्वती को ‘रल्ह’ कवि नमस्कार करता है।।१।।
यस्या: संस्मृतिमात्राद् भवन्ति मतय: सुदृष्टपरमार्था:।
वाचश्च बोधिविकला: सा जयतु सरस्वती देवी।।
अर्थ:- जिस सरस्वती के स्मरण मात्र से बुद्धि परमार्थ का दर्शन करने में समर्थ होती है और वाणी ज्ञानधारा से परिपूर्ण होती है, ऐसी उस सरस्वती देवी की जय हो।
नम: श्री वद्र्धमानाय, श्री पार्श्वप्रभवे नम:। नम: श्री मत्सरस्वत्यै सहायेभ्यो नमो नम:।।
अर्थ:— श्री वद्र्धमान भगवान की जय हो, श्री पाश्र्वनाथ भगवान की जय हो। श्री सरस्वती देवी को नमस्कार है, अन्य सहायकों (आचार्यों, मुनियों, साधु-संतो) को बार-बार नमस्कार है। जैनत्तर मनीषियों ने भी सरस्वती देवी का वर्णन किया है। वह ऐसी सरस्वती देवी को नमस्कार करते है जो अज्ञान-
तिमिरनाशक, ज्ञानसंवर्धिनी एवं दिव्य गुणों से पूर्ण है। यथा- भारतीले सरस्वति या व:सर्वा उपब्रुवे।
सायण:- हे भारति!भरत: आदित्य तस्य संबंधिनी भारती। तादृशि द्युलोक-देवते! हे इले!भू देवि! हे सरस्वती! सर: वाव् उदकं वा।तद्वत्यंतरिक्षदेवते तादृशि देवि। एता: क्षित्यादिदेवता:। एतास्तिस्र: आदित्य प्रभावविशेषरूपा इत्याहु:। यास्तिस्र: सर्वा: वो युष्मान् उपब्रुवे उपेत्य स्तौमि ता यूयं नोऽस्माञ्छ्रिये संपदे चोदयत, प्रेरयत।
अर्थ:- भरत अर्थात् अंतरिक्ष लोक के देव। भरत से सम्बद्ध होने के कारण इसे भारती कहा गया है। अर्थात् हे अंतरिक्ष लोक में निवास करने वाली देवीरूपा सरस्वती, इला अर्थात् पृथ्वीदेवी, (सर: अर्थात् वाणी अथवा जल और उससे सम्बद्ध देवी अर्थात् वाग्देवी सरस्वती) मैं आप सबको बुलाता हूँ तुम सब हमें ज्ञान-सम्पदा की ओर पे्ररित करो।
नत्वा सरस्वतीं देंवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम्।
पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम्।।
अर्थ:- मैं वरदराजाचार्य स्फटिकमणि सदृश निर्मल प्रशसत गुणों से युक्त देदीप्यमान अथवा दिव्य गुणों से युक्त, सरस्वती देवी को नमन अथवा वंदना करके पाणिनी मुनि विरचित व्याकरण शास्त्र में प्रवेश के लिए, लघुसिद्धान्त कौमुदी नामक ग्रन्थ की रचना करता हूँ।
वर्णाश्चत्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्रह्माणा पूर्व लोभादज्ञानतां गता:।।
अर्थ:- पूर्व में (पहले) ब्रह्मा के द्वारा चार वर्णों की स्थापना की गई थी और जिनके ब्राह्मी लिपि तथा सरस्वती (विद्या) की रचना की थी, वे लोभ के कारण अज्ञानता को प्राप्त हो गये।
सरस्वती धृतिर्मेधा ह्नी: श्रीर्लक्ष्मीसमृतिर्मति:।
पान्तु वो मातर: सौम्या: सिद्धिदाश्च भवन्तु व:।।
अर्थ:- सरस्वती, धृति, मेधा, ह्नी, श्री, लक्ष्मी, स्मृति एवं मति रूप सौम्य भाव रखने वाली माताएँ हमारी रक्षा करें और हमें सिद्धियाँ प्रदान करें।
वाग्देवी शारदा ब्राह्मी भारतीगी: सरस्वती। हंसयाना ब्रह्मपुत्री सा सदा वरदास्तु व:।।
अर्थ:- वाग्देवी, शारदा, ब्राह्मी, भारती, गी, सरस्वती, हंसयाना ब्रह्मपुत्री नाम वाली (देवी) सदा आप लोगों को वर प्रदान करने वाली हों।
जनयति मदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणां। हरति तिमिरराशिं या प्रभा भानवीया।।
कृतनिखिलपदार्थ द्योतना भारतीया। वितरतु धुतदोषा सार्हती भारती व:।।
अर्थ:- जो भगवान भास्कर की किरणें मार्ग के वृक्षों में अन्तर्निहित होकर विशेष आनन्द पैदा करती हैं और अन्धकार समूह विनाश करती हैं। वही सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करने वाली प्रकाशित भारती जिनेश्वरों की वाणी हमारे दोषों को दूर करने वाली हमें ज्ञान प्रदान करे।
नारायणं नमस्कृत्य, नरञ्चैव नरोत्तमम्।।
देवीं सरस्वतीञ्चैव, ततो जयमुदीरयेत्।।
अर्थ:- स्वयं नारायण और अन्य उत्तम मनुष्य भी देवी सरस्वती को नमस्कार करते हैं, अत: उसकी जय बोलनी चाहिए।
दधतीं दक्षिणे हस्ते कमलं सुमनोहरम्।
अक्षमालां तथान्यस्मिञ्जिततारकं वर्चसम् ।।८।।
कमण्डलुं तथान्यस्मिन्दिव्यवारिप्रपूरितम्।
पुस्तकं च तथा वामे सर्वविद्यासमुद्रभवम्।।९।।
अर्थ:-दाएँ हाथ में सुन्दर मनोहर कमल धारण करती हुई तथा दूसरे हाथ में अक्षमाला तथा बाएँ हाथ में ताराओं से अधिक तेजस्वी कमण्डलु और दूसरे बाएँ हाथ में सर्वविद्या के उद्गम भूत पुस्तक को धारण करती हुई सरस्वती का ध्यान करना चाहिए।
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा त्वं पवित्रं मतं महत्।
सन्ध्या रात्रि प्रभा: भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती।।७।।
अर्थ:- हे सरस्वती, तुम ही सिद्धि स्वधा, स्वाहा हो। तुम ही पवित्र महान मत हो। तुम ही संध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा हो।
पुष्टिर्धुतिस्तथा कीर्ति: कान्ति क्षमा तथा।
स्वधा स्वाहा तथा वाणी तवायत्तमिदं जगत् ।।५।।
त्वमेव सर्वभूतेषु वाणीरूपेण संस्थिता।
एवं सरस्वती तेन स्तुता भगवती तदा।।६।।
अर्थ:- तुम पुष्टि, धृति, कीर्ति, कांति, क्षमा, स्वधा, स्वाहा और वाणी हो। तुमने ही इस जगत को अपने वश में किया है । तुम ही सभी प्राणियों में वाणी रूप से विराजमान हो। इस प्रकार से भगवती सरस्वती की स्तुति की गई।
वागधिष्ठातृदेवी सा कवीनामिष्टदेवता।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा च शान्तरूपा सरस्वती।।५७।।
अर्थ:- शान्तरूप सरस्वती ही वाणी की अधिदेवता, कवियों की इष्ट देवता, शुद्धसत्त्व वाली है।
भारती भारतं गत्वा ब्राह्मी च ब्रह्मण: प्रिया।
वागधिष्ठातृदेवी सा तेन वाणी च कीत्र्तिता।।२।।
सर्वविश्वं परिव्याप्य स्रोतस्येव हि दृश्यते।
हरि: सर: सु तस्येयं तेन नाम्ना सरस्वती।।३।।
अर्थ:- भारत में होने के कारण भारती, परब्रह्म अर्थात् परमात्मा को प्रिय होने के कारण बाह्मी वाग् की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण वाणी नामों से कही जाती हैं। सरस्वती देवी ने सम्पूर्ण विश्व को स्रोत के समान व्याप्त किया है। ‘हरि’ भगवान ही मूल स्वर हैं, उनसे निकलने के कारण इन्हें सरस्वती नाम से जाना जाता है।
आदौ सरस्वती पूजा श्री कृष्णेन विनिर्मिता।
यत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मूर्खों भवति पण्डित:।।१।।
अर्थ:- हे मुनिराज, जिनकी कृपा से मूर्ख पंडित हो जाते हैं, ऐसी सरस्वती की पूजा नारायण श्री कृष्ण ने की।
धातुश्चतुर्मुखीकण्ठश्रृङ्गटकविहारिणीम्।
नित्यं प्रगल्भवाचालामुपतिष्ठे सरस्वतीम्।।
अर्थ:- ब्रह्मा के चारो मुखों के कण्ठ रूपी पर्वत पर विहार करने वाली प्रगल्भ वाणी से परिपूर्ण सरस्वती की मैं नित्य प्रति उपासना करता हूँ।
शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात्।।५।।
अर्थ:– शरत् कालीन कमल के समान मुख वाली शारदा, सभी कामनाओं को पूरा करने वाली मेरे मुखरूपी कमल में सर्वदा श्रेष्ठनिधि का सन्निधान करें।
करबदरसदृशमखिलं भुवनतलं यत्प्रसादत: कवय:।
पश्चन्ति सूक्ष्मतय: सा जयति सरस्वती देवी।।६।।
अर्थ:-सूक्ष्म मति वाले कविगण जिनकी कृपा से हाथ में रखे हुए बेर के फल के समान सम्पूर्ण विश्व के देखते हैं, ऐसी देवी सरस्वती की जय हो रही है।
वचांसि वाचस्पतिमत्सरेण साराणि लब्धुं ग्रहमण्डलीव।
मुक्ताक्षरसूत्रमुपैति यस्या: सा सप्रसादास्तु सरस्वती व:।।९।।
अर्थ:- वाणी के सार को प्राप्त करने की कामना से मानो सम्पूर्ण ग्रहमण्डली मुक्ताक्षर की माला का रूप धारण करता है। ऐसी वह सरस्वती आपके ऊपर कृपा करे। जैन संस्कृति इतिहास में ही नहीं वरन् ऐतिहासिक भी है, पुस्तकों में ही नहीं वरन् प्राणों में भी दिखाई देता हैं।हमारी संस्कृति एवं कला का संरक्षण, संवद्र्धन न होने के कारण यह ऐतिहासिक धरोहर विलुप्त होती जा रही है। समय-समय पर ऐसे अनेक जैन राजा या जैनधर्म से प्रभावित राजाओं ने जैन संस्कृति एवं उसकी कला का संरक्षण-संवद्र्धन किया है। भारत के इतिहास में अनेक प्रसिद्ध राजाओं ने जिनभक्ति और वाग्देवी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है। मध्ययुग के विद्याप्रेमी और काव्यरसिक शासक राजा भोज भी जिनभक्त थे।‘भूपालस्तोत्र’ में उन्होंने कहा है कि जो व्यक्ति श्री तीर्थंकर जिनेन्द्र के चरणयुगल की प्रतिदिन प्रात:काल स्तुति करता है, जिनदर्शन करता है, उसे मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं वह इस पृथ्वी का राजा होता है और उसे प्रत्येक कार्य में विजय प्राप्त होती है। उसकी सब जगह कीर्ति फैल जाती है, वह सदा आनन्द में मग्न रहता है, उसे वाग्देवी-प्रणीत सभी विद्याएँ प्राप्त होती हैं तथा अन्त में उस धर्मात्मा के भी पंचकल्याणक आदि महोत्सव होते हैं यथा—
श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिपमोदास्पदम्। वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत्।।
स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं य: प्र्रािथतार्थप्रदम्। प्रात: पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांघ्रिद्वयम्।।
कविवर भूधरदास ने ‘चतुर्विंशतिका’ में भी जिनदेव के दर्शन का माहात्म्य प्रकट करते हुए इसी भावना को व्यक्त किया है कि जिनदर्शन में लक्ष्मी-सुख का वास, सरस्वती का निवास और विजय की आधारभूमि है। यथा—
श्री सुख-वास-महीकुल धाम, कीरति-हर्षण-थल अभिराम।
सुरसुति के रतिमहल महान, जय-जुवती को खेलन थान।।
अरुण वरण वांछित वरदाय, जगजपूज्य ऐसे जिन पाय।
दर्शन प्राप्त करै जो कोय, सब शिवननाथ को जन होय।।
भ-पाहुड़ की संस्कृत टीका में उक्तं च श्री भोजराजमहाराजेन (आचार्य कुन्दकुन्द, गाथा १५१) उल्लेख मिलता है । श्री श्रुतसागरसूरि ने भोजराज महाराज के भूपाल ‘चतुर्विंशति जिनस्तवनम’ के एक श्लोक को उद्धत करते हुए ‘जिनदर्शन’ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है-
सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय, द्रष्टव्यमस्ति यदि मंगलमेव वस्तु।
अन्येन किं तदिह नाथ! तवैव वक्त्रम्। त्रैलोक्यमंगलनिकेतनमीक्षणीयम्।।१९।।
सुप्तोत्थितेन — हे वृषभनाथ! प्रात: सोकर उठे हुए सत्पुरूष श्रावक और श्राविका को यदि सुमंगल के लिए कोई मांगलिक वस्तु दर्शन करने योग्य है, तो वह दूसरी वस्तु क्या हो सकती है? उसे तीन लोक के मंगलों का घर स्वरूप आपके श्रीमुख का ही दर्शन (पूजन) करना चाहिए।यथा-
सोकर जागै जो धीमान, पंडित सुधी सुमुख गुणगान।
आपन मंगलहेत प्रशस्त, अवलोकन चाहैं कछु वस्त।।
और वस्तु देखें किस काज, जो तुम मुख राजै जिनराज।
तीन लोक को मंगलथान, प्रेक्षणीय तिहुं जग कल्याण।।
जिनदर्शन और सरस्वती आराधना के इस घनिष्ठ संबंध की साक्षी है—धारा नगरी से प्राप्त वाग्देवी की मनोज्ञ प्रतिमा। इस सरस्वती, प्रतिमा का विश्लेषण ‘अर्हत वचन’शोध-पत्रिका, इन्दौर में प्रकाशित हुआ है। इस सरस्वती प्रतिमा में जिनेन्द्रबिम्ब, विद्याधर, ज्ञानांकुश, आगम-ताड़पत्र अक्षमाला, कमण्डलु, भक्त, भोजराजा एवं श्रीफल लिये हुए महाकुमार अंकित है। आचार्य सोमदेवसूरि ने सरस्वती और श्रमणमुनि के हाथ में सुशोभित कमण्डलु को अर्थशास्त्र का निदर्शन करने वाला कहा है; क्योंकि इसमें जल आने का द्वार बड़ा और खर्च करने का छिद्र छोटा होता है। आय अधिक और व्यय थोड़ा यही सुखी जीवन का रहस्य है-
आय-व्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलुर्निदर्शनम्।
जिनमुख दर्शन और सरस्वती-आराधना के भक्त राजा भोज ने सदैव विद्वता का सम्मान किया है। उनकी घोषणा थी कि-
चाण्डालोऽपि भवेद् विद्वान, य: स तिष्ठतु मे पुरि। विप्रोऽपि यो भवेन्मूर्ख:, स पुराद् बहिरस्तु मे।।
चाण्डाल भी यदि विद्वान हो तो वह मेरे धारा नगर में प्रतिष्ठित हो और यदि ब्राह्मण होते हुए भी वह मूर्ख हो तो मेरे धारा नगर से वह बाहर हो जाये।