स्वामी पात्रकेसरी – जिनसेनाचार्य ने (विक्रम की नवमी शती) अपने महापुराण के प्रारम्भ में पात्रकेसरी नाम के एक आचार्य का स्मरण किया है तथा श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरिपर्वत पर अंकित एक शिलालेख में लिखा है-
उस पात्रकेसरी गुरु की उत्कृष्ट महिमा है, जिसकी भक्ति से पद्मावती देवी त्रिलक्षणक कदर्थन करने के लिए सहायक हुई थी।बौद्ध दार्शनिक हेतु का लक्षण त्रैरूप्य मानते हैं। आचार्य वसुबन्ध ने भी त्रैरूप्य का निर्देश किया है किन्तु उसका विकास करने का श्रेय दिङ्नाग को है। इसी से वाचस्पति मिश्र ने उसे दिङ्नाग का सिद्धान्त कहा है। बौद्ध दार्शनिकों के इसी त्रैरूप्य या त्रिलक्षण का कदर्थन (खण्डन) करने के लिए पात्रकेसरी स्वामी ने त्रिलक्षण कदर्थन नाम के शास्त्र की रचना की थी। अत: पात्रकेसरी दिङ्नाग (ईसा की पाँचवी शताब्दी) के पश्चात् होने चाहिए। त्रिलक्षण का कदर्थन करनेवाला उनका निम्नलिखित श्लोक प्रसिद्ध है-
बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित (विक्रम की आठवीं शताब्दी) ने अपने ‘तत्त्वसंग्रह’ में अनुमान-परीक्षा नामक-प्रकरण में पात्रकेसरी के मत की आलोचना करते हुए कुछ कारिकाएँ पूर्वपक्ष रूप से दी हैं, उनमें उक्त श्लोक भी है। उसकी क्रमिक संख्या १३६९ है । उक्त श्लोक अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय के अनुमान-प्रस्ताव नामक द्वितीय परिच्छेद में भी आता हैं। न्यायविनिश्चय के टीकाकार वादिराजसूरि ने इस श्लोक की उत्थानिका में लिखा है- ‘तदेवं पक्षधर्मत्वादिकमन्तरेणापि अन्यथानुपपत्ति-बलेन हेतोर्गर्भकत्वं तत्र तत्र स्थाने प्रतिपाद्य…भगवत्सीमन्धर स्वामितीर्थंकरदेवसमवसरणाद् गणधर-देवप्रसादापादितं देव्या पद्मावत्या यदानीय पात्रकेसरि-स्वामिने समर्पित-मन्यथनुपपित्तिवार्तिकं तदाह-।’’‘‘
उक्त प्रकार से पक्षधर्मत्व आदि के बिना भी अन्यथानुपपत्ति के बल से उस-उस स्थान में हेतु को गमक बतलाकर, भगवान सीमन्धर स्वामी के समवसरण से गणधर देव के प्रसाद से प्राप्त करके पद्मावती ने जो वार्तिक पात्रकेसरी स्वामी को अर्पित किया था उसे कहते हैं।’’ अंकलकदेव ने अपने सिद्धिविनिश्चय के हेतुलक्षण-सिद्धि नामक छठे प्रस्ताव के प्रथम पद्य के द्वितीय चरण में लिखा है- ‘‘प्रायो नाममलं प्रबोद्धुममलालीढं पदं स्वामिन:।’’ इसके ‘अमलालीढ़ पदं स्वामिन:’ इसके ‘अमलालीढं पदं स्वामिन: का व्याख्यान करते हुए टीकाकार अनन्तवीर्य लिखा है-
इस व्याख्या से ज्ञात होता है कि ‘पद शब्द से टीकाकार ने अन्यथनुपपन्नत्व आदि श्लोक को ग्रहण किया है और उसके विशेषण ‘अमलालीढ’ का अर्थ गणधरों के द्वारा अस्वादित किया है तथा ‘स्वामिन:’ शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में उत्तर-प्रत्युत्तर देते हुए लिखा है-‘स्वामी’ शब्द से कोई-कोई पात्रकेसरी का ग्रहण करते हैं। उनका कहना है कि पात्रकेसरी ने त्रिलक्षण कदर्थन नामक उत्तरभाष्य की रचना की थी और यह हेतुलक्षण उसी ग्रन्थ का है। यदि ऐसा है तो इस हेतुलक्षण को सर्वदर्शी भगवान् सीमन्धर स्वामी का मानना चाहिए, क्योंकि पहले उन्होंने ही ‘अन्यथानुपपन्नत्व’ आदि वाक्य की रचना की थी। यदि कहा जाए कि इसके जानने में क्या साधन है, तो पात्रकेसरी ने त्रिलक्षण कदर्थन की रचना की थी; इसके जानने में क्या साधन है ? यदि कहा जाए कि यह बात आचार्य-परम्परा से प्रसिद्ध है तो उक्त श्लोक के सीमन्धर-स्वामी-रचित होने में भी प्रसिद्धि है ही तथा इसके सम्बन्ध में कथा भी सुप्रसिद्ध।… आदि। उक्त चर्चा से स्पष्ट है कि पात्रकेसरी स्वामी ने ‘त्रिलक्षण-कदर्थन’ नामक ग्रन्थ की रचना था और वह ग्रन्थ अनुमान प्रमाण की चर्चा से सम्बद्ध था और बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित के सामने उपस्थित था, क्योंकि उन्होंने अपने ‘तत्वसंग्रह’ के अनुमान परीक्षा नामक प्रकरण में उससे कारिकाएँ उद्धृत करके उनकी आलोचना की है। अकलंकदेव भी शान्तरक्षित के पूर्वसमकालीन थे। अत: उन्होंने भी उस ग्रन्थ को अवश्य देखा होगा। यह बात सिद्धिविनिश्चय के उक्त श्लोक में आगत अमलालीढं पदं स्वामिन:’ से ज्ञात होती है। अत: न्यायशास्त्र के मुख्य अंग हेतु आदि के लक्षण का उपादान आदि अवश्य ही पात्रस्वामी की देन है। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थकारों ने भी पात्र स्वामी के ही अन्यथानुपपन् नत्वं आदि श्लोक को ग्रहण किया है।‘न्यायावतार’ के हेतु लक्षण को किसी ने भी उद्धृत नहीं किया। सन्मति टीका में तथा स्याद्वादरत्नाकर में तो उसे पात्रस्वामी के नाम से उद्धृत किया है।
यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाये तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। शुभ-अशुभ परिणामों का वर्णन करते हुए कुन्द कुन्द ने कहा है
‘मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं।’
-(आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, ११०)
अर्थ:– कर्म बन्ध मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली के चरम (अन्तिम) समय पर्यन्त तक होता है।
अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान में, अन्तिम क्षण में निश्चय की दृष्टि से रत्नत्रय की स्थिति है।इससे पूर्व के गुणस्थानों में रत्नत्रय को जो मोक्षमार्ग कहा है, वह व्यवहार नय के आसरे से ही कहा है। न्याय वेत्ताओं को इसमें विवाद नहीं करना चाहिये। इसी बात को पं. टेकमचन्द जी ने ‘सुदृष्टि तरंगिणी’ में कर्मबन्ध की व्याख्या करते हुए कहा है- ‘‘(तातैं योगन के निमित्त तै तेरहवें गुणस्थान ताई कर्म का बंध कह्या है, केतेक अतत्व श्रद्धानी दीर्ध मौह के उदयतैं ऐसा माने हैं जो हम सम्यक्त्वी हैं सो हमारे बंध होता नाहीं हम अबंघ हैं उल्टा श्रद्धान करि कर्मबंध मेटने तैं निरुधमी होय आपकौं अशुद्ध का शुद्ध मानि अनेक असंयमरूप परिणाम कर क्रिया द्वारा विषय कषाय पोषते हैं अपना परभव बिगाडे हैं तातैं कहिये हैं भो विषयन के लोभी तूं देखि कर्मनका बंध मुनीश्वरों तैं लगाय केवली भगवान् तक यथायोग्य गुणस्थान तार्इं पदस्थ प्रमाण समस्त संसारी जीवन वै होय है जे कर्म रहित जीव है (सिद्ध) तिनमें नाहीं होय है) तातैं। भी भव्यात्मा तू स्वेच्छाचार परिमाण तजवैं जिनदेव भाषित प्रमाण सरधान करि आपका अनादि संचित कर्मबंध मलतै शुद्ध होय वे का उपाय कर।’’
अर्थ:- यदि करोड़ों गुणों को एक तरफ और औचित्य को दूसरी तरफ रखकर देखा जाये तो एक औचित्य ही प्रमाण अधिक मिलेगा किन्तु जो नितान्त लुब्धक से आक्रान्त है उसे वह भी विष के समान जान पड़ता है।
‘‘कलिप्रावृषि मिथ्यादिङमेघच्छन्नासु दिक्ष्विह। खद्योतवत्ससुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वाचित्।।’’
-(सागारधर्मामृत, पं. आशाधर, पहला अध्याय, ७, पृष्ठ १३)
अर्थ:- बड़े दु:ख की बात है कि इस भरत क्षेत्र में पंचम कालरूपी वर्षाकाल में सदुपदेशरूपी दिशाओं के मिथ्या उपदेशरूपी बादलों से व्याप्त हो जाने पर सदुपदेश देने वाले गुरू जुगुनुओं के समान कहीं-कहीं पर दीखते हैं अर्थात् सब जगह नहीं मिलते हैं।
भारत वंदना-
‘‘भारतं मे प्रियं राष्ट्रं, भारतं हितकारकम्। भारताय नम: तस्मै, यत्र में पूर्वजा: स्थिता:।।’’
-(श्रीधरसेनाचार्य, विश्वलोचनकोश, पृष्ठ ४२२)
अर्थ:-भारत मेरा प्यारा देश है। भारत हितकारी है। उस भरत के भारत देश को नमस्कार है, जहाँ मेरे पूर्वज (२४ तीर्थंकर) रहते थे।‘‘प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को कृषि संस्कृति का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने कृषि, मसि, असि और गषि के माध्यम से क्रमश: उधोग – धंधों, शिक्षा, व्यवसाय रक्षा और योग धर्म का सूत्रपात किया था। उनके कला और शिल्प के गहन अध्ययन ने इस दुनिया को सुजलां-सुफलाम् बनाया। हम भारतीय हलधर के वारिसदार हैं, इसलिए दुनिया पर आए इस संकट से हमें जूझना ही नहीं है कि बल्कि मार्ग भी प्रशस्त करना है।’’
-(इस्लाम और शाकाहार, पद्मश्री मुजफ्फर हुसैन, पृष्ठ २७-२८ से