जैन दर्शन में जलकायिक जीव को पाँच स्थावर जीवों में से एक माना गया है। विज्ञान इसे मात्र एच. २ ओ के रूप में एक रसायन मानता रहा। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने इसमें जीवन की पुष्ठि की है। जलकायिक जीवों एवं जल पर आश्रित त्रस जीवों के घात को रोकने के उपायों, मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संरक्षण हेतु इनकी उपयोगिता, पारम्परिक जैन विधियों विशेषत: सचित्त से अचित्त करने की रीतियों की सविस्तार चर्चा प्रस्तुत आलेख में है।
सम्पादक
(अ) जैन धर्म की वैज्ञानिकता हम सभी गर्व से यह कहते नहीं थकते कि हमारा धर्म बहुत वैज्ञानिक है। लेकिन बच्चों को लगता है कि हम झूठा घमण्ड कर रहे हैं। क्योंकि स्कूल का एक जैन छात्र यह तो जानता है कि जैनी लोग पानी और अग्नि को जीव मानते हैं। लेकिन विज्ञान में पानी और अग्नि को जीव मानने की कोई भी अवधारणा नहीं है। कई साधुओं से या कुछ श्रावकों से यह कई बार सुनने को मिलता रहता है कि जैन विज्ञान के अनुसार पानी की एक बूंद में असंख्यात अपकाय के जीव होते हैं तथा अब तो विज्ञान भी मानता है कि पानी की एक बूंद में ३६४५० जीव होते हैं। लेकिन यह एक बहुत ही भ्रामक और गलत उदाहरण है। इससे हमें आगम की अशातना ही लगती है। वास्तव में एक खोजी ब्रिटानी युवक केप्टन स्कोर्सबी ने गंगा जल के एक नमूने का खुर्दबीन से निरीक्षण किया था। उस पानी के नमूने के एक जल बूंद में त्रसकाय व वनस्पति काय के कुल ३६४५० जीव देखे गये थे। यहाँ यह बात ध्यान में रखें कि १. यह संख्या अलग—अलग प्रकार के पानी के नमूनों में अलग—अलग होगी। यहाँ तक कि जीरो—बी (फिल्टर पानी) में यह शून्य भी हो सकती है। यह तथ्य विज्ञान और आगम दोनों का मान्य है। २. लेकिन जैन विज्ञान तो अपकाय के जीवों की संख्या की बात करता है। न कि उसमें घूम रहे त्रसकाय के जीवों की बात करता है। यानि ऐसा जीव, जिसकी पानी ही काया है। और ऐसे जीव की विज्ञान में अभी तक कोई भी अवधारणा नहीं है। ३. यदि आज के शक्तिशाली खुर्दबीन से निरीक्षण करेंगे तो पानी के किसी नमूने में लाखों/करोड़ों जीव पाये जा सकते हैं। ४. विज्ञान पानी को केवल एक साधारण रसायन (प्२ध्) ही मानता है। जीवन के लिए आवश्यक और मूलभूत कोई भी रसायन (डी एन ए और आर. एन. ए) उसमें नहीं होता है। ३६४५० त्रसकाय के जीवों के आधार पर लोगों क यह कहना कि आजकल विज्ञान भी पानी में असंख्यात जीव मानने लगा है और इसीलिए आगम के अपकाया की मान्यता सही है, एक भ्रामक और अश्रद्धा पैदा करने वाला तर्व है। हाँ, इतने त्रसकाय के जीवों के आधार पर यह राय दे सकते हैं कि पानी को छान कर पीयें। ५. यहाँ यह प्रश्न उठता स्वाभाविक है कि यदि बुजुर्ग लोग धर्म को वैज्ञानिक मानते हैं, तो फिर विज्ञान से ऐसा मनवाने को, क्यों नहीं कोई प्रयास किया गया ? क्यों कोई व्यक्ति, समाज के इस प्रमाद को तोड़ने में सफल नहीं हुआ ? अत: जैनी लोग इतना ही कह सकते हैं कि आगमानुसार पानी भी एक स्थावर काय का जीव होत है।
(ब) वैज्ञानिक शोध के प्रयास सन् २००३ में यह समझने का वैज्ञानिक प्रयास शुरु हुआ कि पानी का ऐसा जीव किस प्रकार का हो सकता है, जिसकी पानी ही काया हो। प्रश्न था कि गर्म करने से या धोवन बनाने से कैसे और क्यों निर्जीव हो जाता है ? कुछ समय बाद यह फिर से जिंदा या सचित कैसे हो जाता है ? सतत् प्रयास व प्रयोगों द्वारा इन सबकी वैज्ञानिकता ढूंढते—ढूंढते ७ साल बाद यह स्थिति तो आ गई है कि अब जैन समाज, विज्ञान को उसकी भाषा में ही यह बता सकता है कि अपकाय का जीव किस प्रकार का होता है ? यानि उसकी संरचना किस प्रकार की है, कैसे जीवित रहता है आदि। अब तो यंत्रों के माध्यम से यह बताना भी संभव हो गया है कि कोई पानी का नमूना अचित्त है या सचित्त है। पानी के जीव का जो प्रतिरूप तैयार किया गया तथा जो परिकल्पना रखी गई थी, उसका स्वतंत्र रूप से प्रमाणीकरण कराने का भी प्रयास किया गया। इसके लिए एक अन्य वैज्ञानिक की सहायता लेकर, प्रयोगों का पुनरावर्तन कराया गया। इस साल (सन् २०१०) उनके द्वारा भेजे फोटोग्राफ्स भी, उपरोक्त सिद्धान्त को अभिपुष्ट करते हैं।
(स) यह प्रश्न भी कई बार उठाया जाता है कि —जल कोई एकेन्द्रिय जीव होता है या नहीं, यह जानकर क्या करेंगे ? —इस ज्ञान से मानव समाज को क्या फायदा होगा ? इसका उत्तर ढूँढने के पूर्व देखते हैं कि वनस्पति जीव है या नहीं, यह १०० वर्ष पूर्व जानकर क्या फायदा हुआ ?
१.इससे एक पूरा जैन विज्ञान ‘कोषाणु—आधारित’ वनस्पति शास्त्र विकसित हुआ।
२.खेती की पैदावार में फायदा हुआ।
३.आनुवंशिक परिवर्तित (पारजीनी) पैदावार विकसित हुई।
उसी प्रकार यदि जल कोषाणु की वैज्ञानिक संरचना मालूम हो जाये, यानि
१.उसकी संरचना कब और कैसे टूटती है और कैसे बनती है ?
२.जीवित पानी या अचित्त पानी के उपयोग में लेने से हमारी शारीरिक रचना और चायापचय में क्या फर्व पड़ता है ?
३. इससे हमारे शरीर अथवा मन पर क्या—क्या प्रभाव पड़ते हैं ? यह सब मालूम हो जाने पर उसको मानव समाज के हित में आवश्यकतानुसार सुधारा जा सकता है।
४. हम विज्ञान जगत को एक नये प्रकार के जीवन के सिद्धान्त को दे सवेंगे। उसमें बहुत सी अन्य जानकारियाँ उजागर होगी।
५.मानव को अपने महत्त्वपूर्ण संसाधन के प्रति नजरिया बदलने में मदद मिलेगी।
६.वैज्ञानिक अवधारणाओं में बहुत महत्त्वपूर्ण होगा तथा पर्यावरण संरक्षण में विशिष्ट औजार उपलब्ध होंगे। (द) अब हम जानने को एक प्रयास करते हैं कि अभी तक की वैज्ञानिक शोध से कैसे सिद्ध होता है कि जल भी जीव होता है ?
( ग ) प्राचीन काल की मान्यताएँ
हमारे ऋषि मुनियों ने खोज करके हजारों वर्ष पूर्व बताया था कि जल भी एक प्रकार का वैसा ही जीव है, जैसा कि वनस्पति (पेड़—पौधे) का जीव होता है। सर जगदीशचन्द्र बोस ने करीब १०० वर्ष पूर्व अपने यंत्रों द्वारा, विज्ञान जगत को बताया था कि पेड़—पौधों में संवेदनाएँ होती है तथा वे एक प्रकार के जीव होते हैं। तब से इन पर बहुत तीव्र गति से खोज होने लगी। सर बोस ने तो पत्थरों में भी जीव की कल्पना की थी, लेकिन उन पर कोई प्रयोग करने के पहले ही उनका देहान्त हो गया था। अत: पता नहीं है कि उन्होंने किस प्रकार के कोषाणुओं की उनमें कल्पना अपने मन में संजोयी थी। हो सकता है कि वह किसी भौतिक रवों का अविकसित कोषाणु रूप रहा हो।
शास्त्रानुसार जल के गुण—हमारे शास्त्रों में जलजीव के बारे में भी काफी विस्तृत वर्णन और चिन्तन मिलता है। जैन ग्रंथों में तो यहाँ तक बताया गया है कि पानी को उबालने से या उसमें राख आदि घोलने से वह पानी निर्जीव (अचित्त) बन जाता है। फिर यही पानी कुछ घंटों बाद, अलग—अलग ऋतुओं में अलग—अलग अवधि में जिसको कालमर्यादा कहते हैं, वापिस जीव (सचित्त) बन जाता है। यह सब विज्ञान को एक आश्चर्य लगता है तथा युवा लोगों को प्रेरित करता है कि वे इन तथ्यों के राज की वैज्ञानिकता को उजागर करने का प्रयास करे।
पानी पर वैज्ञानिक शोध
१.जल की काया (शरीर) का वैज्ञानिक ढाँचा—इसकी वैज्ञानिकता को समझने के लिए पिछले वर्षों में पानी के अणुओं की बनावट का गहन अध्ययन किया गया। पानी के आवेश धारी अणु, पंजभुजी और षटभुजी द्विआयामी ढांचा, बनाने में सक्षम है। इसके अलावा पानी में धुली हुई हवा भी ऑक्सीजन मूलक (आयन) के रूप में पाई जाती है। इन मूलकों की मौजूदगी में पानी का पंचभुजी और षटभुजी रवा जुड़कर एक त्रिआयामी ढांचा बनाता है, जो कमरे के तापक्रम पर भी स्थायी रहता है। यह इकाई रूप आकार अपनी केन्द्रित ऊर्जा से सहजातिक अणुओं को आर्किषत करके, १८—६० इकाइयों का एक जालीनुमा, बेलनाकार (बकीबॉल जैसा) कोषाणु बनाता है। इनकी अपनी जुड़ाव की शक्ति काफी मजबूत होती है। यह पाइपनुमा आकार करीब ०.१ म्यू (काफी सूक्ष्म) लम्बा होता है। यह पाईपनुमा नेनो टयूब उबालने पर टूट जाती है। इस आकार में इसकी सतही ऊर्जा अल्पत्तम होती है। (संलग्न चित्र)
२. जीवित रहने की प्रक्रिया और परिकल्पना
यह ढाँचा/कोषाणु अपनी विद्युत ऊर्जा से लगातार समविष्ट रहता है। फिर सोखी हुई हवा (ऑक्सीजन) के आयन/मूलक जो इस टयूब में प्रवेश कर दूसरी तरफ से बाहर निकल जाते हैं। इनका संचलन / परिवहन इतना आसानी से होता है, जैसे कि वे भारहीन फोटोन के तरह के कण हो। अपनी गति के द्वारा वे एक अलग प्रकार का विद्युत—ऊर्जा क्षेत्र (होल्स क्षेत्र) पैदा करते रहते हैं। कोषाणु की ऊर्जा, इन मूलकों को एक सक्रिय संतुलन में रखती है। अपने में संचित ऊर्जा को मांग होने पर यह कोषाणु उसे उपलब्ध कराने में समर्थ होता है। हाल की शोध से, प्रस व कोरिया में यह पता लगा है कि इन कोषाणुओं में ‘स्मृति’ भी होती है। कुछ अन्य प्रयोगों से हमने यह भी पाया है कि इन कोशिकाओं को प्रशिक्षित किया जा सकता है तथा बाद में ये अपनी स्मृति को आवश्यकता होने पर काम में ले लेते हैं। यह निष्कर्ष होम्योपैथी के लिए एक बहुत महत्त्व की खोज है।
३. जल जीव होने का प्रमाण
(a)होम्योपैथी की क्रियाएँ और प्रभाव— इस पद्धति में दवा का मूल अर्व, अपनी विभिन्न प्रकम्पन गुण और ऊर्जा जल कोशिकाओं के नेटवर्क पर ट्रान्सफर (अंतरण) करके बाहर निकल आता है। यही जीवित कोषाणु मनुष्य के शरीर में जाकर, वहाँ के कोषाणुओं के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। इस प्रक्रिया से जीन्स के संकेत नियमावली और निर्देश बदले जा सकते हैं। जीवित नेनो ट्यूब की बनावट इतनी मजबूत होती है कि संस्कारित होने के बाद ये ब्राउनियन मोशन से अप्रभावित रहती है।
पानी को निर्जीव बनाने की विधियाँ और काल मर्यादा— साधारण पीने का पानी या तो उबालने से या उसमें राख जैसे विजातीय तत्त्व घोलने से वो अचित्त बन जाता है। उबालने से पानी का शरीर टूट कर बिखर जाता है तथा उसमें घुली हुई हवा भी बाहर निकल जाती है। राख आदि के घोलने से पानी के शरीर के छिद्र बंद हो जाते हैं, जिससे वह श्वास न ले पाने के कारण निर्जीव। अचित्त बन जाता है। पानी जब ठंडा हो जाता है तो उसमें हवा फिर से घुल जाती है तथा उसका शरीर भी वापिस जुड़कर उपयुक्त योनि बन जाता है। मौसम के अनुसार उबाला हुआ पानी कुछ घंटों बाद फिर से सचित्त बन सकता है। यानि निर्जीव अवस्था में बने रहने की एक न्यूनतम समय सीमा होती है। यह ‘परिकल्पना’ बाद के प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुकी है।
आभामंडलीय फोटोग्राफी में सजीव / निर्जीव अवस्था का पानी : मुम्बई और अहमदाबाद के किये गये हमारे परीक्षणों में यह भी देखा गया है कि पानी को उबालने से या उसमें राख पाउडर घोलने से (धोवन पानी) पानी का आभामंडल बदल जाता है। आभामंडल के फोटो खींचने से (किर्लियन फोटोग्राफी) जीवित और निर्जीव पानी में स्पष्ट फर्क नजर आता है। आश्चर्य तब होता है, जब ७—१० घंटो के बाद, निर्जीव (उबाला पानी) पानी का आभामंडल फिर से सजीव पानी की तरह का आभामंडल बन जाता है। यानि जैन शास्त्रों में दी गई पानी की काल मर्यादा सही सिद्ध होती है।
निर्जीव पानी पीने के फायदे
१.१० लीटर पानी में ५० ग्राम गोबर की राख घोलने से अच्छा अचित्त धोवन बन जाता है। २४ मिनट बाद निथार और छानकर उसे पीने के काम में लिया जा सकता है।
२.राख से अभिभूत पानी की संख्या ७ से ज्यादा (यानि क्षारीय) होती है। इससे शरीर में जमा अम्लीय कचरा साफ करने में मदद मिलती है।
३. राख से उपचारित पानी ज्यादा शुद्ध और पीने लायक पाया गया। (जामनगर में गुजरात के वाटर सप्लाई और सिवरेज बोर्ड द्वारा जारी टेस्ट रिपोर्ट, २४ अप्रैल २०१०) ४. बैंगलोर के स्कूलों में किये गये परीक्षणों में भी राख घुला पानी (कोलोइड), पूर्व के पानी से ज्यादा साफ और बेक्टीरिया विहीन पाया गया। ऐसा पानी पीने से शरीर में मूलकों की मात्रा कम हो जाती है। यानि यह डीऑक्सीडेंट की तरह काम करता है। चूँकि यह क्षारीय जल होता है, इसलिए ऐसिडिटी की शिकायत (अम्लता) कम हो जाती है। अत: निथार और छानकर घर में ऐसा ही पानी पीने का इंतजाम करना चाहिए।
(इ) अहिंसक जीवन शैली और पर्यावरण संरक्षण :
(ग्) उपरोक्त आभामंडलीय फोटोग्राफी से यह पक्का सिद्ध हो गया है कि पानी सचित्त/अचित्त रूप में एक जलकायिक जीव है। आज हम इस स्थिति में हैं कि यंत्रों द्वारा यह पहचान सकते हैं कि कोई पानी सचित्त अवस्था में हैं या निर्जीव अवस्था में है। अत: विवेकशील मनुष्य का यह कर्तव्य बनता है कि उसके साथ सम्मान की दृष्टि रखें। हमारे अिंहसक जीवन दर्शन ‘परस्परोपग्रहो जीवनाम्’ का तकाजा है कि इसके जीवन की रक्षा करने का भाव रखकर, हम पर्यावरण संरक्षण में अपना सहयोग करें। जीव रक्षा का सीधा—साधा मतलब है कि हम अपने दैनिक जीवन में करूणा पूर्वक, पानी का दुरुपयोग नहीं होने दें। हर समय जागरूक रहकर इसके मितव्ययी बने। अपने विवेक द्वारा इसका अपव्यय बिल्कुल न होने दें। इसके अल्पीकरण के संकल्पों पर विशेष जागरूकता अभियान चलायें।
मितव्ययता
जैसे घी का उपयोग करते वक्त यह ध्यान रखा जाता है कि एक बूंद भी व्यर्थ नीचे नहीं गिरे या फालतू बहकर न चला जाय, वैसी ही मानसिकता जल की बूंद के प्रति भी समाज में विकसित की जाये। खासकर स्कूली बच्चों व कृषि तथा उद्योग में लगे व्यक्तियों को इसका महत्त्व विशेष प्रशिक्षण द्वारा समझाया जाये। ==
कुछ साधारण गुर
१.पानी से धोते वक्त (शरीर, बर्तन व वस्तुओं) बहते पानी के बजाय मग या हाथ के चुल्लू का उपयोग करें तथा प्रत्येक बार पानी की मात्रा कम से कम लें।
२. बहता पानी (जैसे सिचाई आदि) नल या पाइप का व्यास (छोटे छेद वाला) कम से कम रखें तथा नल को भी कम से कम खोलें। फव्वारे या ड्रिप विधियों से खेती में बहुत पानी बचाया जा सकता है।
३.जल संरक्षण में पुनरूपयोग व्यवस्था का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसका उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे पर्यावरण संरक्षण में सहायता तो मिलेगी ही साथ ही साथ में निकट भविष्य में आने वाली जल समस्या से भी निजात मिल सकेगी। जल है तो जीवन है। हमें गंभीरता से सोचना है कि अपकायिक जीवों के प्रति हम समाज में किस प्रकार करूणा का भाव पैदा कर सकें। नहीं तो हमारी उदासीनता या लापरवाही से कहीं आने वाली पीढ़ी ही पानी की कमी के कारण पृथ्वी से विलुप्त होने के कगार पर न आ जाये। ==
(फ) सारांश
(ग्) अभी तक की जानकारी या परिकल्पना के अनुसार—
१. जल जीव की संरचना एक जालीनुमा सूक्ष्म बेलनाकार नेनो टयूब के सदृश है।
२.इसका हाइड्रोजन जोड़ / बंध, स्थिर—वैद्युत शक्ति से बनता है तथा वह तापक्रम और दबाव से प्रभावित होता है।
३.अपनी जालीनुमा संरचना के छिद्रों के अवरुद्ध होने से पानी अचित्त बन जाता है।
४.ये जीव मुख्यत: (a) तापक्रम (b) दबाव (c) परकाय कोलोइड बनाने वाले ठोस पदार्थों से और (d) ऑक्सीजन मूलकों से प्रभावित होते हैं।
पानी को अचित्त बनाने की विधि में क्या किया जाता है ?
१.अचित्त पानी (मूलकों की अनुपस्थिति) से भावनाओं का निग्रह होता है। यानि इंद्रियों को वश में करने में आसानी होती है।
२.अन्य प्रभावों का जैसे चयाचय आदि का भी परीक्षण और शोध करना आसान हो सकेगा (अचित्त और सचित्त दोनों पानी को)।
३.पानी के जीवित रूप में होने की इस वैज्ञानिक खोज से जरूरी बनता है कि हम इन जीवों की रक्षा के लिए अधिक सजग बनें। अिंहसक समाज अपने उपयोग में पानी की मात्रा का निश्चित संकल्प के साथ अल्पीकरण करे तथा किसी भी प्रकार के दुरूपयोग को हटाने का प्रयास करें।
४.जैन दर्शन के अनुसार इससे हमारा पर्यावरण तो बचेगा ही साथ—साथ में हमारे कर्मों की बड़ी निर्जरा भी होगी। यह अपनी आत्मा को, आत्मा द्वारा, दिया जाने वाला एक बड़ा तोहफा होगा।