विशाल-आज क्या बात है विकास! तुम तो समान लेकर तैयार खड़े हो,कहीं जा रहे हो क्या ?
विकास-हाँ,आज रविवार है ना। मेरी मम्मी ‘‘अहिच्छत्र’’ जा रही हैं। मैंने भी सोचा कि छुट्टी तो है ही, मैं भी भगवान् पार्श्वनाथ के दर्शन कर आऊँ।
विशाल-अरे भाई, हस्तिनापुर चलो तो मैं भी चलूं, वहाँ जम्बूद्वीप का प्राकृतिक सौन्दर्य मन को बड़ा आनन्द प्रदान करता है।
विकास-हाँ विशाल! हस्तिनापुर भी चलेंगे, अरे! वहाँ की रौनक का तो कहना ही क्या है ? अब तो जम्बूद्वीप स्थल पर एक बड़ा विशाल कमल मंदिर भी बन गया है। सुना है अपने जैनियों में तो ऐसा मंदिर कहीं भी नहीं बना है किन्तु आज अहिच्छत्र जाने में तो एक कारण ही बन गया ।
विशाल-कारण …………..। तीर्थयात्रा में भी कोई कारण होता है ?
विकास-हाँ ! कल रात को मेरे पिताजी वहाँ के अतिशायी भगवान् पार्श्वनाथ के बारे में एक रोचक घटना सुना रहे थे। उसे सुनकर मैंने भी सोचा कि साक्षात् देखकर आना चाहिए।
विशाल-अच्छा! तो तुम मुझे भी वह घटना सुनाओ न ?
विकास-सुनो भाई! संक्षेप में मैं तुम्हें बता देता हूँ क्योंकि मुझे जल्दी जाना है। बहुत दिनों की बात है कि इस अहिच्छत्र नामक सुन्दर शहर में अवनिपाल नामक राजा राज्य करते थे। उनके पास पांच सौ अच्छे विद्वान् ब्राह्मण थे, वे वेद वेदांग के जानकार थे और उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमण्ड था। एक दिन जब वे सब प्रातःकाल राजसभा में जाने लगे तो नित्य नियमानुसार भगवान् पार्श्वनाथ मंदिर में दर्शन करने गये, तब उन्होंने देखा कि ‘‘चारित्रभूषण’’ नामक एक दिगम्बर मुनिराज देवागम नामक स्तोत्र का पाठ कर रहे हैं। विद्वानों में प्रधान एक पात्रकेशरी था, उसने मुनि से पूछा— क्या आप इस स्तोत्र का अर्थ भी जानते हैं ?
सुनकर मुनि बोल—मैं इसका अर्थ नहीं जानता। पात्रकेशरी फिर बोले— साधुराज, इस स्तोत्र को एक बार फिर से पढ़ दीजिए। मुनिराज ने पुनः सुन्दर स्वरपूर्वक उस स्तोत्र को पढ़ दिया। पात्रकेशरी की धारणा शक्ति बहुत तेज थी अतः एक बार स्तोत्रपाठ सुनकर कण्ठस्थ कर लिया। अब वे उसका अर्थ विचारने लगे और कुछ अर्थ समझकर उन्हें जैनधर्म में बड़ी श्रद्धा हो गई। रात्रि में भी पात्रकेशरी जी उसी का चिन्तन करने लगे और उन्होंने विचार किया— जैनधर्म में प्रमाण प्रमेय सब कुछ बताया गया है किन्तु आश्चर्य है कि अनुमान का लक्षण कहीं नहीं बताया गया। यह क्यों ? इतना सोचकर उन्हें पुनः जैनधर्म में कथित तत्व विषयों पर कुछ संदेह हुआ।
विशाल—क्यों विकास! ये प्रमाण और प्रमेय क्या बला है ?
विकास—मैंने भी पिताजी से पूछा था तो उन्होंने बताया—जीव—अजीवादिक पदार्थ जो जानने योग्य हों वे प्रमेय कहलाते हैं और जिस ज्ञान से इन पदार्थों को जाना जाता है वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। पिताजी ने कहा कि अभी तुम छोटे हो अत: उतना लक्षण ही समझ लो, आगे जब बड़े होकर शास्त्रों का स्वाध्याय करोगे तब इनका विशेष महत्व समझ में आएगा।
विशाल—अच्छा ठीक है। फिर उन पात्रकेशरी जी का संदेह कैसे मिटा ? सो बताओ।
विकास—हां, अब आगे का हाल सुनो— जैसे ही उन महानुभाव का चित्त कुछ व्याकुल हुआ, उतने ही में पद्मावती देवी का आसन कम्पायमान हुआ। वह उसी समय वहां आर्इं और पात्रकेशरी से बोलीं— आपको जैनधर्म में कुछ सन्देह हुआ है पर इसकी आप चिन्ता न करें। आप प्रातःकाल जब जिन भगवान के दर्शन करने को जाएंगे तब आपका सब सन्देह मिटकर आपको अनुमान प्रमाण का निश्चय हो जायेगा। पात्रकेशरी को इस प्रकार कहकर पद्मावती माता मन्दिरजी में गई और वहाँ पार्श्वनाथ के फण पर एक श्लोक लिखकर वह अपने स्थान पर चली गई। वह श्लोक यह था— अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।।
विशाल—ओह! तो तुमने इतनी जल्दी संस्कृत का श्लोक भी याद कर लिया।
विकास—याद तो मैंने इसलिए परिश्रमपूर्वक किया है कि जाकर वहां ज्यों का त्यों लिखा हुआ श्लोक देखूंगा। कहते हैं कि आज तक भी भगवान् पार्श्वनाथ के फण पर यह श्लोक लिखा है। देवी के कथनानुसार पात्रकेशरी जी जब प्रातःकाल मंदिर गये तब वास्तव में फण के ऊपर यह श्लोक लिखा पाया। उनकी खुशी का तो पार न रहा, उसे देखकर उनका सब सन्देह दूर हो गया। इसके पश्चात् श्री पात्रकेशरी जी ने जिनधर्म की खूब प्रभावना की और सम्यग्दर्शन की महिमा प्रकाशित की। उन्होंने एक जिनस्तोत्र बनाया जिसका नाम ‘पात्रकेशरी स्तोत्र’ प़ड़ गया। देखो विशाल ! एक देवागम स्तोत्र से प्रभावित होकर एक पंडितजी को जैनधर्म में ऐसी दृढ़ श्रद्धा हो गई । हम लोगों को भी वह स्तोत्र अवश्य पढ़ना चाहिए।
विशाल-हां, पढ़ना तो चाहिए ही, किन्तु विकास! मुझे यह जरूर अफसोस होता है कि उस समय पात्रकेशरी जी को सन्देह हुआ तो पद्मावती जी ने प्रगट होकर उनका सन्देह दूर कर दिया परन्तु आज तो न जाने कितने सन्देह हमारे धर्म के प्रति हो रहे हैं कोई भी देवी—देवता आकर कुछ सही मार्गदर्शन प्रदान कर देवें तो लोगों की श्रद्धा जैनधर्म के प्रति कितनी बढ़ जावेगी।
विकास—बात तो तुम्हारी सत्य है विशाल! एक बार मैंने महाराजजी के प्रवचन में सुना था कि इस पंचमकाल में मनुष्य का पुण्य इतना क्षीण हो चुका है कि देवतागण उनकी सहायतार्थ इस पृथ्वीतल पर आते ही नहीं हैं । फिर भी भाई! धर्म की गाड़ी तो निर्विघ्न रूप से पंचमकाल के अन्त तक चलेगी ही, और हम तुम जैसे बालक ही जवान होकर उसे सुदृढ़ बनाने में सहयोगी बनेंगे।
विशाल—तुमने जो अहिच्छत्र की घटना बताई, वह तो मुझे भी बड़ी रोचक लगी। मैं भी कभी न कभी जाकर उन भगवान् पार्श्वनाथ के दर्शन अवश्य करूँगा और पद्मावती माता के द्वारा लिखित उस श्लोक को भी देखूंगा।
विकास—ठीक है मित्र, अब मैं चलता हूँ।