‘श्रावक’ शब्द सामान्य ‘गृहस्थ’ शब्द से ऊँचा, अर्थ—गम्भीर और भावपूर्ण है। श्रावक शब्द का अर्थ शिष्य या सुनने वाला भी है। जैन और बौद्ध परंपरा के अनुसार‘श्रावक’ वह है जो सद्धर्म पर श्रद्धा रखता है, गृहस्थोचित व्रत या दायित्वों का निष्ठापूर्वक पालन करता है, पाप—क्रियाओं से दूर रहता है और अपनी सीमा में आत्म—कल्याण के पथ पर चलते हुए श्रमणों या भिक्षुओं की उपासना करता है—उनके आत्मकल्याण में सहायक होता है; विवेकी और क्रियावान् होता है। कविवर बनारसीदास ने श्रावक को ‘जिनेन्द्र का लघुनन्दन’ कहकर उसे गौरव के शिखर पर चढ़ा दिया है। ऐसा सम्यग्दृष्टिसंपन्न श्रावक गृहस्थ होते हुए भी संसार—प्रपंच में लिप्त नहीं होता—‘गेही पै गृह में न रचै ज्यों जलतैं भिन्न कमल है’। श्रावक अर्थात् सम्यक् श्रवण करने वाला, प्राणों से श्रवण करने वाला, समग्र चेतना से श्रवण करने वाला। काल—प्रवाह के थपेड़े खाते—खाते आज श्रावक शब्द का अर्थ—गौरव भले ही खो गया हो, लेकिन तब भी वह शुचिर्भूत, शालीन, पवित्र, सरस, प्रतीतिपूर्ण निर्भय, निरामय, स्फटिकवत् निर्मल—स्वच्छ जीवन का र्कीितकेश है। तीर्थंकरों के धर्मसंघ का संवाहक श्रावक ही होता है, वही धर्मरथ की धुरी होता है। परम श्रावकत्व की पराकाष्ठा तक पहुँचे बिना मुनिधर्म के तपोमार्ग पर आरोहण संभव ही नहीं है। मुनि की प्रतिष्ठा का आधार श्रावक ही है। जैन—आगम नाम से प्रसिद्ध प्राचीनतम प्राकृत वाङ्मय में श्रमण या अनगारधर्म का ही वर्णन विशेष रूप से मिलता है। बड़े—बड़े सम्राटों तथा श्रेष्ठि—पुत्रों ने ही नहीं, अतिमुक्तक जैसे छोटे—छोटे बालकों या किशोरों ने भी सीधे श्रमण—धर्म की दीक्षा लेकर तपस्या की और मुक्ति प्राप्त की। उपासकदशांग जैसे एकाध ग्रंथ में उपासकों के व्रती—जीवन का वर्णन अवश्य मिलता है; किन्तु प्राय: सारा आगम—वाङ्मय श्रमण—जीवन अंगीकार करने वालों की कथाओं से भरा है। आगमयुग के पश्चात्वर्ती काल में ही श्रावकाचार—प्रतिपादक ग्रंथों की रचना की ओर आचार्यों का ध्यान गया हैं आगम—युग में और संभवत: भगवान् महावीर की दृष्टि से अनगारधर्म ही कर्ममुक्ति के लिए आवश्यक समझा गया था। बड़े—बड़े संपत्तिशाली गृहस्थपुत्र और राजपुत्र भरी जवानी में पाँच—पाँच सौ पत्नियों को बिलखती छोड़कर श्रमणपथ पर चल पड़ते हैं। और वैभव भी कैसा ? भद्रापुत्र शालिभद्र की ३२ पत्नियों ने बीस—बीस लाख स्वर्णमुद्राओं के रत्नकम्बल पैर पोछकर यों फैक दिया मानो पूछना हो ! धनलिप्त लोगों को वैभव के नशे से विरत करने के लिए सर्वस्व त्याग का मार्ग ही आवश्यक था। महावीर जिस प्रकार की सामाजिक या र्धािमक क्रान्ति का सपना देख रहे थे, उसे साकार करने के लिए सुविधा का या यथाशक्ति त्याग का उपाय शायद यथेष्ट फलदायक नहीं था, क्योंकि विषमता चरम सीमा तक पहुँच गयी थी। हर क्षेत्र में विषमता थी, शोषण था और महावीर थे समता के प्रेरक। समाज में समता लाने के लिए वैभव की प्रतिष्ठा को नीचे उतारना आवश्यक था। अपहरण के द्वारा प्रतिष्ठित होने की अपेक्षा महावीर ने अपरिग्रह द्वारा प्रतिष्ठित होने का मार्ग खोला और हम देखते हैं कि झुण्ड के झुण्ड लोग, युवक और युवतियाँ उनके श्रमणसंघ में शामिल होते हैं, श्रमण बनते हैं और घर—घर से भिक्षा लेकर समता की अलख जगाते हैं। क्रांति के संवाहक युवक ही होते हैं। जब—जब भी देश और समाज में किसी प्रकार की क्रांति—चेतना जगी है, तो उसकी मशाल युवकों के हाथों में रही है। महावीर की धर्मक्रान्ति का संचालन भी युवकों ने ही किया। बाद में, ऐसे गृहत्यागी श्रमणों का समर्थ संघ बन जाने पर, यह आवश्यकता अनुभव होने लगी कि साधना का एक ऐसा मार्ग भी होना चाहिए जो सामान्य गृहस्थ के उपयुक्त हो और श्रमणधर्म का पूरक और संरक्षक भी हो। चूँकि श्रमणधर्म का पालन सामान्यत: कठिन होता है, अत: श्रावकधर्म का मध्यम अर्थात् अणुव्रत का मार्ग खुल गया। यह इसलिए भी आवश्यक था कि सामाजिक मर्यादाएँ तथा संतुलन बना रहे, स्वेच्छाचार पर नियंत्रण रहे, समाज में नैतिक वातावरण वृद्धिंगत हो और श्रमणों का संरक्षण भी हो। श्रावक के आचार—धर्म को भले ही अणुव्रत का मार्ग कहा जाता हो, किन्तु वह श्रमण—धर्म से कम महत्त्व का कतई नहीं है। महाव्रत अंगीकार करके सर्वसंगपरित्यागी तथा अरण्यविहारी बनकर मुक्ति की साधना करने की अपेक्षा परिवार के बीच, समाज में रहकर अपने को संयत और लोककल्याणाभिमुख बनाने में अधिक पुरुषार्थ एवं तपस्या अपेक्षित है। ऐसे अणुव्रती या श्रावक को लोकसंग्रह भी करना पड़ता है, पारस्परिक सौहार्द भी जगाना पड़ता है, व्यक्तिगत तथा सामाजिक बुराइयों का सामना भी करना पड़ता है। वह ‘कर्म’ से विमुख नहीं हो सकता। निरन्तर व्यवहार निरत तथा लोक संपर्क में रहते हुए उसे मन, वचन और कायगत संयम रखना पड़ता है। पग—पग पर उसके सामने आकर्षण और प्रलोभन की फिसलन होती है, किन्तु उसे प्रतिपल सतर्क रहना पड़ता है। उसका जीवन वास्तव में सामूहिक साधना का कर्मक्षेत्र होता है। एक प्रकार से वह अपने गले में सर्पमाल धारण करके कर्मक्षेत्र में उतरता है। वह पलायनवादी नहीं होता। वह कर्दममय सांसारिकता में ही कमल की भाँति ऊपर उठता है। स्वामी समंतभद्र अपने समय में बड़ी क्रान्तिकारी बात कह गये हैं कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ उत्तम होता है। किन्तु वास्तव में देखा जाय तो गृहस्थों का जो क्रीड़ाक्षेत्र है, वह मुनियों के लिए दुष्कर तपस्याभूमि है—मुनि उसमें अपने को सम्हाल ही नहीं सकते। आज तो आचार्य समन्तभद्र को भी उलटकर अपनी बात में संशोधन करके कहना पड़ता कि ‘मुनि भले ही निर्मोही हो, लेकिन श्रेष्ठ तो अल्पांश मोही गृहस्थ ही माना जायेगा।’ मानवधर्म का यथार्थ प्रतिनिधि वस्तुत: श्रावक ही है। श्रावक के आधारभूत व्रत बारह कहे गये हैं। श्रावकाचार विषयक ग्रंथों में इन व्रतों की पाँच—पाँच भावनाओं तथा पाँच—पाँच अतिचारों का वर्णन भी मिलता है। इन व्रतों का सांगोपांग या अल्पांश में दृढ़तापूर्वक पालन करने वालों की तथा चोरी—छिपे विकारवृत्ति के प्रलोभनवश इनका भंग करने वालों की दृष्टांत—कथाएँ भी उद्बोधन के लिए लिखी हुई मिलती हैं। मनुष्य ही नहीं, अपितु सिह, हाथी, सर्प, भालू, बैल और वानर जैसे पशु तथा पक्षी भी धर्म का उपदेश सुनकर तथा जातिस्मरण होने के फलस्वरूप किसी एक व्रत के अर्थात् अहिंसा के किसी एक अंश का पालन करके, कष्ट सहन करके, प्राणत्याग करके सद्गति प्राप्त कर चुके हैं। अपने एक पैर के नीचे आश्रय लेने वाले खरगोश की प्राणरक्षा की अनुकम्पा भावना से प्रेरित हाथी का जीव सद्गति प्राप्त करता है और बाद में वह श्रेणिकपुत्र मेघकुमार के रूप में जन्म लेता है। महावीर का दंश करने वाले चंडकौशिक सर्प की कथा प्रसिद्ध ही है। आज भी परिवारों में परस्पर विरोधी वृत्ति के जानवर प्रेम करते हुए पाये जाते हैं। ये प्राणी बुद्धि में मनुष्य की अपेक्षा निम्नकोटि के माने जाते हैं लेकिन इनका स्नेहपूर्ण बर्ताव और एक दूसरे के लिए त्याग देखकर मनुष्य गद्गद हो जाता है। कई बार ये मूक प्राणी मनुष्य के गुरु या मार्गदर्शक तक बन जाते हैं। ये नहीं जानते कि वे किस व्रत का किस अंश में पालन कर रहे हैं और उनकी क्या गति होगी ? हाँ, स्नेह की, ममता की, करुणा की और पारस्परिकता की साधना मनुष्य के लिए महाकठिन है। श्रावक इसी महाकठिन साधना करने में जीवन को खपाता है। व्रतों की संख्या का या उनकी शास्त्रीय परिभाषाओं का, सीमा—रेखा का महत्त्व सुविस्तृत एवं मार्गसूचक पट्टिकाएँ हैं कि मार्ग लम्बा है या कंटकाकीर्ण, सूना है या भयावना; लू—लपट वाला है या धूल—धक्कड़ से भरा है ऊबड़—खाबड़ है या सीधा—समतल टेढ़ा—मेढ़ा है या ऊँचा—नीचा। मनुष्य की शारीरिक शक्ति एवं सामथ्र्य की एक सीमा है। यह मनुष्य की विवेकशक्ति पर निर्भर है कि वह देश, काल, शक्ति परिस्थिति देखकर पथ पर कितनी ऊँचाई तक जाने में समर्थ है। व्रत एक भी हो सकता है, बारह भी हो सकते हैं और बारह सौ भी हो सकते हैं। एक व्रत के अंश के अनन्त आयाम हो सकते हैं और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग—अलग हो सकते हैं। जैनधर्म ने सदैव व्यक्तिस्वातन्त्र्य को सर्वोपरि महत्त्व दिया है। मनुष्य का धर्म वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार का है। उसके पुरुषार्थ की सफलता इसी में है कि वह दोनों में संतुलन साधे। प्रवाहशील परंपरा में से अपनी उपयोगिता और आवश्यकतानुसार सारतत्त्व ग्रहण करके आगे बढ़ने में ही सार्थकता है। यह विज्ञान और विकासशीलता का युग है। यों युग कभी अवैज्ञानिक नहीं रहा, समाज सदैव प्रगतिशील ही रहा है। फिर भी आज युग अन्तरिक्ष वैज्ञानिकता में प्रवेश कर गया है। मानव ने अपने से सहस्रों गुना शक्ति, यंत्रों में संचित करके समय और देहशक्ति की बचत करने में सफलता प्राप्त कर ली है। समाज का स्वरूप और नक्शा बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है और यह बदलाव ही उसके विकास का द्योतक है। इस बदलाव से मनुष्य नित नूतनता प्राप्त करता है और जीर्ण—शीर्ण को उतारता—फैकता चलता है। शास्त्र—निर्देशित विधान या परिभाषाएँ उसके समक्ष नये—नये परिवेश तथा नये—नये अर्थ में प्रस्तुत होती हैं और इस तहर वह क्रियाजड़ता में न उलझकर प्रगति करता जाता है। व्रतों के परिपालन में जड़ता तभी आती है, जब व्रतों की लीक पीटी जाती है—लीक पिटती रह जाती है, जीवन आगे बढ़ चुका होता है। मक्षिका के स्थान पर मक्षिका तो मारकर ही रखी जा सकती है। जड़ शब्दों की पकड़ में गतिशीलता कहाँ ? व्रतपालन का विधान या संकेत या संख्या इसलिए नहीं है कि वैसा करने से मनुष्य को प्रतिष्ठा या स्वर्ग का ऐश्वर्य मिले। किसी भी प्रकार की कामना की आकांक्षा से व्रत का पालन करना भयजन्य पलायन है, समस्याओं से मुंह चुराना है और सदाचरण का, सामाजिक दायित्व का सौदा करना—अपने को बेचने जैसा है। शक्ति और सामथ्र्य से हीन दासवृत्ति से भरा हुआ मनुष्य आदेशों का अक्षरश: पालन करके स्वामिभक्त या प्रिय पात्र बना रह सकता है और इस कला में वह अभ्यास द्वारा इतना निष्णात भी हो सकता है कि उसमें कोई गलती या चूक न हो—इतना यांत्रिक बन सकता है। लेकिन यही सबसे बड़ी आत्मबंचना है। आत्मबंचक या जड़ मनुष्य व्रतों का पालन बड़ी सावधानी तथा सतर्कतापूर्वक करते हैं। बार—बार वे शास्त्रों के प्रमाण भी प्रस्तुत करते हैं। नैतिकता का, संयम का, र्धाितकता का मुखौटा लगाकर विचरने वाले ही ये लोग व्रतों से अपने बचाव के अनेक उपाय खोज लेते हैं। इस लोकव्यापी जड़ता में से ही दिखावा, छलावा और भुलावा निपजता है। नियमों तथा आदेशों का पालन तो सैनिक और कारखाने के मजदूर भी करते हैं, सर्कस के प्राणी भी करते हैं। लेकिन इसे आंतरिक विकास का प्रमाण नहीं कहा जा सकता। नियमों या व्रतों का अन्धानुकरण आकर्षक और चमत्कारिक हो सकता है, लेकिन उसमें स्वायत्त चेतना नहीं होती। श्रावक व्रतों का पालन व्रतों से ऊपर उठने के लिए करता है, अपने को माँजने के लिए करता है। व्रतातीत अवस्था ही मुक्ति है। भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम व तप रूप धर्म को ‘उत्कृष्ट मंगल’ कहा है। जिस व्यक्ति में इसका दर्शन होता है, उसे देवता भी नमन करते हैं। पाँच व्रतों को भी इन तीनों में समाहित किया जा सकता है। अचौर्य और अपरिग्रह संयम में आ जाते हैं, सत्य और ब्रह्मचर्य तप में और सबके सब अहिंसा में समा जाते हैं। अहिंसा पारम्परिक रूढ़ अर्थ में जीवदया या जीवरक्षण नहीं है। अहिंसाव्रती श्रावक के समक्ष अन्तर्मुखी जीवन की सहस्रविध धाराएँ नित्य नये रूपों में व्यक्त होती रहती हैं और सभी धाराएँ परस्पर विरोधी भी भासती हैं। वस्तुत: अहिंसा तो आत्मवत् सर्वभूतेषु का चरम उत्कर्ष है। इसमें सीमा और मर्यादा का, प्रमाण और अंश का, संकल्प और विकल्प का, कम और ज्यादा का, सुविधा और असुविधा का प्रश्न ही नहीं उठता। वहाँ जो जीवन की प्रत्येक क्रिया अहिंसा से ओतप्रोत होगी। वही अभिव्यक्त होगी। क्रियाएँ या तो अहिंसक होती हैं या फिर हिसक। आंशिक अहिंसा का व्रत लेकर कुछ क्रियाओं के करने में की छूट लेना एक प्रकार से अपनी कमजोरी का बचाव करना है या अपनी वासना को छूट देना है। क्रिया मात्र में हिसा मानकर अक्रियमाण होकर बैठ जाना भी अहिंसा का मजाक है। क्रिया का संबंध बाह्य से अधिक आंतरिक है। क्रियाशीलता के अभाव में अहिंसा की कल्पना तक नहीं की जा सकती। क्रियाशीलता ही अहिंसा की कसौटी है। एक उदाहरण से हम अपनी बात स्पष्ट करें। एक आदमी को जोर की प्यास लगी है। वह ऐसे क्षेत्र में है जहाँ मीलों तक पानी का मिलना कठिन है। किसी तरह एक गिलास पानी का प्रबन्ध हो सका है। गिलास उसके हाथ में आ गया है और मुंह से लगाते—लगाते एक दूसरा प्यासा आ जाता है। वह गिलास उसे थमा दिया जाता है। इस क्रिया में अहिंसा, संयम और तप तीनों निहित हैं। तीनों की समवेत अनुभूति प्रथम प्यासे मनुष्य में अपार आनंद भर देती है। जब मनुष्य ‘क्षेमं सर्वप्रजानां’ की उदात्त भावना से जीने लगता है, तब उसमें अपने—पराये का भेद रह ही नहीं जाता है। उसका भोग भी योग बन जाता है, चलना ही परिक्रमा बन जाती है, शयन ही प्रणति बन जाती है, कर्म ही पूजा बन जाता है, श्रम—स्वेद ही अमृतरस बन जाता है। उसका वचन ही शास्त्र बन जाता है। संपूर्ण त्रिलोक उसी के रूपाकार में व्यक्त हो उठता है। उसका यही आनन्द धर्म उसे संसार—दु:ख से उठाकर उत्तम सुख में अधिष्ठित करता है। यह उत्तम सुख न परलोक की वस्तु है, न क्रय की जाने वाली चीज। इसलिए श्रावक के लिए कहा जाता है कि वह निरंतर श्रवण करता रहता है—पाँचों इंद्रियों की क्षमता का संयमपूर्वक सम्यक् उपयोग करता है, उन्हें साम्ययोग में एकाकार कर देता है, न उनको बहकने देता है, न उनको बांधकर रखता है। उसकी लोकाभिमुख, फिर भी योगनिष्ठ समग्रता निरंतर अप्रमाद में, रमणीयता में, सरसता में हिलारें मारती रहती है, प्रेम का अथाह सागर इसमें गंभीर ध्वनि गर्जन करता रहता है। वह प्रतिपल वर्तमान में, अभिनव वर्तमान में रहता है। अपने कर्म को भूत व भविष्य से जोड़ने की भूल वह नहीं करता। वर्तमान ही उसका सत्य होता है, यही उसका संबल होता है। श्रावक का दर्शन विशुद्ध होता है। मिथ्यात्व अथवा भ्रांति के अंधकार से वह उज्ज्वल प्रकाश में आ गया होता है। वह अपने को सबमें और सबको अपने में देखता है। जाति, वेश, लिग, परंपरा, वर्ण, वर्ग सबके प्रति उसकी दृष्टि आत्मरूप होती है, समतापूर्ण होती है। वह नि:शंकित भाव से दृढ़तापूर्वक सबको अपने में स्थिर करते हुए, प्यार की अमृत वर्षा करते हुए, नि:कांक्ष होकर वात्सल्य बांटता चलता है। रत्नत्रय का मोर मुकुट धारण कर प्रेम की बंसी बजाते हुए वह पारस्परिक जुगुप्सा वा घृणाभावना पर विजय प्राप्त करता है, दोषों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, बल्कि अपनापन इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि सबके अनेक दोष उसे अपने में ही संचित दिखाई देने लगते हैं। वह राग की ज्वाला से बचने—बचाने के लिए प्रयत्नशील हो उठता है। ऐसे अष्टगुणधारी सम्यग्दृष्टि श्रावक का बाह्य जीवन भी नदी की भांति सदा सौख्यकारी होता है। उसके आसपास बहने वाली वायु भी जगत् के जीवों के प्राणों का संचार करती है। उसके स्मित मात्र से या दृष्टिक्षेप मात्र से प्रकृति रसप्लावित हो उठती है। श्रावक स्वयं नहीं जानता कि वह क्या है ? उसका जीवन कैसा है ? वह तो बस समाज में रहता है, बहता है और जल की भाँति जहाँ रिक्तता देखता है, दौड़ जाता है और रिक्तता को भर देता है। वस्तुत: जीवन का आनन्द दूसरों को जीने का अवसर देकर, दूसरों को जिलाकर जीने में है। अतिथिसंविभाग व्रत इसी ओर इंगित करता है। बांटकर खाने का आनन्द अनिर्वचनीय है। ‘जीओ और जीने दो’ से यह भूमिका ऊँची और उदात्त है। ‘जिलाकर जीओ’ में एक मानवीय स्पर्श है, रसानुभूति है, सहज पावन संस्पर्श है। श्रावक श्रमणत्व का उपासक अर्थात् श्रमिक होता है। न वह किसी का स्वामी बनना चाहता है, न किसी को दास बनाना। श्रमपूर्ण कर्मठता और कर्म को अकर्म बना डालने की साधना ही उसके जीवन का सौंदर्य है। जैन आचार में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विधान है। ये मनुष्य को उत्तरोत्तर सेवा की पराकाष्ठा तक पहुँचाती हैं। पारंपरिक शब्दार्थ और आचार प्रणाली में तो आज इन प्रतिमाओं का उद्देश्य ही लुप्त हो गया है और यही कारण है कि इन प्रतिमाओं (सोपानों) के प्रतिपालक खान—पान के झमेले से या प्रपंच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हें। आज का ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भी सम्यक्रूप में पहली प्रतिमा पर खड़ा नहीं हो पा रहा है। ऊँचा से ऊँचा देशसेवक या जनसेवक बनने की दृष्टि से इन प्रतिमाओं में अद्भुत आशय निहित है। अहिंसा, संयम और तप का त्रिवेणी—संगम इन प्रतिमाओं का प्राणतत्त्व है। सत्यं, शिवं और सुन्दरं का समवेत स्वरूप प्रतिमाधारक के रोम–रोम से व्यक्त हो, तभी वह श्रावक कहलाने का अधिकारी है। श्रावक धर्म की परिपूर्णता में श्राविका के योगदान को विस्तृत नहीं किया जा सकता। दोनों मिलकर श्रावकत्व को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। शुचिर्भूत श्राविका की कोख से ही धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर आदि महाप्राण पुरुषोत्तम अवतरित होते हैं। श्राविका ही श्रावक को परम अकाम में ले जाती है। मोक्ष या परमब्रह्म की साधना के लिए उसे तजकर अरण्यवास करने की, पलायन की भूमिका ने ही समाज और व्यक्ति को उत्तम सुख से वंचित कर दिया है। नितांत अक्रिय व्यक्तिमत्ता अध्यात्म के नाम पर पुजने लगी और श्रम की यथार्थ देवी श्राविका तिरस्कृत हो गयी। भेदमूलक दृष्टि के कारण ही आज श्रावक धर्म अपना महत्त्व एवं प्रभाव खो बैठा है। कहते हैं महावीर के संघ में श्रावकों से दोगुनी संख्या श्राविकाओं की थी और वे संघ का संचालन भी करती थीं। नारी को, श्राविका को, जगज्जननी को नरक की खान या वासना की पुतली कहकर मनुष्य ने अपने को समग्र ब्रह्म से तोड़ लिया है—और समझ यह रहा है कि वह ब्रह्म में रमण कर रहा है। इस भ्रांति और मिथ्याचरण का परिणाम सामने है। व्रत साध्य नहीं, साधन मात्र हैं। व्रत तभी तक उपयोगी एवं आवश्यक हैं, जब तक मन में द्वैत है, तमस् का आचरण छाया है या विकारों का प्रभाव है। अनन्त: तो व्रतातीत होना ही मुक्ति है। व्रतातीत हुए बिना वास्तविक आनन्द, सहजानुभूति संभव नहीं। मुक्ति की कामना से मुक्त हुए बिना मुक्ति नहीं। चलना सीख जाने पर बालक माँ की अँगुली तज देता है, वैसे ही व्रत पीछे छूट जाने चाहिए। व्रतों में उत्तीर्ण होकर ही श्रावकत्व का कमल खिलता है। शरीर के अंगों का स्वस्थ स्थिति में जैसे भार नहीं लगता, पता ही नहीं चलता, वैसे ही व्रत भाररूप नहीं होने चाहिए। कामना, प्रतिष्ठा, यशस्विता या भय से व्रतों का पालन करना भार ही है। इससे प्रतिक्रिया पैदा होती है और यह मनुष्य को पतन में ढकेलती है। श्रावक का जीवन सहज होता है, वह केवल प्रसन्नता के लिए प्रवृत्त होता है। उसमें कोई शल्य नहीं रह जाती। उसका चित्त चन्दन की तरह शीतल हो जाता है। वह स्वार्थ और परमार्थ में एक जैसा होता है। उसके व्यवहार में परमार्थ भी होता है और परमार्थ में भी वह व्यवहार की भूमिका को हेय नहीं मानता। वह आत्मगवेषक होता है। समस्त ऋद्धि—सिद्धियाँ उसे अपने भीतर दीखने लगती हैं और वह अपनी आंतरिक लक्ष्मी के कारण लखपति होता है। उसका हृदय विराग रस से आपूरित सुखसागर होता है। मोह की अभेद्य चट्टान को भेदने की अकूत शक्ति उसमें आ जाती है। उसका प्रयास अपने में अपने को पाने का होता है। कविवर बनारसीदास ने मुग्धभाव से ऐसे सम्यक्त्वी श्रावक की, पारदर्शी श्रावक की, प्रकाशपुंज श्रावक की वंदना की है। हम यहाँ उनके नाटक समयसार से ऐसे तीनों कवित्त उद्धृत कर रहे हैं :
भेद—विज्ञान जग्यौ जिन्हके घट, शीतल चित्त भयौ जिमि चन्दन। केलि करैं शिव—मारग मैं, जगमांहि जिनेसुर के लघुनन्दन।। सत्य स्वरूप सदा जिन्हवै, प्रगट्यौ अवदात मिथ्यात—निकन्दन। संत दशा तिन्हकी पहिचान, करै कर जोरि बनारसि वन्दन।। स्वारत के सांचे परमारथ के सांचे चित्तं सांचे, सांचे बैन कहैं, सांचे जैनमती हैं। काहू के विरुद्ध नाहिं, परजाय—बुद्धि नािंह, आतमगवेषी, न गृहस्थ हैं न जती हैं।। सिद्धि—रिद्धि वृद्धि दीसै घट में प्रगट सदा, अन्तर की लच्छीसौं अजाची लच्छपती हैं। दास भगवंत के, उदास रहैं जगत सौ, सुखिया सदीव, ऐसे जीव समकिती हैं।। जाके घट प्रगट विवेक गणधर कौ सौ, हिरदै हरख महामोह कौं हरतु है। सांचौ सुख मानै निज महिमा अडोल जानैं, आपुहि मैं आपनो सुभाव लै धरतु है।। जैसे जल—कर्दम कतक—फल भिन्न करै, तैसें जीव–अजीव बिलक्षुन करतु है। आतम सकति साधै, ज्ञान को उदौ आराधै, सोई समकिती भवसागर तरतु है।।
—मंगलाचरण, सम्यग्दृष्टि की स्तुति
सम्यक्त्वी श्रावक का भवसागर यों ही पार नहीं हो जाता—अभ्यास, साधना और सातत्य से ही मंजिल निकट आती है। पलभर की असावधानी जन्म—जन्मान्तर तक व्यथा में पीड़ा में, दु:ख के महागर्त में ले जाती है। गमनसिद्ध पैर, वर्षों के अभ्यास के पश्चात् भी इस तरह लड़खड़ा या फिसल जाते हैं कि उठना कठिन हो जाता है। सम्यक्त्वी साधक अपने शरीर को देवालय मानकर उसे सक्षम, पवित्र, स्वच्छ रखता है। अनावश्यक भार लादकर काया को सताना वह पाप समझता है। तन को वह कारगृह नहीं समझता, उसे पंगु और क्षीण नहीं करता। बस इतना ही समझता कि देह साधन है, पर साधन को भी साध्य में ऐसे एकरूप कर देता है जैसे दूध में शर्वâरा। वह अपने तन की उपेक्षा नहीं करता, उसे धरोहर समझता है। उसकी समस्त इन्द्रिय प्रवृत्तियाँ इतनी सहज, नम, कमनीय, सुन्दर बन जाती हैं कि उसका स्पर्शमात्र शीतलता प्रदान करता है। इसके लिए वह कतिपय गुणों की अपने में अवधारणा करता है। पारस्परिक व्यवहार की कसौटी ये ही गुण हैं, जिन पर वह खरा उतरने का प्रयास करता है। ये गुण महाकवि बनारसीदास के शब्दों में इक्कीस हैं जो मानव की व्यापक निष्ठा, उदात्त मनोभावना और सहज कर्मठता के परिचायक हैं। ये गुण परस्पर पूरक तो हैं ही, एकरूप भी हैं, अखण्ड स्रोत की भाँति। ये गुण तो मनुष्य को ‘इक्कीस’ यानी परिपूर्ण या अिंहसक बना देते हैं। कवि के शब्दों में वे गुण हैं—
लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोष को ढवैया, पर—उपकारी है।
सौमदृष्टि, गुनग्राही गरिष्ट, सबकौं इष्ट, शिष्टपक्षी, मिष्टवादी, दीरघविचारी है।
विशेषज्ञ, रसज्ञ, कृतज्ञ, तज्ञ, धरमज्ञ, न दीन न अभिमानी, मध्य—विवहारी है।