कनकोदरी रानी पट्टरानी के पद पर आसीन थीं अतः उसे अपने ऐश्वर्य और सुख का बहुत ही अभिमान था ” उसकी ‘लक्ष्मी’ नाम की सौतन थी जो कि सम्यग्दर्शन से पवित्र थी और सदा मुनियों की पूजा में तत्पर रहती थी ” उसने अपने घर के चैत्यालय में एक जिनप्रतिमा स्थापित कर रखी थी और प्रतिदिन भक्ति से जिनपुजन करती थी तथा अनेकों स्तोत्रों से स्तुति किया करती थी ” कनकोदरी महादेवी के अभिमानवश ‘लक्ष्मी’ से बहुत ही द्वेष किया करती थी ” एक दिन लक्ष्मी का अपमान करने हेतु उस कनकोदरी ने उसके चैत्यालय के जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को निकालकर घर के बाहरी भाग में फिंकवा दिया “
इसी बीच में ‘संयमश्री’ आर्यिका आहार के लिये इसके घर में आई थीं वे बहुत ही तपस्विनी थीं। जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा का अनादर देख आर्यिका ने बहुत ही दु:खी हो आहार त्याग कर दिया तथा कनकोदरी को मिथ्यात्वग्रस्त देखकर करुणाबुद्धि से उसे उपदेश देने लगीं। उन्होंने कहा कि हे भद्रे! मेरी बात को ध्यान देकर सुन! तूने पुण्य से यह वैभव और पट्टरानी का सुख प्राप्त किया है, किन्तु तूने जो यह कार्य किया है उससे तू भव-भव में बहुत-ही दु:ख को प्राप्त करेगी। जो अर्हंत भगवान की प्रतिमा का तिरस्कार करते हैं, वे अनेकों भवों में असह्य दु:खों को प्राप्त कर लेते हैं, यद्यपि वीतराग भगवान अपने शरणागत पर न प्रसन्न होते हैं और न निन्दक पर अप्रसन्न ही होते हैं, फिर भी जिनेन्द्र देव की वन्दना से सातिशय पुण्य की प्राप्ति और निन्दा, अपमान से घोर दु:खों की प्राप्ति स्वयमेव हो जाती है। यदि मैं इस समय तुझे सम्बोधित न करूँ और तेरा नरक में निवास हो जावे, तो यह मेरा बहुत बड़ा प्रमाद कहलावेगा। आर्यिका के सम्बोधन से उस कनकोदरी ने नरकों के दु:खों से भयभीत होकर सम्यग्दर्शन ग्रहण करके आर्यिका के कहे अनुसार तप भी किया। जिनेन्द्र प्रतिमा का अर्जन कर वह कनकोदरी मरकर स्वर्ग में देवी हुई और कालान्तर में राजा महेन्द्र की पुत्री अंजना हुई है किन्तु जिनप्रतिमा की आसादना के पाप का फल बिना भोगे नहीं छूट सका अत: उसे अंजना के भव में बाईस वर्ष तक पति के वियोग का दु:ख सहना पड़ा है। ऐसा समझकर प्रत्येक प्राणी को जिन-प्रतिमा और गुरू की विराधना, अपमान आदि से दूर रहना चाहिये और तन, मन, धन से उनकी भक्ति-पूजा करनी चाहिये।