जिसने अपने को वश में कर लिया, उसकी सफलता को देवता भी हार में नहीं बदल सकते……..
धर्म का अर्थ है अपने ज्ञायक स्वभाव में रागद्वेष रहित आत्मा की स्थिति की अनुभूति करना। यह संसार हार जीत का खेल है, इसे नाटक समझ कर खेलो। भक्त जब वीतरागी परमात्मा की श्रद्धाभक्ति में डूब जाता है उसे अपना भी होश नहीं रहता, तब उसके जीवन का रूपान्तरण होने लगता है। भगवान का निष्काम भक्त सब प्राणियों के हित में ही अपना कल्याण समझता है। चीन के महान दार्शनिक विद्वान लाओत्से के जीवन का निष्कर्ष है कि जो व्यक्ति साधारण से साधारण और सरल से सरल होने को राजी हो जाता है, सत्य स्वयं उसके द्वारा पर आ जाता है। आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज का कथन है कि ‘‘जो अपनी आत्मा में वास करते हैं, वे शीघ्र ही शिवसुख को प्राप्त करते हैं। ऐसा जिनेन्द्र देव कह रहे हैं। जिनेन्द्र भगवान की वाणी को स्वीकारो, पहिचानो और आचरित करो। तुम भी भगवान बन जाओगे। किसी कवि ने कहा है—‘‘माटी सर्मिपत होती है तो गागर बन जाती है, बूँद सर्मिपत होती है तो मोती बन जाती है, शिष्य सर्मिपत होता है तो वह अरिहंत बन जाता है, पत्थर सर्मिपत होता है तो भगवान की मूर्ति बन जाता है।’ गुरु नानकदेव जी का भी कथन है कि अमृत वेला में उठकर प्रभु का ध्यान करने वाले जीवन की बाजी जीत जाते हैं। कायोत्सर्ग जैन साधना पद्धति का विशिष्ट शब्द है। जिसका अर्थ है शरीर के भोगों व वासना कषायों का त्याग करना। शरीर को शिथिलीकरण करने का अर्थ है कि शरीर के भोगों एवं कषायों के प्रति ममत्व भाव हटाकर अंतर्मुखी होना। भौतिक सामग्री की प्राप्ति से जो वस्तुनिष्ठ सुख का आभास मिलता है, वह जीवन का वास्तविक सुख नहीं होता है। क्योंकि यदि भौतिक सम्पदा का अभाव होने लगता है या पड़ोसी के पास भौतिक सम्पदा अधिक बढ़ना शुरु हो जाती है तो वहाँ वस्तुनिष्ठ सुख का दुख में रूपान्तरण होने लगता है। हिन्दुओं के सुप्रसिद्ध योग शास्त्र हठयोग प्रदीपिका में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर आदिनाथ / ऋषभदेव की स्तुति की गई है—
अर्थात्—श्री आदिनाथ को नमस्कार हो, जिन्होंने हठयोग विद्या का सर्वप्रथम उपदेश दिया, जो कि बहुत ऊँचे राजयोग पर आरोहण करने के लिये नसैनी के समान है। श्रीमद्भागवत के अनुसार ऋषभदेव के पिता नाभिराय और माता मरुदेवी ने ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर बद्रिकाश्रम में घोर तप किया और यहीं पर उनकी समाधि हुई थी। यहाँ आज भी मानसरोवर वैâलाश के मार्ग में भारत, तिब्बत सीमा पर स्थित माणागाँव के समीप मरुदेवी का मंदिर माता मंदिर के नाम से सुप्रसिद्ध है। साधना स्थल के रूप में नील कंठ पर्वत पर नाभिराय के चरण चिन्ह बाबा आदम के चरण चिन्ह के रूप में सुप्रसिद्ध है। वैदिक साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में अनेक स्थलों पर ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में अर्हम् शब्द भी जैन संस्कृति के पुरातन होने का परिचय देता है। यदि मनुष्य के जीवन में सत्य का उदय हो जाये और स्वयं का बोध हो जाये तो अपना मालिक बनने में देर नहीं लगती। परमात्मा के दरबार में जो अहंकार के विमान में सवार होकर जाते हैं, उन्हें र्मूित के दर्शन तो हो जाते हैं, परन्तु परमात्मा के दर्शन नहीं मिलते। बौद्धों के धर्मगुरु धर्मकीर्ति द्वारा रचित प्रख्यात ‘न्यायबिन्दु’ में भी ऋषभनाथ को ज्योतिष ज्ञान में पारगामी होने के कारण सर्वज्ञ कहा है। हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार जैनेन्द्रकुमार जैन ने अपने जीवन के संस्मरण में लिखा है कि जीवन के आखरी क्षणों में उन्हें लकवा मार गया था, और बोलना भी कठिन हो गया था। जो भी मित्रगण, परिचित उनसे मिलने के लिये आता था, तो उसे देखकर उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगती थी। एक दिन उनके देखने वाले डॉक्टर साहब ने कहा कि तुम्हारे ठीक होने की संभावनाएँ बहुत कम हैं। अत: अब अपने भगवान को याद करो, तो जैनेन्द्रकुमार जैन अनादि निधन णमोकार मंत्र को पढ़ते जाते और रोने लगते थे। जब डॉक्टर साहब दूसरी बार उनको चैकअप करने के लिये आये तो उन्होंने पहले से बेहतर स्थिति में पाया। जैनेन्द्र कुमार ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जीवन भर ऐसे निर्मल मन और एकाग्रता से वीतरागी परमात्मा जिनेन्द्र भगवान का चिन्तन मनन व स्मरण क्यों नहीं किया ? अब मृत्यु के समय अपने वीतरागी परमात्मा जिनेन्द्र भगवान को स्मरण कर रहा हूँ। तो मुझे अपने पूरे जीवन की असहायता पर रोना आया और मन दुख और दर्द से पीड़ित हो गया। मानव जीवन मिट्टी की तरह है। उससे मंगल कलश भी बनाया जा सकता है तो शराब का कुल्हड़ भी। जीवन अनगढ़ पत्थर की तरह है, उससे भगवान की मुर्ति भी बनाई जा सकती है तो उससे सिलौटी भी बनाई जा सकती है। जीवन खुले मैदान की तरह है, उस पर महल भी बनाया जा सकता है, और झोपड़ पट्टी भी। आत्म बल संपन्न व्यक्ति के लिये बड़े—बड़े असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। हमारी आत्मा में अनन्त बल होता है, परन्तु वर्तमान में मनुष्य अपने इस बल को भूल कर पराधीन एवं दुखी हो रहा है। यदि मनुष्य अपनी आत्मा की शक्ति को पहचान कर आत्म साक्षात्कार कर ले तो सफलताओं की ऊँची से ऊँची उड़ान भर सकता है। इतिहास साक्षी है कि बाबा भागीरथ वर्णी जैसा निर्भीक त्यागी इस काल में दुर्लभ है। जब से आप ब्रह्मचारी हुए हैं, पैसे का स्पर्श तक नहीं कियां आजन्म नमक और मीठे का त्याग था। दो लंगोट और दो चादर रखते थे। एक बार भोजन और पानी लेते थे। प्रतिदिन स्वामी र्काितकेयानुप्रेक्षा, समयसार, स्वयंभू स्तोत्र का पाठ करते थे। आपका शास्त्र प्रवचन बहुत ही र्मािमक एवं प्रभावशाली होता था। आपके सहयोग से बनारस में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना हुई थी। आप जहाँ कहीं भी जाते थे, सभी जातियों के लोगों से माँस मदिरा आदि का त्याग कराते थे। आपने समाज के भूले बिसरे दस्सा भाइयों को अपने (जैन) धर्म में स्थिर रहने का ठोस अनुकरणी वात्सल्य भाव से सेवा कार्य किया। उसका समाज चिरकाल तक आपका ऋणी रहेगा।
महेन्द्र कुमार जैन (भगतजी) सन्मतिवाणी २५ अक्टूबर २०१५