एक गाँव के लोगों को बेवकूफ समझा जाता था। राजा ने मंत्री से कहा कि कुछ सयाने लोगों के साथ आप वहाँ जाओ, कुछ दिन रहो और पता लगाओं कि जन साधापण में उस गाँव वालों के प्रति जो धारणा है वह बद्धमूल है या निर्मूल ? मंत्रीजी अपने शिष्ट मंडल के साथ पधारा वहाँ के लोगों ने उनकी आवभगत की। अपने सप्तदिवसीय प्रवास में उन्हें कहीं ऐसा नहीं लगा कि वे अन्य लोगों से अलग हैं। उनके बारे में अच्छी राय बना कर आठवें दिन बैलगाड़ी में शिष्ट मंडल की वापसी हुई। रसोई घर में जाकर वहाँ के व्यक्ति ने रसोईया से पूछा कि कल शाम को पीसा हुआ जीरा समाप्त हो गया था सो आज के भोजन में पीसा हुआ जीरा डाला गया या नहीं ? रसोईओं ने कहा- आज न तो साबूत जीरा डाला गया न पीसा हुआ डाला गया। आज की रसोई बिना जीरे के ही बनी। उसने दो चार लोगों को जल्दी में इकट्ठा किया। थोड़ा बहुत जीरा भी इकट्ठा किया और जीरे व उन व्यक्तियों के साथ शिष्ट मंडल के पीछे गाड़ी दौड़ाई। शिष्ट मंडल थोड़ी ही दूर पहुँचा था। उसे रूकवाया और जाकर उसने निवेदन किया– ‘‘हम ग्रामवासियों से एक अक्षम्य भारी भूल हो गई है- हम उसकी क्षमा प्रार्थना के लिए आपके पीछे आये हैं। कल शाम को तथा आज सुबह आपके लिए जो रसोई बनी उसमें पीसे हुए जीरे का नितांत अभाव था। आप लोगों ने सोचा होगा कि क्या यहाँ जीरा नहीं है। जीरा है- जल्दी में हम साक्षी के लिए यह थोड़ा सा जीरा लाये हैं। हमारे यहाँ बहुत जीरा है पर हम समय पर उसे पीस नहीं सके, सो आप हमें क्षमा करावें। साथ लाया जीरा दिखाया और पुन: क्षमा मांग कर अपने गाँव की राह पकड़ी।’’ शिष्ट मंडल की राय बदल गई। पुरानी धारणा निर्मूल समझी गई थी। उसकी जड़ें और पुख्ता हो गई थी। मुद्दे की बात तो अलग है पर सामान्य रसोई में पीसा हुआ जीरा आवश्यक कारक नहीं है। उसके बिना भी रसोई बनती ही है पर अनावश्यक बातों को जो अतिआवश्यक मान लेते हैं वे उस बेवकूफ गाँव वालों की श्रेणि में रख दिए जाते हैं। हम अपनी दैनंदिन वृत्तियों और प्रवृत्तियों का सूक्ष्म पर्यालोचन करें तो हमें लगेगा कि हम जंगल में नाचने वाले मोर हैं जिन्हें खुद के सिवाय कोई देखने वाला नहीं और दिखाने के लिए कभी कभी जानबूझ कर भी हानि उठाई जाती है।