जीव के नव अधिकारों में ‘जीवत्व’ नाम का पहला अधिकार कहा है, अब दूसरे अधिकार ‘उपयोगमयत्व’ को कहते हैं- ‘‘उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञान और दर्शन। दर्शन तो निर्विकल्प है और ज्ञान सविकल्प है। दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान। इनके प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो भेद भी माने गये हैं। मति, श्रुत तथा कुमति और कुश्रुत ये परोक्ष हैं। अवधि, मन:पर्यय तथा कुअवधि ये एकदेश प्रत्यक्ष हैं एवं केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।’’
उपयोग कहा है दो प्रकार, दर्शन औ ज्ञान उन्हें जानो। पहले दर्शन के चार भेद, उससे आत्मा को पहचानो।। चक्षूदर्शन बस नेत्रों से, होता अचक्षुदर्शन सबसे। अवधीदर्शन केवलदर्शन, ये दोनों आत्मा से प्रगटें।।४।। ज्ञानोपयोग के आठ भेद, उनमें मति श्रुत और अवधि जान। मिथ्या सम्यक् के आश्रय से, छह हो जाते ये तीन ज्ञान।। मनपर्यय केवलज्ञान इन्हीं, में भेद प्रत्यक्ष परोक्ष कहे। मति श्रुत परोक्ष केवल प्रत्यक्ष, बाकी त्रय देश प्रत्यक्ष कहे।।५।।
आत्मा के चैतन्यानुविधायी परिणाम का नाम उपयोग है। श्री उमास्वामी आचार्य ने इस एक उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा है। इसके मूल में दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं तथा दर्शनोपयोग के चार भेद हैं। यहाँ पहले उत्पन्न होने की अपेक्षा दर्शनोपयोग को पहले लिया है। संसारी आत्मा जब किसी भी इन्द्रिय से किसी स्पर्श, रस आदि विषय को ग्रहण करता है तो उसके प्रारंभ में जो सत्तामात्र अवभास या झलक होती है, उसी का नाम दर्शनोपयोग है। यह अव्यक्त है, निराकार है-निर्विकल्प है। इसके बाद ही ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप भेद प्रगट हो जाते हैं, जो कि मतिज्ञान के भेद हैं। जैसे कोई व्यक्ति गहरी नींद में सो रहा है, बाहर से किसी ने आवाज दी। वह सोता हुआ व्यक्ति कुछ सचेत होकर सुनने की तरफ उपयुक्त हुआ कि कहीं से आवाज आई है, यह तो हो गया मतिज्ञान का पहला भेद ‘अवग्रह’, पुन:-पुन: आवाज आने से उसने सोचा, भला कौन पुकार रहा है ? यह हो गई ‘ईहा’, पुन: उसने निर्णय कर लिया, मेरे भाई की आवाज है, यह हो गया ‘अवाय’, इसको कालांतर में न भूलकर वह उठ बैठा और उस पुकारने के प्रत्युत्तर में बोला, मैं आ रहा हूँ’’ यह हो गई धारणा। इन ज्ञानों में अवग्रह ज्ञान के पहले की भी जो झलक है, उसी का नाम दर्शनोपयोग है, जो अचक्षुदर्शन के एक भेदरूप कर्णेन्द्रिय से होने वाला है। चक्षुदर्शन तो केवल चक्षु इन्द्रिय से ही होता है। यह चार इन्द्रिय जीवों से लेकर सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय जीवों में पाया जाता है। अचक्षुदर्शन स्पर्शन, रसना, घ्राण, कर्ण और मन इन इन्द्रियों से होता है अत: यह एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्राणियों में पाया जाता है। अवधिज्ञान के पहले होने वाला अवधिदर्शन मात्र पंचेन्द्रियो में ही किन्हीं-किन्हीं के हो सकता है और केवलदर्शन तो केवली भगवान के ही होता है। यद्यपि आत्मा शुद्ध निश्चयनय से सहज, विमल, केवल दर्शन स्वभाव वाला है फिर भी अनादिकाल से कर्मबंधन से बंधा होने के कारण इन चक्षु आदि उपयोगों को धारण कर रहा है। ज्ञान में मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार भेद हैं। पुन: पाँच इन्द्रिय और मन से तथा बहु, बहुविध आदि पदार्थों से गुणा करने से तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं। जिनका विस्तार यहाँ नहीं किया जा रहा है। श्रुतज्ञान के भी अंग और पूर्वरूप से भेद-प्रभेद माने गये हैं। अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि, सर्वावधि की अपेक्षा तीन भेद हैं और भी अनेक भेद होते हैं। मन:पर्ययज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति की अपेक्षा दो भेद हैं और केवलज्ञान एक अकेला ही है। दर्शनावरण के चक्षुदर्शनावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से दर्शन प्रगट होता है। ज्ञानावरण के मतिज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम से मतिज्ञान आदि ज्ञान प्रगट होते हैं तथा दोनों के क्षय से केवलदर्शन और केवलज्ञान हो जाते हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मति ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अत: वह भी परोक्ष है। अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान आत्मा से प्रगट होते हैं फिर भी कुछ मूर्तिक वस्तुओं को ही ग्रहण करते हैं इसलिए एकदेश प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान कर्मों के क्षय से आत्मा से प्रगट होता है अत: सकल प्रत्यक्ष है। प्रत्येक जीव में संसार अवस्था में कम से कम एक दर्शन और दो ज्ञान पाए ही जाते हैं। इन ज्ञानों में जो तीन मिथ्या ज्ञान हैं, उनमें कारण है मिथ्यात्व का उदय अर्थात् ज्ञान कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता था किन्तु मिथ्यात्व के निमित्त से वह कु अथवा मिथ्या हो जाता है, जैसे दूध का स्वभाव मधुर है किन्तु यदि उसे कडुवी तूंबड़ी में रख दिया जाए तो वह कडुवा हो जाता है, उसी प्रकार से जब तक जीव में मिथ्यात्व का उदय विद्यमान रहता है तब तक उसके मति, श्रुतज्ञान या अवधिज्ञान मिथ्या रूप होने से कुमति, कुश्रुत और कुअवधि कहलाने लगते हैं। जो जीव सम्यग्दृष्टि हैं उनके ये ही ज्ञान समीचीन होने से मति, श्रुत कहलाते हैं। आजकल हम और आप में मति, श्रुत ये दो ज्ञान हैं तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ये दो दर्शन हैं, ऐसा समझना चाहिए किन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव हैं उनके कुमति, कुश्रुत और चक्षु, अचक्षुदर्शन, ऐसे चार उपयोग पाये जाते हैं। ‘‘आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन यह व्यवहारनय से सामान्य रूप से जीव का लक्षण है किन्तु शुद्ध नय से शुद्धज्ञान और शुद्धदर्शन ही जीव का लक्षण है, ऐसा कहा गया है।’’ये ज्ञान आठ दर्शन चारों, बारह प्रकार उपयोग कहे।
व्यवहार नयाश्रित होता है, सामान्य जीव का लक्षण ये।। औ शुद्ध नयाश्रित शुद्धज्ञान, दर्शन यह लक्षण कहलाता।
बस उभय नयों के आश्रय से, यह जीव द्रव्य जाना जाता।।६।।
यहाँ जो सामान्य शब्द है, उसका अर्थ यह है कि ये बारह प्रकार का उपयोग जीव का लक्षण है। इसमें संसारी और मुक्त सम्पूर्ण जीवराशि आ जाती है क्योंकि एक साथ तो बारह उपयोग कभी किसी जीव में होे ही नहीं सकते हैं। मुक्त जीवों में तो मात्र दो ही उपयोग रहते हैं। यह तो व्यवहारनय की बात है किन्तु निश्चयनय से सभी संसारी जीव में भी मात्र शुद्धज्ञान और शुद्ध दर्शन ही पाए जाते हैं क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा से तो जीव के साथ कर्म का संबंध ही नहीं है पुन: कर्मों के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान दर्शन भी भला कहाँ होंगे ? निश्चयनय से तो निगोदिया जीव को ही क्या अभव्य जीवों में भी शुद्ध ज्ञान, दर्शन विद्यमान है। यह निश्चयनय शक्ति को कहने वाला है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंकदेव ने कहा है कि शुद्धनय से शक्तिरूप से तो अभव्य जीव में भी मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान विद्यमान है किन्तु उनसे उनको भला क्या लाभ है ? अत: अपने पुरुषार्थ के बल से अपने अंदर में शक्ति रूप से विद्यमान ऐसे शुद्ध ज्ञान, दर्शन को व्यक्त कर लेना ही लाभकारी है, उसी के लिए हमें पुरुषार्थ करना चाहिए। प्रत्येक संसारी आत्मा सर्वज्ञानदर्शी है किन्तु कर्मों के आवरण से आछन्न होकर अल्पज्ञानदर्शी हो रहा है, जैसा कि प्रत्यक्ष में अनुभव आ रहा है। इन ज्ञानावरण आदि कर्मों को जैसे बने, वैसे नष्ट करके अपने सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व स्वभाव को प्रगट कर लेना चाहिए। यही सब ग्रंथों के पढ़ने का, दीक्षा आदि लेने का तथा व्रत, जप, तप आदि अनुष्ठान करने का सार है।