यह जीव निश्चयनय से लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी व्यवहार से अपने शरीर प्रमाण है-
यह आत्मा व्यवहारिक नय से, छोटे या बड़े स्वतनु में ही।
संकोच विसर्पण के कारण, रहता उस देह प्रमाण सही।।
हो समुद्घात में तनु बाहर, अतएव अपेक्षा नहिं उसकी।
निश्चयनय से होते प्रदेश, हैं संख्यातीत लोक सम ही।।१०।।
समुद्घात के अतिरिक्त यह जीव व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेशी है। निश्चयनय से यह जीव पौद्गलिक शरीर से भिन्न है, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य आदि अनंत गुणों का पिंड है फिर भी व्यवहारनय से अनादिकाल से कर्मबंधन बद्ध हो रहा है अत: शरीर नामकर्म के उदय से नाना प्रकार के शरीर को ग्रहण करता रहता है। कभी सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के सूक्ष्म शरीर को ग्रहण करता है, तो कभी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक के शरीर को ग्रहण करता है, उनकी अवगाहना भी बहुत छोटी पाई जाती है। कभी कुंथु, लट, शंख, केंचुआ, चिंवटी, खटमल, बिच्छू, पतंग, कीट, मच्छर, मक्खी आदि के शरीर को ग्रहण करता है तो कभी हाथी, बैल, शेर, चीता, मत्स्य, महामत्स्य आदि के शरीर में निवास करता है। कभी नारकी के शरीर को धारण करता है, तो कभी देवों के उत्तम शरीर में निवास करता है, तो कभी मनुष्य पर्याय में एक हाथ के शरीर से लेकर तीन कोश तक का भी शरीर प्राप्त कर लेता है। इसे जब जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिल जाता है उसी में यह अपने असंख्यात प्रदेशों को संकुचित करके रह जाता है। अत्यर्थ छोटे शरीर में भी जीव के प्रदेश उतने ही हैं कि जितने एक हजार योजन (८००० मील) की अवगाहना वाले महामत्स्य के शरीर में हैं। प्रश्न होता है-ऐसा कैसे ? तो उत्तर देते हैं-जीव में संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। यह धर्म शरीर नामकर्म के उदय से होता है। जैसे दीपक किसी छोटे से पात्र में रख दिया जाता है, तो उसका प्रकाश उसी में रह जाता है और जब उसे बड़े कमरे में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश बड़े कमरे तक पैल जाता है।
प्रश्न – जीव इन नाना प्रकार के शरीर को क्यों ग्रहण करता है ?
उत्तर – शरीर नामकर्म के उदय से।
प्रश्न – यह नामकर्म क्यों बांधता है ?
उत्तर – अनादिकाल से शरीर को आत्मा समझकर उसमें ममत्व परिणाम रखने से शरीर आदि कर्मों का बंध होता है। शरीर में ममत्व बुद्धि होने से यह जीव निरंतर आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं के आश्रित रहता है तथा इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष आदि करते रहने से नये-नये शरीर को ग्रहण करता है।
प्रश्न – समुद्घात को छोड़कर यह आत्मा अपने शरीर प्रमाण रहता है। सो समुद्घात क्या है ?
उत्तर – अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं, उसको समुद्घात कहते हैं।
प्रश्न– समुद्घात के कितने भेद हैं ?
उत्तर – सात हैंवेदना, कषाय, विक्रिया, मारणांतिक, तैजस, आहारक और केवली।
वेदनासमुद्घात – तीव्र पीड़ा के अनुभव से मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना है, उसे वेदना समुद्घात कहते हैं।
कषायसमुद्घात – किसी के प्रति तीव्र कषाय के होने से अपने मूल शरीर को न छोड़कर उसके घात के लिए जो आत्मा के प्रदेश बाहर निकलते हैं, उसे कषाय समुद्घात कहते हैं।
विक्रियासमुद्घात – किसी प्रकार की विक्रिया को करने के लिए अपने शरीर को छोटा या बड़ा बनाने के लिए अथवा अपने से अन्य कोई शरीर बनाने के लिए जो मूल शरीर को बिना छोड़े हुए आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है वह विक्रिया समुद्घात है।
मारणान्तिकसमुद्घात – मरण के समय में (एक अंतर्मुहूर्त पहले) मूल शरीर को न छोड़कर जहाँ इस जीव ने आगामी आयु बांधी है, उसको छूने के लिए जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना है, सो मारणान्तिक समुद्घात है।
तैजससमुद्घात – संयम के निधान ऐसे मुनि को कदाचित् क्वचित्, जब कोई मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले ऐसे किसी कारण विशेष मिल जाने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है, उस आकस्मिक उत्पन्न हुए अत्यधिक क्रोध से उन महामुनि के बाएं कंधे से सिंदूर की सी ढेर जैसी कांति वाला एक पुतला निकलता है, यह पुतला बारह योजन लंबा है और नव योजन विस्तृत काहल (बिलाव) के आकार वाला होता है। इसका मूल विस्तार सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण ही रहता है। ऐसे आकार वाला पुतला निकलकर बायीं प्रदक्षिणा देकर मुनि जिस पर क्रूधित हुए हों, उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करके और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जाता है। जैसे-द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकलकर द्वारिका नगरी को भस्म करने के बाद उसी ने द्वीपायन मुनि को भस्म कर दिया और वह पुतला आप भी भस्म हो गया। यह अशुभ तैजस है। इससे विपरीत शुभ तैजस भी होता है। परम संयम के निधान महाऋषि जो कि अतीव कृपालु हैं, उनके यदि तैजस ऋद्धि हो चुकी है तो वे मुनि के कदाचित् क्वचित् जगत को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर अतीव करुणा उत्पन्न होते ही मूल शरीर को न त्यागकर पूर्वोक्त शरीर के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुषाकार पुतला दाहिने कंधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा करके दुर्भिक्ष आदि को दूरकर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जाता है, इसे शुभ तैजस समुद्घात कहते हैं।
आहारक समुद्घात – कोई संयमी महामुनि जिनके सातवें या आठवें गुणस्थान में यदि आहारक शरीर का बंध हो गया है, ऐसे मुनि को कदाचित् क्वचित् किसी पद या पदार्थ में कुछ सूक्ष्म शंका उत्पन्न हो जाने पर उन आहारक ऋद्धि के धारक महर्षि के मस्तक से मूल शरीर को न छोड़कर निर्मल, स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकलता है। वह पुतला अंतर्मुहूर्त काल के भीतर ही जहाँ कहीं भी केवली हों उनके पास तक चला जाता है। वह पुतला केवली का दर्शन करके वापस आकर मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है तभी मुनि की शंका दूर हो जाती है। इसका नाम आहारक समुद्घात है।
केवली समुद्घात – केवली के जो दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया में शरीर से बाहर आत्मा के प्रदेश पैल जाते हैं वह केवली समुद्घात कहलाता है। केवली भगवान के जब आयु मात्र अंतर्मुहूर्त की रह जाती है और नाम तथा गोत्र की स्थिति अधिक रहती है तभी केवली समुद्घात क्रिया होती है। इस प्रकार इन सातों समुद्घातों का संक्षिप्त लक्षण बताया है। नयों की अपेक्षा इसी विषय को स्पष्ट करते हैं-अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव अपने शरीर के बराबर है। निश्चयनय से लोकाकाश प्रमाण जो असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रमाण असंख्यात प्रदेशों का धारक यह आत्मा है। यही आत्मा केवलज्ञान की अपेक्षा व्यवहारनय से लोक-अलोक व्यापक है किन्तु नैयायिक, सांख्य, मीमांसक मत के अनुयायी जिस तरह आत्मा को प्रदेशों की अपेक्षा व्यापक मानते हैं, वैसा नहीं है। कोई-कोई आत्मा को अणुमात्र मानते हैं, सो जब यह आत्मा उत्सेध घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद शरीर को ग्रहण करता है तभी उतने शरीर मात्र में रहने से इसे अणुमात्र प्रमाण वाला भले ही कह दो किन्तु वहाँ पर भी यह असंख्यात प्रदेशी है और अणु से अधिक आकाश स्थान को व्याप्त करके रहता है। यहाँ गाथा के पद्यानुवाद में जो बड़ा (गुरु) शरीर का जो ग्रहण है वह महामत्स्य के शरीर की अपेक्षा है। महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार योजन है, इसे चार कोश (आठ मील) से गुणा करने पर आठ हजार मील प्रमाण हो जाता है। इससे बड़ा शरीर संसार में किसी का नहीं होता है। मध्यम अवगाहना में निगोदिया शरीर से लेकर महामत्स्य के मध्य के जितने भी शरीरों का प्रमाण है, सभी आ जाता है। इस प्रकरण को समझने का तात्पर्य यही है कि जिस देह में ममत्व करने से नाना प्रकार के शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं उस देह के ममत्व को छोड़कर उस देह से तपश्चरण आदि करते हुए निर्मम बुद्धि से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि संयम नहीं ग्रहण किया है तो शरीर को आत्मसिद्धि का साधन समझकर कुछ न कुछ संयम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। यही इस मनुष्य शरीर को पाने का सार है।