डॉ. अशोक कुमार
आत्मविकास हेतु प्रचलित आध्यात्मिक साधन पद्धतियों में योग महत्त्वपूर्ण है जिसे सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। योग से मानव जीवन पूर्ण विकसित होता है। योग शब्द् ‘युज्’ धातु से ‘घज्’ प्रत्यय लगाकर बना है।युज् धातु के दो अर्थ हैं जिनमें से एक का अर्थ है- संयोजित करना, जोड़ना और दूसरा अर्थ है मन की स्थिरता, समाधि। महर्षि पतञ्जलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। जैन परम्परा में योग को अनेक रूपों में स्वीकार किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है-
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं।
कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं।।
संवर और योग से युक्त जीव बहुविध तपों सहित वर्तता है वह नियम से अनेक कर्मों की निर्जरा करता है। उपर्युक्त गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द ने लिखा है- ‘निर्विकल्पलक्षणाध्यानशब्दवाच्य शुद्धोपयोगोः योगः’ अर्थात् निर्विकल्प लक्षणमय ध्यान शब्द से कहने योग्य जो शुद्धोपयोग है सो योग है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार-
एएसिं णियणियभूमियाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं।
आणामयसंयुत्तं तं सव्वं चेव योगो ति।।
इन अपुनर्बन्धक आदि जीवों के अपनी-अपनी भूमिका के लिए उचित तथा आज्ञारूप अमृत से संयुक्त जो जो अनुष्ठान हैं वे सब योग हैं।
तल्लक्खणयोगाओ उ चिन्तवित्तीणिरोहओ चेव।
तह कुसत्रपवित्तीए मोक्खेण उ जोयणाओ त्ति।।
– योगशतक -२२
योग के अनेक लक्षण हैं जैसे चित्तवृत्ति का निरोध योग है, कुशल प्रवृत्ति योग है, मोक्ष के साथ योजित करने वाली प्रवृत्ति योग है। ये सब भिन्न-भिन्न भूमिका के साधकों में घटित होते हैं।
उपाध्याय यशोविजय के अनुसार –
मोक्षेण योजनाद् योगः, सर्वोप्याचार इष्यते।
विशिष्य स्थानवर्णार्थालम्बनैकाग्रयगोचरः।।
ज्ञानसारचयनिका-८४
मोक्ष के साथ योजित करने के कारण समस्त आचार ‘योग’ कहलाता है। उस योग के पांच प्रकार हैं -स्थान (आसन) वर्ण, अर्थज्ञान, आलम्बन तथा एकाग्रता। जैन परम्परा में योग को मोक्ष प्राप्ति का उपाय बताया गया। पातञ्जल योगदर्शन सांख्यदर्शन की साधना पद्धति का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें योग का सुव्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ संक्षिप्त है, विषय की पूर्ण स्पष्टता और अनुभव के प्राधन्य को समाहित किये हुए है। जैन परम्परा में योग का आधार है- गुप्ति जिसको परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वामी ने लिखा है ‘‘सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः’ अर्थात् योगों का निग्रह करना गुप्ति है। जैन साधना का सूत्र होगा ‘मनोवाक्कामगुप्तिर्योगः’। कोई कहता है कि ध्यान तो मानसिक परिणाम है। (ध्यान मानसिक ही होता है) यह यथार्थ नहीं है क्योंकि मन, वचन और शरीर तीनों योगो से ध्यान होता है। ऐसा अर्हत् द्वारा निरूपित है। आचार्य हरिभद्र के योग विषयक ग्रन्थ जैनदर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि बहुत उदार एवं समन्वयात्मक रही है। उन्होंने उभयपरम्पराओं (जैन एवं सांख्ययोग दोनों में) सामञ्जस्य की एक विशेष चिन्तनदृष्टि प्रदान की है जो योगभिलाषियों के लिए पथ प्रदर्शक बन सकती है। आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित योग-स्वरूप तथा पातञ्जल योग में निर्दिष्ट योग स्वरूप में भिन्नता व एकरूपता दोनों ही निहित है। जब हम चित्तवृत्ति निरोध तथा मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दोनों अर्थों का स्थूल रूप से चिन्तन करते हैं तो दोनों अर्थों में भिन्नता परिलक्षित होती है किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से अध्ययन करने पर एकरूपता भी प्राप्त होती है। चित्तवृत्ति का निरोध करना एक क्रिया है, साधना है। इसका तात्पर्य है चित्त की वृत्तियों को रोकना किन्तु यह एकान्ततः निषेधापरक भाव को ही अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि विधेयात्मक अर्थ को भी अभिव्यक्त करता है। रोकने के साथ करने का भी सम्बन्ध है। इसलिए पतञ्जलि द्वारा योगस्वरूप का वास्तविक अर्थ यही है कि साधक अपनी संसाराभिमुख चित्तवृत्तियों को रोककर, अपनी साधना को मोक्ष अर्थात् साध्यसिद्धि के अनुकूल बनायें। स्वमनोवृत्तियों को सांसारिक प्रपञ्च तथा विषम वासनाओं से विमुख कर मोक्षाभिमुखी बनाये दूसरी ओर आचार्य हरिभद्र द्वारा निर्दिष्ट ‘योग’ अर्थात् मोक्षव्यापार का भी यही अर्थ ध्वनित होता है। इसके अनुसार मोक्ष के साथ सम्बन्ध करने वाली साधना या क्रिया ही योग है।
जैनदर्शन में आध्यात्मिक साधना के परिप्रेक्ष्य में ‘संवर’ शब्द का प्रयोग हुआ है। संवर आस्रव के निरोध को कहा है। इस तरह संवर और योग दोनों के अर्थ में ‘निरोध’ शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु दोनों स्थान पर विशेषण अलग हैं- एक में चित्तवृत्ति है तो दूसरे में आस्रव। आगमों में आस्रव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को कहा है। यहां आस्रव में प्रयुक्त ‘योग’ योगदर्शन में प्रयुक्त ‘चित्तवृत्ति’ के स्थान पर है। इस प्रकार पतञ्जलि ने जिसे चित्तवृत्ति कहा है, जैनदर्शन् में उसे आस्रव रूप योग कहा है। आस्रव योग के दो भेद हैं- सकषाय और अकषाय। ऐसे ही दो भेद चित्तवृत्ति के भी हैं- क्लिष्ट और अक्लिष्ट। जैनदर्शन कषाय के चार भेद मानता है- क्रोध, मान, माया, लोभ तथा पतञ्जलि भी क्लिष्ट चित्तवृत्ति के चार भेद- अविद्या, राग, द्वेष और अभिनिवेश बताते हैं। जैनदर्शन में प्रथम सकषाय योग और बाद में अकषाय योग के निरोध की स्वीकृति है। पतञ्जलि भी पहले क्लिष्ट चित्तवृत्ति का निरोध तथा बाद में अक्लिष्ट चित्तवृत्ति के निरोध की बात करते हैं। इस प्रकार जैनदर्शन एवं पातञ्जल योगदर्शन में निरूपित योग का स्वरूप स्थूल दृष्टि से भिन्न है, किन्तु सूक्ष्म रूप से अध्ययन करने पर अर्थ तथा विषय में एकरूपता है। आचार्य हरिभद्र ने निश्चय और व्यवहार दो दृष्टि से योग निरूपित किया है- वे लिखते हैं :-
निच्छयओ इह जोगो सण्णाणाईण तिण्ह संबंधो।
मोक्खेण जोयणाओ णिद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं।।
योगशतक -२
योगीश्वरों (अर्हंतों) ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र इन तीनों के एक साथ अवस्थान को निश्चयदृष्टि से योग कहा है, क्योंकि यह योग आत्मा को मोक्ष के साथ नियोजित करता है।
ववहारओ उ एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि।
जो संबंधो सो वि य कारण कज्जोवयाराओ।।
योगशतक -४
कारण में कार्य का उपचार कर सम्यग्ज्ञान आदि कारणों का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध है, उसको भी व्यवहारदृष्टि से योग कहा गया है। गुरु की विनय करना, धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक श्रवण, ग्रहण आदि करना तथा शास्त्रोक्त विधि निषेधों का यथाशक्ति पालन व्यवहारायोग है। इस व्यवहारयोग के पालन से कालक्रम से सम्यग्ज्ञान आदि तीनों की उत्तरोत्तर विशुद्ध अवस्था अविच्छिन्न रूप से अवश्य प्राप्त होती है। महर्षि पतञ्जलि ने योग के अष्टांग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि प्ररूपित किये हैं। जैन दार्शनिक आचार्य हरिभद्र ने भी योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का विधान किया है जो इस प्रकार हैः –
१. मित्रा,
२. तारा,
३. बला,
४. दीप्रा,
५. स्थिरा,
६. कान्ता,
७. प्रभा और
८. परा।
इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियां अप्रतिपाती हैं। प्रथम चार दृष्टियों से पतन की सम्भावना बनी रहती है। इसलिए उन्हें प्रतिपाती कहा गया है जबकि अन्तिम चार दृष्टियों में पतन की संभावना नहीं होती। अतः वह अप्रतिपाती कही जाती है। यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से विषय इस प्रकार है-
१. मित्रादृष्टि और यम – मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के सदृश है। इस अवस्था में अहिंसा आदि पांच महाव्रतों अथवा पांच यमों का पालन होता है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति शुभकार्यों के सम्पादन में रुचि रखता है और अशुभ कार्य करने वालों के प्रति अद्वेषवृत्ति रखता है। इस अवस्था में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान स्थायी नहीं होता है।
२. तारादृष्टि और नियम- तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समान है। इसमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय आदि नियमों का पालन होता है। जिस प्रकार मित्रा दृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति अद्वेष गुण होता है उसी प्रकार तारा दृष्टि में जिज्ञासा गुण होता है। व्यक्ति में तत्त्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा बलवती होती है।
३. बलादृष्टि एवं आसन- इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति की तृष्णा शान्त हो जाती है और स्वभाव या मनोवृत्ति में स्थिरता होती है। इस अवस्था की तुलना आसन नामक तृतीय योनांग से की जाती है क्योंकि इसमें शारीरिक, वाचनिक और मानसिक स्थिरता पर जोर दिया जाता है। इसका प्रमुख गुण शुश्रुषा अर्थात् श्रवणेच्छा माना गया है। इसमें प्रारंभ किये गये शुभ कार्य निर्विघ्न पूर्ण होते हैं। इस अवस्था में प्राप्त होने वाला तत्त्वबोध काष्ठ की अग्नि के समान कुछ स्थायी होता है।
४. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम – दीप्रादृष्टि योग के चतुर्थ अंग प्राणायाम के समान है। जिस प्रकार प्राणायाम में रेचक, पूरक एवं कुम्भक ये तीनों अवस्थायें होती हैं उसी प्रकार बाह्य भाव नियंत्रण रूप रेचक, आन्तरिक भाव नियंत्रण रूप पूरक एवं मनोभावों की स्थिरता रूप कुम्भक की अवस्था होती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक प्राणायाम है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति सदाचरण या चारित्र को अत्यधिक महत्त्व देता है।वह आचरण का मूल्य शरीर की अपेक्षा भी अधिक मानता है। इस अवस्था में होने वाला आत्मबोधक दीपक की ज्योति के समान होता है। यहां नैतिक विकास होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि का विकास नहीं हो पाता। अतः इस अवस्था में पतन की सम्भावना बनी रहती है।
५. स्थिरादृष्टि एवं प्रत्याहार – पूर्वोक्त चार दृष्टियों में अभिनिवेश या आसक्ति विद्यमान रहती है अतः व्यक्ति को सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता। उपर्युक्त अवस्थाओं तक सत्य का मान्यता के रूप में ग्रहण होता है। सत्य का साक्षात्कार नहीं होता लेकिन इस अवस्था में आसक्ति या राग में अनुपस्थित होने से सत्य का यथार्थ रूप में बोध हो जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह अवस्था प्रत्याहार के समान है। जिस प्रकार प्रत्याहार में विषम-विकार का परित्याग होकर आत्मा विषयोन्मुख न होते हुए भी स्वस्वरूप की ओर उन्मुख होती है उसी प्रकार इस अवस्था में भी विषम विकारों का त्याग होकर आत्मा स्वभावोन्मुख होती है। इस अवस्था में व्यक्ति का आचरण सामान्यता निर्दोष होता है। इस अवस्था में होने वाले तत्त्वबोध की तुलना रत्न की प्रभा से की जाती है जो निर्दोष तथा स्थायी होता है।
६. कान्तादृष्टि एवं धारणा- कान्तादृष्टि योग के धारणा अंग के समान है जिस प्रकार धारणा में चित्त की स्थिरता होती है उसी प्रकार इस अवस्था में चित्त की स्थिरता होती है। इस अवस्था में सदसत् का विवेक पूर्णतया स्पष्ट होता है। उसमें विंâकत्र्तव्य के विषय में कोई अनिश्यात्मक स्थिति नहीं होती है। आचरण पूर्णतया शुद्ध होता है। इस अवस्था में तत्त्वबोध तारे की प्रभा के समान एक सा स्पष्ट और स्थिर होता है।
७. प्रभादृष्टि एवं ध्यान – प्रभादृष्टि की तुलना ध्यान नामक सातवें योगांग से की जा सकती है। धारणा में चित्तवृत्ति की स्थिरता प्रभारूप एवं दीर्घकालिक होती है। इस अवस्था में चित्त पूर्णतया शान्त होता है। पातञ्जल योगदर्शन की परिभाषा में यह प्रशान्तवाहिता की अवस्था है। इसमें रागद्वेषात्मक वृत्तियोें का पूर्णतया अभाव होता है। इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोध सूर्य की प्रभा के समान दीर्घकालिक और स्पष्ट होता है तथा कर्ममल क्षीण प्रायः हो जाते हैं।
८. परादृष्टि एवं समाधि – परादृष्टि की तुलना योग के आठवें अंग समाधि से की गई। इस अवस्था में चित्तवृत्तियां पूर्णतया आत्मकेन्द्रित होती हैं। विकल्प, विचार आदि का पूर्णतया अभाव होता है। इसमें आत्मा स्वस्वरूप में ही रमण करती हैं और अन्त में निर्वाण या मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं। इस पकार यह नैतिक साध्य की उपलब्धि की अवस्था है। आत्मा में पूर्ण समत्व की अवस्था है जो कि समग्र आचारदर्शन का सार है। परादृष्टि में होने वाले तत्त्वबोध की तुलना चन्द्रप्रभा से की जाती है। जिस प्रकार चन्द्रप्रभा शान्त और आह्लादजनक होती है। उसी प्रकार इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोध भी शांत एवं आनन्दमय होता है। आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि ये आठ दृष्टियां ऐसी हैं जिनमें साधक में धर्मसंलग्नता किसी न किसी मात्रा मे अवश्य रहती है, किन्तु इसमें प्रवेश प्राप्त करने से पूर्व भी ज्ञान अथवा चेतना की एक अवस्था होती है इसे मिथ्यादृष्टि या ओधदृष्टि कहते हैं। यह ओधदृष्टि संसार के प्रवाह में पतित अविद्या में निमग्न व्यक्ति की चेतना की अवस्था है, पजञ्जलि के अनुसार यह सभी क्लेशों का मूल है और स्वयं भी महाक्लेश है।
पतञ्जलि ने प्रथम पांच को योग के बहिरंग साधन बताये हैं, अंतिम तीन को अन्तरंग साधन कहा है। अष्टांगयोग विवेकख्याति का साधन है। आचार्य हरिभद्र ने भी प्रथम चार दृष्टियो को प्रतिपात भ्रंशयुक्त कहा है अर्थात् जो साधक उन्हें प्राप्त कर लेता है उनसे भ्रष्ट भी हो सकता है पर भ्रष्ट होता ही हो, ऐसा नहीं है। भ्रष्ट या पतन की संभावना के कारण ये चार दृष्टियां सापाय- आपाय और बाधायुक्त कही जाती है। अन्तिम चार प्रतिपात रहित अर्थात् बाधारहित हैं। अप्रतिपाती दृष्टिपाती दृष्टि प्राप्त होने पर योगी का अपने मोक्ष लक्ष्य की ओर प्रयाण अनवरत चालू हो जाता है। जैसे यात्रा पर बढ़े हुए पथिक को मार्ग में कुछ स्थानों पर रुकना पड़ता है जो किसी अपेक्षा से उसकी यात्रा का अंशतः विधान है, उसी तरह मोक्षाभिमुख योगी को अवशिष्ट कर्मयोग पूरा कर लेने हेतु बीच में देवजन्य आदि में से गुजरना होता है जो आपेक्षिक रूप में चरण-चारित्र्य लक्ष्य की ओर गतिशीलता या रूकावट है किन्तु यह निश्चित है, उसके इस प्रयाण का समापन – लक्ष्य प्राप्ति में होता है।
प्रत्येक दर्शन में आत्मिक विकास के उपयों की विस्तार से चर्चा मिलती है। अनादिकाल से यह जीव अज्ञान से भ्रमित होने के कारण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने और समझने में असमर्थ रहता है। जैसे-जैसे व्यक्ति की रूचि तत्त्व साक्षात्कार की ओर प्रवृत्त होने लगती है वैसे-वैसे वह अपनी शक्ति का नियोजन साधना में लगाता है और निरन्तर साधना के बल पर उत्तरोत्तर विकास कर अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। पातञ्जल योगदर्शन के योगोत्कर्ष को सम्प्रज्ञात समाधि के रूप में अभिहित किया है। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार ‘सम्’ का अर्थ सम्यक ‘प्र’ का अर्थ प्रकृष्ट और ज्ञात का अर्थ ज्ञान युक्त है। इसका तात्पर्य यह है कि योगी की वह स्थिति, जहां चित्त में इतनी स्थिरता आ जाती है कि अपने द्वारा गृहीत ग्राह्य ध्येय सम्यक और उत्कृष्टता से ज्ञात रहे, चित्त की मात्र उसी में स्थिरता रहे, अस्थिर न हो, उसे सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। इस संदर्भ में पतञ्जलि ने कहा है- जिसकी राजसिक, तामसिक वृत्तियां क्षीण हो जाती हैं ऐसा उसका चित्त उत्तम कोटि की मणि के सदृश ग्रहीता (अस्मिता) ग्रहण (इन्द्रियां) ग्राह्य (स्थूल तथा सूक्ष्म विषयों) में स्थित होकर उनके स्वरूप को प्राप्त हो जाना सम्प्रज्ञात समाधि है।
ऐसी ही स्थिति परम्परा में श्रेणी आरोहण करने वाले साधक की होती है। चूंकि गुणस्थानों की परम्परा में आठवां निवृत्तिवाद गुणस्थान है यहां अभूतपूर्व आत्मविशुद्ध निष्पन्न होती है, इसलिए इसे अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहा जाता है। इस गुणस्थान से विकास की दो श्रेणियां निःसृत होती हैं। उपशम श्रेणी या क्षायिक श्रेणी। उपशम श्रेणी द्वारा आगे बढ़ने वाला साधक नवम गुणस्थान में क्रोध, मान, माया को तथा दशम गुणस्थान में लोभ को उपशान्त करता हुआ दशम के बाद सीधा बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान में पहुंचता है। सम्प्रज्ञात समाधि में एक ध्येय या आलम्बन रहता है, इसे बीज कहते हैं। अतः यह बीज समाधि कहलाती है किन्तु असम्प्रज्ञात समाधि में आलम्बन नहीं रहता। यहां सब कुछ निरुद्ध हो जाता है अतः यह सर्ववृत्ति निरोधात्मक तथा सर्वथा स्वरूपाधिष्ठानात्मक निर्बीज समाधि है। जैन परम्परा में साधक जब शुक्लध्यान की अन्तिम स्थिति में होता है तब वह संपूर्ण क्रियाओं से उपरत हो जाता है। इस गुणस्थान को अयोग केवली के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इसका काल बहुत अल्प या पञ्च हस्व अक्षर उच्चारण प्रमाण ही है। वह पर्वत की तरह निष्प्रकम्प अवस्था प्राप्त कर लेते हैं।
इस प्रकार पातञ्जल योगशास्त्र में प्रतिपादित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति जैन परम्परा में गुणस्थान विकास क्रम की अवस्था में हैं जो योग से अयोग की दिशा की ओर या भेद से अभेद की ओर ले जाने वाला प्रस्थान है। आचार्य हरिभद्र ने गुणस्थान रूपी आध्यात्मिक विकास क्रम को पांच अवस्थाओं में विभक्त किया है- अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय। इन्होंने स्वयं ही इनकी तुलना योगदर्शन की सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात भूमिकाओं से की है। प्रथम चार सम्प्रज्ञात और अन्तिम चार असम्प्रज्ञात। इनमें समता, चित्तवृत्ति की समत्व की अवस्था और वृत्तिसंक्षय आत्मरमण की व्यवस्था है। समत्व हमारी आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और वृत्ति संक्षय आध्यात्मिक साध्य की उपलब्धि। पं. सुखलाल संघवी ने कहा है कि हरिभद्र ने सांख्ययोग के अनुसार उपर्युक्त मान्यता की तुलना तो की है, किन्तु जैन और सांख्य का जो मूलगत भेद है तथा उसी को लेकर वृत्तिसंक्षय का जो अर्थ जैन परम्परा के साथ संगत हो जाता है वह योग बिन्दु में बतलाया हे।
आचार्य हरिभद्र तथा पातञ्जलि दोनों ने ही योग साधना में कायिक आचार की अपेक्षा मानसिक भावना की उत्कृष्टता को महत्त्व प्रदान किया है। पतञ्जलि ने क्रियायोग की आवश्यकता बताते हुए कहा है- समाधि की भावना के लिए क्लेशों को तनु करने हेतु क्रियायोग है अर्थात् तप से शरीर, प्राण, इन्द्रिय और मन की अशुद्धि दूर होने पर वे स्वच्छ होकर क्लेशों को दूर करने और समाधि प्राप्ति में सहायता देते हैं। स्वाध्याय से अंतःकरण शुद्ध होता है और चित्त विक्षेपों के आवरण से शुद्ध होकर समाहित होने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। ईश्वरप्राणिधान से समाधि सिद्ध होती है और क्लेशों की निवृत्ति होती है। इस प्रकार कायिक की अपेक्षा मानसिक भावना को श्रेष्ठ बताते हुए टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है कि सद्बोधनयनिष्ठा तथा भावपूर्वक जो सत्क्रिया की जाती है वही दोषों को सर्वथा नष्ट कर देती है, जिससे वे पुनः नहीं उभर पाते हैं, जैसे भस्म के रूप में बदला हुआ मेढक फिर कभी जीवित नहीं होता। बाह्य क्रिया अर्थात् शारीरिक क्रिया द्वारा दोषो का सर्वथा क्षय नहीं होता, उपशम मात्र होता है, जिससे वे अनुकूल स्थिति पाकर फिर उभर आते हैं जैसे टुकड़े-टुकड़े बना, मिट्टी में मिला मेंढक शरीर वर्षा होने पर जीवित हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने भी ऐसा ही कहा है- शारीरिक क्रिया अर्थात् देहाश्रित बाह्य तप द्वारा नष्ट किये गये दोष मेंढक के चूर्ण के समान है। यही दोष यदि भावना अर्थात् मनोभाव अन्तर्वृत्ति की पवित्रता द्वारा क्षीण किये गये हों तो मेंढक की राख के समान समझना चाहिए। आध्यात्मिक विकास में साधक अनेक प्रकार की अलौकिक सामथ्र्य भी प्राप्त करता है। जैन योग में इन्हें लब्धि, पातञ्जल योग में इसे विभूति तथा बौद्ध परम्परा में ये अभिज्ञाएं कहलाती हैं। जैनधर्म में भी संयम के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली अनेक लब्धियाँ है जैसे आमोसहि, विप्पोसहि, खेलोषधि, जलोषधि। ये क्रमशः स्पर्श से मलमूत्र के प्रयोग से, श्लोस्मा के स्पर्श से व शरीर के शेष मलों के स्पर्श से रोगों को दूर करने की शक्तियां हैं। योगदर्शन में धारणा, ध्यान, समाधि-इन तीनों का किसी एक ध्येय में एकत्र होना संयम कहा गया है। संयम द्वारा योगी विकास की अनेक कोटियां प्राप्त करता है। पतञ्जलि के अनुसार स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय तथा अर्थवत्त्व भूतों की इन पांच अवस्थाओं में संयम द्वारा योगी भूतजय प्राप्त करता है। इस प्रकार जैन एवं योग परम्परा दोनों में ही योग की महत्ता को स्वीकार किया है। साधना के प्रतिपादन करने में प्रयुक्त शब्दों में कहीं असमानता हो सकती है लेकिन भावगत समानतायें दोनों ही दर्शनों में प्राप्त होती हैं। हमें साधना द्वारा स्वस्वरूप की प्राप्ति हेतु तत्पर रहना चाहिए।