कतिपय विचारक जैनदर्शन को इसलिए ‘नास्तिक दर्शन’ कहते हैं कि ‘यह दर्शन ईश्वर को नहीं मानता’– किन्तु उनका यह चिन्तन नितान्त भ्रामक एवं दुराग्रहपूर्ण है; क्योंकि जैनदर्शन ईश्वर को मानता है। आत्मा के पर्यायगत विकास की परिपूर्णता को ही जैनदर्शन में परमात्मा या ईश्वर माना गया है तथा इस विकास की चौदह श्रेणियाँ मानी हैं, जिन्हें जैनदर्शन में ‘चौदह गुणस्थान’ कहा गया है। इतना स्पष्ट एवं वैज्ञानिक चिन्तन, व निरूपण होने के बाद भी यह कथन क्यों प्रस्तुत हुआ? यह बिन्दु विचारणीय है। वस्तुत: बात यह है कि जैनदर्शन में परमात्मा या ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ परमपूज्य ‘सत्ता’ तो मानी गयी है, किन्तु उसे सांसारिक किसी भी पदार्थ या कार्य का कर्ता नहीं माना गया; प्रत्युत निस्पृह एवं तटस्थ ज्ञाता (सर्वज्ञ) माना गया है। अब जो लोग ईश्वर का अर्थ ‘सांसारिक कार्यों एवं समस्त चराचर पदार्थों के कर्ता के रूप में लेते हैं, उनके प्रेम में जैनाभिमत ईश्वर का स्वरूप फिट नहीं बैठता है; अत: वे कहते है कि जैनदर्शन ईश्वर को नहीं मानता है। किसी भी प्रपंच में रुचि न लेकर तटस्थ ज्ञाता-दृष्टामात्र स्वरूपवाला ईश्वर शायद उन्हें पसन्द नहीं आया होगां उन्होंने सोचा कि ‘भला जो न हमारा कुछ भला कर सके, न हमारे शत्रु का कुछ बिगाड़ सके, न पूजा से प्रसनन हो और न निंदा से खेद खिन्न या कुपित- भला ऐसे ईश्वर से हमें क्या फायदा ?’ उन्हें तो ऐसा ही ईश्वर चाहिए था, जो भक्तों की पुकार पर दौड़ा चला आये और उनके कष्टों का निवारण करें। यह सब कुछ जैनाभमित ईश्वर में था नहीं; अत: उन्होंने उसे ईश्वर मानने से ही इंकार कर दिया और जैनों को ‘अनीश्वरवादी नास्तिक’ कह दिया। अस्तु, ईश्वर के वास्तविक आदर्श स्परूप एवं जैनदर्शन की ईश्वर विषयक दृष्टि का संक्षेपत: अनुशीलन यहाँ प्रस्तुत है। वैदिक दर्शनों में समस्त सांसारिक सुख-दु:ख का हेतु ईश्वर को माना गया है
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीश: सुख-दु:ख-हेतो ।।’’
श्वेताश्वरोपनिषद् १/२
अर्थ–काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा (कर्म) और पुरुषार्थ- ये पाँचों महाभूत जीवों के सुख-दु:ख का कारण हैं- ऐसा विज्ञपुरुषों के द्वारा विचार किया गया (तो स्पष्ट हुआप कि) इन ‘काल’ आदि का समुदाय भी इस जगत् का कारण नहीं हो सकता है और न ही अनीश (संसारी) आत्मा को इस सुख-दु:ख का कारण कहा जा सकता है। केवल ईश्वर ही इस सुख-दु:ख का हेतु है। इसके ठीक विपरीत जैन मान्यता है-
‘‘कालो-सहाव-णियई-पुव्वकयं-पुरिस कारणेगंता । मिच्छतं ते चेव दु समाओ होंति सम्मत्तं ।।’’
आचार्य सिद्धसेन कृत ‘सम्मईसुत्तं’ ३/५३
अर्थ- (प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में) काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म) एवं पुरुषार्थ ये पाँच (समवाय)यहाँ ‘समवाय’ शब्द वैशेषिक दर्शन गृहीत ‘समवायकारण’ के अर्थ में नहीं है। अपितु समवित्ति या एक साथ एकत्र होने के अर्थ में यहाँ पर शब्द प्रयुक्त हैं। कारण नियम से होते हैं। इन्हें जो पृथक्-पृथक् रूप से स्वतन्त्र कारण मानता है, तो वह मान्यता मिथ्यात्व है और समग्ररूप से कार्य के प्रति इनकी जैनदर्शन सांसारिक कार्यें एवं सुख-दु:ख आदि में उपर्युक्त पाँच समवायों की समग्रता को कारण मानना सम्यक्त्व है। जैनदर्शन में इन ‘काल’ आदि पाँच समवायों की कारणता अनेकत्र स्वीकार की गयी है। यथा -कालवाद
‘कालो सव्वं जणयदि, कालो सव्वं विणस्सदे भूदं । जागत्ति हि सुत्तसु वि, ण सक्कदे विञ्चदुं कालो।।’
आचार्य नेमिचन्द्र, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८७९
अर्थ-काल ही सबके उत्पन्न करता है, काल ही सबका नाश करता है, सोते हुए प्राणियों को काल ही जगाता है; सो ऐसे काल को ठगने में कौन समर्थ हो सकता है ? इस प्रकार काल से ही सब कार्य मानना कालवाद कहलाता है।
अर्थ-काँटों को तीक्ष्ण किसने बनाया ? मृग, पशु-पक्षी नाना प्रकार के किसने बनाये ? उनका उत्तर है – स्वभाव से ही ऐसा है। उनमें अन्य कोई कारण नहीं है- ऐसा मानना ‘स्वभाववाद’ है।
अर्थ-जो, जब, जिसके द्वारा, जैसे, जिसका नियम से होने वाला है, वह उसी काल में, उसी के द्वारा, उसी रूप से नियम से उसका होता है- ऐसा मानना ‘नियतिवाद’ है।
दैववाद ‘दइवमेव परं मण्णे, धिप्पउरूसमणत्थयं ।
एसो साल समुत्तुंगो, कण्णो हण्णादि संगरे ।।’
वही, गाथा ८९१
अर्थ- मैं दैव-भाग्य को सर्वोत्कृष्ट मानता हूँ। पौरुष निरर्थक है, उसे धिक्कार है। देखो, सालवृक्ष की तरह ऊँचा कर्ण महाभारत के युद्ध में मारा गया।- यह ‘दैववाद’ है।
अर्थ-जो आलस्य से भरपूर है, जिसे कुछ भी करने का उत्साह नहीं है, वह कुछ भी फल भोगने में समर्थ नहीं है। बिना पौरूष के माता के स्तन का दूध भी नहीं पिया जा सकता है। पौरूष से ही कार्य की सिद्धि होती है- यह ‘[[पुरुषार्थवाद”पौरूषवाद]]’ है। तथापि जो ईश्वरकृर्तत्ववादी ऐसा मानते हैं कि –
‘अण्णाणी हु अणीसो, अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च । सग्नं णिरयं गमणं, सव्वं ईसरकदं होदि ।।’
वही गाथा ८८०
अर्थ-आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है, उस आत्मा का सुख, दु:ख, स्वर्ग तथा नरक में गमनादि सब ईश्वरकृत है- इस प्रकार ईश्वर का किया सर्व कार्य मानना ईश्वरवाद है। ईश्वर जगत् कत्र्ता है, इसलिए सब प्राणियों के कर्म (पाप-पुण्य) अनुसार दण्ड देता है। कर्मों के अनुसार फल देता है, तो ईश्वर की विशेषता क्या रही। वस्तुत: –
अर्थ- जो अज्ञानान्धकार के कारण अपने को जगत् (के पदार्थों एवं कार्यों) का कत्र्ता मानते हैं, वे कितनी ही मोक्ष की इच्छा करें, परन्तु सामान्य अज्ञानियों की भाँति उसकी भी मुक्ति कदापि संभव नहीं है। जैनदर्शन इन काल आदि पंचसमावायों की कारणता स्वीकार करता है, न कि ईश्वर की। ईश्वर के बारे में जैनाचार्य लिखते हैं कि-
समयसार, गाथा ७२ पर आचार्य अमृतचन्द्र कृत ‘आत्मख्याति’ टीका।
अर्थ-‘भगवान् आत्मा तो सदा ही निराकुल स्वभाववाला है, अत: उसके किसी का कार्य-कारणपना संभव ही नहीं है। इसलिए वह सांसारिक सुख-दु:ख का भी कारण नहीं है।’ जैनों की इस मान्यता से प्रभावित होकर ईसा पूर्व के महान् दार्शनिक विद्वान् एॅरिस्टॉरल (अरस्तु) ने लिखा है- “Good in no sense the creator of the universe. All imperishable things are actual, sun, moon, while visible heaven is always active, there is no * that they will scopo. If we attribute these gifts to God, we shall make hime eicher an incompetent gudge or an unjust one and it is alien to his nature happiness which which God enjoy is as great as that which we can enjoy sometimes it is marvellous.
अर्थ-अरस्तु कहते हैं- ईश्वर किसी भी दृष्टि से विश्व का निर्माता नहीं हैं। सब अविनाशी पदार्थ पारमर्थिक हैं। सूर्य, चन्द्र तथा दृश्यमान आकाश सब सक्रिय हैं। ऐसा कभी नहीं होगा कि उनकी गति अविरूद्ध हो जाय। यदि हम उन्हें परमात्मा के द्वारा प्रदत्त पुरस्कार मानें, तो हम उन्हें अयोग्य न्यायाधीश अथवा अन्यायी न्यायकत्र्ता बना डालेंगे। यह बात परमात्मा के स्वभाव के विरुद्ध है। जिस आनन्द की अनुभूति परमात्मा को होती है, वह इतना महान् है कि हम उसका कभी रसास्वाद कर सकते हैं। वह आनन्द आश्चर्यप्रद है।जैनशासन, पृ. ३७ वे आगे कहते हैं कि- ‘‘ईश्वर अशरीरी है, इसलिए वेदना, क्षुधा, तृष्णा, इच्छा आदि ईश्वर में नहीं हैं। ईश्वर शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान ही ईश्वर की क्रिया है (राग-द्वेष करना नहीं)।’’ इस वाक्य की जैनाभितम ईश्वर के स्वरूप से तुलना करें-
‘‘क्षुत्पिपासाजरातङ्क-जन्मान्तक भयस्मया: ।
न राग-द्वेष-मोहाश्च यस्याप्त: स प्रकीत्र्यते ।।’’
समन्तभद्राचार्य (प्रथक शात.ई.) प्रणीत ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’, पद्य ६
अर्थ- जिसके क्षुधा-पिपासा-बुढ़पा-आतंक-जन्म एवं मृत्यु का भय, स्मय (आश्चर्य) एवं राग-द्वेष आदि न हों, उसे ही ‘ईश्वर’ (आप्त) कहा गया है। संभवत: इसीलिए प्रख्यात समालोचक विद्वान् बाबू गुलाबराय ने स्वीकार किया कि- ‘‘अरस्तु का ईश्वर जैनों के ईश्वर से मिलता है।’’काशीस्थ नागरी प्रचारिणी सभा, से प्रकाशित बाबू गुलाबराय, एम.ए., एल.एल.बी. की पुस्तक से उद्धृत। प्रख्यात् विद्वान् श्री परिपूर्णानन्द जी ने भी स्वीकार किया है कि ‘‘जैनियों का निरीश्वरवाद (जगत्सृष्टारूप ईश्वर को न मानना) इतना उदार तथा व्यापक है कि हमारे जैसे अजैनी तथा ईश्वरवादी के लिए वह ईश्वरवाद ही है।…. जैनी निरीश्वरवाद इतना तर्कपूर्ण है कि उसका सहसा खण्डन करना कटिन है और ‘‘ईश्वर भक्त के लिए जैनी ‘वीतराग’ मूर्तिमान् मिलते हैं।’’चन्दाबाई अभिनंदन ग्रन्थ, पृ. ३२८-२९ ईश्वर को क्या संज्ञा दें ?- इस बारे में जैनियों की दृष्टि कभी संकुचित नहीं रही। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-
अर्थ-ज्ञानी-शिव-परमेष्ठी-सर्वज्ञ-विष्णु-चतुमुर्ख (ब्रह्मा)-बुद्ध-आत्मा और परमात्मा (कुछ भी कहो, किन्तु वह ईश्वर) स्पष्ट ही’ निश्चय ही कर्मों से विमुक्त होता है। परमात्मा या ईश्वर के विषय में प्रात: स्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने जब यह कहा कि वह (परमात्मा या ईश्वर) न तो कार्य है और न कारण है; तब बौद्धों के असंस्कृत परिनिर्वाण, वेदान्तियों के ब्रहमभाव, सांख्यों के कूटस्थ नित्य पुरूषमुक्तस्वरूप की कल्पनाओं का समन्वय उन्होंने कर दिया। साथ ही तत्कालीन परस्पर विरोधी दलों का सुन्दर ढंग से वर्णन करके परमात्मा के स्वरूपवर्णन के बहाने से उनका समन्वय भी कर दिया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनों ने आत्मिक विकास की चरमावस्था को परमात्मा या ईश्वर के रूप में माना है, अत: जैन निरीश्वरवादी कदापि नहीं कहे जा सकते हैं। हाँ इतना अवश्य है कि उनका ईश्वर आत्मध्यान में निरन्तर लीन रहते हुए अपने स्वपर प्रकाशक सर्वदर्शी ज्ञान के द्वारा विश्व में घटित हो रहे प्रत्येक घटनाक्रम को प्रत्यक्ष जानता हुआ भी उससे नितान्त अलिप्त रहता हुआ निजानन्द में मग्न रहता है। जैनों की इस मान्यता का प्रभावक्षेत्र महान् ग्रन्थ ‘गीता’ पर भी प्रतीत होता है, जिसमें कहा गया है कि-
‘‘न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: । न कर्मफलसंयोगं, स्वभास्तु प्रवर्ततं ।।’’
गीता ५/१४
अर्थ-ईश्वर के न जो जगत्कर्तृत्व है और न जगत् उसका कर्म है। इससे जैनों के ‘अनीश्वरवाद’ एवं एतन्निमित्तक ‘नास्तिकता’का भली भाँति परिहार हो जाता है तथा जैनदर्शन एक ऐसे ईश्वरवादी आस्तिक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित होता है, जिसके ईश्वर पर पक्षपात, हित-अहित या अन्य किसी भी प्रकार से सांसारिक लांछन लागू नहीं होते। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होते हुए भी राग-द्वेष से रहित होने के कारण उसकी परमाननदमयता भी अखंडित रहती है और इसीलिए जैनों ने ऐसे ईश्वर की सविनय स्तुति की है-