आत्मा की प्राथमिक अवस्था अज्ञानपूर्ण होती है। यह प्रथम अवस्था निकृष्ट है। इस अवस्था से आत्मा अपने स्वाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास के परिणाम स्वरूप उत्थान को प्राप्त करता है। शनै:शनै:इन शक्तियों के अनुसार उत्क्रान्ति करता हुआ वह आत्मा विकास की पूर्णकला को प्राप्त हो जाता है। विकास की पूर्णता गुणस्थानों द्वारा ही होती है।‘गुणस्थान’ यह शब्द गुण + स्थान दो शब्दों के सुमेल से बना है। गुण का अर्थ आत्मशक्ति है और स्थान का अर्थ विकास की अवस्था है। इस प्रकार ‘गुणस्थान’ का अर्थ आत्मशत्तियों के विकास की अवस्था फलित है। गुणस्थान की परिभाषा बताते हुए आचार्य लिखते हैं—
कर्मों की उदयादि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन परिणामों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने गुणस्थान इस संज्ञा से निर्दिष्ट किया है। इस परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्यों का आशय आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की उनके शुद्धकार्य रूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापन्न अवस्थाओं से है। ‘‘आत्मा के गुणों को आवृत करने वाले कर्मों में मोह की प्रधान है। मोहनीयकर्म के उदय से मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। दर्शनमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से मिश्रगुणस्थान होता है। दर्शनमोहनीयकर्म एवं चरित्रमोहनीयकर्म की अनुन्तानुबंधी चतुष्क के उपशम या क्षयोपशम या क्षय से चतुर्थ गुणस्थान होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से पञ्चम गुणस्थान होता है। प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदयभाव से ६ से १० तक पांच गुणस्थान होते हैं। चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम से ११ वां तथा क्षय से १२ वां गुणस्थान होता है। चार घातिया कर्मों के क्षय से १३—१४ वां गुणस्थान होता है। किन्तु १३ वें गुणस्थान में शरीरनामकर्मोदय का कारण योग है और शरीरनामकर्मोदय के अभाव हो जाने से १४ वें गुणस्थान में योग भी नहीं होता है। इस प्रकार इन १४ गुणस्थानों में से १ से १२ तक के गुणस्थान दर्शनमोह और चारित्रमोहकर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय से उत्पन्न होने वाले भावों के निमित्त से होते हैं। १३ वां और १४ वां गुणस्थान योग के सद्भाव और अभाव से होता है। इस प्रकार जो चौदह गुणस्थानों की उत्पत्ति जीवात्मा की बतायी है उन्हीं चौदह गुणस्थानों की संज्ञाओं का उल्लेख करते हुए नेमिचन्द्राचार्य कहते हैं—
मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य।
विरदा पमत्त इदरो अपुव्व अणियट्टि सुहमो य।।
उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगि य।
चोद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा।।
गो.जी.९—१०
मिथ्यात्व , सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण संयत , अनिवृतिकरणसंयत, सूक्ष्मसांपरासंयत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान होते हैं तथा सिद्धों के गुणस्थानातीत अवस्था जानना चाहिए। इन्हीं गुणस्थानों का धवल के परिप्रेक्ष्य में संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है—
मिथ्यात्वगुणस्थान:— मिथ्यात्वकर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है अथवा विपरीत श्रद्धान होता है, उसको मिथ्यात्व कहते हैं। आचार्य वीरसेन इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं— सन्ति मिथ्यादृष्टय: मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतैकान्त विनयसंशयाज्ञानरूप-मिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टय:।मिथ्यादृष्टि जीव है। यहाँ पर मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवों के विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हें मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं।१ ऐसे जीव देह, स्त्री पुत्रादि में अनुरक्त होते हैं, विषय कषाय से संयुक्त होते हैं और अपने आत्मस्वभाव से विरत होते हैं।२ बाह्य पदार्थों से अनुरक्त होने के कारण मिथ्या श्रद्धा युक्त जीवों को बहिरात्मा भी कहा जाता है।३ ये जीव नाना कर्मों से बद्ध संसार परिभ्रमण करते हैं। संसार में अनन्त आत्माएँ इसी गुणस्थान में रहती हैं। इसमें मिथ्या श्रद्धान के कारण संवर का अभाव है।४ धवल ग्रन्थ में मिथ्यादृष्टि जीव को एकान्त , विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इन पांच प्रकार के मिथ्या परिणामों से कलुषित कहा है। इन्हीं का वर्णन भी किया है। विपरीत श्रद्धानी इस जीव की दशा ऐसी होती है कि जिस प्रकार पित्त ज्वर से युक्त जीव को मीठा रस अच्छा मालूम नहीं होता, उसी प्रकार ऐसे जीव को यथार्थ धर्म अच्छा मालूम नहीं होता। ५ यह जीव औदयिक भाव युक्त रहता हुआ दु:ख का ही भोक्ता होता है।
सासादनगुणस्थान:— इस गुणस्थान का स्वरूप निरूपित करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है कि सम्यक्तव की विराधना को आसादन कहते हैं, जो इस आशादन से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं, किसी एक अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय हुए मिथ्यात्व रूप परिणामों को नहीं प्राप्त हुआ है, फिर भी मिथ्यात्व गुणस्थान के अभिमुख है, उसे सासादन कहते हैं।६ सासादनगुणस्थानवर्ती का विपरीत अभिप्राय रहता है, अत: वह असद्दृष्टि होता है, विपरीत अभिप्राय वाला होने से उसे मिथ्यादृष्टि कदापि नहीं कह सकते, क्योंकि इस गुणस्थानवर्ती के मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश नहीं होता, इसलिए वह मिथ्यादृष्टि नहीं है। यहाँ रहस्य यह है कि विपरीताभिनिवेश दो प्रकार का होता है, अनन्तानुबन्धी जनित और मिथ्यात्वजनित । उनमें से दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी जनित विपरीताभिनिवेश ही पाया जाता है। यही कारण है, यह मिथ्यात्व गुणस्थान से भिन्न स्वतंत्र गुणस्थान है। इस गुणस्थान को स्वतंत्र मानने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। दर्शनमोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से सासादन रूप परिणाम नहीं होता। यही कारण है कि सासादन को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं कहा गया, जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से द्वितीय गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेदन होकर चारित्र का आवरण होने से चारित्रमोहनीय का भेद है इसलिए यह सासादनगुणस्थान है। यह गुणस्थान गिरती हुई अवस्था का है अर्थात् सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व रूपी भूमि के सम्मुख हो चुका है, जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो रहा है परन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है वह जीव सासादनगुणस्थानवर्ती जानना चाहिए।७ यह अपर्याप्त नारकियों को नहीं होता है। यह स्पष्ट है कि कोई भी जीव प्रथम गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में नहीं जाता। चतुर्थादि गुणस्थान से कषायों के उदय के कारण जब वह नीचे गिरने लगता है तब यह गुणस्थान आता है। यह गुणस्थान उत्क्रान्ति का नहीं है अपितु अपक्रान्ति का है। पूर्ण मिथ्यात्व में जाने से पहले इसमें सम्यक्तव का थोड़ा सा आभास रहता है, जैसे सूर्य छिपने के पश्चात् रात्रि का पूर्ण अंधकार आने के बीच की अवस्था इस गुण स्थान में जीव के परिणामिकभाव होते हैं क्योंकि इसमें दर्शनमोहनीयकर्म के उदय , क्षय एवं क्षयोपशम का अभाव होता है। इस गुणस्थान का अधिक से अधिक समय छ: आवली होता है। एक जीव की अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल छ: आवली प्रमाण है और एक समय से लेकर एक—एक समय अधिक करते हुए एक समय कम छ: आवली तक मध्यम काल है। आचार्य वीरसेन स्वामी इसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं—
उवसमसम्मत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जाइ णो हेट्ठुक्कट्ठकालेसु।।३१—३२।।
ध.पु.४ पृ. ३४१—३४२
जितने प्रमाण उपशमसम्यक्त्त्व का काल अवशिष्ट रहता है उस समय सासादनगुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीवों का भी उतने प्रमाण ही सासादनगुणस्थान का काल होता है। यदि उपशमसम्यक्त्व का काल छ: आवलि प्रमाण शेष हो तो जीव सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो सकता है। यदि छ: आवलि से अधिक काल शेष रहने पर इस गुणस्थान में नहीं पहुॅँचता। जयधवल में यतिवृषभाचार्य ने चूर्णि में लिखा है कि जिसने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके द्वितीयोपशम को प्राप्त कर लिया है वह भी द्वितोयपशम से गिरकर सासादन को प्राप्त हो सकता है।८ षट्खण्डागम में उक्त कथन को स्वीकार न कर यही बात स्वीकार की है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर सासादनगुणस्थान को प्राप्त होता है।९ गोम्मटसार ने ‘‘ आदिसम्मत’’पद द्वारा प्रथमोपशम से गिरकर सासादन में जाना कहा है।१० द्वितीयोपशम से गिरकर सासादन को प्राप्त नहीं होता है। प्रथमोपशमसम्यक्तव से गिरने वाले जीव के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें से किसी का भी उदय होते ही सासादनगुणस्थान होता है किसी को माया से, किसी को लोभ से प्रेरित सासादनपना होता है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र):— सम्यग्मिथ्यात्व नामक जात्यन्तर११ सर्वघातिप्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर भिन्नरूप परिणाम होते हैं। जिस प्रकार दही और गुड़ को इस प्रकार मिलाने पर जिससे उनको भिन्न नहीं किया जा सके, उस द्रव्य के प्रत्येक परमाणु का रस मिश्ररूप होता है, उसी प्रकार मिश्रपरिणामों में भी एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम रहते हैं।१२ समीचीन असमीचीन श्रद्धा वाला सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती, न मारणान्तिक समुद्धात होता है, न नवीन आयु का बन्ध होता है। इस गुणस्थान में रहने वाला जीव पतन करे तो प्रथम गुणस्थान में जाता है और ऊपर चढ़े तो चतुर्थ गुणस्थान में जाता है।
अविरतसम्यग्दृष्टि :—जो प्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोह की प्रकृतियों को उदय होने से चारित्र धारण नहीं कर सकता मात्र जिनेन्द्र प्रणीत तत्वों का श्रद्धान करता है, उसे अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं।१३ इस गुणस्थानवर्ती प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव प्रगट होते हैं। सम्यग्दर्शन का घात या उसका अवरोध करने वाले दर्शनमोहनीयकर्म का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम करके जो आत्मा सम्यग्दर्शन (शुद्ध श्रद्धा की प्राप्ति कर लेता है किन्तु चारित्र—विघातक मोहनीयकर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम न कर सकने के कारण जो अहिंसादि व्रतों को अंगीकार नहीं कर सकता, उस आत्मा की संज्ञा अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान कहलाती है।१४ यह कुलाचार का पालक और विवेकी होता है। क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का सम्यक्तव होता है। इस गुणस्थान से देशविरत या अप्रमत्तगुणस्थान वाला गिरकर तीसरे दूसरे प्रथम गुण—स्थान में भी पहुँच जाता है।
देशविरत:—(संयतासंयत) संयत और असंयत इन दोनों भावों के मिश्रण से जो गुणस्थान होता है, उसको संयतासंयत कहते हैं।१५ इसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम तो नहीं रहता किन्तु यहाँ इतनी विशेषता होती है कि अप्रत्याख्यानावरण का उदय न होने से एक देशव्रत होते हैं। इस गुणस्थान वाला अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतों को धारण कर संख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता है। यह उसी मनुष्य या तिर्यञ्च के होता है या तो किसी आयु का बन्ध न किया हो या देवायु का बन्ध किया हो।१६ तीनों सम्यक्त्वों में यह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान वाला १२ व्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से करता है । व्रतों का अणुव्रत रूप में पालन करता है। अत: एकदेशव्रती कहलाता है। देशव्रती का चिंतन जब ऐसा चलने लगता है कि मैंने एकदेश व्रतों का पालन किया तो इतना अधिक शान्ति लाभ हुआ यदि मैं सर्वविरति को प्राप्त करूँगा, तब कितनी अधिक शान्ति से प्राप्त होगी ? इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त आध्यात्मि शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह विकासगामी आत्मा चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूप स्थिरता व स्वरूप लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करता है। इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्वविरतिसंयम प्राप्त होता है।
प्रमत्तसंयत:— जहाँ प्रत्याख्यानावरणकषाय का क्षयोपशम होने से हिंसादि पांच पापों का सर्वदेश त्याग हो जाता है, परन्तु संज्वलनकषाय का अपेक्षाकृत तीव्र उदय रहने से प्रमाद विद्यमान रहता है, वहाँ प्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान है। सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र इस गुणस्थान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं ‘‘जिसके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन तीन चौकड़ी रूप बारह कषायों के उदयभाव से सयंम तो होता है किन्तु संज्वलन चतुष्क और नौ कषायों के तीव्र उदय से मलिन करने वाला प्रमाद भी साथ में रहता है, अत: यह अवस्था प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले की होती है, या यह प्रमत्तसंयत गुणस्थान है। चार विकथा (स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा) क्रोधादि चार कषायें , पांच इंद्रियाँ , निद्रा और प्रणय से पन्द्रह प्रमाद माने जाते हैं। इनमें संयम की विरोधी चर्चा को विकथा कहा गया है। संज्वलन और नौ नोकषाय अनुभवगम्य है दूसरे प्रकार से मदिरा, इन्द्रिय विषय , कषाय, निद्रा, और विकथा इन पांचों में से किसी एक को अथवा सभी को प्रमाद माना जाता है। जिस प्रकार राग से प्रमाद को प्राप्त हुआ जीव गुण दोष को नहीं सुनता है, उनका विचार नहीं करता है, उसी प्रकार जो गुप्ति और समिति के विषय में प्रमाद से युक्त होता है, उसे प्रमत्तविरत जानना चाहिए।१७ इस गुणस्थान को धारण करने वाला निग्र्रन्थ मुद्रा का धारक होकर अट्ठाईस मूलगुणों का निर्दोष पालन करता है। यह गुणस्थान मात्र मनुष्यगति में पुरूषों को ही प्राप्त होता है। मुनिव्रत धारण करने की इच्छा रखने वाला अविरतसम्यग्दृष्टि या देशव्रती श्रावक अपने हाथ से केशलुञ्चन करते हुए शरीर से सर्वथा निर्मोहवृत्ति होता हुआ नग्नता को धारण करता है। आचार्य केशलोंच, आचेलक्य, प्रतिलेखन, शरीर पर निर्मोहवृत्ति को औत्सर्गिकलिंग१८ कहते हैं। दिगम्बर साधु को पहिचान के लिए जो प्राकृतिक चिन्ह चाहित वह इन बातों से प्रकट होता है जैसा कि मूलाचार के समयसाराधिकार में कहा है—
अर्थात् कपड़े आदि सर्वपरिग्रह का त्याग (आचेलक्य) केशलोंच, शरीर संस्कार का त्याग, मयूरपिच्छ यह चार साधु के लिंग है। ये चारों अपरिग्रह भावना , वीतरागता एवं दयापालन के चिन्ह हैं। इन औत्सर्गिकिंलगों का दिगम्बर साधु में होना आवश्यक है, इनके बिना दिगम्बर साधु नहीं कहला सकता है। आचेलक्य धर्म, मुनिचर्या का आवश्यक अंग ही नहीं, अपितु अनिवार्य है। दृव्य के साथ भाव नैग्र्रन्थ ही मोक्ष का कारण है। इस सम्बन्ध में कहा भी है—
अर्थात् हे जीव! तुम्हारा मन जब निग्र्रन्थ होता है , तभी तुम वास्तव में निग्र्रन्थ हो। इस प्रकार वस्तुत: निग्र्रन्थ होने पर ही तुम मोक्षमार्ग के पथिक बन सकते हो। इससे सिद्ध हुआ कि मोक्षमार्ग के लिए नैग्र्रन्थ्य (आचेलक्य) की परम आवश्यकता है। यह नैग्र्रन्थ्य अवस्था प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान बालों के ही प्राप्त होती है।
अप्रमत्तसंयत :— संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय मन्द पड़ जाने पर जब प्रमाद का अभाव हो जाता है, तब अप्रमत्तगुणस्थान होता है। इस गुणस्थान के दो भेद हैं एक स्वस्थान दूसरा सातिशय। वर्तमान के मुनियों में स्वस्थान अप्रमत्त की अवस्था ही संभव है। सातिशय भाग में अध:करण परिणाम होते हैं अत: इस गुणस्थान का दूसरा नाम अध:करण भी है। सातवें से छठवें गुणस्थान में आना और छठवें से सातवें गुणस्थान में आना यह क्रिया साधक की हजारों बार होती रहती है। परिणामों की ऐसी ही विचित्रता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उत्तरोत्तर मन्दोदय होने पर जब कोई मुमुक्षु आचार्यदेव के पास जाकर दीक्षा देने की प्रार्थना करता है आचार्यदेव उसकी योग्यता की परीक्षा करके उसे दीक्षा प्रदान करते हैं वह पञ्च महाव्रत पञ्च समिति, पञ्च इन्द्रिनिरोध, षड़ावश्यक केशलोंच आदि शेष सात गुण रूप २८ मूलगुणों को धारण कर दिगम्बर मुनि अवस्था को प्राप्त होता है उस समय उसे सीधा सप्तम अप्रमत्त नामक गुणस्थान प्राप्त होता है किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय होने से सप्तम गुणस्थान से पष्ठ गुणस्थान में आ जाता है। अनन्तर अल्प अन्तमुहुर्त में ही सप्त गुणस्थान में पहुँच जाता है। इस प्रकार गुणस्थानों में सन्त रहता है। प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान में साधक की परणति (क्रिया) का चित्रण पं. सुखलाल संघवी के शब्दों में — पांचवें गुणस्थान की अपेक्षा इस छठे गुणस्थान में स्वरूप अभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से अधिक ही मिलती है तथापि बीच—बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति के अनुभव में जो बाधा पहुंचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता। अतएव सर्वविरति जनित शान्ति के साथ अप्रमाद जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करता है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन—चिंतन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है । यही अप्रमत्तसंयत नामक सातवां गुणस्थान है। इसमें एक ओर अप्रमादजन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद जन्य पूर्व वासनाएं उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी आत्मा कभी प्रमाद की तन्द्रा और कभी अप्रमाद की जागृति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार आता जाता रहता है। भंवर या वातभ्रमी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इधर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है।
अपूर्वकरण :—जहाँ जीव के परिणाम प्रतिसमय अपूर्व—अपूर्व अर्थात् नये—नये होते हैं, वहाँ अपूर्वकरण गुणस्थान है। इस गुणस्थान में पिछले गुणस्थान की अपेक्षा विशुद्धता का वेग बढ़ता जाता है। जैसे प्रथम समय में यदि एक से लेकर दश तक परिणाम थे तो दूसरे समय में ग्यारह से लेकर बीस तक के परिणाम होंगे। यहाँ नाना जीवों की अपेक्षा सम समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों होती है परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम में नियम से असमानता रहती है। इसमें सामान्य रूप से उपशमक और क्षपक ये दोनों प्रकार के जीव होते हैं। १९
अनिवृत्तिकरण (अनिवृत्तिवादरसांपरायिकगुणस्थान) :— सांपराय शब्द का अर्थ कषाय है और वादर का अर्थ स्थूल है अर्थात् स्थूल कषायों को वादर सांपराय कहते हैं और अनिवृत्तिरूप वादरसांपराय को अनिवृत्तिवादरसांपराय कहते हैं, उन अनिवृत्तिवादसांपरायरूप परिणामों में जिन संयतों की विशुद्धि प्रविष्ट हो गई है, उन्हें अनिवृत्तिवादरसांपरायरूप कहते हैं। ऐसे संयतों के उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के जीव होते हैं,२० और उन सब संयतों को मिलाकर एक अनिवृत्ति करणगुणस्थान होता है। जहाँ एक समय में एक ही परिणाम होने से समान समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता रहती है और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में असमानता रहती है वहाँ अनिवृत्तिकराणगुणस्थान है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इसमें अपूर्वकरण की अनुवृत्ति है उससे सिद्ध होता है कि इस गुणस्थान में प्रथमादि समयवर्ती जीवों का द्वितीयादि समयवर्ती जीवों के साथ परिणामों की अपेक्षा भेद है (अतएव इससे यह तात्पर्य निकल आता है कि अनिवृत्ति पद का संबन्ध एक समयवर्ती परिणामों के साथ ही है।
सूक्ष्मसाम्पराय :— (सूक्ष्म साम्परायप्रविष्टशुद्धिसंयतगुणस्थान) सूक्ष्मकषाय को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। जो साधक आत्मशुद्धि की अपेक्षा इस अवस्था में प्रवेश कर जाते हैं उन्हें सूक्ष्मसाम्प्रविष्टशुद्धिसंयत कहते हैं। सि.च. नेमिचन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार धुले हुए कौसुंभी रेशमी वस्त्र में सूक्ष्म हल्की लालिमा शेष रह जाती है उसी प्रकार जीव अत्यन्त सूक्ष्म राग अर्थात् लोभकषाय से युक्त होता है, उसको सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती कहते हैं। मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम करके आत्मार्थी सूक्ष्म अंश ही उसके शेष रह जाता है। जो मोहनीयकर्म की २० प्रकृतियों का क्षय करता हुआ इस गुणस्थान में आया है, वह क्षपक श्रेणी वाला इस गुणस्थान में शेष बचे सूक्ष्म लोभ कषाय की सत्ता व्युच्छित्ति करके १२ वें गुणस्थान में चला जाता है और जो नवम गुणस्थान में मोहनीकर्मप्रकृति का उपशम करके उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होकर इस गुणस्थान में आया है वह सूक्ष्म लोभ का उपशम करके उपशान्तकषाय नामक ११ वें गुणस्थान में चला जाता है।
उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान (उपशान्तमोह :—) उपशमश्रेणी वाला जीव चारित्रमोह का उपशम कर उपशान्तमोह नामक गुणस्थान को प्राप्त होता है। निर्मली फल से युक्त जल की तरह अथवा शरदऋतु के उपर से स्वच्छ हो जाने वाले सरोवर के जल की तरह मोहनीयकर्म के पूर्ण उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों से युक्त आत्मदशा को उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ नामक ११ वाँ गुणसथान कहा है।२२ इसमें औपशमिक यथाख्यातचारित्र प्रकट होता है। इस गुणस्थान में आरोहण करने वाला साधक मोहनीयकर्म की २८ प्रकृतियों का पूर्ण उपशम करके अन्तर्मुहुत काल पर्यन्त इस स्थिति में रहकर इस समय सीमा के बाद पुन: उक्त कर्म प्रकृतियों के उदय में आने से निश्चित रूप से नीचे के गुणस्थानों में गिर जाता है उसका गिरना दो प्रकार से होता है। कालक्षय और भवक्षय । जो कालक्षय से गिरता है वह १०—९—८ और सातवें गुणस्थान में क्रम से आता है और भवक्षय से गिरता है वह सीधा चौथे में आता है या प्रथम गुणस्थान में भी आ जाता है। २३
क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान (क्षीणमोह) :— कषाय (मोह) का पूर्णक्षय होने को क्षीणमोह कहते हैं। कषाय क्षय से वीतराग होते हैं ज्ञानाकरण दर्शनावरण आदि रहते हैं अत: क्षद्मस्थ हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्त होते हैं उन्हें क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इस गुणस्थान में आया हुआ छद्मस्थ पद अन्त दीपक है अर्थात् आगे छद्मस्थापना नहीं रहेगा।२४ जिस निग्र्रन्थ का चित्त मोहनीयकर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया है उसको क्षीणकषाय गुणस्थान कहा गया है।२५ मोहनीयकर्म के न रहने के एक अन्तमुहूर्त में शेष घातिकर्मों का क्षय हो जाता है। अन्तिम क्षण में केवलज्ञान प्राप्त कर १३ वें का स्वामी हो जाता है।
सयोगकेवली :— इस गुणस्थान के अधिष्ठता अरिहन्त जिनेन्द्र हैं। आचार्य कहते हैं—२६ ‘‘जिनके केवलज्ञानरूपी सूर्य की अविभाग२७ ‘‘ प्रतिच्छेद रूप किरणों के समूह से अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिनको नव केवललब्धियों के प्रकट होने से परमात्मा संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उन्हें इन्द्रिय की अपेक्ष न होने के कारण और ज्ञान दर्शन प्रकट होने से केवली और मन, वचन, काय रहने के कारण सयोग तथा घातियाकर्मों को जीतने से जिन कहा जाता है। बारहवें गुणस्थान के अन्त तक उन योगी के त्रेसठ कर्मप्रकृतियों के नष्ट होने से अनन्त चतुष्टय प्राप्त हैं, किन्तु वह योग से युक्त हैं। अत: वह संयोगकेवली अरिहन्त परमात्मा जिन हैं।
अयोगकेवली :— जो योग रहित होकर केवली हैं, वे अयोगकेवली कहलाते हैं।२८ जिन योगी के कर्मों के आने के द्वारा रूप आस्रव सर्वथा अवरूद्ध हो गये हैं तथा सत्त्व और उदय रूप अवस्था को प्राप्त कर्मरूपी राज के सर्वथा निर्जर हो जाने से कर्मो से सर्वथा मुक्त होने के सम्मुख आ गया है।२९ उस योग रहित केवली को चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली कहते हैं । इस गुणस्थान में काय और वाक्व्यापार निरूद्ध होने के साथ ही साथ मनोयाग भी पूरी तरह नष्ट हो जाता है।३० इसी में अघातिया कर्म की उपान्तय समय में ७२ और अन्त समय में १३ कर्म प्रकृति नष्ट हो जाती है। जीव ८५ कर्म प्रकृतियों के नष्ट होने पर पूर्ण शुद्धावस्था प्राप्त कर सिद्धात्मा बन अजर अमरता को प्राप्त होते हैं। गुणस्थानों में आत्मा का विकास होता है किन्तु सर्वथा नहीं है प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि पुरूषार्थ पूर्वक कर्मो को हल्का कर पुण्य योग से सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चतुर्थगुणस्थान या व्रत सहित होने पर पंचम या सप्तम में पहुंचता है। कदाचित प्रथमोपशम अविरतसम्यग्दृष्टि गिरा तो तीसरे सम्यग्मिथ्यादृष्टि में आकर प्रथम में भी पहुंच जाता है सादि मिथ्यादृष्टि तीसरे से चौथे में भी पहुंचता है। द्वितीयोपशम करके उपशमश्रेणी आरोहण करके पतित भी होता है क्षपकश्रेणी का आरोहण कर सिद्धावस्था को प्राप्त करता है। गुणस्थान संसार दशा के परिणाम ही हैं। सिद्ध भगवान् गुणस्थानातीत होते हैं।