आजकल इतिहासकारों ने जैनधर्म को भगवान महावीर द्वारा संस्थापित स्वीकार किया है। कुछ विद्वान इससे और आगे बढ़े तो प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से जैनधर्म की उत्पत्ति मान ली किन्तु इससे अधिक प्राचीनता तक तो कोई भी लेखक नहीं पहुँच सके हैं। संभवतः इसी सन्देहास्पद स्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए एक इतिहासकार ने बी. ए. भाग १ की ‘‘प्राचीन भारत’’ गाइड में जैनधर्म की प्राचीनता बताते हुए कहा है कि—
‘‘जैनधर्म के जन्म के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त काल तक मतभेद रहा। पहले यह विश्वास था कि महात्मा बुद्ध के समकालीन महावीर ही जैनमत के प्रवर्तक थे परन्तु अब यह स्पष्ट हो गया है कि महावीर जैन तीर्थंकरों की कड़ी में २४ वें तीर्थंकर थे, इनसे पूर्व २३ तीर्थंकर और हो चुके हैं।’’ इसी प्रकरण में एक लेखक जैकोबी के मतानुसार जैनधर्म के संस्थापक भगवान पार्श्र्वनाथ माने गए हैं। उनका इस विषयक सम्पूर्ण कथन लगभग श्वेताम्बर जैन मत के आधार पर प्रतीत होता है।
प्राचीन जैन लेखकों के अभाव में ही ऐसी अनेक मिथ्या धारणाएं प्रचारित हुई हैं क्योंकि आज से दो हजार वर्ष पूर्व के आचार्य श्री गुणधर स्वामी, पुष्पदन्त भूतबली और श्रीयतिवृषभ आचार्य के द्वारा ही लिखे गए ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध हैं। इससे पहले का कोई विशेष इतिहास दृष्टिगोचर नहीं होता है किन्तु जैनधर्म की अनादिनिधनता, सार्वभौमिकता तो इतिहासज्ञों के बिना प्रकृति से ही सिद्ध हो जाती है क्योंकि वह जैनधर्म न तो किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित है, न जाति पर और न भाषा पर आधारित है।
व्यक्ति से उत्पन्न होने वाले धर्म किसी सीमा के बाद समाप्त हो जाते हैं किन्तु जैनधर्म को न किसी ने प्रारम्भ किया है और न ही उसका कभी अन्त होगा इसीलिए इसे ‘‘अनादिनिधन’’ धर्म कहते हैं। एक पाश्चात्य संस्कृति में पले विद्वान मेजर जनरल जे. सी. आर. फर्लांग ने अपनी पुस्तक
The short Study in Science of Compareative religion” ‘‘में लिखा है किJainism thus appears an farliest faith of India (Int ro p. 15)
‘‘अर्थात् जैनधर्म की शुरुआत का पता पाना असंभव है।’’इस तथ्य से भारत का सबसे प्राचीन धर्म जैनधर्म ही मालूम पड़ता है। यह धर्म जितेन्द्रियता को महत्व प्रदान करता है और इन्द्रिय विषयों पर विजय प्राप्त करने वाले समस्त महापुरुषों को पूज्यता की श्रेणी में पहुँचाता है। इस पूज्यता को जैनधर्म में पाँच श्रेणियों में विभक्त कर पूज्य के उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद बतलाए हैं। अनादिनिधन णमोकार मंत्र इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
उसमें आठों कर्मों से मुक्त सिद्ध परमेष्ठी की संज्ञा वाले परमात्मा अदेही पुरुषों को परम उत्कृष्ट पूज्य माना है और चार कर्मों से मुक्त अरिहन्त परमेष्ठी को मध्यम श्रेणी का पूज्य पुरुष माना है तथा आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी को तृतीय श्रेणी के पूज्य पुरुषों में स्वीकार किया है। ये पाँचों पूज्य पुरुष संसारी प्राणियों को क्रम परम्परा से उत्तम सुख में पहुँचाते हैं और परमपद में स्थित हैं इसलिए इन्हें परमेष्ठी की संज्ञा से अलंकृत किया गया है।
भगवान ऋषभदेव या भगवान महावीर स्वामी भी धर्मतीर्थ के प्रचारक होने से तीर्थंकर कहलाए। ऋषभदेव से भी पहले इस धरती पर अनादिकाल से जैनधर्म रहा है। समय—समय पर कुछ विद्वेषियों एवं स्वार्थी तत्वों ने इसकी जड़ों को काटने का प्रयास किया है लेकिन प्रकृति की जड़ भला कौन काट सका है ? अपने अनेकान्त और स्याद्वाद सिद्धान्त के बल पर जैनधर्म ने प्रत्येक धर्म पर विजय प्राप्त की है तथा अपने ऊपर आए संकटों को अहिंसा के बल पर सहन किया है।
जैनधर्म मूलतः अहिंसावादी है किन्तु वह कायरता कभी नहीं सिखाता। जैसे—आवश्यकता पड़ने पर मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र ने भी विरोधिनी हिंसा का सहारा लिया। धर्म एवं धर्मायतनों पर संकट आने पर चुप बैठने की शिक्षा जैनधर्म कभी नहीं देता। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने समीचीन धर्म की परिभाषा बताते हुए कहा है—
देशयामि समीचीन, धर्मं कर्मनिवर्हणम्।
संसार दुःखतः सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे।।
अर्थात् प्राणियों को सांसारिक दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला ही ‘‘समीचीन धर्म’’ है। कहीं-कहीं शास्त्रों में इसे सनातन धर्म कहकर भी इसकी प्राचीनता का बोध कराया गया है। स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी एक पुस्तक The discovery of India’ के पृ. ७५ पर सनातन धर्म के बारे में लिखा है—
`Sanatanadharma meaning the ancient religion, could be applied to any of the ancient Indian faiths (including Buddhism and Jainism) but the expression has been more or less monopolized today by some orthodox sections among the Hindus who claim to follow the ancient faith.
अर्थात् सभी कदीम हिन्दुस्तानी मतों के लिए(इनमें बौद्धमत और जैनमत शामिल हैं) ‘‘सनातन धर्म’’ यानी प्राचीन धर्म का प्रयोग हो सकता है, लेकिन इस पर आजकल हिन्दुओं के कुछ कट्टर दलों ने एकाधिकार कर रखा है जिनका दावा है कि वे इस प्राचीन मत के अनुयायी हैं।’’
इस कथन के आगे भी वे स्वीकार करते हैं कि—(देखें हिन्दुस्तान की कहानी पृ. ९७-९८) ‘‘बौद्ध धर्म और जैनधर्म यकीनी तौर पर हिन्दू धर्म नहीं है और न वैदिक धर्म ही है। फिर भी उनकी उत्पत्ति हिन्दुस्तान में ही हुई है और ये हिन्दुस्तानी जिदगी, तहजीब और फल के अंग हैं। हिन्दुस्तान में बौद्ध और जैनी हिन्दुस्तानी विचारधारा और संस्कृति की सौ फीसदी उपज हैं, फिर भी इनमें से कोई भी मत के खयाल से हिन्दू नहीं हैं इसलिए हिन्दुस्तानी संस्कृति को हिन्दू संस्कृति कहना सरासर गलतफहमी फैलाने वाली बात है।’’
जैनधर्म का उल्लेख प्रायः लेखकों ने बौद्ध धर्म के साथ किया है। इसका प्रमुख कारण यही है कि वे बौद्धधर्म की उत्पत्ति के समान ही जैनधर्म को भी मात्र पच्चीस सौ वर्ष पुराना एवं भगवान् महावीर द्वारा संस्थापित मान लेते हैं। जवाहरलाल नेहरू ने भी एक जगह अपनी पुस्तक में यही लिखा है—
“Mahavira, the founder of jainism and Buddha were conteporaries and both came from the Kshatriya warrior
अर्थात् जैनधर्म के संस्थापक और बुद्ध समकालीन थे। दोनों ही क्षत्रिय वर्ण के थे। ये सभी विचार तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध को समकालीन बताने के लिए तो उचित हैं किन्तु जैन धर्म की स्थापना से इनका सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व ‘‘मोहन जोदड़ो और हड़प्पा’’ की खुदाई से अनेक जैनत्व के प्रतीक प्राप्त होने से उसकी बौद्ध धर्म से प्राचीनता प्रत्यक्ष प्रमाणित तो है ही, इसके अतिरिक्त जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के नाम पर जो ब्राह्मी लिपि प्रारम्भ हुई थी उसे आज बिना संदेह के सर्वमान्य रूप से स्वीकार किया गया है।
उस लिपि के बारे में नेहरू जी लिखते हैं—‘‘हिन्दुस्तान में लिखने का रिवाज बहुत ही पुराना है। मोहन जोदड़ो में ऐसे लेख मिले हैं जिन्हें अभी तक पूरी तरह नहीं पढ़ा जा सका है। ब्राह्मी लेख पूरी तरह देवनागरी लिपि की बुनियाद में है इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता है।’’
इतिहास में अनेक जगह लेखकों ने अपने-अपने ढंग से जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करने का प्रयास किया है। जैसे—प्राकृतिक सौन्दर्य में कोई बाह्य दिखावा या प्रदर्शन नहीं होता है वैसे ही जैनधर्म प्रदर्शन की नहीं, प्रत्युत आत्मदर्शन की शिक्षा देता है इसीलिए उसकी जड़ें सर्वदा हरी—भरी रहती हैं और अनन्त काल तक उन जड़ों को सुखाने में कोई समर्थ नहीं है अतः जिनधर्म की स्मृति में यह पद्य सदैव याद रखना चाहिए—
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलं।।