
अहिंसा के अभाव में क्रूरता की शक्ति बढ़ने लगी और व्यक्ति मांसाहारी हो गया। मांसाहार ने कत्लखानों का शुभारंभ किया जो पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में देश में वैध कत्लखानों की संख्या ३६००० से अधिक है। अलकबीर कत्लखाने द्वारा इस्लामी देशों में, मांस नर्यात के लिए, विदेशी मुद्रा कमाने के लिए, कत्ल का रास्ता, हमारी भारतीय संस्कृति और प्रकृति दोनों के खिलाफ है। प्राय: एक शंका उठायी जाती है कि यदि मांसाहार बंद हो जाए तो अन्न, धान्य, फल सब्जी के भाव आसमान पर चढ़ जायेंगे। पशु—पक्षी इतने बढ़ जायेंगे कि रहने की जगह और खाने को उन्हें खाद्यान्न नहीं मिलेगा।आखिर इसका समाधान क्या है? अर्थशास्त्री मालथस के अनुसार खाने—पीने की वस्तुओं और जनसंख्या के बीच का संतुलन, प्रकृति स्वयं बनाये रखती है। यदि मनुष्य, आबादी को बरोकटोक बढ़ने देता है तो प्रकृति महामारियों /विपदाओं द्वारा उसे संतुलित कर लेती है। अत: मांसाहार—शाकाहार को जीवित रखे है, यह कहना एक धूर्त संयोजन व विवेकहीन कथन है। माँ बच्चे को जन्म देती है तो इसके पूर्व उसके स्तनों में दूध नहीं होता। जन्म पाते ही माँ के स्तनों में प्रकृतित: दूध की व्यवस्था हो जाती है। प्रकृति यह जानती है कि बच्चे के दाँत नहीं, उसका पेट कैसे भरेगा? जीवन संरक्षण, प्रकृति के साथ चलता है।