आज विश्व में – एक चेतावनी, चिन्तन और चेतना का दौर सा चल रहा है। चेतावनी का विषय है- पर्यावरण, चिन्तन का विषय है- पर्यावरण- प्रदूषण और चेतना का विषय है- ‘पर्यावरण का संरक्षण’। मनुष्य अपने स्वार्थ एवं आमोद-प्रमोद के लिए अतुल प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट करने पर उतारु बना हुआ है। मनुष्य चाहे वह धनाढ्य-समुदाय का हो या सोशलिस्ट समुदाय का, दोनों वर्गों ने प्रकृति का दोहन कर इसके साथ छेड़छाड़ कर, इसका भरपूर र्Eेज्त्दग्ूaूग्दह किया है, कर रहा है और यह धारणा बन गयी है कि सुखी रहने की वुंâजी, भौतिक समृद्धि और पदार्थ-विज्ञान का विकास है। आज की टेव्नâानालॉजी, जो भोगवादी संस्कृति की प्रेणता है, ने जीवन के नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों एवं आधुनिकीकरण के दृष्टिकोण को प्रभावित किया है, जिसने पर्यावरण एवं पारिस्थिति को असंतुलित कर दिया है। आज पर्यावरण- प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी- असंतुलन की समस्या, मानव के अस्तित्व के लिए चुनौती बनी हुई है। मनुष्य- मनुष्य के बीच और मनुष्य-प्रकृति के बीच के संबंधों ने पर्यावरण को काफी हद तक प्रभावित किया है,
जिसे मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-
(१) भौतिक-परिवर्तन – इसके अंतर्गत- भूमिक्षरण, वनों का विनाश, महानगरों में बहुमंजिली इमारतों का निर्माण, खनन आदि।
(२) रासायनिक परिवर्तन – इसके अंतर्गत – जल, वायु, ध्वनि, रेडियो धर्मिता आदि का प्रदूषण ।
(३) जैविक परिवर्तन – जैविक उपजातियों का विलुप्त होना।
(४) सामाजिक पैथोलॉजी – इसके अंतर्गत हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति, मांसाहार, मानसिक तनाव, लालसा, अनावश्यक धन संग्रह, आंतकवाद आदि।
उक्त चार वर्गों को मुख्यतः दो घटकों के अंतर्गत समायोजित किया जा सकता है-
(१) बाह्य-पर्यावरण
(२) आन्तरिक पर्यावरण। मनुष्य पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। यदि उसके शरीर में विहार उत्पन्न होते हैं, तो संपूर्ण पर्यावरण कलुषित हो उठता है। स्वच्छ पर्यावरण के लिए मनुष्य का स्वस्थ होना आवश्यक है। हम वही होते हैं, जो पेट में डालते हैं।
अर्थात् पर्यावरण का सम्बन्ध हमारे आचार-विचार, खान-पान, आहार-विहार आदि से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। जहां बाह्य पर्यावरण के घटक-वस्तुएँ या पदार्थ हैं, वहीं आन्तरिक पर्यावरण जीवन और अन्तर्जगत से संबंधित है जिसमें मन-मस्तिष्क और आत्मा (चैतन्य) की अहम् भूमिका होती है। हमारे देश के ४१वें संविधान संशोधन द्वारा, प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण (वन, झील, वन्य-प्राणी, भूमि) की रक्षा करें, उसका संवद्र्धन करे, प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखे तथा अवैध शिकार से बचे। संविधान की उक्त धारा में पर्यावरण के दोनों घटकों का संरक्षण आ जाता है।
१- लाखों गरीब व्यक्ति या वनाश्रित आदिवासी जन, अपने जानवरों के पालन-पोषण एवं स्वयं की अनेक जरूरतों के लिए वनों पर आश्रित रहते हैं। जंगल- न केवल वन-सम्पदा, औषधि, जड़ी बूटी व इमारती लकड़ी की आवश्यकता की पूर्ति करता है, अपितु यह भूमिक्षरण को रोकता है। जलवायु नियंत्रित होकर वर्षा होने में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। लेकिन हमने विगत ३०० वर्षों की संचित खनिज व वन संपदा का उपभोग कर समाप्त कर दिया। विगत एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रतिवर्ष १७० लाख हेक्टेयर जंगल, जो जापान देश के क्षेत्रफल के बराबर होता है, नष्ट कर देते हैं। वृक्षों का महत्त्व, इसी बात से आंका जा सकता है कि एक व्यक्ति को प्रतिदिन औसत १६किग्रा. ऑक्सीजन चाहिए। इसके लिए ५०वर्ष की आयु और ५० टन वाले ५-६ वृक्ष चाहिए। यानी ५-६ वृक्षों को काटना, एक आदमी को प्राणवायु से वंचित कर देना है।
शुद्ध पेयजल की समस्या गंभीर होती जा रही है। भू-जल-स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। १९५० से २०१२ तक पेयजल की मांग तीन गुनी बढ़ गयी है। Human Development Report के अनुसार २० देशों के १३२ मिलियन व्यक्ति जलाभाव की समस्या से जूझ रहे हैं। यदि यही हालत रही तो २०५० तक २५ और देश इस सूची में जुड़ जायेंगे। इसके साथ ही नगरीकरण औद्यौगीकरण, जैविक व रसायनिक कचरा, मांसाहार आदि पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं।
२. रासायनिक परिवर्तन- औद्यौगीकरण के कारण दो खतरे उत्पन्न हो गये हैं।
(१) Global warming का
(२) ओजॉन गैस (O3gas) सतह का क्षीण होना। वायुमण्डल की Ultravoilet और cosmic और rays पृथ्वी तक आने में ओजॉन गैस की परत, एक परावर्तक के रूप में कार्य करती है और उन्हें पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश नहीं करने देती। ओजोन गैस की परत पतली होने का कारण co2 है, जिससे उक्त Ultravoilet rays पृथ्वी पर आने से Cancer जैसी बीमारी का कारण बनती है।
३. Bio Diversity loss – यानी वनस्पतिक और जीवधारियों की प्रजातियों का विलुप्त होना- १९७२ से इस पृथ्वी पर वनस्पतिक व अन्य जीवधारियों की लगभग १० हजार प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी हैं। ऐसा अनुमान है कि २०२० तक इनकी संख्या एक करोड़ तक पहुंचने की सम्भावना है। एक बार जो प्रजाति समाप्त हो जाती है, उसका पुनः अभ्युदय कभी नहीं हो पाता जैसे- डायनासोर आदि। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि पर्यावरण में जितनी अधिक प्रजातियाँ रहेंगी, उतना अधिक मनुष्य के जीवन का अस्तित्व सुरक्षित रहेगा। प्रत्येक प्रजाति, मानव-विकास के लिए अद्भुत वरदान सिद्ध होती है।
४. सामाजिक पैथोलॉजी – भगवान् महावीर- पर्यावरण संरक्षण के महान पुरोधा थे। उन्होंने कहा कि सामाजिक पुनर्निमाण में अहिंसा, उपरिग्रह और अनेकान्त का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान है। जैनधर्म का आध्यिात्मिक संविधान- पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण से बहुत जुड़ा है। अहिंसा- जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है। सूक्ष्म जीवों से लेकर विशाल काय प्राणियों तक में- दया, प्रेम एवं उनकी रक्षा का भाव जैनधर्म की प्रमुख बात है। आचार्य उमास्वामी देव ने- मनुष्य- मनुष्य एवं मनुष्य व अन्य प्राणी/पादपों के बीच अन्तर्संबन्धों पर एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया ’’परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ ”All life is bound together support of interdependence” यह पारिस्थितिकी विज्ञान का यथार्थ सत्य है। जैनधर्म की अहिंसा पेड़-पौधों तक को काटने के लिए साफ मना करता है। क्योंकि सर जगदीश चन्द्र वसु वैज्ञानिक ने पादप जगत में अनेक प्रयोग करके सिद्ध किया है कि उनमें भी प्राण होते हैं, उनमें सुख-दुःख की संवेदनाएं होती हैं। यदि वे भय से कांपते हैं तो संगीत से प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। Cresograph उन्होंने के द्वारा दिखाया कि पेड़-पौधे विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग Response देते हैं।
शाकाहार- अहिंसा की प्रतिष्ठा का व्यावहारिक रूप है जो सात्विक एवं स्वास्थ्यवद्र्धक आहार है। यह गलत धारणा है कि माँसाहार-शाकाहार की तुलना में अधिक शक्तिवद्र्धक है। एक शाकाहारी ०.७२ एकड़ भूमि से जीवन यापन कर सकता है, जबकि एक मांसाहारी के लिए कम से कम १.६३ एकड़ जमीन की जरूरत होती है, केवल अमेरिका में एक कि.ग्रा. गेहूँ उत्पादन के लिए ५० गैलन जल की आवश्यकता होती है, जबकि एक कि. मांस के लिए १०,००० गैलन पानी चाहिए। रोगों को रोकने में फाइबर का बड़ा महत्त्व है, जो शाकाहारी खाद्यान्न में ही मिल सकता है। माँसाहार में फाइबर बिल्कुल नहीं होता। अनाज, दाल, फलों व दूध में यह सुलभता से पाया जाता है। बाईबिल में लिखा है- ‘‘यदि तुम शाकाहार करोगे तो तुम्हें जीवन-ऊर्जा प्राप्त होगी। किन्तु मांसाहार करते हो, तो वह मृत आहार तुम्हें मृत बना देगा।
अहिंसा के अभाव में व्रूâरता की शक्ति बढ़ने लगी और व्यक्ति मांसाहारी हो गया।
मांसाहार ने कत्लखानों का शुभारंभ किया जो पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है।
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में देश में वैध कत्लखानों की संख्या ३६०००से अधिक है। अलकबीर कत्लखाने द्वारा इस्लामी देशों में, मांस-निर्यात के लिए, विदेशी मुद्रा कमाने के लिए, कत्ल का रास्ता, हमारी भारतीय-संस्कृति और प्रकृति दोनों के खिलाफ है। प्रायः एक शंका उठायी जाती है कि यदि मांसाहार बंद हो जाए तो अन्न्, धान्य, फल सब्जी के भाव आसमान पर चढ़ जायेंगे कि रहने की जगह और खाने को उन्हें खाद्यान्न नहीं मिलेगा। आखिर इसका समाधान क्या है? अर्थशास्त्री मालथस के अनुसार खाने-पीने की वस्तुओं और जनसंख्या के बीच का संतुलन, प्रकृति स्वयं बनाये रखती है। यदि मनुष्य, आबादी को बेरोकटोक बढ़ने देता है तो प्रकृति महामारियों/विपदाओं द्वारा उसे संतुलित कर लेती है। अतः मांसाहार-शाकाहार को जीवित रखे हैं, यह कहना एक धूर्त संयोजन व विवेकहीन कथन है। माँ बच्चे को जन्म देती है तो इसके पूर्व उसके स्तनों में दूध नहीं होता। जन्म पाते ही माँ के स्तनों में प्रकृतितः दूध की व्यवस्था हो जाती है। प्रकृति यह जानती है कि बच्चे के दाँत नहीं, उसका पेट वैâसे भरेगा? जीवन-संरक्षण, प्रकृति के साथ चलता है।
जल, वायु, ध्वनि एवं पृथ्वी पर बढ़ रहे अन्य प्रदूषणों से भी ज्यादा खतरनाक व्यक्ति का मानसिक या आन्तरिक प्रदूषण है। व्यक्ति आज मानसिक तनाव, हिंसा की बढ़ती प्रवृत्तियों ने जघन्य अपराधों को ही नहीं बढ़ाया, वरन् आत्म-हत्या की घटनाएँ एवं आतंकवाद को भी बढ़ाया है।
मनुष्य की संग्रह प्रवृत्ति वर्ग-शोषण को जन्म दिया है। मनुष्य की लालसा आकाश के क्षैतिज बिन्दु को पाने के लिए बेतहाशा दौड़ लगा रहा है पर क्या क्षैतिज बिन्दु कभी पाया जा सकता है? इससे सामाजिक समरसता-संतुलन व सौजन्य तीनों बिगड़ रहे हैं। जैनधर्म इसे ‘‘परिग्रह’’ की संज्ञा देता है। यानी वस्तुओं के प्रति अतिलगाव। आदमी जितना जोड़ता है वह उतना ही संवेदन शून्य जड़ होता जाता है। भगवान् महावीर ने इसका समाधान दिया-
‘अपरिग्रह’ या ‘परिग्रह’ परिमाण यानी अपनी आवश्यकताओं व इच्छाओं को सीमित करना/कम करना। अनावश्यक संग्रह प्रकृति के दोहन व मनुष्य के शोषण के बिना संभव नहीं है। यही सामाजिक -प्रदूषण है। व्यक्ति अपने काषायिक भावों के कारण भी मानसिक तनाव, ईष्र्या, द्वेष, अशान्त-मन, उद्वेग एवं उत्पीड़न में बना रहता है। चार प्रकार के कषाय भाव जैनधर्म में कहे हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ। इन्हीं चारों के कारण वह अपनी आत्मा को कलुषित करता रहता है। इस आंतरिक-प्रदूषण को कम किया जा सकता- क्रोध के उद्वेग को क्षमा भाव से, मान या अहंकार भाव को विनम्रमा से, माया को सरल व निष्कपट भावों से तथा लोभ -मल को संतोष जल से दूर किया जा सकता है।
नोबेल पुरस्कार विजेता (सम्मानित) डॉ. अर्तुरी वर्तुनेन (जीव-रसायनिक शोध संस्थान, फिनलैण्ड के निदेशक) ने शाकाहार को पर्यावरण संरक्षण का मौलिक कारक (घटक) माना है। इन्होंने विश्वास प्रकट किया कि शाकाहारियों को जीवन ऊर्जा के आवश्यक पोषक तत्त्व, नैसर्गिक रूप से प्राप्त हो जाते हैं। आज शाकाहार के बढ़ते निरापद प्रभाव से विश्व के ७३ से अधिक देश, विश्व शाकाहार कॉग्रेस (ेंदrत्् न्नुाूarग्aह ण्दहुrोे) के सदस्य बन चुके हैं। इस संगठन ने शाकाहार की वैज्ञानिकता को स्वीकार कर इससे केन्सर व ह्रदय-रोग जैसे असाध्य रोगों से निदान में सहमति व्यक्ति की है। इंग्लैण्ड की वेजीटिरियन सोसाइटी (१८४७) ने वेजीटेरियन शब्द का व्यापक अर्थ दिया- संपूर्ण निदोष, स्वस्थ, ताजा और जीवन बनाये रखने वाला। इसी प्रकार ठAत्त् घ्ह्ग्a Aहग्स्aत् ोंत्farा Aेदम्ग्aूग्दहठ ने जीव-जंतुओं के मौलिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में शाकाहार को एक नया आयाम दिये जाने की बात दुहराई है और देश के पर्यावरण की रक्षा के लिए जागरूकता का निर्माण करने का संकल्प लिया है। आवश्यकता है कि पर्यावरण संरक्षक के लिए ‘‘एक विचार क्रान्ति’’ की जो मांसाहार की वीभत्सता को उजागर करे और इसके निरसन के लिए ठोस प्रयास हों।
जैनधर्म- ‘‘पर्यावरण-संरक्षण’’ की मूल भावना से घनिष्ठतः जुड़ा हुआ है।ै वह केवल राष्ट्र एवं राजा को धार्मिक व नैतिक बने रहने की बात ही नहीं करता, वरन् समय पर वर्षा होने, दुर्भिक्ष न होने, संक्रामक -रोगों के न पैâलने आदि भावनाओं के द्वारा भाव-शुद्धि व समाज-सुख की बात दुहराता है-
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान धार्मिको भूमि पालः,
काले काले च सम्यक विकिरतु मघवा व्याधयोयान्तु नाशम् ।
दुर्भिक्षं चौरमारीं क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके,
जैनेन्द्रं धर्मचव्रंâ प्रभवतु सर्व सौख्य प्रदायी।।
जैन साधु (श्रमण) की आचार-संहिता में, महाव्रतों का पालन एवं षड्आवश्यकों का नियमन-पर्यावरण संरक्षण में सहयोगी है। उनका जलपात्र-शुद्धि के लिए होता है जिसकी संरचना इस तरह होती है कि जल ग्रहण करने का मुँह बड़ा व जल निकास का मुँह बहुत छोटा रहने से, जल का निकास बहुत नियंत्रित रहता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं का देखभाल कर केवल सीमित वस्तुओं का ही उपयोग करते हैं। स्वाध्याय हेतु शास्त्र, सूक्ष्म जीवों के संरक्षण के लिए पिच्छी एवं शुद्धि के लिए जलपात्र (कमण्डलु) के अलावा उनका कोई परिग्रह नहीं होता है। दिगम्बर साधु व जैन साध्वीं आहार चर्या २४ घण्टे में केवल एक बार करते हैं ताकि शरीर में शक्ति, बनी रहे और उनकी साधना निरावाध संपन्न हो सके। प्रकृति जिस प्रकार निरावरण है, उसी प्रकार प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर दिगम्बर श्रमण बिना आवरण के रहता है। भू-शयन करता है। पद-गामी होता है। उनका आंतरिक पर्यावरण भी राग-द्वेष से रहित स्वच्छ एवं निर्मल रहता है। उनकी साधना का एक आयाम, सामाजिक-शुद्धि एवं सौहार्द का वातावरण निर्मित करने में सहायक होता है। इस प्रकार जैनधर्म की अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त-दृष्टि, बाह्य एवं आंतरिक पर्यावरण के संरक्षण के लिए मुनष्य-मनुष्य के बीच समता, दया और शोषण रहित सामाजिक ढाँचा तैयार करता है। अनेकान्त दृष्टि-सर्वधर्म समभाव की उदारता पर आधारित धार्मिक सहिष्णुता का बीजारोपण करता है। अहिंसा- लोकमाता है, जो पर्यावरण संरक्षण का मूल मंत्र है और सामाजिक पैथोलॉजी को दृढ़ संबल प्रदान करता है। इक्कीसवीं सदी में ‘‘पर्यावरण-प्रदूषण’ एक ज्वलन्त समस्या है, जिसका समाधान खोजती-श्रमण संस्कृति, राष्ट्र के विकास में अत्यन्त सहयोगी है। -निदेशक वीर सेवा मन्दिर, २१, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२ वर्ष -६५ वाल्यूम-४ अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ से अनेकान्त (भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका)