उपाध्याय और साधु इन पाँच उत्तम पद के धारी महापुरुषों को नमन करते हुए उन्हें पंचपरमेष्ठी के रूप में स्वीकार किया गया है। इनमें से अरिहंत और सिद्ध तो ईश्वर परमात्मा हैं जो पूर्ण कृतकृत्य अवस्था में रहते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु व तीन परमेष्ठी वर्तमान में भी चतुर्विध संघ के साथ विचरण करते हुए आत्मकल्याण एवं जनकल्याण में प्रवृत्त देखे जाते हैं। जैनधर्म ने अहिंसा के सिद्धान्त को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है जो केवल पशु-पक्षियों के प्रति ही नहीं वरन् पेड़-पौधे और जल-अग्नि आदि के रूप में रहने वाले सूक्ष्म जीवों की आत्मा के लिए भी दयाभाव रखने का उपदेश देता है तथा किसी अन्य के प्रति होने वाले गलत विचार को भी जैनधर्म ने भाव हिंसा माना है इसलिए अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म की अहिंसा अत्यधिक व्यापक कही गयी है किन्तु हिन्सक व्यक्ति से अपनी, परिवार की, धर्म की एवं देश की रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र उठाने को इस धर्म ने विरोधी हिंसा कहकर गृहस्थ के लिए स्वीकार किया है। श्रमण और गृहस्थ इन दो रूपों में उपदिष्ट जैनशासन के सूत्रों ने भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में भी भारी सहयोग किया है और आज भी विश्व भर में फैले आतंकवाद को उन्हीं अहिंसाप्रधान सिद्धान्तों के द्वारा समाप्त किया जा सकता है ऐसी जैनधर्म की मान्यता है।