अरिहुं दन्त तृन धरै ताहि मारत न सबल कोई।
हम सन्तत तृन चरिंह वचन उच्चरिंह दीन होई।
अमृत छीर नित स्रविंह बच्छ महि थम्भन जाविंह।
हिन्दुिंह मधुर न देिंह कटुक तुरूकिंह न पियावहिं।
कह कवि ‘नरहरि’ अकबर सुनो, विनवत गउ जोरे करन।
अपराध कौन मोहि मारियत, मुयहु चाम सेविंह चरन।
गौओं की प्रार्थना से द्रवित होकर सम्राट् अकबर ने अपने राज्य के बहुसंख्यक नागरिकों की र्धािमक मान्यता को समादर देकर करुणा के दर्शन को मुखरित किया था। श्री रामधारीसिंह दिनकर के अनुसार धर्म अकबर की राजनीति का साधन नहीं था, प्रत्युत् यह उसकी आत्मा की अनुभूति थी। अबुल फजल और बदायूनी के विवरणों से मालूम होता है कि अकबर सूफियों की तरह कभी—कभी समाधि में आ जाता था और कभी—कभी सहज ज्ञान के द्वारा वह मूल सत्य के आमने—सामने भी पहुँच जाता था। एक बार वह शिकार में गया। उस दिन ऐसा हुआ कि घेरे में बहुत से जानवर एक साथ पड़ गए और वे सब मार डाले गये। अकबरहिंसा के इस दृश्य को सह नहीं सका। उसके अंग—अंग कांपने लगे और तुरन्त उसे एक प्रकार की समाधि हो आई। इस समाधि से उठते ही उसने आज्ञा निकाली कि शिकार करना बंद किया जाए। फिर उसने भिखमंगों को भीख दी, अपना माथा मुंडवाया और र्धािमक भावना के इस जागरण की स्मृति में एक भवन का शिलान्यास किया। जंगल के जीवों ने अपनी वाणीविहीन वाणी में उसे धर्म का रहस्य बतलाया और अकबर की जागरूक आत्मा ने उसे पहचान लिया। यह स्पष्ट ही, उपनिषदों और जैनधर्म की शिक्षा का प्रभाव था।श्री रामधारीसिंह दिनकर, ‘संस्कृति के चार अध्याय’, पृ. ३०७ जैन संतों की धर्मदेशना से प्रभावित होकर उसने मांसाहार का त्याग कर दिया और इतिहासज्ञ श्री डब्ल्यु व्रुकी के अनुसार तो सम्राट् अकबर ने जैनधर्म के महापर्व पर्युषण के १२ दिनों में अपने राज्य में पशु—हत्या को भी बन्द करवा दिया था।