पं. भगवतीदास विरचित ‘मइंकलेहा-चरिउ में मूढ़त्रय विवेचन
प्राचीन भारतीय वाङ्गमय को समृद्धता के शिखर पर पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के माध्यम से प्राप्त हुआ है। संस्कृत को आज भी देश में व्यापक स्तर पर मान्यता प्राप्त हैं प्राकृत और अपभ्रंश का साहित्य कभी इस देश के बहुसंख्यक लोगों द्वारा समादृत रहा है। राजदरवारों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के कवियों को आसन दिया जाता था। अपभ्रंश भाषा में जन-मन-रंजन की अदभूत क्षमता है जिसका रसास्वाद वर्तमान क्षेत्रीय भाषाओं/बोलियों में सहज होता है। अपभ्रंश भाषा में लाड़-प्यार है, तरूणाई का मदमस्त आकर्षण है, उत्साह है, उमंग है। अपभ्रंश में सरलता, सहजता, स्वाभाविक तरलता आदि कितने प्राकृतिक गुण हैं। प्रकृति ने इस भाषा को बनाया नहीं है, परन्तु प्रकृतिस्थ लोगों के आनन्द की यह मौलिक अभिव्यक्ति जरूर है। अपभ्रंश का स्वर्ण युग बीत चुका है। अद्याविध अपभ्रंश की संतति का स्वर्णकाल है। गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, सिंधी, मराठी, बिहारी, उड़िया, असमिया और राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा अन्य प्रादेशिक बोलियाँ भी इसकी संतान परम्परा का हिस्सा हैं। इन भाषाओं के विकास क्रम को समझने के लिए अपभ्रंश की सहायता लेना अनिवार्य है। इस कारण से अपभ्रंश को अकादमिक स्तर पर साहित्य प्रेमियों ने जीवित रखा है। यह अच्छा है परन्तु अपभ्रंश अपने मौलिक प्रयोजन से भटकने के कारण जन सामान्य से दूर हो गई है। अपभ्रंश कवियों ने इस भाषा को चुना औ धर्मप्राण समाज की स्थापना हेतु इसका प्रयोग किया और जन समर्थन प्राप्त किया। अपभ्रंश की इस विशेषता को पुष्ट करते हुए प्रो. हरिवंश कोछड़ मूल समस्या के समाधान तक ले जाने का प्रयास कर रहे हैं- ‘अपभ्रंश साहित्य अधिकांश धार्मिक आचरण से आवृत्त है। माला के तन्तु के समान सब प्रकार की रचनाएँ धर्मसूत्र से ग्रंथित हैं। अपभ्रंश कवियों का लक्ष्य था- एक धर्म प्रवण समाज की रचना। पुराण, चरिउ, कथात्मक कृतियाँ, शास्त्र आदि सभी प्रकार की रचनाओं में वही भाव दृष्टिगोचर होता है। कोई प्रेम कथा हो चाहे साहसिक कथा, किसी का चरित हो चाहे कोई और विषय हो, सर्व. धर्म तत्त्व अनुस्यूत है। अपभंश लेखकों ने लौकिक जीवन एवं गृहस्थ जीवन से सम्बद्ध कथानक भी लिखे, किन्तु वे भी इस धार्मिक आवरण से आवृत्त हैं। भविसयत्तकहा, पउमसिरिचरिउ, सुदंसणचरिउ, जिणदत्तचरिउ आदि इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं। मानों धर्म इनका प्राण था और धर्म ही इनकी आत्मा।’अपभ्रंश साहित्य, प्रो. हरिवंश कोछड़, पृ. ४६-४७ अपभ्रंश की इस विशेषता का उपयोग हुए जनसामान्य को पुन: इसकी ओर आकृष्ट किया जा सकता है। अपभ्रंश के भविष्य की चिंता करने वाले नीतिनिर्धारकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
पं. भगवतीदास और उनका मइंकलेहा-चरिउ – भगवतीदास (भगौतिदास) का मदंकलेहा-चरिउ (चन्द्रलेखा) सबसे अन्तिम अपभ्रंश कृति मानी जाती है। इसका उचनाकाल विक्रम सं. १७०० है। कृति में कडवकबद्ब शैली का पालन किया किया गया है, किन्तु समयानुकूल प्रभाव के अनुकूल दोहों के प्रयोग भी मिलते हैं तथा बीच-बीच में तत्कालीन काव्यभाषा का भी व्यवहार मिलता है। भगवतीदास देहली के भट्टारक गुणचन्द्र के प्रशिष्य तथा भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। इन्होंने हिन्दी में अनके ग्रन्थों की रचना की। मइंकलेखा-चरिउ की वि.सं.१७०० की हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्रभण्डार में विद्यमान है।मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृ. १३ समयसार नाटक में कवि भगौतिदास का ऐसे प्रसंग में नामोल्लेख हुआ है, जिससे कि वे कविवर श्री बनारसीदास के न केवल समकालीन बल्कि उनकी अध्यात्मज्ञान गोष्ठी या धर्मार्थ चर्चा के एक सदस्य भी रहे ज्ञात होता है। उन्होंने पं. भगौतिदास को समुतिवान कहा है। समयसार नाटक के पद्य निम्न प्रकार हैं :-
।।चौपाई।।
नगर आगरा मांहि विख्याता, कारन पाइ भये बहु ज्ञाता।
पंच पुरुष अति निपुन प्रवीने, निशिदिन ज्ञानकथा रस भीने ।।२५।।
रूपचंद पंडित प्रथम, दुतिय चतुर्भूज नाम ।
तृतीय भगौतिदास नर, कौंरपाल गुणधाम ।।२६।।
धर्मदास ये पंच जन, मिलि बैठें इक ठौर ।
परमारथ-चरचा करैं, इनके कथा न और ।।२७।
मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृ. १२-१३
भगवतीदास का जन्म अम्बाला जिले के बूढ़िया ग्राम में हुआ था। कवि के पिता का नाम किसनदास था। इनका गोत्र बंसल था।आप अग्रवाल जैन थे। कहा जाता है कि चतुर्थ वय में इन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया था। कवि भगवतीदास संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा के अच्छे कवि और विद्वान् थे। ये बुढ़िया से योगिनीपुर (दिल्ली) आकर बस गये थे। उस समय दिल्ली में अकबर बादशाह के पुत्र जहाँगी का राज्य था। दिलली के मोती बाजार में भगवान् पाश्र्वनाथ का मंदिर था। इसी मंदिर में आकर भगवतीदास निवास करते थे।मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृ. १३-१४ डॉ. कामता प्रसाद जैन ने ‘हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ में श्री भगवतीदास की रचनाओं का विवरण इस प्रकार किया है – श्री भगवतीदास जी की रचनाएं श्री दिगम्बर जैन बढ़ा मन्दिर मैनपुरी के शास्त्र भण्डार में विराजमान सं. १६८० के लिखे हुए गुटका में लिपिबद्ध हैं। आ प्रसिद्ध भैया भगवतीदास जी से भिन्न और और पूर्ववर्ती हैं। …… इन्होंने १. टंडाणारास, २. बनजारा, ३. आदित्तिव्रत रासर, ४. पखवाडे का रास, ५. दशलक्षणी रासा, ६. अनुप्रेक्षा भावना, ७. खीचड़ी रासर, ८. अनंत चतुर्दशी चौपाई, ९. सुगंधदशमी कथा, १०. आदिनाथ-शान्तिनाथ विनती, ११. समाधी रास, १२. आदित्यवार कथा, १३. चुनड़ी-मुकति रमणी, १४. योगी रासा, १५. अनथमी, १६. मनकरहारास, १७. वीरजिनेन्द्र गीत, १८. रोहिणीव्रत रास, १९. ढमालराजमती नेमिसुर, २०. संज्ञानी ढमाल नामक रचनाएं रची थीं, जो उपर्युक्त गुटका में लिपिबद्ध हैं। इनके अतिरिक्त आपकी एक रचना मृगांकलेखा चरित का पता आमेर भण्डार की सूची से चलता है।हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. १००-१०४
मूलकथा एवं धर्मोपदेश – मइंकलेहा चरिउ के प्रणयन का मूलाधार शील की महिमा को प्रकाशित करना है। नायिका मृगांकलेखा अपरनाम चन्द्रलेखा का जीवन अत्यन्त संवेदनशीन दर्शाया गया है। अंजना सती के जीवनवृत्त से इस नारी के जीवन की तुलना करते हुए ब्र. सुमन शास्त्री लिखती हैं- ‘जीवन के ऐतिह्य वृत्त में अंजना की समकक्ष होते हुए भी विपत्तियों के मामले में उससे आगे खड़ी है। अंजना ने तो केवल पति वियोग और सायु की भत्र्सना सही। गर्भ भार ढोती हुई जंगलों-जंगला ेंमें भब्की किन्तु उनके साथ उनकी सखी वसन्तमाला थी। पुत्र हनुमान के जन्मते ही मामा प्रतिसूर्य के घर पहुँच गई पर यह सती तो गर्भावस्था में भी जंगलों में नितान्त अकिली थी। पुत्र जन्म से पूर्व सखी चित्रलेखा विछड़ गई। जन्मते शिशु को मांस लोभी श्रान उठा ले गया । शील के प्रताप से कामी बसन्त सेठ की कामुकी दृष्टि से बची तो बलि हेतु राजदरबार के चण्डी मंदिर में बलिदेवी के समक्ष खड़ी हो गई। अहिंसा के प्रभाव से राजा सुंदर को अहिंसक बना अभया को प्राप्त हुई तो राक्षसी माया और वनराज का ग्रास होते होते बची, यहाँ भी उसका शील जन्य पुण्य ही सहयोगी था। अन्त में वेश्या की शिकार हुई,उसने मृगांकलेखा को वेश्या कर्म हेतु प्रताड़ित किया, वहाँ भी शीन ही रक्षक बना। वेश्या ने उस रूपवती को राजभय के कारण राजदरवार में भेज दिया। उस विवेक शीला को अपने शील रक्षार्थ पागल महिला का रूप धारण करना पड़ा। अन्ततोगत्वा पुण्य व शील प्रताप से कष्टों का विशाल सागर तैर गई और धर्म की शरण में उस धर्मवती को पुत्र और पति का समागम हुआ। कुछ समय तक सांसारिक सुख भोगकर संसार से विरक्त हो पति के साथ आर्यिका दीक्षा धारण कर संसार छोड़ दिया।’मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृ. ६६-६७ संसार के समस्त प्राणियों को जो उत्तम सुख में पहुँचा दे, उसे धर्म कहते हैं। यह धर्म दो प्रकार का होता है- श्रावकधर्म और मुनिधर्म। मइंकलेहा-चरिउ में श्रावक धर्म का विशेष वर्णन है। कृति में सम्यक्त्व को सागारधर्म का सार कहा है। आज्ञा, मार्ग, उपेदश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़ रूप सम्यग्दर्शन के दस भेदों की परिभाषायें प्रस्तुत की गई हैं। देव, शास्त्र और गुरु मूढताओं के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रत्यक्ष, परोक्ष और लौकिक के भेद से प्रत्येक के सात ीोद बताये गये हैं। गुरु मूढता में पाश्र्वस्थ, कुशील, संसक्त, संतसेव और मृगचारी इन पंचविध श्रमणाभास को समझया है। पंच अणुव्रत, तीन अणुव्रत और चार शिक्षाव्रमों का विशद वर्णन है। प्रात: उठकर जिनेन्द्र देव की वंदना कर स्नान और वस्त्र विशुद्धि पूर्वक जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करना, राग रहित होकर स्तुति करना, अपरान्ह में जिननाथ की उक्तियाँ बोलना उत्तम प्रथम शिक्षाव्रत है। दोनों समय देव वंदना करना मध्यम और एक समय प्रसन्नता से देवदर्शन करना जघन्य माना है। इसी प्रकार सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और सन्यासमरण की सुन्दर विवेचना की है। उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से उन्हें विभाजित कर समझाना ग्रंथ की अपनी विशेषता है। धर्मोपदेश में पानी छानकर पीना, दया करना, मन, वचन, काय की शुद्धि से अभिमान रहित होकर अभय, आहार, औषधि और शास्त्रदान देना, दान सुपात्रों को देना, कुपात्रों को नहीं देना, यह समझाकर पात्र तीन प्रकार के कहे हैं। इनमें छत्तीस गुणधारी राग त्यागी उत्तम पात्र, सम्यग्दर्शन एवं व्रतधारी माध्यमपात्र तथा सम्यग्दर्शनधारी अव्रती किन्तु निरभिमानी जघन्य पात्र कहा है। कुत्सित व्रत चिन्हधारी कुपात्र तथा धूर्त अपात्र है। दया दान सभी प्राणियों पर करना कहा गया है।मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृ. ५०-५२
मूढ़त्रय विवेचन – जैन दर्शन ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता को मोक्ष का मार्ग कहा है। जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित सप्ततत्त्वों की यथोक्त स्वरूप में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन को शंका आदिक पच्चीस दोषों की गणना पं. भगवतीदास निम्न दोहा के द्वारा प्रदर्शित करते हैं –
खडणाइदण मूढतिगु वुत्तउ, वसुमदजुद पयासिया ।
संकाइ अट्ठदोष संकिउ, समलु सम्मत्तु भासिया ।।१५।।
अर्थ – ऋषिवर ने छह अनायतन सहित तीन मूढ़ताओं को कहा। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और सन्दर रूप (शरीर) इन अष्ट मदों को प्रकाशित किया। शंकादि अष्ट दोषों से संकीर्ण सम्यग्दर्शन को समल सम्यग्दर्शन कहा है।मइंकलेहा-चरिउ, द्वितीय संधि, दुवई १५, पृ. ८६-८७ जैनाचार्यों ने सामान्य रूप से देव आदि के विषय में अंधविश्वास रखने को मूढ़ता कहा है। आचार्य समन्तभद्र ने इसके तीन भेदों को परिभाषित किया है। लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और पाखण्डी मूढ़ता (गुरुमूढ़ता)। मूलाचार के कर्ता आचार्य शिवकोटि इसके चार भेद करते हैं –
लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं ।
णच्चा दंसणघादी ण य कायव्वं ससत्तीए ।।२५६।।
अर्थ- मूढ़ता चार प्रकार की है- लौकिक मूढ़ता, वैदिक मूढ़ता, समायिक मूढ़ता और अन्य देव मूढ़ता। इनको जानकर सर्वशक्ति से दर्शन का घात नहीं करना चाहिए।मूलाचार, पूर्वाद्र्ध, गाथा २५६, पृ. २१५ पं. भगवतीदास जी ने मूढ़ता की संख्या तीन को स्वीकार अवश्य किया है, परन्तु लोकमूढ़ता के स्थान पर शास्त्र मूढ़ता का उल्लेख किया है। इन मूढ़ताओं को अधिक विस्तार पूर्वक स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक के सात-सात भेदों की कल्पना की है। इन सभी का विशदवर्णन भी किया है। गुरुमूढ़ता के प्रसंग में भाव गुरुमूढ़ता का प्रसंग स्खलित हो गया है। इनका स्वरूप दृष्टव्य है –
।।पद्धडिया ।।
साभरण देव पूजा परमाणु,वंदणु थुई कित्तणु भत्तिठाणु ।।१।।
तं दव्व देव मूढत्त वुत्तू, पुणु पाहुड दव्व ठवइ अजुत्तु ।।२।।
पुणु खित्तमूड णरु लोइ भासि,चरइ अपूय रक्खइ अवासि ।।३।।
णिय णयर धामि पुर देसवासि, पूया अवगण्णइ पावरासि ।।४।।
सो तित्थ भूमि धावइ अयाण, पडिमा वड वण्णइ दुग्गठाणु ।।५।।
पुणु कालमूढ जिण सुत्ति वत्तु, णहि तित्थणहु सम सरण जुत्तु ।।६।।
पूया आयलि वय विहि अयालि,गुर वयणु ण मण्णइ जाम काजि ।।७।।
णिय कज्जि समप्पइ थप्पिदेणु,भणु तस्स काल मूढत्तुएणु ।।८।।
अहुणा देवहु किर भाव मूढ, मण भिंतरि चिंतइ चित्त गूढु ।।९।।
सव्वह वंदणु णिदणु ण कासु,वर बुद्धि सया णिरु घड़इ जासु ।।१०।।
अइसइ देवत्तणु सयल मज्झि, घिय कज्जु अज्जु किं पइ असज्झि ।।११।।
इत्तउ किं लोउ अयाणु सव्वु, गिर भाव देव मूढउ सगव्वु ।।१२।।
अहुणा परोक्ख मूढत्तु वुत्तु, अरहंत णवइ कुलदेव जुत्तु ।।१३।।
केलदेव देवि वंदण विहाणु, णिय गुत्त कित्ति सुर सत्ति दाणु ।।१४।।
अइाइ वड पुरिसहुं ठाणि जस्स, वंदणु तियाल महु होउ तस्स ।।१५।।
सु परोक्ख देव मूढत्तु होइ, अप्पां ण वियाणइ गोहु सोइ ।।१६।।
पुणु पयडु देव मुढत्तु अत्थि, जिणु वंइ हरिहर वम्ह सत्थि ।।१७।।
सम वंदणु पूयणु भत्ति जुत्त, सम सो-मण्णइ अहिमणि खुत्त ।।१८।।
सुपयक्ख मूढ वुत्तउ अणाणु, ण वियाणइ सग्ग-पवग्ग ठाणु ।।१९।।
भासमि णिरु सीयल परोक्खमूढ, अहुणा णवि रक्खामि भव्व गूढु ।।२०।।
चंडी मुंडी सीयल सयालि, गुग्गा दुग्गा दिणिवर सयालि ।।२१।।
इच्छिच्छइ पुत्त कलत्त लच्छि, वसि होइ मूढु णरु णिरु मइच्छि ।।२२।।
रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक २२-२४
अर्थ-१. आभरणों से युक्त सरागी देवों की पूजा, वन्दना, स्तुत, कीर्तन एवं भक्ति इत्यादि स्थानों को देव मूढता कहा है। इन्हें द्रव्यादिक का उपहार देना भी अयुक्त ठहराया है। इसे ही द्रव्य देव मूढ़ता कहा गया है।
२. अब लोक पसिद्ध क्षेत्र मूढ़ता को कहते हैं- अपूज्य चैत्य/प्रतिमा (पद्मावती, क्षेत्रपाल, भैरव, यक्ष, मानभद्र, नागाबाबादि) को अपने घरों में रखना या अपने नगर, ग्राम, पुर अथवा देश में स्थापित करना, इन्हें स्थान देना, इनकी पूजा करना पाप की राशि रूप क्षेत्र मूढ़ता में परिगणित है। अज्ञानी जन इनकी पूजा के लिए तीर्थ स्थलों की ओर भागते हैं। अथवा वटवृक्ष के मूल अर्थात् तल में दुर्गा की प्रतिमा स्थापित करना अथवा उनका स्थान बनवाना इसे लोक क्षेत्र देव मूढ़ता कहा जाता है।
३. अब जिन सूत्र में वर्णित काल मूढ़ता को कहता हूँ- ‘तीर्थ के समान अन्य कोई योग्य शरण नहीं है।’ ऐसा मानकर पूजा के अयोग्य काल में तीर्थों पर पूजा करना तथा व्रतविधान के आयोग्य समय (संक्रान्ति, मेघाच्छन्न, ग्रहणकाल अथवा दुष्काल, सांध्यकालादि दुर्दिनों) में प्रतादिक करना तथा इस समय गुरुओं के वचन न मानकर अपनेक कार्य सिद्धि हेतु इस अकाल तीर्थ वन्दना व व्रतादिक हेतु रखे हुए द्रव्य को देना, काल देव मूढ़ता कहलाती है।
४. अब भाव देव मूढ़ता को कहता हूँ- जो मन-ही-मन ऐसा गूढ़ चिन्तन करता है कि ‘सभी देव वन्दनीय हैं, किसी की भी निन्दा नहीं करना चाहिए।’ उनकी ऐसी बुद्धि सदा सृजित रहती है कि मुझे तो सकल देवों में देवत्व/अतिशय अथवा श्रेष्ठता दुष्टिगत होती है। उनका कहना है क्या आज दूध से घृत कार्य असाध्य है? नहीं अर्थात् जिस प्रकार दुग्ध से घृत निकालना असाध्य नहीं है उसी प्रकार सर्व देवों में अतिशय प्रकट होना असाध्य नहीं है। क्या सारा संसार इतना मूर्ख है जो इतनी से भी बात नहीं जानता? ऐसे दर्प-युक्त वचन एवं भाव को भाव देव मूढ़ता कहा हैं
५. अब परोक्ष मूढ़ता को कहते हैं कुल देवता के साथ अरिहन्त को नमस्कार करना परोक्ष देव मूढ़ता कहलाती है। इन कुल देवता और कुल देवी के वन्दन-पूजन तथा दान से इन देवों की शक्ति महात्म्य से अपने गोत्र की कीर्ति होती है। जिस स्थान पर महान पुरुषों का अतिशय प्रकट हुआ है उस स्थान को मेरा त्रिकाल नमन हो। ऐसा कहने वाला भद्र पुरुष जो अपने आपको नहीं जानता उसी के परोक्ष देव मूढ़ता होती है।
६. अब पुन: प्रत्यक्ष देव मूढ़ता को कहते हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु अज्ञैर महेश के सज्ञथ जिनेन्द्र को नमस्कार करता है। भक्ति पूर्वक दोनों की समान रूप से वन्दना और अर्चना करता है तथा अभिमान में निमग्न हो दोनों को समान मानता है उसी अज्ञानी के प्रत्क्ष देव मूढ़ता कही गई है क्योंकि ऐसा अज्ञानी जीव स्वर्ग अपवर्ग को नहीं जानता।
७. हे मृगाक्षी ! अब परोक्ष देव मूढ़ता को कहता हूँ, उसे तुमसे छिपाकर नहीं रखता हूँ। चण्डी, मुण्डी, शीतला, शतालि (संप्रदाय विशेष का संस्थापक, जो भविष्य काल अट्ठारहवाँ तीर्थंकर होगा) गुग्गा, दुर्गा, सूर्य आदि से पुत्र, कलत्र और लक्ष्मी आदि मेरे अधीन हों, इस प्रयोजन से मूर्खजन इनकी पूजा करते हैं उन्हीं के लौकिक परोक्ष देव मूढ़ता होती है।मइंकलेहा-चरिउ, संधि २, पद्धडिया १७ पृ. ८८-९१
शास्त्रों के विषय में द्रव्यादि सात भेदों का वर्णन इस प्रकार है :-
।।पद्धडिया ।।
एयारह अंग पढइ सयाणु, सगतच्च पयत्थ णवहि वियाणु ।।१।।
पंचत्थिकाय खड दव्व जुत्त, गदि ठिदि लक्खण मुत्तवि अमुम्म ।।२।।
अवयासु अयासय अकाउ कालु, धुव विअ उवाद णिरु अंतरालु ।।३।।
गुण दव्व पजाइ लवइ सुसत्थु, ण वियाणइ हेय उवाद वत्थु ।।४।।
ते णरु सु दव्व सुद मूढु होइ, णि अप्प पयाउण मुणइ सोइ ।।५।।
सुद खित्त मुढु भासिउ पुराणि, वहु सत्थ वखाणइ णीय ठाणि ।।६।।
मल धातु उवद्दव-अंतरालु, भय रोग णउंसग ठाणि चालु ।।७।।
मइहीण तहा ण णारि दुट्ठु, आयमु सिधंतु सवणि अपुट्ठ ।।८।।
किर एय अणेय णयहु सुभेउ, णिच्छइ ववहार सुणंत खेउ ।।९।।
तह भासइ सत्थु सुणइ सयाणु, सो सत्थ खित्त मूढउ वियाणु ।।१०।।
किर काल सत्थ मूढउ रिसीसु, संकंति अमावस गहणु दीसु ।।११।।
सुदु भणइ अकालिए अयाणु सोइ, णिरु पढइ पढावइ मुक्खु लोइ ।।१२।।
भासइ ण सुणइ तियाल वेल, ठिदि थाइ समाइग ठाणि केल ।।१३।।
सुद भाव मूढु तणि जाणु संत, सुपमत्त उसंतहु आइ अंत ।।१४।।
अहवा सत्तम गुण ठाण आइ, अंतिम गुणि खीण कसाइ थाइ ।।१५।।
विय भाय सुक्कज्झाणि वियाणु, उकत्त वितक्क विचार ठाणु ।।१६।।
थुइ करइ जिणेसर कव्व जुत्ति, वहु सत्थ पढइ द्रिट्ठंत सुत्ति ।।१७।।
सुद्धप्प विसइ णहि दिट्ठ जासु, कर भाव सत्थ मूढुत्तु तासु ।।१८।।
एवहि परोक्ख सुणि सत्थ मूढु, तिय जोइ ण गोयर वत्थु गूढ ।।१९।।
जे सुहुम अद्धवसाण जाणि, वेदा ण तासु सुह असुह ठाणि ।।२०।।
सु परोक्खमूढु सुद धारु होइ, अवहा सोयारु अयाणु कोइ ।।२१।।
भणि सत्थमूढु सु पयक्ख गोहु, अप्पणु णवियाणइ तच्च बोहु ।।२२।।
अरहंत देउ दय धम्मु सारु, णिग्गंथु जईसरु गुरु अमारु ।।२३।।
अप्पणु उवएसु करइ सयाणु, अप्पा आराहणि सइ अणाणु ।।२४।
अर्थ- १. जो एकादश अंग को पढ़ता है। सप्त, तत्त्व, नव पदार्थ, पंचास्तिकाय, गति, स्थिति, मूर्त, अमूर्त लक्षणों से युक्त छहासें द्रव्यों को, अवकाश देने वाले आकाश द्रव्य को, अकायवान् काल द्रव्य को, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को तथा आगम में वर्णित द्रव्य-गुण-पर्यायों को तो जानता है किन्तु हेयोपादेय वस्तु तत्तव को नहीं जानता ऐसे पुरुष निज आत्म-प्रकाश को नहीं जानते, वे निश्चित ही द्रव्य श्रुत मूढ़ होते हैं।
२. अब पुराणों में कथित क्षेत्र श्रुत मूढ़ता को कहते हैं। जो नीच स्थानों में अर्थात् वर्जित, गर्हित प्रदेशों में बहुत शास्त्रों को व्याख्यान करते हें। जहाँ पर मल-मूत्र, शरीरगत सप्त धातुएँ विसर्जित हों, जहाँ उपद्रव हो, भय हो, रोग या रोगी-जन हों। जहाँ नपुंसकों के स्थान हों या उनका आवागमन हो। जहाँ मतिहीन दुष्ट-स्त्री-पुरुष रहते हों। जहाँ आगम-सिद्धान्त के श्रवण वा पृच्छना की परम्परा न हो। नयों के एक या अनेक भेदों में, निश्चय और वयवहार दोनों नयों के श्रवण में जहाँ लोगों को खेद उत्पन्न होता है। वहाँ जो सुविज्ञ सत्शास्त्रों को पढ़ता अथवा सुनता है उससे क्षेत्र श्रुत मूढ़ता जानना चाहिए।
३. मकरादि संक्रान्तियाँ, अमावस्या, ग्रहण दिखलाई देने पर अथवा दिग्दाह के समय को ऋषिजन अकाल कहते हैं। जो अज्ञानी मूर्खजन इस अकाल में शास्त्र व्याख्यान करते हैं, पढ़ते-पढ़ाते हैं उसे कालश्रुत मूढ़ता जानो।
४. जो सुधीजन इस अकाल में त्रिकाल संध्याओं में न शास्त्र स्वाध्याय करते हैं, न ही सुनते हैं अपितु एक ही स्थान पर स्थिर होकर कौतुक वश समायिक की स्थापना कर क्रीड़ा करते हैं, उसे भावश्रुत मूढ़ता जानों। प्रमत्त गुणस्थान को आदि लेकर उपशान्त कषाय गुणस्थान तक शास्त्र को जानता हुआ जीव भावशास्त्र मूढ़ (?) होता है अथवा सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान को आदि लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय तक अर्थात् एकत्व विर्तक वीचार नामक द्वितीय भाग तक भावश्रुत मूढ़ता जानिए। जो जीव जिनेश्वर की काव्यमय स्तुति करता है। नीतियों को देखता हुआ अनेक शास्त्रों को भी पढ़ता है, फिरन भी जिसके द्वारा शुद्धात्मा का विषय दृष्टिगत नहीं होता है अर्थात् आत्मा का अनुभव या साक्षात्कार नहीं किया जाता है। उस जीव के निश्चित ही भावशास्त्र मूढ़ता होती है अर्थात् वह भावश्रुत मूढ़ हैं।
५. हे नृपेश ! इसी प्रकार परोक्ष शास्त्र मूढ़ता को सुनो। परोक्ष शास्त्र मूढ़ जीव के द्वारा सूक्ष्म/ गूढ़ वस्तु न तो दृष्टिगत होती है, न ही ज्ञान गम्य। जो सूक्ष्म अध्यवसायों को जानता है किन्तु उनके शुभ-अशुभ स्थानों को नहीं जानता वह परोक्ष श्रुत मूढ़ता का धारी होता है अथवा वह अज्ञानी कहलाता है।
६. जो पुरुष न तो अपनी आत्मा को जानता है और न ही तत्त्वज्ञान को। यह परोक्ष शास्त्र मूढ़ता कहलाता है।
७. अरहन्त ‘देव’ कहलाते हैं, सारभूत दया ही ‘धर्म’ है, निग्र्रन्थ ही ‘यतीश्वर’ हैं तथा कामजेता ही ‘गुरु’ कहलाते, इत्यादि को नहीं जानता हुआ भी स्वयं को सयाना/ चतुर समझकर अपना ही मनमाना उपदेश करता है, ऐसा अज्ञानी जीव आत्माराधना करता है, ऐसा अज्ञानी जीव आत्माराधना करता हुआ भी लौकिक श्रुत मूढ़ कहलाता है।मइंकलेहा-चरिउ, संधि २, पद्धडिया १८ पृ. ९०-९३ गुरु मूढ़ता का व्याख्यान करते हुए द्रव्य गुरु मूढ़ता को समझाने के लिए पाँच प्रकार के श्रमणााास का स्वरूप गाथा बद्ध किया गया है। इन भेदों का उल्लेख विभिन्न आचार्यों ने विभन्न प्रकरणों में किया है। भगवती आराधना (गाथा १९४४, पृ. ८५३-८५६), मूलाचार (गाथा ५९४ पृ. ४३६), चारित्रसार (१४३/३), आचारसार (६/४९-५२), भावपाहुड (५/१४ टीका, पृ. २६१) आदि ग्रन्थ दृष्टव्य हैं।
पं. भगवतीदास जी की रचना में गुरु मूढ़ता का स्वरूप इस प्रकार है :-
दव्व जडो गुरु उत्तो, पण भेयं भासियं हि जिण सुत्त ते ।
तस्स मुणिज्जइ भेओ, आयरु दय दाण दव्वरस ।।५१।।
पसत्थो य कुसीलों, संसत्तो संत सेव मयचारी ।
एदे पंच वि सवणं, जिण धम्म परंमुहा भणिया ।।५२।।
एयं पंचण्हं पि य, समणाणं दाण णमण वंदणयं ।
लज्ज-भय गारवेण (या) किज्जइ दव्वेण भावादो ।।५८।।
एयाणं अवमाणं, करणेदय, उगूहणं गहिए चित्तो ।
भावे वंदण मिच्छं, मज्झत्थं थाइ भविय जणे ।।५९।।
अणुकंपा उवगोहण, चित्ते मउणे अह व दाणेण ।
संसण-णिंदण-उत्ती, पडिवज्जिय तत्थ मज्झत्थं ।।६०।।
।।घत्ता ।।
दंसण वयहीणु सयाणु जई, पर आइर तप्पर सवणो ।
मायावी माणी मग्ग चुओ, दव्वमूढ गुरु सेवगणो ।।२०।।
।। पद्धडिया ।।
पुणु खित्तमूढ गुरु गणि पवुत्तु, अप्पणु थिर थाइ सणेहि भुत्तु ।।१।।
पुरगामि णयरि चेई अवासि, थिरु थाइ सया जम धम्मु भासि ।।२।।
अप्पणु देवलु करि देइ दव्वु, अप्पणु देवलु भणि मुणि सगव्वु ।।३।।
सो खित्तमूढ गुरु जणि अयाणु, तिंह भाव विहूणउ करुण दाणु ।।४।।
गुरु कालमूढु भासमि सुणेहु, दिणु रइणि भमइ पोसइ सुदेहु ।।५।।
आहा णिहारु अयालि जासु, खडवस्स किया णवि कालि तासु ।।६।।
अप्पणु मणि चिंतइ करइ सोइ, सो कालमूढु गुरु मुणह लोइ ।।७।।
अहुणा परोक्ख गूरमूढ़ भेउ, मणि संयउ आणि ण मुण्इ हेउ ।।८।।
णग्गउ गुरु होउ चउत्थ कालि, खडसंहण सतित्त ण थाइ चालि ।।९।।
मायाविय सेवइ णाण हीणु, आभिंतारि भाउ ण मुणइ दीणु ।।१०।।
णवि दीसइ अज्जु रिसीस वित्ति, रिसि दीसहि भव्व विदेह खित्त ।।११।।
अविवेय ण जाणइ सव्व भेउ, सव्वह सामण्णइ अरुइ हेउ ।।१२।।
सु-परोक्खमूढ यहु अवणि ठाणि वहु वंधइ पाउ सु-धम्म हाणि ।।१३।।
गुर पयड मूड भासइ गणेसु, णिरु णाण चरण बुज्झइ ण लेसु ।।१४।।
अणुवय सु महव्वय वित्ति भेउ, ण वियाणइ किरिया कम्म हेउ ।।१५।।
तणि सुहमवत्थ वहु मुल्ल दव्वि, सिय रत्त पीय गहि गहिय गव्वि ।।१६।।
वंâचण उपयरण रयण दिवंत, रायाइ यसइ जणि कमुधिवंत ।।१७।।
जिह मग्गु णं धारण धेय चारु, विज्जाविहीण मउ पवर फारु ।।१८।।
विसयालस णिइ्इा भुत्त दुट्ठू, ण वियाणहि सिविणइ वित्ति सुट्ठ ।।१९।।
ते पयड विक्खि लोयहु समाणु, अप्पणु मणि मण्णइ जणु सयाणु ।।२०।।
पिय मणि पिया मह कवण अम्हि, गुर पयउ मूढमउ घडइ तम्हि ।।२१।।
पुणु लोयमूढु जणि भणिउ सोइ, सव्वइ सम जाणइ गुणु ण कोइ ।।२२।।
जे मग्ग सिट्ठ अहवय पहाण, णवि याणइ वुहियण रिसि अयाण ।।२३।।
पिक्खा पिक्खी तिह भत्ति दाणु, लोयहु पहि चल्लइ णिरु सयाणु ।।२४।।
वड मण्णहि एयह अम्मि कउण, यह वित्ति परंपर सुट्ठु सउण ।।२५।।
तेलोइ मूढ गुर पह समग्ग, अविवेई माणुस ते अभग्ग ।।२६।।
णर भवि किर धम्मु विवेय सारु, सिय अत्थि णत्थि वाणी वियारु ।।२७।।
अर्थ – १. जिन सूत्र में पाँच प्रकार की द्रव्य मूढ़ता कही गई है उनका आदर करना, उन पर दया करना तथा उन्हें द्रव्यादि का दान देना इसी के भेद जानना चाहिए। पाश्र्वस्थ, कुशीन, संसक्त, अवसन्न एवं मृगचारी/स्वेच्छाचारी ये पांचों प्रकार के श्रमण जिन धर्म से पराङमुख कहे गये हैं। इन पाँचों ही प्रकार के श्रमणों को लज्जा से, भय से, गौरव से तथा द्रव्य और भाव से न तो दान देना चाहिए, न प्रणाम करना चाहिए और न ही इनकी वन्दना करना चाहिए। इनकी भावपूर्वक वन्दना करना मिथ्यात्व है, एतदर्थ भविकजनों को इनका अपमान न कहते हुए इनके प्रति अन्त:करण में इया एवं चित्त में उपगूहन गुण धारण करके मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। इन्हें मौनपूर्वक भाव रहित (श्रद्धादि सप्त गुण और नवधा भक्ति रहित) चित्त में अनुकम्पा और उपगूहन ग्रहण करके दान देना चाहिए तथा प्रशंसा और निन्दात्मक वचनों को छोड़कर इनमें मध्यस्थ रहना चाहिए। जो सम्यग्दर्शन एवं व्रतों से रहित शब्दाडम्बरी ज्ञानी साधु हैं तथा जो दूसरों के आदर में तत्पर मायाचारी मानी एवं मोक्षमार्ग से च्युत श्रमण है इनकी सेवा करने वाले सेवकगण द्रव्यगुरु मूढ़ता में परिगणित हैं अर्थात् वे द्रव्य गुरु मूढ़ कहलाते हैं।
२. अब पुन: गणीश क्षेत्र मूढ़ता को प्रकृष्ट रूप से कहते हैं। अपने निकट रहने वाले स्नेही श्रावकों से भोजन ग्रहण करते हें। पुर, ग्राम, नगर और चैत्यालयों में सदैव स्थिर रहते हैं और मुनि धर्म का उपदेश करते हैं। अपना देव मन्दिर बनवाकर उसी में द्रव्य लेते हें और ‘यह मेरा देवालय है’ ऐसे अभिमान युक्त वचनों को बोलते हैं। ऐसे अज्ञानियों के क्षेत्र गुरु मूढ़ता जानों इन्हें भाव रहित होकर करुणा बुद्धि से दान देना चाहिए।
३. अब काल और गुरु मूढ़ता को कहता हूँ (हे पुत्री) उसे सुनो ! जो दिन-रात भ्रमण करता है, शरीर का पोषण करता है, असमय में जिनका आहार-निहार होता है, जिनके षडावश्यक सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और ध्यान रूप क्रियाओं का कोई भी समय निश्चित नहीं है तथा ‘जो अपने मन में सोच लेत है वही करता है’ ऐसे गुरु को संसार में काल गुरु मूढ़ जानो।
४. (भाव गुरु मूढ़ता का स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ।)
५. अब परोक्ष गुरु मूढ़ता के भेदों को कहता हूँ क्योंकि लोग मन में संशय तो रखते हैं परन्तु हेतुओं को नहीं जानते। वे कहते हैं, ‘निग्र्रन्थ मुनि तो चतुर्थकाल में ही होते हैं, क्योंकि चारित्र स्थिर रखने वाली छठी संहनन शक्ति अर्थात् (पश्चातानुपूर्वी के क्रम से) वङ्कावृषभनाराच संहनन रूप शक्ति सम्प्रति में नहीं है।’ वे मूढ़ साधुओं के अन्तरंग परिणामों को नहीं जानमे और ज्ञानहीन इन मायाविदों की सेवा करते हें। वे कहते हैं, अद्यतन समय में ऋषियों का चारित्र दिखलाई नहीं पड़ता। श्रेष्ठ ऋषीवर तो विदेह क्षेत्र में ही दिखलाई देते हैं। वे अविवेकीजन साधुओं के सर्व भेदों पाश्र्वस्थादि को नहीं जानते तथा असम्यक् हेतुओं द्वारा सभी साधुवृन्द को एक समान मानते हैं। ऐसी मान्यता को पृथ्वी तल पर परोक्ष गुरु मूढ़ता माना गया है।यह परोक्ष गुरु मूढ़ता धर्म की हानि और अनेक पाप कर्मों को बांधती है।
६. अब गणधर देव प्रत्यक्ष गुरु मूझ़्ता को कहते हैं – जो ज्ञान और चारित्र को लेशमात्र भी नहीं जानता। अणुव्रत और महाव्रत रूप चारित्र के भेदों को भी नहीं जानता। कर्मास्रव के हेतुओं और हेतु भूत वस्त्र तथा बहुमूल्य द्रव्यों (अँगूठी, मालाएँ, अंगदादि) को धारण करता है। जो रत्नों से दैदीप्यमान स्वर्ण के उपकरण रखते हैं। जो विद्या विहीन है, जिनका मद उत्कृष्ट रूप से विस्तर्ण है। जो विषयों के कारण आलसी हैं तथा निद्रा के द्वारा खाए गए हैं। वे दुष्ट पुरुष स्वप्न में भी श्रेष्ठ आचरण को नहीं जानते। ऐसे पुरुष अपने आपको भले ही व्ज्ञि समझते हों किन्तु वे प्रत्यक्ष ही सामान्य लोगों की भांति देखे जाते हैं। ‘हम लोगों में कौन मित्त या पितामह श्रेष्ठ या पूज्य माना जाता है’ ऐसी जिनकी मति होती है उन्हीं जीवों में प्रत्यक्ष गुरु मूढ़ता घटित होती है।
७. अब लोक में व्याप्त लोक मूढ़ता को कहता हूँ – जो सबको एक समान मानते हैं, जिनकी दृष्टि में कोई गुण विशेष नहीं है। जो श्रेयोमार्ग अथवा व्रत प्रधान मार्ग को नहीं जानते तथा जो बुधिवन्त ऋषियों और अज्ञानियों में अन्तर नहीं मानते। जिनकी भक्ति और दान देखा-देखी होता है। जो निरे सयाने होकर भी लौकिक पथ पर चलते हैं। ये लोग उो अपने आपको ही बड़ा मानते हैं। जो यह मानते हैं कि यही आचार संहिता सुन्दर है, गुण युक्त है, वे लोग लोक गुरु मुढ़ हैं और उनका समग्र गुरु पथ लोक मूढ़ता से संसक्त है। ऐसे मनुष्य अविवेकी हैं, अभागी हैं। मनुष्य जन्म में धर्म का विवेक ही सारभूत है, और स्यात् अस्ति, स्यात्, नास्ति रूप जिनेन्द्रवाणी के विभेद ही प्रयोजनीय हैं।मइंकलेहा-चरिउ, संधि २, पद्धडिया १८-१९, गाथा ५१-६०, पृ. ९२-९९-९१ पं. भगवतीदास जी ने मइंकलेहाचरिउ में इसी प्रकार अन्यान्य दार्शनिक विषयों का भेद-प्रभेद करके तथा समसामायिक उदाहरणों को जोड़कर जैनदर्शन के धार्मिक पक्ष को लोक लुभावन अपभ्रंश भाषा में प्रस्तुत किया है। इन विषयों पर शोधर्थियों का ध्यानद अवश्य जाना चाहिए। विद्वानों के द्वारा भी प्रस्तुत प्रकरण एवं अन्य विविध सैद्धान्तिक प्रकरणों पर प्राचीन परंपरा का ध्यान रखते हुए विर्मश करना आवश्यक है। अपभ्रंश साहित्य के साथ धार्मिक दृष्टिकोण को जोड़कर यदि प्रयास करेंगे तो जैन समाज पुन: इस संपदा का अवलोकन/आस्वादन कर पाएगी। अपभ्रंश के संजीवन हेतु मेरा यह लघु प्रयास विद्वज्जगत में विमर्शण के लिए प्रस्तुत है।
डॉ. पुलक गोयल अनेकान्त अप्रेल-जून २०१३ पृ. ७६ से ८६