जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं विश्वशान्ति
१. अहिंसा की पृष्ठभूमि— अहिंसा मनुष्य की पहली पहचान है। मनुष्य की मौलिकता और स्वभाव का जीवन सूत्र है—अहिंसा। हिंसा—मनुष्य की निर्मिति है। जितनी कम हिंसा हो, उतना ही जीवन श्रेष्ठतर होगा। Less Killing is better living मनुष्य जो चाहे हो सकता है, हिंसक भी बन सकता है और अहिंसक भी। यह स्वतंत्रता पशु में नहीं है। वह जो हो सकता है वही है। परन्तु मनुष्य की वर्तमान की वास्तविकता, भविष्य में उससे कहीं श्रेष्ठ होने की सम्भावना से जुड़ी है। अहिंसा पौरूषेय आचरण है। हिंसा भले ही अपरिहार्य हो, परन्तु यह जीवन का नीति निर्देशक तत्व नहीं बन सकता। अहिंसा समस्त नैतिकताओं एवं धर्मों का मूल है। अहिंसा— पंथ विशेष का न तो दर्शन है और न ही किसी सम्प्रदाय का धार्मिक नारा है। यह तो प्राणी के मूल अस्तित्व से जुड़ी एक स्वभाविक जीवन शैली है। अहिंसा को जब हम सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक जीवन फलक की दृष्टि से विचारते हैं तो यह अनेक गुणों की समष्टि है। शांति, प्रेम, करूणा, दया, कल्याण, अभय, रक्षा और अप्रमाद आदि अहिंसा के पर्यावाची हैं। आत्मीयता, त्याग, समता और करूणा अहिंसा के आधार हैं। वस्तुत: ये सभी गुण मनुष्य के उदात्त जीवन मूल्यों की धरोहर हैं। जो भी मानव के लिए आदर्श निर्धारित किये गये हैं वे सभी एकमात्र अहिंसा को अपनाने पर प्राप्त किये जा सकते हैं। अहिंसा एक समग्रचिन्तन है, एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है।
विश्व समन्वय अनेकान्त—पथ, सर्वोदय का प्रतिपल गान।
मैत्री करूणा सब जीवों पर, धर्म अहिंसा ज्योति महान।।
२. अहिंसा की प्रासंगिकता—अमेरिका का विश्व व्यापार केन्द्र और सुरक्षा केन्द्र (पेंटागन) आतंकवादी हिंसा की बलि चढ़ जाने के बाद विश्व के तमाम राष्ट्रों ने अहिंसा की अनिवार्यता महसूस की अतएव अमन—चैन और शान्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महात्मा गांधी जी के जन्मदिन २ अक्टुबर २००७ को विश्व भर में ‘अहिंसा दिवस’ मनाए जाने की घोषणा की गई। भारतीय संस्कृति एवं जैनधर्म में पंच महाव्रतों में प्रथम एवं सर्वोच्च स्थान अिंहसा को दिया गया। अहिंसा न केवल वैयत्तिक जीवन में पंच महाव्रतों में प्रथम एवं सर्वोच्च स्थान अहिंसा को दिया गया अहिंसा न केवल वैयक्त्तिक जीवन साधना के रूप में बल्कि वैश्विक नव समाज रचना के लिए इसकी अनिवार्यता स्वीकार की जाने लगी। लोकतंत्र में अहिंसा के बल पर ही कमजोर वर्ग को वैसी ही सुरक्षा व भरण—पोषण सुलभ हो सकता है, जैसा सबल लोगों को । फ्रान्स की राज्य क्रान्ति और रूस में साम्यवाद के लिए हिंसा का ताण्डव हुआ और परिणाम में तानाशाही शासन स्थापित हुआ। जिससे न केवल हिंसा की व्यर्थता सिद्ध हुई अपितु विश्व में लोकतंत्र के प्रति रूझान बढ़ा, क्योंकि लोकतंत्र में लोकहित , लोकशक्ति और लोकसत्ता निहित है, जो अहिंसा के बिना संभव नहीं है। सर्वोदय का सिद्धान्त भी अहिंसा की बुनियाद पर खड़ा है।
३. जैनाचार्य अमृतचन्द्र और अहिंसा की अवधारणा—१. हिंसा और अहिंसा के विश्लेषण में अमृतचन्द्राचार्य ऐसे प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने इसकी विस्तृत व्याख्या पुरुषार्थसिद्धयुपाय में की, जहाँ उनके चिन्तन में मनोविज्ञान एवं अध्यात्म का सहज समवाय है। जैन धर्म में पाँच पाप माने गये हैं— हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। लेकिन उनका मानना है कि यथार्थ में कोई पाप है तो हिंसा ही है। उस हिंसा से बचने के लिए ही आगम में शेष चार पापों की चर्चा की है। किसी के द्रव्य का हरण करना या चाहे हिसी हेतु से चोरी की हो, वह हिंसा है। सत्य व प्रिय वाणी यदि वीणा की भांति सुखकर लगती है जो असत्य/झूठ वचन वाण की भांति दु:खदायी होने से हिंसा ही है। एकबार के अब्रह्म सेवन में नवकोटि जीवों की हिंसा होती है। इसी प्रकार भले ही पुण्य से विभूति व सुखसृमद्धि का योग होता है , परन्तु परिग्रही पापार्जन ही करता है, क्योंकि वह शोषण और अनाचार का पोषक होने से हिंसा की श्रेणी में आता है। २. अमृतचन्द्राचार्य ने कषाय भाव से परिमित हुए, मन वाणी और काय के योग से द्रव्य (भौतिक रूप से) एवं भाव दोनों प्रकार से जीव के प्राणों का घात करना हिंसा कही है। उन्होंने राग भाव को हिंसा और उसके अभाव को अहिंसा के दायरे में रखकर कहा—
यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणम् ।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा।।४३।।
तथा अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेप:।।४४।।
१ ३. अमृतचन्द्राचार्य ने अहिंसा को जीवन का परम रसायन निरूपित किया है। वे कहते हैं कि इन्द्रियों के विषयों का न्यायपूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को अल्प व अपरिहार्य एकेन्द्रिय घात के अलावा शेष स्थावर जीवों को मारने का भी त्याग करने योग्य है, क्योंकि अहिंसारूपी रसायन मोक्ष का कारणभूत परम रसायन है।
४. हिंसा के विविध समीकरण आचार्य अमृतचन्द्र की दृष्टि में—१. स्वामी अमृताचन्द्राचार्य जीव की स्वपरिणति से हिंसा व अहिंसा का विधान निश्चित करते हैं। एक जीव हिंसा नहीं करके भी हिंसा के फल का पात्र होता है, जबकि दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल का पात्र नहीं होता।
उदाहरणार्थ— दो भाईयों में एक सबल है और दूसरा कमजोर। कमजोर भाई बैठा—बैठा ऐसे खोटे भाव करता रहता है कि मैं इसे किसी कीमत पर नहीं छोडूँगा। उसने अपने हाथों से सबल भाई की हिंसा नहीं की, परन्तु कलुषित भावों के कारण वह हिंसा के पाप का भागी होता है। ईर्यापथ से विवेकपूर्ण मार्ग में जाते हुए एक व्यक्ति के पैर तले अचानक एक छोटे जीव की मृत्यु हो जाती है, फिर भी वह हिंसा पाप का बंध नहीं करता, क्योंकि उसके वध करने के परिणाम नहीं थे।
२. परिणामों की तीव्रता या मंदता के कारण हिंसा का फल भोगना—आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं, एक जीव तीव्र परिणामों में यदि थोड़ी हिंसा भी करता है तो उदयकाल में उसे बहुत फल भोगना पड़ता है, जबकि दूसरा बड़ी हिंसा करके भी थोड़ा फल पाता है। डॉक्टर द्वारा शल्य क्रिया करते हुए डॉक्टर को अल्पदोष ही लगता है। ड्रायवर द्वारा अप्रत्याशित रूप से दुर्घटना के कारण बहुत लोगों की मृत्यु हो जाती है फिर भी उसे अल्प हिंसा का दोष लगता है।
३. कषाय भावों के अनुसार हिंसा का फल—कोई हिंसा पहले ही फल देती है, कोई करते करते फलती है और कोई हिंसा कर चुकने पर फलती है। हिंसा करने का आरभं करके, न करने पर भी फल देती है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि कषाय भावों के अनुसार ही हिंसा का फल प्राप्त होता है।
४. करे एक भोगे अनेक, करे अनेक भोगे एक—क्रूरता पूर्वक पशु—पक्षियों के खेल प्रदर्शन करने वाला एक व्यक्ति होता है, परन्तु हजारों दर्शकों की हिंसा पाप का भागी होना पड़ता है। इसी प्रकार दो देशों के बीच युद्ध में, दोनों ओर के अनेक सैनिक हताहत होने पर उन्हें हिंसा का फल नहीं भोगना पड़ता। वे वेतनभोगी होते हैं और युद्ध करवाने वाले के आदेश पर शस्त्र संचालित करते हैं। अत: युद्ध करवाने वाला प्रमुख राजा या सेनाधिकारी को उसका फल भोगना पड़ता है।
५. समन्तभद्राचार्य और अहिंसा—आचार्य समन्तभद्र का मानना है कि अहिंसा केवल दर्शन मात्र नहीं है। यह आचारगत ऐसा वैशिष्टय है, जो तुरन्त दिखाई दे जाता है। वास्तव में समन्तभद्रस्वामी ने जो पहचान व पैठ बनाई वह उनकी अमरकृति ‘रत्नकरण्डश्रावकाचार’ के रूप में विश्रुत है। यह श्रावकों की आचार सहिंता है। आचार्य श्री कहते हैं कि मन, वचन और काय के योग से संकल्प पूर्वक त्रस जीवों का अर्थात् द्विइन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीवों का वध न खुद करना, न किसी से करना और न वध का अनुमोदना करना, स्थूल हिंसा से विरत होना है। यही अहिंसाणुव्रत है।६ इसके क्रमश: पाँच अतिचार (विक्षेप/व्यतिक्रम) है। किसी मनुष्य या पशु—पक्षी को छेदना, बांधना, पीड़ा देना, क्षमता से अधिक भार लादना और आहार देने में कमी रखना, ये हिंसा के ही रूपान्तरण हैं।७ इसी प्रकार शेष चार अणुव्रतों का धारी श्रावक, अवधिज्ञान, अणिमा आदि आठ ऋद्धियों का धारी होकर दिव्य शरीर के साथ सुरलोक को प्राप्त करता है।८ सर्वप्रथम सर्वोदयतीर्थ (अहिंसा) की उद्घोषणा करने वाले महान मानवतावादी दार्शनिक कवि समन्तभद्रस्वामी थे, जिनका नाम निग्र्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी के समकक्ष प्रमुख आचार्यों में लिया जाता है।
६. आचार्य उमास्वामी और अहिंसा विवेचन—जैन तत्व चिन्तन को सूत्रों में प्रस्तुत करने का कार्य उमास्वामी देव ने सर्वप्रथम किया। ईसा की दूसरी सदी के आचार्य उमास्वामी का तत्वार्थसूत्र इतना स्र्वांगीण है कि परवर्ती आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इसकी टीका रूप सर्वाथसिद्धि ग्रन्थ और भट्टअकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक जैसे महान ग्रन्थों का प्रणयन किया परन्तु किसी, नये सूत्र को अपनी ओर से नहीं लिखा। आचार्य उमास्वामी ने हिंसा को कितने व्यापक दृष्टिकोण से लिया। वे कहते हैं— प्रमत्तयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा।।९ अर्थात् प्रमाद से सहित व्यक्ति के योग अर्थात् मन,वचन, काय की क्रिया द्वारा प्राणों का वियोग करने से प्राणी की हिंसा होती है। प्राण आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है। प्राण वियोग होने पर आत्मा को ही दु:ख होता है। अत: वह हिंसा व अधर्म है। यहाँ विशेष ध्यातव्य यह है कि एक भी अभाव में हिंसा नहीं होती। उक्त सूत्र से एक शंका उठायी जा सकती है कि केवल प्रमत्तयोग से हिंसा वैâसे संभव है जबकि प्राणव्यपरोपण न हो ? समाधान—‘प्रमादवान, प्रमत्तयोग से स्वयं के ज्ञानदर्शनादि भाव प्राणों का वियोग (घात) करने से अपनी हिंसा करता है। फिर भले ही दूसरे प्राणी का वध हो या न हो। इस संदर्भ में अमृताचन्द्राचार्य कहते हैं कि कषाय सहित परिणाम होने से , वह पहले अपने आपको घातता है फिर पीछे चाहे अन्य जीव को हिंसा हो अथवा न हो। हिंसा रूप परिणमन होने से प्रमाद के कारण निरन्तर प्राणघात का सद्भाव बना रहता है।१० दूसरा प्रसंग यह है कि जल, थल एवं आकाश में स्थूल व सूक्ष्म दोनों प्रकार के जीव हैं। अप्रमत्त साधु द्वारा उनके प्राण वियोग होने पर वह अहिंसक बना रहता है, क्योंकि सूक्ष्म जीव न तो किसी से रूकते हैं न किसी को रोकते हैं अत: उनकी तो हिंसा होती नहीं है, परन्तु जो स्थूल जीव हैं उनकी वह यथाशक्ति रक्षा करता है, तब भला प्रयत्नपूर्वक रोकने वाले संयत के हिंसा वैâसे हो सकती है११? इस प्रकार जैनदर्शन मेें जैनाचार्यों द्वारा हिंसा व अहिंसा की इतनी सूक्ष्म व्याख्या की गई , जो अन्यत्र दुर्लभ है—
७. अहिंसा से सम्बन्धित भावनाएँ—अहिंसा व्रत का निर्दोष पालन करने के लिए आचार्य उमास्वामी ने ये चार भावनाएँ निरूपित की हैं— ‘मैत्रीप्रमोदकारुण्य-माध्यस्थ्यानि च सत्वगुणाधिक क्लिश्मानाविनेयेषु’१२ अर्थात् प्राणीमात्र में मैत्री (मैत्री भाव में अभय एवं क्षमा भाव निहित रहता है) गुणीजनों में प्रमोद या हर्ष भाव, दुखी जीवों के प्रति करुणा तथा विरूद्ध चित्त या स्वभाव वाले दुर्जन व्यक्तियों में माध्यस्थ भाव (उदासीन वृत्ति) रखना चाहिए। आचार्य अमितगति ने अपने सामाजिक पाठ में अहिंसा की इन भावनाओं को इस प्रकार उद्धृत किया है—
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तो:।। सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
(सामाजिक पाठ)
८. अध्यात्म के शिखर पुरूष आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में हिंसा—डॉ. जयकुमार ‘जलज’ ने अष्टपाहुड के हिन्दी अनुवाद की प्रस्तावना में एक बोधपूर्ण वाक्य लिखा है कि ‘जैन परम्परा में वे कुन्दकुन्द और उमास्वामी ही हैं जो आखिरी अदालत है।’ समयसार कुन्दकुन्द स्वामी की वह अभिव्यक्ति है, जिसमें वह अपने आत्मानुभव को अतल गहराई से अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने अहिंसा को एक मौलिक अन्दाज या परिप्रेक्ष्य में व्याख्यापित किया है। कुन्दकुन्दाचार्य अपनी अमर कृति ‘प्रवचन सार’ में कहते हैं—
मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्य णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्य णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स।।२१७।।
जीव मरे या न मरे, परन्तु अयत्नाचारी नियमत: हिंसक है। इसके विपरीत यदि यत्नाचारी व्यक्ति सावधानीपूर्वक चर्या या वर्तन कर रहा है, और अनजान में जीव का विघात हो जाये तो भी वह अहिंसक है। यह आगम दृष्टि है। रागादि के वशीभूत होकर प्रमाद अवस्था में जो भी प्रवृत्ति या कृत्य होता है, वह हिंसा के दायरे में आता है। उदाहरण—एक व्यक्ति की परिणति तो मारने की थी। कर्मसिद्धान्त कहता है कि आप जिस दृष्टि से भरकर आये हो, उसी दृष्टि से बंध चुके हैं। आप हिंसक ही हो भले ही अपने उसके प्राणों का घात किसी योग से नहीं कर पाया हो। कालुष्य भाव, घोर हिंसा का निमित्त होता है। स्वयंभूरमण समुद्र का महामच्छ जब छ: माह सोता है, तो उसका दो सौ पचास योजन का मुख खुला रहता है। उस समय अनेक जीव उसके मुख में आते व जाते रहते हैं। उस महामच्छ के कान में तन्दुल मच्छ बैठा हुआ सोचता है कि यदि मुझे इतना बड़ा शरीर मिलता, तो मैं एक को भी नहीं छोड़ता। कान में मल को खाने वाला व तन्दुलमच्छ ऐसे कलुषित भाव करके भाव हिंसा में इतना पाप बंध कर लेता है कि मरकर सातवें नरक जाता है। इस प्रकार कषाय योग से यानी कालुष्य भावों से जो प्राणों का व्यपरोपण चल रहा है उससे निरन्तर हिंसा हो रही है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के इसी अभिप्राय को अमृतचन्द्राचार्य पुरूषार्थसिद्धयुपाय में निम्नांकित गाथा में स्पष्ट करते हैं—
व्युत्थानावस्थायां रागादिनां वशप्रवृत्तायाम् ।
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे धु्रवं हिंसा।।४६।।
रागादिक भावों के वश में प्रवृत्त हुई अयत्नाचार रूप प्रमाद अवस्था में, जीव मरे अथवा न मरे, परन्तु हिंसा तो निश्चय से होती ही है। जैनाचार्य विशुद्धसागर महाराज— पुरूषार्थ देशना में इसे अध्यात्मदेशना के रूप में समझते हैं—हे मनीषी! लगता ऐसा है कि मैंने दूसरे का घात किया, परन्तु दूसरे की तो पर्याय का घात होता है लेकिन परिणामों का घात तेरा ही होता है’ पर्याय जितनी महत्त्वशाली है, परिणति उससे कई गुनी महत्त्वशाली है। पर्याय पुन: मिल जाती है, परन्तु वैसी परिणति पूरी पर्याय में नहीं मिल पाती है।१३ ९ आचार्य सोमदेव सूरि ने यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में कहा कि प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा है और उनकी रक्षा करना अहिंसा है। आचार्य सोमदेव सूरि प्रमादी का विषय विस्तार से बताते हैं कि जो जीव चार विकथा,चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और मोह के वशीभूत हैं, वह प्रमादी है। देवता के लिए, अतिथि व पितरों के लिए मंत्र सिद्धि व औषधि के लिए प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। १०. आचार्य अमितगति, अमितगति श्रावकाचार१४ में लिखते हुए श्रावकों को प्रबोधन देते हैं कि अहिंसा के बिना श्रावक के लिए व्रत नियमादिक सुख के उत्पादक नहीं होते। जैसे पृथ्वी के बिना पर्वत नहीं ठहर सकते हैं, उसी प्रकार आत्मगुणों की आधारभूत अहिंसा को विनाश करने वाला पुरूष , अपनी आत्मा को नरक में गिराता है। आचार्य अमितगति हिंसा के १०८ भेद कहते हैं— समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप तीन प्रकार की हिंसा के एक सौ आठ (३ * ३ * ३ * ३ * ४ = १०८ ) भेद हो जाते हैं। समरम्भ से तात्पर्य है-हिंसा करने का विचार करना (वैचारिक हिंसा) समरम्भ है— ाqहंसा की क्रियान्वित के प्रयोजन से हिंसा के उपकरण, साधन आदि जुटाना समारम्भ और हिंसा को प्रयोगात्मक कृत्य में बदलना आरम्भ है।१५ जैन गृहस्थ (श्रावक) एवं साधु क्रमश: अणुव्रत और महाव्रत के रूप में उक्त १०८ प्रकार से होने वाली हिंसा की सम्भावनाओं से बचता है। जब आचारगत अहिंसा जाति, देश, काल एवं समय के द्वारा अविच्छिन्न न होता है तो अणुव्रत रूप से होती है, परन्तु जब अहिंसा जाति, देश, कालादि द्वारा अविच्छिन्न होता है तो अणुव्रत रूप से होती है, परन्तु जब अहिंसा जाति , देश , कालादि द्वारा अविच्छिन्न न होकर सदा, सर्वदा, सर्वावस्था में पालन योगीजन करते हैं। गृहस्थों को महाव्रत सम्भव नहीं, परन्तु वे जानबूझकर किसी भी प्राणी की शरीर से हिंसा नहीं करते । भले ही परिस्थितिजन्य हिंसा करवानी या अनुमोदना करना पड़े अस्तु वह अणुव्रत रूप होती है।१६ उक्त प्रमुख आचार्यों के अनुभव व आगम कथनों से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि हिंसा को द्रव्य हिंसा व भाव के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भौतिक रूप से द्रव्य हिंसा भले ही घटित न हो पर यदि मन में, विचारों में हिंसा की चिनगारियाँ उठ रही हों तो वह भाव हिंसा का कर्ता है। वैचारिक हिंसा से आतंकवादी हाथों में शस्त्र उठाता है और फिर उसे कृत्य में बदलने के लिए द्रव्य हिंसा करता है। २६ नवम्बर २००८ को आतंकवादियों द्वारा मुम्बई में जो क्रूर हिंसा को अंजाम दिया था।लगातार ९० घण्टे उन आंतकवादियों को पाकिस्तान में वार रूप में बैठे मास्टर माइंड आतंकवादी नेताआें से बराबर निर्देश प्राप्त होते रहे कि हर अगला कदम तुम्हें वैâसे रखना है, कहां छिपाना है, कब आग लगाना है, कब ग्रेनैड फेंकना आदि आदि। भारत के मुम्बई महानगर में घुसे आतंकवादी व्रूâर अंजाम तब तक देते रहे जब तक कि वे ढेर नहीं हो गये। इस प्रकार मूल जड़ है वैचारिक हिंसा। यदि अहिंसा के सिद्धान्त का विकास किया जाना हो तो पहले व्यक्ति का भाव रूपान्तारण किया जावे। उसके विचारों में यह बात पल्लवित की जानी चाहिए कि समस्या का समाधान हिंसा या प्रतिहिंसा नहीं है बल्कि शान्ति, समझाइस, समता और प्रेम रूप अहिंसक तरीके से सम्भव है। जैसे हम भीतर होते हैं, वैसा ही बाहर निर्मित करने लगते हैं। यदि भीतर हिंसा के भाव मौजूद हैं तो हिंसा का परिमण्डल या वर्तुल हमारे आस पास मौजूद रहेगा और भीतर अहिंसा व करूणा भाव बैठा हो तो वही आचरण में अभिव्यक्त होता है।
११. आचारांग में अहिंसा के सूत्र—दूसरे के अस्तित्व को सुरक्षित रखना अहिंसा है, क्योंकि सव्वे जीवाणि इच्छंति जीविउं न मारिज्जउं। तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति ण।।अर्थात् सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। अत: प्राणी का वध करना घोर पाप है उसका निषेध किया गया है।१७ आचारांग से सूत्र में कहा गया है कि— सव्वे पाणा पिया उया सुहसाया दुह पडिवूâला। पिय जीविणो जीविउं कामा सव्वेसि जीवियं पियंनाइ।।१८ सुख सबको अच्छा लगता है और दु:ख बुरा। वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय है। अत: किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। इसलिए आचार्य कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है कि ‘जीवाणां रक्खणं धम्मो’।
१२. विश्वशान्ति के परिपेक्ष्य में अहिंसा और अनेकान्त—अहिंसा की चरम मानसिक सिद्धि अनेकान्तवाद है। अनेकान्त दृष्टि के तीन आधार बिन्दु हैं जो विश्वशांन्ति में सहायक, परन्तु सक्रिय साधन हैं। १. सापेक्षता २. समन्वय, ३. सहअस्तित्व यदि अहिंसा की व्यापक व वैश्विक धरातल पर समीक्षा की जावे तो मानवीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में उपर्युक्त तत्व बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। सापेक्षता—अनाग्रह / दुराग्रह और दुरभिसंघ को दूर करके मैत्री भाव को प्रेरित करता है। आग्रही शान्ति का पक्षधर नहीं हो सकता।आग्रही अहंकारी होता है। अनाग्रही दूसरे के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करता है। उसकी सोच सकारात्मक होती है। वह संकुचित दृष्टि वाला नहीं होता है। वह सापेक्ष सत्य का ग्राही होता है। वह ‘ही— की भाषा में नहीं बल्कि ‘भी’ की सम्भावनाओें में जीता है। अहिंसक व्यक्ति अनाग्राही होने से वह सदैव शान्ति की वकालत करता है। समन्वय या सहिष्णुता—अहिंसा पौरुषेय आचरण है। यह ऐसा अस्त्र है जिसका संचालन सहिष्णु या वीर व्यक्ति ही कर सकता है, क्योंकि कमजोर व भयभीत व्यक्ति की अहिंसा नपुंसक (स्त्रैण) बन जाती है। अहिंसा के अस्त्र को योद्धा—महावीर जैसा सर्वव्यापी, समन्वयशील व्यक्तित्व ही हो सकता है, जो आत्म प्रज्ञा से सम्पन्न होते हैं। अहिंसा की लोक प्रभुता को वही देख व अनुभव कर सकता है। सहअस्तित्व व समता—अहिंसा के ध्वज पर मानव कल्याण का संकल्प मंत्र लिखा होता है, जो सदैव समता और सहअस्तित्व के क्षितिज पर लहराता रहता है। अहिंसा के पुष्प का सुरभित पराग है— समता व सहअस्तित्व। उपर्युक्त तीनों तत्वों के साथ अहिंसा हमारे व्यावहारिक जीवन का मुख्य पहलू बनता है।
१३. विश्वशान्ति के सन्दर्भ में अहिंसा व विज्ञान—बिना अहिंसा के, विज्ञान की ताकत सृजनात्मक नहीं बन सकती। एक जगह आचार्य विनोबा भावे ने अहिंसा के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया। विज्ञान + हिंसा = सर्वनाश। विज्ञान + अहिंसा = सर्वोदय। आज परस्पर दो रास्ट्रों के बीच राजनैतिक परिदृश्य में क्या घटित हो रहा है ? राष्ट्रों के बीच Balance of Poer यानि शक्तिसंयोजन को होड़ चल रही है। वस्तुत: आतंकवाद—राजनैतिक धार्मिक उन्माद है जो राजनीति और सत्ता की उपज है। व्यक्ति का स्वभाव व्रूâरता में जीने या दूसरे की अकारण जान लेने का नहीं है। सत्ता के आलाकमान धार्मिक उन्माद का जहर इन्जेक्ट करते हैं, जिससे मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा ठण्डी पड़ने लगती है। पड़ोसी देश के धार्मिक उन्माद की पीड़ा भारत झेल रहा है। आत्मघाती ‘ मानव बम्ब’ विज्ञान की राजनैतिक गुलामी है, जो व्रूâरता का ताण्डव रचता है। जिसने शांति व सौहार्द का वातावरण समाप्त कर दिया है। विज्ञान को अहिंसा व विवेक की आँख चाहिए। अन्यथा विज्ञान के द्वारा उत्पन्न आण्विक शक्ति सर्वनाश करने को बैठी है। आज विज्ञान का गठबंधन हिंसा के साथ है। आतंकवादी माहौल में करूणा का पैगाम उतना ही जरूरी है जितना जीने के लिए हवा और पानी। करूणा के इस सूखते स्रोत पर गहरी चिन्ता होना आवश्यक है। मनुष्य की मौलिकता को बचाए रखना आज के विज्ञान और वैज्ञानिकों के लिए चुनौती है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने संहति ऊर्जा का सूत्र E = MC2 अन्वेषित कर इसके आधार पर बने आण्विक बम्ब और नागासाकी व हिरोशिमा पर आण्विक हथियारों से हुई विनाश लीला ने आइन्स्टीन को एक पछतावा और मानसिक ग्लानि से भर दिया था और उन्होंने प्रायश्चित भरी टिप्पणी दी थी कि हमको ऐसे काम नहीं करना चाहिए जिससे दुनिया का संहार हो, अशान्ति व क्षोभ का पर्यावरण पैâले व मानवता अपंग बन जाये। अशान्ति के कहर ढ़ाते हैं Atomic Weapons मिसाइल) तथा Ballastic Weapons (प्रक्षेपास्त्र) आदि जो सियासत के इशारे पर २ हजार किमी दूर तक लक्ष्य को भेदकर काम तमाम कर सकते हैं। आदमी को उस स्थान तक जाने की जरूरत अब नहीं है। सेटेलाइट की दूरबीनी आँख उसे बखूबी देखकर उसको अपना टारगेट बना सकती है। आज अणुबमों की विसात पर विश्व, भय और अशान्ति के शिवंâजे में कसता जा रहा है। ऐसे समय में अहिंसा दृष्टि का विकास आवश्यक हो गया है। हिंसा की मानसिक वैचारिक दुष्प्रवृत्ति ने विश्व को युद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। विश्व के राष्ट्र, आतंकवाद की काली छाया से त्रस्त हैं। अस़्त्रशस्त्र की होड़ाहोड़ तथा अपने —अपने देश की सुरक्षा व शान्ति के लिए अस्त्र—शस्त्रों में प्रशिक्षण केम्प और परीक्षणों में बेहिसाब धन लगा रहे हैं। यदि यही धन उस देश के विकास कार्यों में लगने लगे, तो विश्व में सामंजस्य और शान्ति का एक नूतन आलोक नजर आ सकता है।
१४. हिंसा बनाम अशान्ति का कारण—हिंसा अशान्ति का पर्यायवाची है। हिंसा के मूल में एक और कारण है ‘साधन शुद्धि’ का अभाव । वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति के विस्तारीकरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारवाद ने, पूरी न होने वाली लालसाओं को प्रश्चय दिया है जिससे सामाजिक विषमता बढ़ी है। अस्तु विश्वशान्ति व अहिंसक समाज रचना में साधन शुद्धि एक महत्वपूर्ण आयाम है। पूरी दुनिया शान्ति से जीना चाहती है क्योंकि शांति के बिना विकास नहीं हो सकता। अनावश्यक संग्रहवृत्ति एवं व्यक्तिवाद ने मानव समाज में व्यर्थ की जरूरतों की सूचि लम्बी कर दी है। व्यक्तिवाद से संवेदनशीलता का ग्राफ भी निरंतर गिरता जा रहा है। स्वार्थपरता व्यक्तिवाद को हवा देता है। अत: अहिंसा का उक और महत्त्वपूर्ण सूत्र है— उपभोग का संयमीकरण। होता यह है कि उपभोग की सामग्री को अमीर लोग ज्यादा बटोर लेते हैं। परिग्रह की इस अप्रतिम लालसा में शोषण और शोषक का फर्क बढ़ता जाता है और यह स्थिति अशान्ति का मूल कारण बन जाती है। अत: शान्ति का मूल जैनधर्म में अधिक संग्रह का त्याग करके ‘ परिग्रहपरिमाणव्रत’ अंगीकार करने को कहा। यही व्रत अंतहीन इच्छाओं को सीमित कर समाज में शोषणवृत्ति, अविश्वास, ईष्र्या—द्वेष को समाप्त कर सकता है। शान्ति की मैत्री सन्तोष धन से है जो जितना तृष्णा रहित सन्तोषी होगा वह निराकुल शान्ति का सहज वरण करता है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने तृष्णावान पुरूष पर एक यथार्थ व्यंग्य किया है परिग्रह प्रियता के कारण, जीवन का काल बीतते हुए उसकी धनवृद्धि हो जाती है जो प्रिय उसको प्रिय लगती है , परन्तु इस तृष्णा में वह यह भूल जाता है कि काल बीतने से उसकी आयु भी क्षीण हो रही है।
महाभारत के शान्ति पर्व में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई है :—
अहिंसा धर्म संयुक्ता: प्रचरेयु: सुरोत्तमा: स वो देश: सेवितव्यों, मा वो धर्म: पदास्पृश्यते।
अर्थात् अहिंसा धर्म का पालन जिस क्षेत्र में होता हो, वहीं व्यक्ति को निवास करना चाहिए।२१ यदि विश्व के सभी राष्ट्र शान्ति और सौहार्द को पाना चाहते हैं, तो उन्हें अहिंसा की प्रतिष्ठा का मापदण्ड अपनाकर परस्पर सहयोग और सहअस्तित्व की मूलधारा से जुड़ना होगा। विज्ञान की आण्विक भट्टियाँ शान्ति की जय यात्राओं का मंगलघोष कर सकती हैं। यदि विज्ञान का नजरिया अहिंसा की मानवतावादी दृष्टि से जुड़ जाए। पूरी मनुष्य जाति को एक मंच पर आकर संवेदना का पक्षधर बनाना होगा। आज अभिनव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अभिनव अहिंसा की तलाश शुरु हो जाना चाहिए तभी व्यक्ति के व्यक्तित्व को एक रचनात्मक दिशा मिल सकेगा। कब वह सुनहरा भविष्य दस्तक देगा जब जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का स्वरूप विज्ञान की पोथी में रेखांकित हो सकेगा ? उस कल की प्रतीक्षा में हम आशान्वित हैं।