विश्व के समस्त धर्मों में न्यूनाधिक रूप में अहिंसा का महत्व समझाया गया है। भारत वर्ष में जैन, बौद्ध एवं वैदिक धर्म ने अहिंसा को अत्यधिक महत्व दिया है। यह एक व्रत के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन धर्म में पाँच महाव्रतों में अहिंसा एक प्रमुख व्रत है। भगवान् महावीर के बाद भारतवर्ष में महात्मा गाँधी ने अहिंसा को व्रतों में प्रमुख स्थान दिया और उसे पराधीनता से मुक्ति के अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। गाँधी जी ने ११ व्रत माने हैं— अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीर—श्रम, अस्वाद, स्वदेशी, स्पर्श भावना, सर्वधर्म समानत्व, आदि। जीवन के लिए गाँधीजी ने उन्हें निष्ठापूर्वक स्वीकार करने को कहा है। गाँधीजी ने इन्हें सम्पूर्ण मानव समाज के लिए उपयोगी भी बताया है। स्वदेशी भावना, सर्व धर्म समभाव तथा शरीरश्रम को भी उन्होंने व्रत का स्थान दिया है। इस प्रकार उन्होंने प्राचीन व्रतों आधुनिक समाज के अनुकूल बनाया और अहिंसक समाज रचना के लिए जीवनपर्यन्त प्रयत्न किया है। उन्होंने इनका प्रयोग आश्रम पद्धति में विशेष रूप से किया है। ये व्रत मानव की जीवन शैली के सूचक हैं। इनके पालन से मानव मात्र शारीरिक,मानसिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को समाज मेें स्थापित कर सकता है। भारत के सभी प्रमुख सम्प्रदायों ने उनके इन व्रतों को मान्य किया है। इससे मनुष्य के खान—पान आचार—विचार, खेती, उद्योग, आजीविका के बारे में निश्चित जीवन शैली बन जाती है। जो अहिंसक, शोषण समाज रचना के निर्माण में योगदान करती है। भगवान् महावीर का भी यही संदेश था।
गाँधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष श्री रवीन्द्र वर्मा ने गाँधीजी इन व्रतों के सम्बन्ध में अंग्रेजी में बहुत उत्तम विवेचन लिखा है। ‘तीर्थंकर’ मासिक के अगस्त, १९९० के अंक में भी अहिंसक जीवन शैली के बारे में बहुत कुछ लिखा गया। जैन आचार, आहार एवं जीवन शैली का सम्बन्ध व्रतों से है। अहिंसा के विचार का मनुष्य में उदय तथा पोषण होता र्है। इसीलिए इन व्रतों से मानव में संयम तथा अहिंसा का पोषण होता है। आहार संयम के लिए प्राचीन काल में एक परम्परा थी श्रावक अपने घर के भोजनालय में शुद्ध एवं सात्विक एवं पौष्टिक भोजन करता था। समय एवं खाद्य पदार्थों में पूर्ण प्रमाणिकता थी किन्तु आज परम्परागत गृहस्थों के भोजनालय समाप्त प्राय हैं। उनका स्थान आधुनिक होटल, डाईनिंग हाल आदि आहार के व्यापारिक संस्थानों ने ले लिया है। आधुनिक कारखानों में निर्मित आहार का व्यापक रूप में प्रयोग प्रचलित हो चुका है। आगामी समाज की पीढ़ी इसी आहार एवं पेय द्रव्यों पर निर्भर होगी, उससे जो शरीर एवं मन बनेगा। वह भविष्य के गर्भ में है। सम्पूर्ण राष्ट्र एवं समाज पर इसका प्रभाव होगा। अत: इसका स्वस्थ विकल्प ढूँढना हमारा कर्तव्य अत: अब विचार करना जरूरी हो गया है। यह सर्व विदित है कि धर्मोपदेशक एवं साधु जैनागमों में वर्णित खान—पान का समय—समय पर प्रवचन करते हैं और समाज का ध्यान उसके लाभ हानियों की ओर भी आकृष्ट करते हैं, किन्तु उसका फल न्यून है। अत: इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों को विचार करना चाहिए तथा सक्रिय कदम उठाना चाहिए। कृषि कार्यों में कीटनाशक औषधियोें के प्रयोग पर भी अहिंसक समाज को विचार करना चाहिये। आज विश्व में सूखी खेती तथा कीटनाशक दवाओं के वगैर कृषि सम्भव है। इजराइल का अमिरिम ग्राम इसका उदाहरण है। भारत में ऐसा हो, इसके लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक है। इसे अहिंसक विचार को बल मिलेगा बहुत—सी औषधियाँ जान्तव द्रव्यों से निर्मित होती हैं।
वे अहिंसक एवं शाकाहार आस्था रखने वाले समाज के लिए अभक्ष्य हैं। अत: चिकित्सकों को समाज के समक्ष एक विचार रखना चाहिए कि कौन—कौन सी औषधियाँ भक्ष्य या अभक्ष्य हैं। जैन चिकित्सकों का यह दायित्व भी है। कैप्सूल का भी विकल्प ढँढूना चाहिए। इसके लिए उद्योगपति पहल कर सकते हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों में अनेक जान्तव द्रव्यों का प्रयोग होता है। अहिंसा के विचार की दृष्टि से इस पर विचार करना होगार्। के विचार को मान्य करना चाहिए और इसके लिए जो करना हो, करना चाहिए। वस्त्रों में रेशम का प्रयोग भी विचारणीय है। वस्त्र उत्पादन में मटन टेलो (मांस चर्बी) का प्रयोग होता है, यह सभी जानते हैं। अत: अहिंसक एवं शाकाहार समाज को यथासम्भव खादी वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए। अहिंसक जीवन पद्धति के विकास एवं निर्माण के लिए अब समय आ गया है। इसी विचार को ध्यान में रखकर देश के वरिष्ठ सर्वोदयी नेता श्री सिद्धराज जी ढढ्ढा ने ग्रामराज अक्टूबर १, १९९० के अंक में गाँधी जी के ११व्रतों के सन्दर्भ में लिखा है कि अहिंसा में आस्था वाले सभी सम्प्रदाय इस विचार को प्रयोग में लावें। बाबनगजा महामस्तकाभिषेक महोत्सव पर शाकाहार वर्ष की घोषणा की गई है। इस परिपेक्ष्य में उक्त बिन्दुओं पर सघन विचार—विमर्श एवं क्रियान्वयन आवश्यक है।