‘असूत पूर्वो वृषभो व्यायानिमा अस्य शुरुध: सन्ति पूर्वी।
दिवो नपाता विदधस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे।।
स्पष्ट अर्थात् जिस प्रकार जल से भरा मेघ वर्षा का प्रमुख स्रोत है और भूमि की प्यास बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वज्ञानधारी वृषभ महान् हैं, उनका शासन वर दे । उनके शासन में पूर्व का ज्ञान आत्मा के क्रोधादि शत्रुओं का विध्वंसक हो । दोनों आत्मायें (संसारी एवं मुक्त) अपने आत्मगुणों से चमकती हैं । अत: वही राजा है, वे पूर्व ज्ञान के आगार हैं और आत्म पतन नहीं होने देते हैं । उक्त मन्त्र से प्रतीत होता है कि ऋषभदेव को ज्ञान का आगार तथा दुःखो एवं शत्रुओं का विनाशक कहा गया है । आदि तीर्थकर की प्रमुख मान्यता आत्मा में परमात्मौ की सत्ता मानना है । ऋषभदेव की इस मान्यता का नामोल्लेखपूर्वक कथन कग्वेद के प्रस्तुत मन्त्र में द्रष्टव्य है‘चत्वारि मृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्ष सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मत्यीं आ विवेश।।
चार (अनुयोग) इसके शृंगच्फ्काशमान किरण स्वरूप हैं, तीन (रल-त्रय) इसके चरण हैं । दो (धर्म एवं शुक्ल ध्यान) इसके शीर्ष हैं तथा सात (तत्व) इसके हाथ हैं । तीन (मन, वचन, कर्म) से संयत ऋषभ ने घोषणा की है कि परमात्मा मर्दों में बसता है । कग्वेद के अन्य मन्त्र जिनमें वृषय7कृषय शब्द आया है और जिनकी फषयदेवपरक व्याख्या की जा सकती है-अनर्वाण वृषभ मन्द्रजित वृहस्पति वर्धया नव्यमर्के:।
गाथान्यः सुरूचो यस्य देवा आशृण्वन्ति नवमानस्य मर्ता।।
ऋषभ मा समानानां सपत्नानां विषसहिम्।
हन्तारं शबूणां कृधि विराज गोपति गवामू।।
ककर्दवे वृषभो युक्त आरतीदवावचीस्सारथिरस्व केशी।
दुथे युक्तस्य द्रवत: सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्गलीनाम्।।
आ नो गोत्रा दर्ट्टहि गोपते गा: समस्मष्यै सनयी यन्तु वाजा:।
दिवक्षा असि वृषभ सत्यशुष्मो5स्मम्यं सु मधवन्योधि गोदा:।।
त्वं रथ प्र भरो योधमृध्वमावो युध्यन्तं वृषभ दशयुम्।
आ: हु _ त्वं तुद्रं वेतसवे सचाहत्त्वं सुजिं गृणन्तमिन्दू छूती:।।
एवारे वृषभा सुते5सिन्यन्भूर्यावय:।
हु रु- ६ श्वप्नीव निवता चरन्।।
न यातव इन्द्र खर्बुनो न वन्दना शविष्ट वेद्याभिः।
स शर्धदर्यो विषुणस्थ जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपि गुर्कृत न: । ।
वातरशना ह वा ऋषय: श्रमणा ऊर्धामंथिनो बखः ।
श्रमणा: दिगम्बरा: श्रमणा: वातरशना: ।’
‘निघण्टु की भूषण टीकाश्रमण।: वातरशना: आत्मविद्याविशारदा: ।
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विसम।।
ऋग्वेद, 1०7121,1 हिरण्यगर्भ सबसे पहले उत्पन्न हुआ था । वह जन्म से ही उत्पन्न हुए प्राणियों का अकेला स्वामी था । उसने पृथिवी, आकाश एवं सबको धारण किया था । हम किसी (प्रजापति) देवता की हवि से पूजन करें । इस सूक्त के अन्य सभी मन्त्र भी ऋषभदेवपरक अनूदित हो सकते हैं । ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में अल्प?? एवं व्रात्यों का उल्लेख आया है । अनेक विद्वानों की अवधारणा है कि ये उल्लेख निर्गश्व संस्कृतिपरक हैं । मनुस्मृति में लिच्छवी, नाथ एवं मल्लों को व्रात्य कहा गया है । ‘4 ये सभी जातियाँ जैनधर्मानुयायी रही हैं । वैदिक परम्परा में व्रात्य का अर्थ व्रतहीन कर दिया गया,जबकि इसका अर्थ व्रत में स्थित हैं । अनेक उपनिषदों में व्रात्यों की प्रशंसा भी की गई है । यथा ‘व्रात्यस्तव प्राणैक ऋषिरत्ता विश्वस्य सलति: ।’ प्रश्नोपनिषद्, 2,11 इसके भाष्य में शंकराचार्य ने व्रात्य का अर्थ ‘स्वभावत एव शुद्ध इत्यभिप्राय: ‘ लिखकर स्वाभाविक शुद्ध किया है । वास्तव में व्रात्य श्रमण साधु थे जो यज्ञीय संस्कृत वालों के कोपभाजन रहे हैं । श्ल ऋग्वेद के अतिरिक्त यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद में भी ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है । यजुर्वेद के एक सूक्त में ऋषभ का उल्लेख करते हुए कहा गया है- ‘वेदाहमेत पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस: पुरस्तात् । तमेव विदित्वादुति मृत्युमेति ना; पन्या विद्यते5दनाय।। ‘ यजुर्वेद अध्याय 31, मन्त्र 8 मैंने उस महापुरूष को जान लिया है, जो सूर्य की भाँति तेजस्वी है और अज्ञानादि रूप अन्धकार से दूर है । उसे जानकर ही मृत्यु से पार हुआ जा सकता है । मुक्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है । मानतुंगाचार्य ने भी भक्तामरस्तोत्र में यही भाव प्रकट किया है-अहो मुच वृषभ यबियाना विराजन्तं प्रथममध्वरणाम्।
अपां नपातभाश्विना हुवे धिय इन्द्रियेण तं दलमोज:।।’
‘ अथर्ववेद, 1974272 ऋषभ सम्पूर्ण पापों से रहित और अहिंसक प्राणियों के प्रथम राजा हैं । मैं उनका उघहान करता हूँ । वे मुझे बुद्धि एवं इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें । ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋषभदेव ताण्ड्य ब्राह्मण उगैर शतपथ ब्राह्मण में ऋषभ का उल्लेख मिलता है- ऋषभो वा पशूनामधिपति । ताण्ड्य ब्राह्मण, 14/2/5 ऋषभो वा पशूनौ प्रजापति । शतपथ ब्राह्मण, 5/25/17 पशु का अर्थ वैदिक परम्परा में श्री, यश, शान्ति, धन एवं आत्मा किया गया है । ऋषभ भी पशुपति कहे गये हैं । इस आधार पर कुछ विद्वान् शिव एवं ऋषभदेव के ऐक्य की भी संभावना करते हैं । हिन्दू पुराणों में ऋषभदेव भागवतपुराण, मार्कण्डेयपुराण, कूर्मपुराण, अग्निपुराण, वाअराण, व्रह्माण्डपुराण, वाराहपुराण, लिश्पुराण, विष्णुपुराण, स्कन्धपुराण आदि में ऋषभदेव का विस्तार से वर्णन हुआ है । यद्यपि यह वर्णन अनेक बातों में जैन परम्परा से मेल नहीं खाता है, तथापि इससे ऋषभदेव की सार्वभौमिकता एवं महत्ता की असैयिछ रूप से सिद्धि होती है । श्रीमद् भागवतपुराण के प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय मैं अवतारों का कथन करते हुए कहा गया है कि राजा नाभि की पत्नी मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान् ने आठवीं अवतार ग्रहण किया । उन्हौंने परमहंसों के लिए वह मार्ग दिखाया जो सभी आश्रमवासियों के लिए वन्दनीय है । द्वामित्यागवत का पन्चम स्कन्ध तो पूरा का पूरा कृषभावतार पर ही आश्रित है । श्री कर्मानन्द स्वामी जी जो आर्यसमाजी रहें हैं, ने ‘ धर्म का आदिप्रवर्तक’ नामक पुस्तक में अनेक पुराणों से कषभदेव विषश्:त्ह प्रमुख अंशों को उद्धृत किया है, उन्हें यहाँ साभार दिया जा रहा है । इनके अनुशीलन से ऋषभदेव की ऐतिहासिकता तो सिद्ध होती ही है, उनकी आद्य धर्म प्रस्थापक के रूप में स्थिति का भी ज्ञान होता है । इससे यह भी पता चलता है कि ऋषयपुत्र भुरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ ।अग्नीधसूनोर्नाभेस्तु ऋषभो5भूत् सुतो द्विज:।
ए कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताद् दर:।।
हँ सोपुभित्रिव्यर्षभ: पुत्र महाप्राव्राज्यमास्थित:।
तपस्तेपे महाभाग: पुलहाश्रमसंशय:।।
हिमाइर्व दक्षिण वषं भरताय पिता ददौ।
५-७५ तस्मालु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मन:।।
अध्याय 4०, श्लोक -39-41 कूर्मपुराण
हिमाइव तु यद्वर्ष नाभरासीद् महात्मन:।
तस्यर्षभोदुभवसुत्रो मरुदेम्मा महायुति:।।
कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।
सो5भिषिव्यर्षम: पुत्र भरत पृथिवीपति:।।
अध्याय 41, श्लोक 37-38 अग्निपुराण’
अध्याय 1०, श्लोक 1 ०- 12 वायुपुराण
नाभिस्वजनयसुत्रं मरुदेव्या महायुति:।
ऋषभ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजन् कचभार भरतो जझे वीर:
पुत्रशताग्रज: सोषभइषिव्याथ भरतं पुत्र प्रावाव्यमास्थित:।।
हिमाह दक्षिण वर्ष भरताय न्यवेदयत् । तस्माद् भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।।
पूर्वार्द्ध अध्याय 33, श्लोक 4०-42 बगण्डपुराण
नाभिरत्वजनयसुत्रं मरुदेव्या महायुतिम्।।
ऋषभ पार्थिवं श्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्।
कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।।
सोउभिषिव्यर्षभ: पुत्र महाप्राव्राव्यमास्थित:।
हिमाहूवं दक्षिण वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।।
पूर्वार्द्ध, अनुषश्:पाद, अध्याय 14, श्लोक 59-61 वाराहपुराण
नाभेर्निसर्ग वक्ष्यामि हिमाकेऽस्मिन्निबोधत।
नाभिस्त्रजनयगुत्रं मरुदेव्यां महामति:।।
ऋषभ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूजितम् ।
कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।।
सो5भिषिव्याथ ऋषभो भरत पुत्रवत्सल: ।
ज्ञानं वैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रियमहोरगान्।।
सर्वात्मनात्मन्यास्थाप्य परम।।
नग्नो जटो निराहारीष्चीरी ध्यान्तगतो हि स:।।
निराशत्यक्तसंदेह: शैवमाप परं पदम् ।
हिमादेर्दाक्षिण वर्ष भरताय न्यवेदयत्।।
तलाल भारतं वषं तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ।
अध्याय 47, श्लोक 19-24 विष्णुपुराण
द्वितीयांश, अध्याय ‘ 1, श्लोक 2 7- 28 क्कथपुराण
माहेश्वर खण्डान्तर्गत कौमारखण्ड अध्याय 37, श्लोक 57 अन्य साहित्य में ऋषभदेव महाभारत में शिव के नामों का कथन करते हुए ऋषभ को शिव कहा गया ‘ऋषभ त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कल: शिव: । हे ऋषभ! तुम पवित्र योगियों में निष्कलंक शिव हो । भर्तृहरि ने शृंगारशतक, नीतिशतक एवं वैराग्यशतक नामक तीन शतक लिखे हैं । वे जैनेतर सन्यासी थे तथा उनके भाई शुभचन्द्र जैन साधु थे । भर्तृहरि ने अन्त मैं लिखित वैराग्यशतक में भावना भाते हुए शिव शम्भु से पाणिपात्र, दिगम्बर साधु बनने की कामना की है-
वैराग्यशतक, पद्य 89 यहाँ शम्भो! संबोधन ऋषभदेव के लिए ही प्रतीत होता? है -४: अथवा शिव एवं ऋषभ की एकता का परिचायक है । आर्यमंजुश्रीमूलकल्प नामक बौद्ध ग्रंथ में भारत के आदिकालीन राजाओं का वर्णन करते हुए नाभिपुत्र ऋषभ और उनके पुत्र भरत का उल्लेख किया गया है-
‘ 6 सुप्रसिद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति ने अपने ग्रन्थ न्यायविन्दु में सर्वज्ञ के उदाहरण में भगवान् ऋषभदेव और महावीर का उल्लेख किया है । उन्हें दिगम्बरों का अनुशास्ता कहा गया है
‘ 17 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनेतर संस्कृत साहित्य में ऋषभदेव का प्रचुर उल्लेख हुआ है । ऐसा कहा जाता है कि
1. आदिपुराण, 14,16०-162 1. 1 ‘तस्य ह वा इत्थं वर्ध्यणा वरीयसा चीजसा बलेन श्रिया यशसा वीर्यशोभाभ्यां च पिता ऋषभ इतीदं नाम चकार औ- श्रीमद्भागवत पुराण वही, 147163 हरिवंशपुराण, 87211 वही, ८२५०….. आवश्यकफूइर्ण पृष्ठ 152 हरिवंशपुराण 87206-209 ऋग्वेद मण्डल 3, सूक्त 38 मन्त्र 5 (परोपकारिणी सभा अजमेर विस. 2०10 पृष्ठ 213) 22 अनेकान्त 62-1 8. वही, 475873 पृष्ठ 277 9. आदिपुराण, 2572०4 1०. ककर्दवे वृषभो युक्त आसीदवादचीस्सारथिरस्व केशी । दुधर्युक्तस्य द्रवत: सहानस कच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्गलार्नाम् । र ऋग्वेद, १०१०२६ पृष्ठ 736 11 पद्मपुराण 3288 12. हरिवंशपुराण, 972०4 -३ न कु 13. ऋग्वेद, 1०7121 ?ँ खुँ 14. मनुस्मृति 1०722-23 15. महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 14, श्लोक 18 16. आर्यमंजुश्रीमूलकल्प, पृष्ठ 39०-391 17. न्यायबिन्दु, अध्याय तृतीय 18. यह श्लोक कहीं महाभारत के नाम से, कहीं मनुस्मृति के नाम से उद्धृत मिलता है, किन्तु महाभारत एवं मनुस्मृति के किसी भी उपलब्ध संस्करण में यह श्लोक प्राप्त नहीं है । रू– -हू -यु ह टू— दून्क्कु १_@६ एक टू रु -के-, उपाचार्य एवं अध्यक्ष-संस्कृत विभाग ऊ- हू दूच्च एस. डी. कालेज, मुजफरनगर (उप्र.) 1. पाठकों से अनुरोध है कि आपको अनेकान्त पत्रिका में छपे लेख कैसे लगे अपने सुझाव और टिप्पणी से अवगत करावे ताकि हम उसे पाठकीय प्रतिक्रिया के अन्तर्गत प्रकाशित कर ?? सके । –हैं-
2. पाठकों से यह भी निवेदन है कि अपना पूरा पता फोन 7 मोबाइल नं. एवं ईमेल आदि भेजे ताकि हम आपको वीर सेवा मन्दिर के द्वारा संचालित गतिविधियों एवं अनेकान्त पत्रिका ईमेल से भेज सके ।