अहिंसा का पालन एवंहिंसा का त्याग यद्यपि आधुनिक युग की महती आवश्यकता है, तथापि जैनागमों में इसके लिए किस प्रकार के तर्क दिए गए हैं, उनका अध्ययन ही प्रस्तुत शोध—निबन्ध का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है।
शान्ति, स्वतंत्रता, समता एवं निर्भय जीवन के लिए अहिंसा अपरिहार्य आवश्यकता है। इसके अभाव में सुखी जीवन, सुन्दर समाज, समृद्ध राष्ट्र एवं मैत्रीमय विश्व की परिकल्पना नहीं की जा सकती। आज जब विश्व में भय, आतंक एवंहिंसा का बोलबाला है, तब अहिंसा की उपयोगिता अधिक प्रासंगिक एवं आवश्यक प्रतीत होती है।हिंसा जहाँ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व को दुष्प्रभावित करती है, वहाँ अहिंसा प्राणिमात्र का कल्याण करने वाली है।हिंसा जहाँहिंसा में संलग्न व्यक्ति को दूषित करती है एवं समष्टि के हित को प्रभावित करती है, वहीं अहिंसा शत्रुता का नाश कर व्यक्ति को भीतर से निर्मल बनाती है एवं समाज में सबके प्रति पारस्परिक मैत्री का स्थापन करती है। जैनागमों मेंहिंसा को पाप एवं अहिंसा को धर्म प्रतिपादित किया गया है—‘धम्मो मंगलमुक्कि ट्ठं अहिंसा संजमो तवो’, वाक्य से यही ध्वनित होता है।हिंसा का अर्थ जैन धर्म में किसी प्राणी का वध करना मात्र नहीं है। आचारांग सूत्र मेंहिंसा के पाँच रूपों का अनेकश: कथन हुआ है,
यथा
१. किसी जीव का हनन करना,
२. उस पर धौंस जमाते हुए शासन करना,
३. दास बनाना,
४. परिताप देना,
५. किसी जीव को अशान्त बनाना। इनका उल्लेख सभी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व की हिंसा नहीं करने का परामर्श देते हुए किया गया है,
यथा
‘सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा,
ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्देवयव्वा।’
साधारणतयाहिंसा का अर्थ हनन से लिया जाता है, किन्तु भगवान महावीर की अहिंसा सबको समान रूप से जीने का अधिकार प्रदान करती है। इसमें प्रत्येक प्राणी के जीवन का सम्मान है। प्राणी छोटा हो या बड़ा, सबको जीने का अवसर है भगवान महावीर की अहिंसा मात्र मानव समुदाय तक सीमित नहीं, यह प्राणी मात्र की रक्षा की प्रेरणा करती है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जो भी अतीतकाल में अरिहन्त हुए हैं, वर्तमान में अरिहन्त हैं तथा भविष्य में अरिहन्त होंगे, वे सभी इसी प्रकार का प्रतिपादन करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व का हनन नहीं किया जाना चाहिए, उन्हें शासित, दास, परितापित एवं अशान्त नहीं बनाया जाना चाहिए। यह धर्म ध्रुव, नित्य एवं शाश्वत है। इसे क्षेत्रज्ञों ने लोक को जानकर कहा है।इस कथन से यह स्पष्ट है कि अहिंसा शाश्वत धर्म है। यह व्यक्ति एवं समष्टि दोनों के लिए हितकारी है।
हिंसा तभी घटित होती है, जब आत्मिक स्तर पर प्रमाद या असजगता विद्यमान हो। ज्ञान का सम्यक् स्वरूप प्रकट होने पर एवं अप्रमत्तता आने परहिंसा नहीं की जा सकती। इसलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है—एवं खु नाणिणो सारं जं न हिन्सति किंचणं। अज्ञान से आच्छन्न एवं उसके कारण प्रमादयुक्त बने हुए व्यक्ति ही प्राय:हिंसा में प्रवृत्त होते हैं।हिंसा के अन्य कारण भी हैं—‘कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति।’ अर्थात् क्रोधी, लोभी एवं अज्ञानीहिंसा करते हैं। आचारांगसूत्र मेंहिंसा की तीन स्थितियाँ का निरूपण हुआ है—स्वयंहिंसा करना, दूसरों सेहिंसा कराना एवंहिंसा करते हुए का समर्थन करना। ये तीनों प्रकार केहिंसाकार्य त्याज्य हैं। वहाँ पर छह प्रकार के जीव निकायों—पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक, त्रयकाष्यिक एवं वायुकायिक कीहिंसा स्वयं करने, दूसरों से कराने एवंहिंसा करने वाले का अनुमोदन करने को त्याज्य बताते हुए कहा गया है कि मेधावी पुरुष इन छहों जीव निकायों की तीनों प्रकार मेंहिंसा नहीं करता,
यथा
‘तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं छज्जीवणिकायसत्थं
समारंभेज्जा, णेवऽण्णेिंह छज्जीवणिकायसत्थं समारंभावेज्जा,
णेवऽण्णे छज्जीवणिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा’।
सूत्रकृतांग सूत्र में इन जीव निकायों की मन, वचन एवं काया के स्तर परहिंसा का निषेध है,
यथा
‘एतेिंह छिंह काएिंह, तं विज्जं परिजाणिया।
मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही’।
अहिंसा के लक्षण में उत्तरवर्ती साहित्य में विकास होता रहता है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ प्रमत्तयोग से प्राणों के व्यपरोपण कोहिंसा कहा है, वहाँ अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में रागादि की अनुत्पत्ति को ही अहिंसा कह दिया है—‘अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवयिंहसेति। किन्तु इस प्रकार की अहिंसा तो वीतरागियों में ही संभव है। यह अहिंसा का उत्कृष्ट रूप है। द्वितीय रूप महाव्रतधारी उन श्रमण—श्रमणियों में उपलब्ध होता है जो तीन करण एवं तीन योगों सेहिंसा के अहिंसा का त्यागी होते हैं। अहिंसा का तृतीय रूप अणुव्रत के रूप में श्रावक—श्राविका स्वीकार करते हैं। इसमें सभी निरपराध त्रस जीवों के हनन रूपहिंसा का त्याग किया जाता है। अहिंसा का जितने स्तर पर पालन किया जाए, उतना लाभकारी है। इसलिएहिंसा से बचने में ही सबका हित निहित है। अहिंसा का पालन एवंहिंसा का त्याग यद्यपि आधुनिक युग की महती आवश्यकता है, तथापि जैनागमों में इसके लिए किस प्रकार के तर्क दिए गए हैं, उनका अध्ययन ही प्रस्तुत शोध—निबन्ध का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। जैन प्रमाणमीमांसा के अन्तर्गत प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो प्रमाण प्रतिपादित हैं। परोक्ष में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम प्रमाण का समावेश होता है। प्रस्तुत प्रसंग में मुख्यत: तर्क एवं आगम—प्रमाण को आधार बनाकर अहिंसा के औचित्य की स्थापना आगमों के आधार पर की जा रही है—
आचारांग सूत्र में स्पष्ट प्रतिपादन है कि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, सबको आयुष्य प्रिय है, सुख अनुकूल एवं दु:ख प्रतिकूल है। वध सबको अप्रिय एवं जीवन प्रिय है। सभी जीव जीने की इच्छा रखते हैं। इसलिए किसी भी जीव का अतिपात नहीं करना चाहिए, यथा—‘सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाता दुक्खपडिकूला, अप्पियवधा, पियजीविणो जीवितुकामा। सव्वेिंस जीवितं पियं। नातिवातेज्ज कंचें।’ दशवैकालिक सूत्र में भी कहा गया है—‘‘सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं, तम्हा पाणिवहो घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं।’हिंसा या तो प्राणी के जीवन को समाप्त कर देती है या उसमें असाता अथवा दु:ख उत्पन्न कर देती है। इसलिए सब जीवों की भावना का आदर करते हुए उनकी हिंसा नहीं की जानी चाहिए। आचारांग सूत्र की इस युक्ति से प्रत्येक प्राणी के जीने के अधिकार की भी स्थापना होती है। आधुनिक युग में मानवाधिकार के अन्तर्गत मनुष्य को ही जीने का अधिकार प्राप्त है, अन्य प्राणियों को नहीं। महावीर की अहिंसा सभी प्राणियाँ को जीने का अधिकार प्रदान करती है। यदि पेड़े—पौधे, पशु—पक्षी आदि सबके जीने के अधिकार या उनकी भावना को समझा जाए तो उनकीहिंसा में निश्चित ही कटौती संभव है।
जिस प्रकार मानव चेतनाशील प्राणी है, उसी प्रकार अन्य जीवों में भी चेतना है। भगवान महावीर ने जैनागमों में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में ज्ञान—दर्शन स्वरूप चेतना को स्वीकार किया है। एकेन्द्रिय जीवें में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों का समावेश होता है, क्योंकि इनमें एक ही स्पर्शनेन्द्रिय होती है। द्वीन्द्रिय जीवों (लट, केचुआ आदि) में स्पर्शन के साथ रसना, त्रीन्द्रिय जीवों (चींटी आदि) में दोनों के साथ घ्राण तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षु इन्द्रिय सहित चार इन्द्रियाँ होती हैं। पंचेन्द्रिय में श्रोत्रेन्द्रिय भी होती है। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हें- संज्ञी अर्थात् मन वाले एवं असंज्ञी अर्थात् मनरहित। मनयुक्त पंचेन्द्रिय जीवों में मनुष्य, पशु, पक्षी, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प एवं जलचर जीव हमें दृष्टिगोचर भी होते हैं। नारकी एवं देव भी पंचेन्द्रिय होते हैं, किन्तु वैक्रिय शरीरधारी होने के कारण वे हमारे चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते हैं। इस प्रकार जीवों की विविधता है। किन्तु छोटे हों या बड़े, एकेन्द्रिय हों या पंचेन्द्रिय—सभी जीव चेतनाशील हैं। चेतनाशील होने के कारण हमारी उनके प्रति आत्मीयता एवं संवेदनशीलता अपेक्षित है। संवेदनशीलता जागृत करते हुए आचारांग सूत्र में कहा गया है—
तुमं सि णाम तं चेव, जं हंतव्वं त्ति मण्णसि।
तुमं सि णाम तं चेव, जं अज्जावेतव्वं ति मण्णसि।।
तुमं सि णाम तं चेव, जं परितावेतव्वं ति मण्णसि।
तुमं सि णाम तं चेव, जं परिघेतव्वं ति मण्णसि।
एवं तं चेव जं उद्देवतव्वं ति मण्णसि।।
तुम वही हो जिसे तुम मारने योग्य समझते हो, तुम वही हो जिसे तुम शासन करने योग्य समझते हो, तुम वही हो जिसे तुम परिताप देने योग्य मानते हो, तुम वही हो जिसे तुम गुलाम बनाने योग्य मानते हो, इसी प्रकार तुम वही हो जिसे अशान्त करने योग्य समझते हो। इन वाक्यों में मनुष्य की संवेदनशीलता को गहरा किया गया है एवं हननीय, शासनीय, परितापनीय आदि के रूप में देखे जाने वाले प्राणियों को अपने समान समझने तथा उनके स्थान पर अपने को रख कर देखने की प्रेरणा की गई है। आचारांग सूत्र में वनस्पति एवं मनुष्य में जो समानता निरूपित हैं, वह भगवान महावीर की वैज्ञानिकता, संवेदनशीलता एवं सूक्ष्मदृष्टि का परिचायक है। वहाँ पर निगदित है कि जिस प्रकार मनुष्य उत्पत्ति स्वभाव वाला, वृद्धि स्वभाव वाला एवं चेतनाशील है उसी प्रकार वनस्पति भी उत्पन्न होती है, बढ़ती है एवं चेतनाशील है।१३ जगदीशचन्द्र बसु के प्रयोगों के पश्चात् समस्त विश्व वनस्पति में चेतना स्वीकार करने लगा हैं, किन्तु प्रभु महावीर ने २६०० वर्ष पूर्व यह तथ्य उद्घाटित कर दिया था। तीर्थंकर महावीर ने यह भी कहा कि जिस प्रकार मनुष्य को छेदा जाय तो वह म्लान होता है उसी प्रकार वनस्पति भी छेद जाने पर म्लान होती है। मनुष्य जैसे आहार करता है वैसे वनस्पति भी आहार करती है। दोनों अनित्य, अशाश्वत, चयोपचय वाले विपरिणाम धर्मी हैं।१४ सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है कि—
से जहा नामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा,
लेलूण वा कवालेण वा, आउडिज्जमाणस्स वा,
हम्ममाणस्स वा तज्ज्जिमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स
वा परिताविज्जमाणस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा उद्दविज्जमाणस्स
वा जाव लोमुक्ख—णणमातमविहिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि,
इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा
आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा
वा परियाविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जामाणा वा
जाव लोमुक्खण्णमातविहिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेंति।
एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा,
ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा,
ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा।१५
अर्थात् जिस प्रकार कोई मुझे दण्ड से, हड्डी से, मुष्टि से, पत्थर से या ठीकरी से मारे, तर्जना दे, ताड़ना दे, परिताप दे, खिन्नता उत्पन्न करे, अशान्त करे यावत् रोम उखाड़े तो मुझे कितनी असाता,हिंसाकारी दु:ख एवं भय का अनुभव होता है। इसी प्रकार सभी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व को डण्डे से यावत् कपाल से चोट मारे यावत् रोम उखाड़े (उन्हें किसी भी प्रकार की यन्त्रणा दे) तो उन्हें भी कितने दु:ख एवं भय का अनुभव होता होगा। ऐसा जानकर सभी प्राण यावत् सत्त्व न हन्तव्य हैं, न शासितव्य हैं, न दास बनाये जाने योग्य हैं, न परितापनीय हैं और न ही अशान्त बनाने योग्य हैं। सूत्रकृतांग का यह संदेश सभी प्राणियों में आत्मवद्भाव की स्थापना करता है। जिन कारणों से मुझे स्वयं दु:ख का अनुभव होता है, वैसे कारण मुझे दूसरे प्राणियों के लिए भी उपस्थित नहीं करना चाहिए।
जैन आगमों के अनुसारहिंसा से पाप कर्मों का आस्रव एवं फलत: बंध होता है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है—
अजयं चरमाणे उ, पाणभूयाइं हिन्सइ।
बंधइ पावयं कम्मं, तं से होइ कडुयं फलं।।१६
अयतना (अविवेक, प्रमत्तता) से कार्य करने वाला प्राणियों कीहिंसा करता है और परिणाम स्वरूप कटुक फल देने वाले पाप कर्मों का बंध करता है। तत्त्वार्थ सूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग को बंध का हेतु कहा गया है।हिंसा का समावेश स्थूल रूप से अविरति में होता है। सूक्ष्म रूप से उस समय अशुभ योग, प्रमाद एवं कषाय भी रहते हैं। कर्म—बंधन का हेतु होने सेहिंसा त्याज्य है। अहिंसा से संवर, निर्जरा एवं मोक्ष की प्राप्ति संभव है। क्योंकि अहिंसा धर्म है, व्रत है, समिति एवं गुप्ति है। अहिंसा किस प्रकार कर्मबंध का कारण नहीं है, इसके लिए कहा गया है—
जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए।
जयं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ।।१७
यतनापूर्वक यदि चलने, ठहरने, बैठने, सोने, भोजन करने, बोलने आदि की प्रवृत्ति की जाती है तो वह पापकर्म के बंधन का कारण नहीं होती। आगे कहा गया है—
सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइं पासओ।
पिहियासवस्स दंतस्स, पावंकम्मं न बंधई।।१८
जो सब जीवों को अपने समान समझकर उनके साथ व्यवहार करता है वह आस्रव का निरोध करता हुआ पापकर्म का बंध नहीं करता।
भगवान महावीर ने बदले की भावना से किए जाने वाले कार्य का निषेध किया है। वे कहते हैं कि रुधिर से सने हुए वस्त्र को यदि रुधिर से ही धोया जाय तो वह स्वच्छ नहीं हो सकता—
रुहिकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव
पक्खालिज्जमाणस्स णत्थि सोही।१९
इसी प्रकारहिंसा का उपचारहिंसा नहीं है। अहिंसा से हीहिंसा पर काबू पाया जा सकता है। (उदाहरणार्थ क्षमा के द्वारा िंहसक को शान्त बनाया जा सकता है। क्षमा से प्रह्लाद भाव उत्पन्न होता है मैत्रीभाव का स्थापन होता है।२० आचारांग सूत्र में कहा गया हैहिंसा तो एक से बढ़कर एक होती है, किन्तु अहिंसा सबसे बढ़कर है।—अत्थि सत्थं परेण परंं णत्थि असत्थं परेण परं।२१
हिंसा किसी भी प्रकार की क्यों न हो, वह अहित एवं अज्ञान का ही निमित्त बनती है। आचारांग सूत्र में कहा गया है—
इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण—माणण—पूयणाए जातिमरण—मोयणाए
दुक्खपडिघातहेउं से सयमेव पुढ़विसत्थं सभारंभति, अणेहि वा पुढ़विसत्थं समारंभावेति,
अण्णे वा पुढ़विसत्थं समारंभते समणुजाणति। तं से अहिताए, त से अबोधीए।२२
कोई मनुष्य इसी जीवन के लिए प्रशंसा, आदर तथा पूजा की प्राप्ति हेतु, जन्म—मरण एवं मोक्ष के लिए तथा दु:ख का प्रतिघात करने हेतु पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायित, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक एवं वायुकायिक जीवों की स्वयंहिंसा करता है, दूसरों सेहिंसा कराता है तथा इनकीहिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। यह उसके अहित एवं अबोधि के लिए है। यहाँ पर भगवान महावीर का संदेश है कि किसी उत्तम प्रयोजन के लिए की गईहिंसा भी अज्ञान एवं अहित का ही कारण बनती है। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कभी—कभी जीवन में हमेंहिंसा में भी हित दिखाई पड़ता है। बहुत सी धर्मक्रियाएँ भीहिंसायुक्त होती हैं तथा कभी हमें दोहिंसाओं में से एकहिंसा का चुनाव करना पड़ता है।
ऐसे अवसर पर जैन दार्शनिकों ने बड़ीहिंसा की अपेक्षा छोटीहिंसा या अल्पहिंसा को स्वीकार करने का सुझाव दिया है। बहु–आरम्भ अथवा बहु–हिंसा को जहाँ नरकायु के बन्ध का कारण माना गया है वहाँ अल्पारम्भ या अल्पिंहसा को मनुष्यायु का हेतु प्रतिपादित किया गया है।२२ धर्मक्रियाओं में होने वालीहिंसा को जैनों नेहिंसा की ही श्रेणी में रखा है, धर्म की श्रेणी में नहीं, जैसा कि आचारांग सूत्र के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है। किन्तु धर्मक्रिया करते समय भावों की शुभता या विशुद्धता के कारण प्राय: भाविंहसा नहीं होती है। भाविंहसा की बंधन का मुख्य कारण बनती है, द्रव्यहिंसा नहीं।२४ भावों की विशुद्धि होने पर ही जीव अरिहन्त प्रज्ञा धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता है।२५
प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है— अहिंसा तस—थावर—सव्वभूयखेमंकरी२६ त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों का कल्याण अहिंसा में निहित है। जो सबका हित करने वाली है, वह अवश्य उपादेय है।हिंसा सर्वहितकारिणी नहीं हो सकती। वह किसी भी स्थिति में विश्वकल्याण का साधन नहीं बन सकती। इस तथ्य को आधुनिक विचारक एवं कल्याण कार्यों में संलग्न संस्थाएँ भी स्वीकार करती हैं।
सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट कथन है किहिंसा करने,हिंसा कराने एवंहिंसा का अनुमोदन करने से वैर बढ़ता है—
सयं तिवायए पाणे, अदुवऽन्नेहि घायए।
हणंतं वाणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो।।२७
अत: मैत्रीभाव की स्थापना के लिए अहिंसा आवश्यक है। भय एवं वैर से उपरत होकर मनुष्य को चाहिए कि वह प्राणियों के प्राणों का हनन न करे—न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए।२८
संसारी जीव पहले से ही दु:खाक्रान्त हैं, इसलिए हिंसा के द्वारा उन्हें और अधिक दु:खी नहीं किया जाना चाहिए—
सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अओ सव्वे अिंहसिआ।
अथवा दु:ख सबको अकान्त अर्थात् अप्रिय है, इसलिए भी उनकीहिंसा नहीं की जानी चाहिए।हिंसा से असाता उत्पन्न होती है जो अशान्ति, महद्भय एवं दु:ख रूप होती है—
सव्वेिंस पाणाणं, सव्वेिंस भूताणं,
सव्वेिंस जीवाणं सव्वेिंस सत्ताणं असायं
अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं त्ति बेमि।।२९
प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के संदर्भ में प्रतिपादन करते हुए कहा गया है—
एसा सा भगवई अहिंसा जा सा भीयाणं विव सरणं,
पक्खीणं विव गमणं, तिसियाणं विव सलिलं,
खुहियाणं विव असणं, समुद्दमज्झे य पोयवहणं,
चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं।३०
यह भगवती अहिंसा भयभीतों के लिए शरण है। यह पक्षियों के लिए आकाश के समान, तृषितों के लिए सलिल के समान, बुभुक्षितों के लिए भोजन की तरह, समुद्र के मध्य जहाज की भाँति, चतुष्पदों के लिए आश्रमस्थल के समान तथा रोग के दु:ख से ग्रस्तों के लिए औषधिबल के समान है।
आचारांग सूत्र में प्रतिपादित है कि यह दु:ख आरम्भजन्य है–
आरम्भजं दुक्खमिणं ति णच्चा।
एवमाहु समत्तदंसिणो।३१
जो अपनी साता या सुख के लिए अन्य प्राणियों की हिंसा करता है वह कुशील धर्मवाला होता है—
अहाहु से लोगे कुसीलधम्मे भूताइं से हिंससति आतसाते३२।
हिंसा की दु:खरूपता को आचारांगसूत्र में इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया गया है—
सोच्चा भगवतो अणगाराणं इहमेगेिंस णातं भवति
एस खुल गंथे, एस खुल मारे, एस खलु निरए।३३
यह हिंसा का कार्य बंधन में पटकने वाला, मूच्र्छा उत्पन्न करने वाला, अनिष्ट में धकेलने वाला एवं नरक में ले जाने वाला है। कभी हिंसा का कार्य सप्रयोजन होता है, तो कभी निष्प्रयोजन—
अट्ठा हणंति अणट्ठा हणंति।३४
यदि निरर्थक या निष्प्रयोजनहिंसा का पूर्ण त्याग करते हुए सप्रयोजनहिंसा को भी यतना, विवेक या समिति के माध्यम से न्यून किया जाए तो समस्त मानवजाति एवं सम्पूर्ण प्राणिजगत् को शान्ति, सुख, समृद्धि एवं आनंद का अनुभव हो सकता है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा भी है—
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्।३५
जगत् में अहिंसा समस्त प्राणियों के लिए परम ब्रह्म है। समस्त जगत् के जीवों के प्रति वात्सल्यभाव से पूरित तीर्थंकरों ने इसीलिए अहिंसा का उपदेश दिया है—
एसा सा भगवई अहिंसा जा सा अपरिमिय—णाणदंसणधरेिंह
सील—गुण विणयतवसंजमणायगेिंह तित्थकरेिंह
सव्वजगजीववच्छलेिंह तिलोयमहिएिंह जिणवरेिंह सुटठु दिट्ठा।३६
हिंसा का निषेध ही अहिंसा नहीं है, अपितु अहिंसा का सकारात्मक पक्ष भी है, जो करुणा अनुकम्पा, दया, मैत्री आदि के रूप में अभिव्यक्त होता है। अन्य जीवों के प्रति आत्मवद्भाव के साथ उनके दु:ख—दर्द को दूर करने की भावना भी अहिंसा का ही विस्तार है। एक—दूसरे जीव का निखद्य एवं हितावह उपग्रह करना जीव के स्वाभाविक लक्षण में सम्मिलित है—
परस्परोपग्रहो जीवानाम्।३७
षट्खण्डागम की धवला टीका में करूणा को जीव का स्वभाव निरूपित किया गया—
करूणाए जीव—सहावस्स कम्मजणिदतविरोहा दो।३८
करूणा के साथ अनुकम्पा पर भी बल दिया गया है। अनुकम्पा को सम्यग्दर्शन का एक लक्षण स्वीकार किया गया है।३९ इसी प्रकार धर्म उसे कहा गया है जहाँ दया है।४० भगवान ने सब जीवों की रक्षा एवं दया के लिए प्रवचन फरमाया था।४१ जैनागमों में सब जीवों के प्रति मैत्री का संदेश मिलता है।४२ इस प्रकार अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की प्रस्तुति के साथ अहिंसा को आगमों में स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है।४३ इस प्रकार आगमों में विभिन्न स्थलों पर भिन्न—भिन्न प्रकार से अहिंसा के पालन एवंहिंसा के त्याग की प्रेरणा की गई है। यह अहिंसा व्यक्तिगत स्तर पर भी कल्याणकारिणी है तो समाज एवं राष्ट्र के स्तर पर मंगलविघात्री है। पर्यावरण प्रदूषण, भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसी आधुनिक विश्व की समस्याओं का समाधान भी अहिंसा के माध्यम से संभव है। पर्यावरण का प्रदूषणहिंसा—जन्य है। पेड़—पौधों कीहिंसा, जल एवं वायु की हिंसा, कीटनाशकों के द्वारा कीटों कीहिंसा, पशु—पक्षियों कीहिंसा आदि से पर्यावरण—प्रदूषण बढ़ता रहता है। भ्रष्टाचार की समस्या भी तभी उत्पन्न होती है जब मन में प्रदूषण का भाव हो। दूसरों को एवं अपने को होने वाली पीड़ा का यदि पहले से ही बोध हो जाए तो भ्रष्टाचरण की ओर मानव प्रवृत्त ही न हो। आचरण की पूर्ण शुद्धता एवं नैतिकता अहिंसा के होने पर ही संभव है।
१. दशवैकालिक, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर २००५, १.१
२. (अ) सूत्रकृतांग, आगम प्रकाश समिति, ब्यावर, द्वितीय संस्करण, १९९१, २.१.६७, पृ. ४९९
(ब) आचारांगसूत्र, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, द्वितीय संस्करण १९८९, १.४.२, सूत्र १३८, पृ १२६
३. सूत्रकृतांग, २.१.६८०, पृ. ५०० ४. सूत्रकृतांग, १.१.
४. १०, पृ. ९८
५. प्रश्नव्याकरण, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८३, १.१, पृ. २३
६. आचारांग सूत्र, १.१.७, ६२ पृ. ३६, १९८९
७. सूत्रकृतांग, १.९.९, पृ. ३६१, १९९१
८. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।
तत्त्वार्थसूत्र, पार्श्वनाथ, विद्यापीठ, वाराणसी, १९८५, ७.८
९. पुरूषार्थसिद्ध्युपाय, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९६६, ४४
१०. आचारांग सूत्र, १.२.३, सूत्र ७८ एवं ८५, पृ. ५१ एवं ५७
११. दशवैकालिक, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, चतुर्थ संस्करण, २००५, ६.११, पृत्र १८०
१२. आचारांगसूत्र, १.५.५, सूत्र १७० पृ. १८६
१३. अचारांगसूत्र, १.१.५, सूत्र ४५ पृ. २६
१४. इमं पि छिण्णं मिलति एयं पि छिण्णं मिलासि,
इमं पि आहारगं एयं पि आहारगं,
इमं पि अणितियं एयं पि अणितियं,
इमं पि असासय एयं पि असासयं,
इमं पि चयोवचइयं एवं पि चयोवचयइयं,
इमं पि विधपरिणाम धम्मयं एवं पि विधरिणाम धम्मयं
१—आचारांग सूत्र १.१.५, सूत्र-४५, पृ. २६-२७
१५. सूत्रकृतांग, २.१.६७९, पृ. ४९९
१६. दशवैकालिक, ४.१, पृ. ७६
१७. दशवैकालिक, ४.८, पृ. ७९
१८. दशवैकालिक, ४.९, पृ. ८०
१९. ज्ञाताधर्मकथा, १.५, शैलक अध्ययन, पृ. १७१, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, द्वितीय संस्करण १९८९
२०. खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ।
पल्हायणभावभुवगए य सव्व—पाण—भूय—जीव—संत्तेसु मित्तीभावमुधाएइ।
-उत्तराध्ययनसूत्र, २९-१८, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, तृतीय भाग, १९८९
२१. आचारांग सूत्र, १.३.४, पृ. ११३
२२. आचारांग सूत्र, १.१.२.१३, पृ ९
२३. (अ) बह्मम्भपरिग्रहत्वं स्वभामार्दवार्जवंच मानुषस्य।
तत्त्वार्थसूत्र, ६.१८, पाश्र्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९८५
(ब) अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवंच मानुषस्य।
तत्त्वार्थसूत्र, ६.१८, पाश्र्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९८५
२४. ओधनिर्युक्ति, ७४७-७४९, निर्युक्तिसंग्रह,
श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, जामनगर, १९८९
२५. भावहवसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहंत
पन्नत्तस्स आराहणयाए अब्बुट्ठेइ।
उत्तराध्ययन सूत्र, २९-८१,सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल,
जयपुर, तृतीय भाग, १९८९
२६. प्रश्नव्याकरण, २.१.१०८, पृ. १६५
२७. सूत्रकृतांग, १.१.१.३, पृ. ७
२८. उत्तराध्ययन सूत्र, ६.७, पृ. २०८.
२९. आचारांगसूत्र, १.४.२, सूत्र १३९, पृ. १२६ आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, द्वितीय संस्करण, १९८९
३०. प्रश्नव्याकरण सूत्र, २.१ १०८, पृ. १३२
३१. आचारांग सूत्र, १.४.३.१४०, पृ. १३२
३२. सूत्रकृतांग, १.७.५, पू. ३३३
३३. आचारांग सूत्र, १.१.२.१४, पृ. ९
३४. प्रश्नव्याकरण, १.१.१८, पृ. २३
३५. स्वयम्भूस्तोत्र, २१.४, स्वयभ्यूस्तोत्र तत्वप्रदीपिका, श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी, १९९३
३६. प्रश्नव्याकरण, २.१.१०९, पृ. १६७
३७. तत्वार्थ सेत्र, ५.२.१ पाश्र्वनाथ विद्यापीाठ, वाराणसी, १९८५
३८. धवला, पुस्तक १३, पृ. ३६२, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर
३९. (अ) तदेवं प्रशमंवेगनिर्वेदानुकम्पास्ति क्या भिव्य क्तिलक्षणं तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।
—सभाष्य तत्वार्थधिगम सूत्र १.२ख् श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम,अगास।
(ब) प्रश्नसंवेगानुकम्पास्तिक्या भिव्य क्तिलक्षण तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।
—धवला, १.१.४, शोलापुर
४०. (अ) धम्मो दयाविसुद्धो
—बोधपाहुड, २५, अष्टपाहुड, श्री सेठी दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, मुम्बई।
(ब) धम्मो दयापहाणो।
—र्काितकेयानुप्रेक्षा, ९७, पृ. ४७, श्रीमद् राजचन्द आश्रम, अगास, १९९०
४१. सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं।
—प्रश्नव्याकरण, २.१.११२
४२. मििंत्त भूएसु कप्पए।
—उत्तराध्ययन सूत्र, ६.२. १९९८
४३. अिंहसा के सकारात्मक पक्ष की प्रस्तुति के लिए द्रष्टव्य पुस्तक—‘‘सकारात्मक अिंहसा : शास्त्रीय और चारित्रिक आधर’ कन्हैयालाल लोढ़ा, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, २००४ धर्मचन्द जैन प्रो. संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास वित्र वि., जोधपुर (राज.) अर्हत वचन जनवरी जून २००७ पृ. ३३ से ४० तक