मध्य प्रदेश संस्कृत अकादेमी, भोपाल द्वारा चातुर्मास सेवा समिति, इन्दौर के सहयोग से अ. भा. अनेकान्त संगोष्ठी, इन्दौर में १६—१७ नवम्बर ९६ को आयोजित की गई थी। यह आलेख इसी संगोष्ठी के प्रसंग पर मूर्घन्य जैन विद्वान पं. नाथूराम ‘डोंगरीय’ जैन द्वारा लिखा गया था। विचारशील मनीषियों द्वारा अनादिकाल से ही सत्य की खोज की जाती रही है। यह विश्व क्या है ? कब से हैं? इसके अनंत पदार्थों और उनके स्वभावों में भी क्या—क्या विशेषताएँ हैं ? यह सब कृत्रिम है या अकृत्रिम ? इनका सृष्टा कौन है ? आत्माएँ सुखी—दुखी क्यों होती हैं ? इनको सुख—दुख कौन देता है ? क्या ये सुखमयी संसार से कभी मुक्त हो सकती हैं ? ये जिज्ञासाएँ विचारशील मानव के मन में सदा से ही जन्म लेती रही है।
उल्लिखित विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकांत सिद्धांत सांख्य और बौद्ध दर्शनों की एकांगी नित्यता एवं अनित्यता की मान्यताओं में दिखने वाले विरोध को अपनी समन्वय की निर्दोष और सत्यान्वेषण की न्यायोचित प्रणाली द्वारा दूर कर उन्हें एकता के सूत्र में निबद्ध कर सकता है, यदि दोनों उदारता पूर्वक अपर पक्ष की दृष्टि से भी वस्तु स्वरूप पर विचार करें। नित्यता के साथ अनित्यता का रहना यद्यपि परस्पर विरोधी कथन जान पड़ता है, किन्तु वस्तु में जब नित्यता के साथ अनित्यता मैत्रीभाव
यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ? अर्थात् नित्यता के साथ अनित्यता, अस्तित्व के साथ नास्तित्व, इन परस्पर विरोधी धर्मों को यदि पदार्थ स्वयं ही अंगीकार किये हुए हैं तो हम क्या करें, और उन्हें स्वीकार न करने वाले भी हम कौन होते हैं ?
नित्यता के साथ अनित्यता की मान्यता में विरोध तब आता है जब जिस दृष्टि से वस्तु को नित्य कहा या माना जाता है। उसी दृष्टि से अनित्य भी कहा जाता। किन्तु वस्तु में द्रव्य दृष्टि से नित्यता ही निश्चित रूप से मान्य की गई है और उसी प्रकार उसमें परिणमनशीलता के होने से उसकी पर्यायों में परिवर्तन होने के कारण अनित्यता सी निश्चित मानी गयी है। ये दोनों धर्म (नित्यता और अनित्यता) कल्पित नहीं है, और न वस्तु पर ऊपर से लादे जा रहे हैं। वे वस्तु में स्वयं स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं अत: उनका कथन भी परस्पर सापेक्षिक (अनेकान्तात्मक) होना चाहिये।
इसी प्रकार सोना अपने गुणपर्यायों को आत्मसात् किये हुए जैसे अपनी सत्ता के रूप में सद् रूप है, उसमें चाँदी आदि पर द्रव्यों के न होने की दृष्टि से उसी समय असद् रूप भी है। दूसरे शब्दों में सोना, सोना है चाँदी आदि नहीं। इसमें भी संशय करने का या अनिश्चय की कोटि में जाने की गुंजाइश कहाँ है ?
जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु की सत्ता को इस प्रकार अनेकांतात्मक, स्वतंत्र एवं अनादिनिधन स्वीकार किया गया है। यही वस्तु का वस्तुत्व भी है। जब वस्तु विज्ञानी वक्ता किसी वस्तु के स्वरूप को शब्दों द्वारा व्यक्त करना चाहता है तब वह वस्तु के सब गुण—धर्मों को जानते हुए भी उनमें से एक को मुख्य और शेष को गौण कर ही शब्दों द्वारा व्यक्त कर पाता है, क्योंकि किसी भी शब्द में एक साथ अनेक गुण धर्मों को व्यक्त करने की क्षमता नहीं है। अत: एक धर्म को मुख्य और शेष को गौण करते हुए भी वक्ता का यह कथन स्याद्वाद कहलाता है। इस प्रकार अनेकांतमयी वस्तु वाच्य और स्याद्वाद उसका वाचक है।
वस्तु की एक विशेषता को मुख्य कर विधिरूप में कथन करने पर विद्यमान अन्य गौण धर्म प्रतिषिद्ध जैसे हो जाते हैं, किन्तु उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता। अत: जब कोई व्यक्ति एक धर्म के विषय में अपना अभिप्राय व्यक्त कर रहा हो तब उससे कोई भी प्रश्नकर्ता अन्य गुण धर्मों के विषय में भी प्रश्न कर सकता है। उसका समाधान सात भंगों द्वारा हो सकता है इसी प्रक्रिया को ‘सप्तभंगी’ के नाम से कहा गया है।
किसी प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया १.—यह क्या है ?
उत्तर मिला—यह (जीवतत्व दृष्टि से) जीव है।
फिर प्रश्न किया २.—और ?
उत्तर मिला-यह अजीव नहीं है।
फिर प्रश्न किया३.- क्या कहाँ ?
उत्तर मिला—यह जीव है, अजीव नहीं है।
फिर प्रश्न किया ४.—जीव में अन्य विशेषताएँ भी है क्या ?
उत्तर मिला—अनंत है जो एक साथ किसी शब्द द्वारा व्यक्त नहीं हो सकती, अत: वह अवक्तव्य (अनिर्वचनीय) भी है।
फिर प्रश्न किया ५.—इस विषय में कुछ और भी कहना है क्या ?
उत्तर मिला —वह जीव होने के साथ ही अवक्तव्य है।
फिर प्रश्न किया ६.—और ?
उत्तर मिला —वह अजीव नहीं है, साथ ही अवक्तव्य भी है।
फिर प्रश्न किया ७.—बस ?
उत्तर मिला —यह जीव है, अजीव नहीं है, साथ ही अवक्तव्य भी है।
चूँकि सत्य एवं निष्पक्ष वक्ता का अभिप्राय वस्तु के विषय में किसी एक विशेषता को मुख्य तथा शेष को गौण कर कथन करने का होता है, किन्तु जब सब विशेषताओं का कथन एक साथ करना चाहता है तब न कर सकने से वक्तव्य मौन हो जाता है। यही अनिर्वचनीयता है किन्तु जब वस्तु की एक ही विशेषता को स्वीकार कर उसके ही पूर्ण सत्य के रूप में मानने और कथन करने लगता है तथा अन्य विद्यमान विशेषताओं की ओर से आँखे बंद कर उनका निषेध करने या उन्हें झुठलाने लगता है तब वह सत्य से बहुत दूर चला जाता है और उसकी वह मान्यता एवं कथन एकांत मिथ्यात्व की कोटि में चली जाती है। अत: सत्य अनेकांतात्मक है।
जिन आधुनिक मनीषियों ने अनेकांत और स्याद्वाद प्रणाली पर मनन कर उनके संबंध में निष्पक्ष भाव से उनकी यथार्थता, उपयोगिता तथा महत्व पर जो अपने उद्गार समय—समय पर प्रकट किये है उनमें से कुछ का संकलन उन्हीं के शब्दों में निम्नलिखित है—गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज बनारस के भूतपूर्व प्रिंसिपल श्री मंगलदेवजी शास्त्री ने लिखा है कि—‘भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन की एक अनोखी देन (अनेकान्त) है। यह स्पष्ट है कि किसी तत्व के विषय में कोई भी तात्विक दृष्टि एकान्तिक नहीं हो सकती, प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्वाभाविक होनी चाहिये और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्विक प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धांत को जैन दर्शन की परिभाषा में अनेकांत दर्शन कहा गया है। जैनदर्शन का तो यह आधार स्तम्भ है ही, वास्तव में इसे प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिये भी आवश्यक मानना चाहिये।
इस प्रकार अनेकांतवाद और स्याद्वाद वस्तु के स्वरूप को यथार्थ ज्ञान कराने में सहायक तो होता ही है—साथ ही विश्व के एकांतवादी दर्शनों में व्याप्त संकीर्ण वृत्तियों का समन्वय कर उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने की उदार पद्धति का अविष्कारक भी स्वयं सिद्ध हो जाता है। यदि विश्व के मतमतांतर अपनी संकुचित विचारधाराओं को उदार बनाकर अनेकांत की व्यापक और निष्पक्ष दृष्टि को अपना लें तो सांप्रदायिकता जन्य विद्वेषों और विवादों का अंत भी सहज संभव हो जाये जो विश्वशांति के लिये अनिवार्य है और आज जिसकी नितांत आवश्यकता है। यह अनेकान्त का सिद्धान्त अनेक वैज्ञानिक समस्याओं, उलझनों को समाप्त करने में भी सक्षम है। वर्तमान में वैज्ञानिक विसंगतियों को समझने में इसका प्रयोग होने लगा है, यह शुभ लक्षण है।
१. समन्तभद्राचार्य, युक्तयुक्त्यानुशासन, ६