जहाँ भी ज्ञान मीमांसा की चर्चा होती है, वहाँ मन की भी चर्चा होती है, क्योंकि इन्द्रिय और मन के सहयोग से ही ज्ञेय को जानकर ज्ञान करते हैं। अत: सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में मन के अस्तित्व को स्वीकार किया है तथा उसका स्वरूप निरूपित किया है।
मन का अस्तित्व :– न्याय सूत्रकार का मन्तव्य है कि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते। इस अनुमान से वे मन की सत्ता स्वीकार करते हैं।न्यायसूत्र, १.१.१६ वात्स्यायन के अनुसार स्मृति आदि ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है और विभिन्न इन्द्रिय तथा उसके विषयों के रहते हुए भी एक साथ सबका ज्ञान नहीं होता, इससे मन का अस्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है।वात्स्यायन भाष्य, १.१.१६ अन्नम्भट्ट् के मतानुसार सुख आदि की प्रत्यक्ष उपलब्धि का साधन मन को माना गया है। सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मन:। – तर्कसंग्रह जैनदर्शन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्न, ज्ञान, वितर्क, सुख, दु:ख, क्षमा, इच्छा आदि मन के अनेक लिंग हैं।सन्मति प्रकरण टीका, खण्ड २ उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि परोक्ष ज्ञान का इन्द्रियों के अलावा अन्य दूसरा साधन भी होना चाहिए जिससे कि ज्ञान होता है और वह दूसरा साधन मन ही है।
मन का स्वरूप :– मनन करना मन है अर्थात् जिसके द्वारा मनन किया जाता है वह मन है। मनोयोग्य मनोवर्गणा से गृहीत अनन्त पुद्गलों से निर्मित मन द्रव्य मन है। द्रव्य मन के सहारे जो चिन्तन किया जाता है, वह भावमन (आत्मा) है।विशेषावश्यकभाष्य, अहमदाबाद, भाई समरथ जैन श्वेताम्बर मू. शास्त्रोद्धार ट्रस्ट, वी.सं. २४८९, गाथा ३५२५ धवला के अनुसार जो भी भली प्रकार से (ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम आदि पूर्वक) जानता है, उसे संज्ञा या मन कहते हैं।षट्खण्डागम (धवला टीका) अमरावती सन् १९३६ पुस्तक १, सूत्र १.१.४,पृ. १५२
द्रव्यसंग्रह की टीकानुसार – मन अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों का जाल है।बृहत् द्रव्यसंग्रह (सातवं संस्करण), आगास, सन् १९९९, प्रथम अधिकार, गाथा १२ की टीका, पृ. २४ जिसमें स्मृति, कल्पना और चिंतन हो वह मन है। जैसे जो अतीत की स्मृति, भविष्य की कल्पना और वर्तमान का चिंतन करता है, वह मन है। अत: जिसमें त्रैकालिक ज्ञान की क्षमता हो, वह मन है। जब स्मृति, कल्पना और चिंतन नहीं होते हैं तब मन नहीं होता है। जब मन होता है तब तीनों आवश्यक हो जाते हैं। ‘‘मनुतेऽर्थान् मन्यन्तेऽथे: अनेनेति वा मन:’’श्री यशोविजयगणि ‘‘जैनतर्कभाषा’’ अहमदनगर, सन् १९९२, पृ. ११ अर्थात् जो पदार्थों का मनन करता है या जिसके द्वारा पदार्थों का मनन किया जाता है, वह मन कहलाता है। जैसे अर्थ के भाषण के बिना भाषा की प्रवृत्ति नहीं होती, उसी प्रकार अर्थ के मनन के बिना मन की प्रवृत्ति नहीं होती। दिगम्बर ग्रन्थ धवला के अनुसार मन स्वत: नोकर्म है। पुद्गल विपाकी अंगोपांग नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्य मन है तथा वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रिय कर्म क्षयोपशम से जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भाव मन है। अपर्याप्त अवस्था में द्रव्य मन में योग्य द्रव्य की उत्पत्ति से पूर्व उसका सत्त्व मानने से विरोध आता है, इसलिए अपर्याप्त अवस्था में भाव मन के अस्तित्व का निरूपण नहीं किया गया है।धवलाटीका, भाग १, सूत्र १.१.३५, पृ. २५९-२६० ‘‘मणिज्जमाणे मणे’’ मनन करते समय ही मन होता है अर्थात् मनन से पहले और मनन के बाद मन नहीं होता। जैसे कि बोलने से पहले और बोलने के बाद भाषा नहीं होती है, लेकिन जब तक बोलते हैं तभी भाषा होती है। वैसे ही मन के लिए भी समझना चाहिए। जिससे विचार किया जा सके वह आत्मिक शक्ति मन है और इस शक्ति से विचार करने में सहायक होने वाले एक प्रकार के सूक्ष्म परमाणु भी मन कहलाते हैं। पहले को भाव मन और दूसरे को द्रव्य मन कहते हैंं।पं. सुखलाल संघवी, तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन), वाराणसी पार्वनाथ विद्यापीठ, सन् २००७ (षट् संस्करण), पृ. ५४ जैनदर्शन के अनुसार मन स्वतंत्र पदार्थ या गुण नहीं है। वह भाव मन के रूप में ही आत्मा का एक विशिष्ट गुण है।
जैनदर्शन के अनुसार मन चेतन द्रव्य और अचेतन द्रव्य के गुण के अनुसार से उत्पन्न होता है। अत: जैनदर्शनानुसार मन दो प्रकार का होता है – १. चेतन (भाव मन) और २. पौद्गलिक (द्रव्य मन)। भाव मन जीवमय है और अरूपी है तथा द्रव्य मन पुद्गलमय है और रूपी है। विशेषावश्यक भाष्य में बताया है कि द्रव्यमन मनोवर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ है। यह मन का भौतिक पक्ष है। साधारण रूप से इसमें शरीरस्थ सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचना तंत्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भावमन है। दूसरे शब्दों में आत्मा से मिली हुई चिन्तन-मनन रूप चैतन्य शक्ति ही भाव मन है। जीव में ज्ञानवरणीय कर्म के तथाविध क्षयोपशम से जो मनन करने की लब्धि होती है तथा मनन रूप उपयोग चलता है, ये दोनों ‘‘भावमन’’ कहलाते हैं तथा उस मनन क्रिया में जो सहायक है तथा जिसका निर्माण मन: पर्याप्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण कर के हुआ है, वह ‘द्रव्य मन’ है।यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है किन्तु वह जीव के ही होता है, अजीव के नहीं। यह बात भगवती सूत्र के शतक १३ उद्देशक ७ से स्पष्ट है।युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भाग ३, श.उ.७, सूत्र १०-११, पृ. ३२९ तेरहवें गुणस्थान में मन, वचन आदि योगों का निरोध कर केवली चौदहवें गुणस्थान में जाते हैं। अत: वे ‘अयोगी’ कहे जाते हैं। अयोगी होकर ही आत्मा मोक्ष जाती है, अत: मोक्ष में सिद्ध भगवानके मन नहीं होता है।
मलयगिरि के अनुसार – मन:पर्याप्तिनामकर्म के उदय से मन के प्रायोग्य वर्गणाओं को ग्रहण कर जो मनरूप में परिणत होने वाला द्रव्य है, वह द्रव्यमन है। द्रव्यमन के सहारे जीव को जो मन परिणाम है, वह भाव मन है।मलयगिरि नंदीवृत्ति, श्रीमती आगमोदयसमिति: सन् १९८२, पृ. १७४ द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता। किन्तु भाव मन के बिना द्रव्यमन हो सकता है। जैसे भवस्थ केवली के द्रव्यमन होता है, भावमन नहीं।मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. १४ द्रव्यमन की अपेक्षा भाव मन की अधिक शक्ति और सत्ता है। भाव मन की सजगता का ही सुपरिणाम है कि जीव भोगी से रोगी और योगी भी बनता है। संयोगी, वियोगी, निर्योगी ये सब भाव मन की देन है। भाव मन से नर, नारायण, आत्मा परमात्मा बनता है। इसलिए भाव मन में जिस प्रकार मनन होता है- विचार-धाराएँ चलती हैं, उसी के अनुसार द्रव्य मन भी परिवर्तित होता रहता है। यदि भाव प्रशस्त होता है, तो द्रव्य मन भी प्रशस्त वर्ण आदि वाला होता है। यदि भाव मन अप्रशस्त होता है, तो द्रव्य मन भी अप्रशस्त वर्ण आदि वाला होता है, क्योंकि मनुष्य के चारों ओर एक आभामण्डल होता है। आभामण्डल के अस्तित्व को विज्ञान भी स्वीकार करता है। आभामण्डल व्यक्ति की चेतना के साथ-साथ रहने वाला पुद्गलों और परमाणुओं का संस्थान है। चेतना व्यक्ति के तैजस शरीर को सक्रिय बनाती है। जब तैजस शरीर सक्रिय होता है तब वह किरणों का विकिरण करता है। यह विकिरण ही व्यक्ति के भाव मंडल (चेतना) के अनुरूप होता है।भावमंडल भी मलिन होगा। व्यक्ति अपने भावाधारा के अनुसार आभामंडल को बदल सकता है। अत: इससे सिद्ध होता है कि भाव मन से ही द्रव्य मन परिवर्तित होता है। दूसरी अपेक्षा से पौद्गलिक मन भावात्मक मन का आधार होता है। जैसे वस्तु की संख्या एवं गुणवत्ता के आधार पर बाजार भाव होता है, वैसे द्रव्य मन के आधार पर भाव मन भी विचारों की न्यूनाधिकता, उत्थान-पतन, संकोच-विस्तार से युक्त होता है। अर्थात् द्रव्य मन के बिना भावात्मक मन अपना कार्य नहीं कर सकता। उसमें अकेले में ज्ञान शक्ति नहीं होती है, क्योंकि भाव मन विचारात्मक होता है। मन मात्र ही जीव नहीं है, परन्तु मन जीव भी है, जीव का गुण है, जीव से सर्वथा भिन्न नहीं है, अर्थात् इसे आत्मिक मन कहते हैं। लब्धि और उपयोग उसके दो भेद हैं। प्रथम मानस ज्ञान का विकास है और दूसरा उसका व्यापार है। दोनों के योग से मानसिक क्रियाएं होती हैं। प्रश्न होता है कि यदि कोई विशेष कार्य भाव मन से होता है तो द्रव्य मन की क्या आवश्यकता है? इसके उत्तर में कहना होगा कि जिस प्रकार वृद्ध व्यकित उसके पैरों में चलने की शक्ति होते हुए भी वह बिना लकड़ी के सहारे के चल नहीं पाता है, वैसे ही भावमन होते हुए भी द्रव्य मन के बिना स्पष्ट विचार नहीं किया जा सकता है। इसलिए भाव मन जितना ही द्रव्य मन का भी महत्त्व है। मन:पर्यायज्ञान मात्र रूपी द्रव्य को ही जानने वाला है, अत: मन:पर्यायज्ञानी मन:पर्यायज्ञान के द्वारा मात्र द्रव्य मन को जाते हैं, किन्तु अरूपी भाव मन को नहीं जान सकते। मन:पर्यायज्ञानी, द्रव्य मन के वर्णादि पर्यायों को जानकर अनुमान से यह निश्चय करते हैं कि ‘अमुक संज्ञी जीव के अमुक विचार होने ही चाहिए, क्योंकि द्रव्य मन की ऐसी वर्णादि पर्यायें तभी हो सकती हैं, जबकि अमुक प्रकार का भाव मन हो, अन्यथा नहीं हो सकती। जैसे मन को जानने वाले मानस-शास्त्री, मन को साक्षात् नहीं देखते। वे मन के अनुरूप मुख पर आने वाली भाव भंगिमाओं को साक्षात् देखकर अनुमान से यह निश्चय करते हैं कि – ‘इसके अमुक विचार होने चाहिए’, क्योंकि मुख पर ऐसी भाव भंगिमाएं तभी उत्पन्न हो सकती हैं जबकि इसके मन में अमुक प्रकार का भाव हो।पारसमुनि, नंदीसूत्र ब्यावर, पृ.७४ उसी प्रकार द्रव्यमन की भंगिमाओं से भावमन को जाना जाता है।
विभिन्न प्रकार के मन के भेद बताये गये हैं– मन का सम्बन्ध उपयोग से है। चेतना और वेदना से है। इस दृष्टि से मन के तीन भेद हैं – १. अशुभ मन, २. शुभ मन और ३. शुद्ध मन। नियमन की दृष्टि से मन के दो भेद हैं – १. नियन्त्रित मन और २. अनियन्त्रित मन। भावना के उत्थान-पतन की दृष्टि से मन के दो भेद हैं – १. आशावादी मन और २. निराशावादी मन। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में मन के चार भेद किये हैं – १. विक्षिप्त मन २. यातायात मन ३. श्लिष्ट मन ४. सुलीन मन।आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र, भाग-३, जैन साहित्य विकास मण्डल, मुम्बई-५६ (सन् १९८६), प्रकाश १२, गाथा २, पृ. ११८५ स्थानांग सूत्र में भी मन के तीन प्रकार की अवस्थाओं का निरूपण हुआ है। मन के तीन प्रकार – १. तम्मन २. तदन्यमन और ३. नो-अमन तथा मन की तीन अवस्थाएं – १.सुमनस्कता, २. दुर्मनस्कता और ३.नो-मनस्कता और नो-दुर्मनस्कता।युवाचार्य मधुकरमुनि, स्थानांगसूत्र, स्थान ३ सूत्र ३५७, १८८ मन का स्थान :– हम विचारों से मन को जिस रूप में परिवर्तित करना चाहें, परिवर्तित कर सकते हैं। क्योंकि उसके असंख्यात पर्याय होते हैं। हमारे विचारों के अनुसान मन का आकार होता है। मन कहाँ पर स्थित है – इस सम्बन्ध में विविध मान्यताएँ प्राप्त होती हैं – वैशेषिकवैशेषिकसूत्र ७.१.१२३, नैयायिकन्यायसूत्र ३.२.६१, और मीमांसक मन को परमाणु रूप में स्वीकार करते हैं। इसलिए मन नित्य एवं कारण रहित है। सांख्यदर्शन, योगदर्शन और वेदान्तदर्शन वाले मन को अणुरूप में स्वीकार करते हैं और उसकी उत्पत्ति प्राकृतिक अहंकार तत्त्व से या अविद्या से होना मानते हैं।माठर कारिका २७ बौद्ध जैन दृष्टि से मन न तो व्यापक है और न परमाणु रूप ही है, किन्तु मध्यम परिमाणवाला है। वैशेषिक दर्शन ने जो मन को अणु रूप माना है उसका खण्डन करते हुए अकलंक कहते हैं कि मन को अणु रूप मानने पर चक्षु के जिस अंश से मन का संयोग है उसी से रूप ज्ञान दृष्टिगोचर होना चाहिए, लेकिन सम्पूर्ण चक्षु से रूप का ज्ञान होता है। इसलिए मन अणु रूप नहीं हो सकता है।अकलंक, (सम्पादन पं. गजाधरलाल जैन), तत्त्वार्थराजवार्तिक, सनातन जैन ग्रंथमाला, ५.१९.२४ पृ. २१९-२२० बौद्ध मन को हृदयप्रदेशवर्ती मानते हैं। यह दिगम्बर परम्परा के निकट है। सांख्य परम्परा श्वेताम्बर परम्परा के निकट है क्योंकि सांख्य परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं है, क्योंकि मन सूक्ष्म-लिंग शरीर में जो अष्टदर्शी तत्वों का विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म शरीर का स्थान संपूर्ण स्थूल शरीर है, इसलिए मन संपूर्ण शरीर में व्याप्त है।पं. सुखलाल संघवी, दर्शन और चिंतन, भाग-१, अहमदाबाद, सन् १९५७, पृ. १४० जैनदर्शन के अनुसार भाव मन का स्थान आत्मा है, किन्तु द्रव्य मन के सम्बन्ध में एक ही मत नहीं है। दिगम्बर परम्परा द्रव्य मन को हृदय में मानती है,गोम्मटसार, जीवकांड भाग २ (तृतीय संस्करण), नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् २०००, गाथा ४४३ तो श्वेताम्बर परम्परा में ऐसा कोई वर्णन नहीं मिलता है। श्वेताम्बरपरम्परा के पक्ष में पं. सुखलालजी का मत है कि द्रव्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है।दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ. १४० तत्त्वार्थसूत्र के हिन्दी विवेचन में उन्होंने ऐसा ही उल्लेख किया है, यथा –
‘‘प्रश्न – क्या मन भी नेत्र आदि की तरह शरीर के किसी विशिष्ट स्थान में रहता है या सर्वत्र रहता है?
उत्तर- वह शरीर के भीतर सर्वत्र रहता है, किसी विशिष्ट स्थान में नहीं, क्योंकि शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये सभी विषयों में मन की गति है, जो उसे देहव्यावी माने बिना सम्भव नहीं। इसीलिए कहा जाता है कि यत्र पचनस्तत्र मन:’’तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन), पृ. ६० योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र भी मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर मानते हैं, उसके अनुसार जहाँ-जहाँ प्राणवायु (मरुत) है वहाँ-वहाँ मन है। दोनों परस्पर कारण-कार्य हैं।योगशास्त्र, प्रकाशित ५, गाथा २ पृ. ९७१ भाव मन का स्थान आत्मा ही है, क्योंकि आत्मप्रदेश सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। अत: भाव मन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है।दर्शन और चिंतन, भाग १, पृ. १४० दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद ने मन को अनवस्थित कहा है क्योंकि मन आत्मा का लिंग होते हुए भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता और कालान्तर में भी स्थित नहीं रहता है। पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि (ग्यारहवां संस्करण), नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् २००२, अ. १, सू. १४, पृ. ७८ इस मत का समर्थन अकलंक ने भी किया है। अकलंक के अनुसार जहाँ-जहाँ उपयोग होता है वहाँ-वहाँ अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण आत्म प्रदेश मन रूप से परिणत हो जाते हैं। भाव मन रूप में परिणत आत्मा जब गुण-दोष विचार, चिन्तन, स्मरणादि कार्यों को करने के लिए प्रवृत्त होता है तो वह इन कार्यों को द्रव्य मन के सहयोग से पूर्ण करता है। इस कार्यों के उपस्थित होने पर ही द्रव्य मन का निर्माण होता है और कार्य पूर्ण होने से द्रव्य मन नष्ट हो जाता है। चिन्तनादि कार्य करते समय पुद्गल परमाणुओं से निर्मित अनेक मनोवर्गणाएँ मन रूप से परिणत होती हैं तथा उस कार्य को संपन्न होने पर वे वर्गणाएं मन रूप अवस्था का त्याग कर देती हैं। तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.१९.३०, पृ. २२० विषय-ग्रहण की दृष्टि से इन्द्रियाँ एकदेशी हैं, वे नियत देशाश्रयी कहलाती हैं। किन्तु ज्ञान-शक्ति की दृष्टि से इन्द्रियाँ सर्वात्मव्यापी हैं। इन्द्रिय और मन क्षायोपशमिक-अवारण जन्य विकास के कारण से है। आवरण विलय सर्वात्म-देशों का होता है।युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भोग १, श. १, उ. ३, पृ. ६५ मन विशेष-ग्रहण की दृष्टि से भी शरीर-व्यापी है। जैन दर्शन में सुख-दु:खादि के प्रत्यक्ष के लिए मन को एकान्त रूप से कारण स्वीकार नहीं किया गया है। अकलंक के अनुसार ‘वस्तुत: गरम लोहपिण्ड की तरह आत्मा का ही इन्द्रिय रूप से परिणमन हुआ है, अत: चेतन रूप से इन्द्रियाँ स्वयं सुख-दु:ख का वेदन करती हैं। यदि मन के बिना भावेन्द्रियों से सुख-दु:खानुभव न हो तो एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञाी पंचेन्द्रिय जीवों को सुख-दु:ख का अनुभव नहीं होना चाहिए। गुणदोष विचारादि मन के स्वतंत्र कार्य हैं। मनोलब्धि वाले आत्मा को जो पुद्गल मन रूप से परिणत हुए हैं वे अन्धकार तिमिरादि बाह्येन्द्रियों के उपघातक कारणों के रहते हुए भी गुण दोष विचार और स्मरण आदि व्यापार में सहायक होती हैं, इसलिए मन का स्वतंत्र अस्तित्व है।’’तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.१९.३०, पृ. २२०
व्यक्त चेतनत्व की अपेक्षा से संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी ही मन के अधिकारी होते हैं, संज्ञीश्रुत की अपेक्षा से दूसरे प्राणी भी मन के अधिकारी हैं। संज्ञीश्रुत के वर्णन में तीन प्रकार की संज्ञाएं बताई हैं,(अ) आचार्य तुलसी नंदीसूत्र (द्वितीय संस्करण), लाडनूँ जैन विश्व भारती, सन् २०११, सूत्र ६२,६३,६४ (ब) विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५०४ से ५०९ और (स) पं. सुखलाल संघवी, कर्मग्रंथ भाग १, बडौत (उ.प्र) श्री वर्धमान स्था. जैन धार्मिक शिक्षा समिति, गाथा ६ का विवेचन, पृ. १६-१७ जो निम्न प्रकार से हैं :–
(अ) दीर्घकालिकी संज्ञा :– जिससे जीवों में ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो वह दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है। ऐसे जीव के श्रुत को संज्ञी श्रुत कहते हैं। जिन जीवों में यह योग्यता नहीं उन्हें असंज्ञी कहते हैं तथा उनके श्रुत को असंज्ञी श्रुत कहते हैं। अथवा जिस संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान हो अर्थात् मैं यहकार्य कर चुका हूँ। यह कार्य कर रहा हूँ और यह कार्य करूगाँ, इस प्रकार का चिन्तन दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा देव, नारकी, गर्भज, तिर्यचों, गर्भज मनुष्यों में होती है तथा जिन जीवों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती उन जीवों का श्रुत दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी श्रुत है।
(ब) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा :- जिसमें प्राय: वर्तमान कालिक ज्ञान हो उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं अर्थात् अपने शरीर की रक्षा के लिए इष्ट वस्तुओं को ग्रहण करने तथा अनिष्ट वस्तुओं का त्याग करने रूप जो उपयोग वर्तमानकालिक ज्ञान होता है, उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीवों में होती है तथा जिन जीवों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का श्रुत, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी श्रुत है
(स) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा :- सुदेव, सुगुरु और सुधर्म तथा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म क्या है? इसका सम्यग् यथार्थ ज्ञान, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर-निर्जरा, बंध, मोक्ष इन नव तत्त्वों का सम्यग् यथार्थज्ञान और रुचि रूप जो सम्यग्दर्शन है, वह दृष्टिवाद की अपेक्षा (सम्यक्त्व की अपेक्षा) संज्ञा है। जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा पायी जाती है, उन जीवों का सम्यग् श्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा (सम्यग्दर्शन की अपेक्षा) संज्ञीश्रुत है तथा जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का मिथ्याश्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा (मिथ्यादर्शन, मिश्रदर्शन की अपेक्षा) असंज्ञीश्रुत है। एक अपेक्षा से यह संज्ञा मात्र चौदह पूर्वी साधकों को होती है। उक्त व्याख्याओं से संज्ञी जीव तीन प्रकार के हो गए हैं, किन्तु यहाँ पर मन का जो अधिकारी है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा से बताया गया है। यह बाद विशेषावश्यकभाष्य से भी सिद्ध होती है। जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता (कल्पना) की जाती है, वह कालिकी अथवा दीर्घकालिकी संज्ञा है। यही मन है। मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कन्धों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपश्म से निष्पन्न होती है।विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५०८-५०९ अत: उपर्युक्त वर्णन के आधार पर कह सकते हैं कि जिस जीव में दीर्घकालिकी संज्ञा का विकास होता है, वह संज्ञी (समनस्क) और जिसमें इसका विकास नहीं होता, वह असंज्ञी (अमनस्क) है।श्री भिक्षुसगम शब्द कोश भाग, प्रथम संस्करण, लाडनूँ जैन विश्व भारती, सन् १९९६ पृ. ५०९
जिस प्रकार चक्षुष्मान् व्यक्ति को दीपक के प्रकाश में स्फुट अर्थ की उपलब्धि होती है, वैसे ही मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव की चिन्ताप्रवर्तक मनोद्रव्य के प्रकाश में अर्थ की उपलब्धि स्पष्ट होती है। शब्द अर्थ में छह प्रकार (पांच इन्द्रिय और एक मन) का उपयोग होता है। अविशुद्ध चक्षुष्मान् को मंद, मंदतर प्रकाश में रूप की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, वैसे ही असंज्ञी संमूच्र्छिन पंचेन्द्रिय को अर्थ की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, क्योंकि क्षयोपशम की मंदता के कारण उसमें मनोद्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति भी बहुत अल्प होती है। मूर्छित व्यक्ति का शब्द आदि अर्थों का ज्ञान अव्यक्त होता है, वैसे ही प्रकृष्ट ज्ञानावरण के उदय के कारण एकेन्द्रिय जीवों का ज्ञान अव्यक्त होता है। इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ज्ञान शुद्धतर, शुद्धतम होता है। मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है। इसको विशेषावश्यकभाष्य में उदाहरण से समझाते हैं कि चक्रवर्ती के चक्ररत्न में जो छेदन करने की शक्ति होती है, वह सामान्य तलवार आदि में नहीं होती है। दोनों के छेदक का गुण होते हुए भी शक्ति में हीनता है, उसी प्रकार सामान्य रूप से जीवों में चैतन्यगुण समान होने पर भी समनस्क जीवों में अवग्रह आदि सम्बन्धी वस्तुबोध की जो पटुता होती है, वैसी पटुता एकेन्द्रिय अदि समनस्क जीवों में नहीं होती है।विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५१०-५१४
मन एक साथ अनेक अर्थों को ग्रहण कर सकता है, किन्तु एक साथ दो क्रियाएं या दो उपयोग नहीं हो सकते। क्योंकि उपयोग युगपत् नहीं होते। समान्य की अपेक्षा से एक साथ अनेक अर्थों का ग्रहण होता है। विशेष की अपेक्षा एक समय में एक ही अर्थ का ग्रहण होता है।विशेषावश्यकभाष्य गाथा २४४२, २४४५ क्या मन और मस्तिष्क एक हैं ? मन और मस्तिष्क में गहरा सम्बन्ध है। इन्द्रियों के द्वारा विषय का ग्रहण होता है, मस्तिष्क उनका संवेदन करता है तथा मन उस का पर्यालोचन अर्थात् हेयता-उपादेयता के चिन्तन का कार्य करता है। मस्तिष्क मन की प्रवृत्ति का मुख्य साधन अंग है, इसीलिए उसके विकृत हो जाने से मन भी विकृत हो जाता है। फिर भी मन और मस्तिष्क स्वतंत्र हैं।सिद्धसेन दिवाकर, पं. सुखलाल संघवी, सन्मतितर्क प्रकरण, काण्ड २ मन इन्द्रिय या अनिन्द्रिय ? जैन दर्शन में मन को अनिन्द्रिय या नोइन्द्रिय कहा है, जिसका अर्थ इन्द्रिय का अभाव न होकर ईषत् इन्द्रिय है। श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों की तरह मन भी ज्ञान का साधन है, फिर भी रूपादि विषयों में प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि का सहारा लेना पड़ता है। यह मन की परतंत्रता है। इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थ को विषय करती हैं तथा कालान्तर में स्थित रहती हैं, लेकिन मन आत्मा का लिंग होते हुए भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता तथा कालान्तर में स्थित नहीं रहता है, इसीलिए इसे अनिन्द्रिय कहते हैं।सर्वार्थसिद्धि, १.१४, पृ. ७८ मन को अनिन्द्रिय कहने का कारण यह भी है कि मन इन्द्रिय की तरह प्रतिनियत अर्थ को नहीं जानता है। धवलाटीका के अनुसार इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं। जिस प्रकार शेष द्रव्येन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है, वैसा मन का नहीं होता। अत: मन अनिन्द्रिय है।धवलाटीका, भाग-१, सूत्र १.१४, पृ. ७८ अनिन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय सदृश है। मन को अन्त:करण भी कहा जाता है। क्योंकि मन ज्ञान का साधन होते हुए भी श्रोत्रेन्द्रियादि की तरह बाह्य साधन नहीं है, वह आन्तरिक साधन है एवं इसका कार्य गुण-दोष विचार स्मरण आदि हैं जिन्हें वह इन्द्रियों की सहायता के बिना सम्पन्न करता है। इसलिए मन को अन्त:करण भी कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार अनिन्द्रिय, मन और अन्त:करण ये एकार्थवाची हैं।सर्वार्थसिद्धि १.१४, पृ. २७ मन और इन्द्रियों की सापेक्षता :– जैन दर्शन के अनुसार इन्द्रिय और मन परोक्ष ज्ञान के साधन हैं। मन सभी इन्द्रियों में एक साथ प्रवृत्ति नहीं कर सकता है अर्थात् उपयोगवान् नहीं हो सकता है। भावमन उपयोगमय है वह जिस समय जिस इन्द्रिय के साथ मनोयोग कर जिस वस्तु का उपयोग करता है वह तब तद् उपयोगमय हो जाता है। इन्द्रियों के व्यापार की सार्थकता इसी में है कि उसके बाद मन भी अपना कार्य करे। इन्द्रियों के अभाव में मन भी पंगु हो जाता है। वह उसी विषय पर चिन्तन कर सकता है, जो कभी न कभी इन्द्रियों से गृहीत हुआ हो। इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त-द्रव्य की वर्तमान पर्याय को ही जानती हैं। मन मूर्त और अमूर्त दोनों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, इसलिए मन को सर्वार्थग्राही कहा गया है।आचार्य हेमचन्द्र प्रमाण मीमांसा, सन् १९८९, अ.१ सू.२४, पृ. १९ इन्द्रियाँ केवल मूत्र्तद्रव्य की वर्तमान पर्याय को जानती हैं, मन मूत्र्त और अमूत्र्त त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, क्योंकि मन का विषय प्रतिनियत नहीं है, वह दूर-निकट सर्वत्र प्रवृत्त होता रहता है। केवल पुद्गल ही मन का विषय नहीं है। केवलज्ञान की तरह मूत्र्त-अमूत्र्त सब पदार्थ मन के विषय बनते हैं।विशेषावश्यकभाष्य गाथा ३४० मन का वस्तु के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता है इसलिए मन अप्राप्यकारी है। यदि मन को प्राप्यकारी माना जाये तो अग्नि का चिन्तन करने पर हमें जलन का अनुभव और चंदन का चिंतन करने पर शीतलता का अनुभव होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है। इसलिए मन अप्राप्यकारी है।अभिधानराजेन्द्रकोठ्ठा, भाग-६, अहमदाबाद, श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, सन् १९८६, पृ. ७६-८३
स्मृति, चिन्तन और कल्पना करना मन का कार्य है। वह इन्द्रिय ज्ञान का प्रवर्तक है अर्थात् मन इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु के सम्बन्ध में भी चिन्तन-मनन करता है और उससे आगे भी विचार करता है। नंदीसूत्र में मन के कार्य ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विर्मश बताये गये हैं।आचार्य तुलसी, नंदीसूत्र सूत्र ६२, पृ. ११२ जब मन इन्द्रिय द्वारा ज्ञात, रूप, रस आदि का विशेष रूप से निरीक्षण आदि करता है तब वह इन्द्रिय की अपेक्षा रख्ता है। अन्यत्र स्थानों में मन को इन्द्रिय की आवश्यकता नहीं होती है। इन्द्रिय ज्ञान की सीमा पदार्थ तक सीमित है और मन इन्द्रिय और पदार्थ दोनों को जानता है। इन्द्रियाँ केवल मूर्तद्रव्य की वर्तमान पर्याय को और वह भी अंश रूप में जानती हैं, जबकि मन मूर्त और अमूत्र्त (रूपी-अरूपी) पदार्थों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, मन का कार्य विचार करना है। जिसमें इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये और ग्रहण नहीं किये गये सभी विषय आते हैं।
मध्य-विन्दु है, जिसे केन्द्र बनाकर उन जीवों का समग्र जीवन-चक्र उसके इर्द-गिर्द घूमता है। मानव-जीवन का भी वास्तविक आकलन एवं मूल्यांकन मन के द्वारा ही होता है। मनुष्य-जीवन का यह केन्दीय तत्त्य है। जैसा मन होता है वैसा ही मनुष्य बन जाता है अर्थात् ‘‘जैसा मन, वैसा जीवन’’। मन अशांत तो जीवन अशांत, मन शांत तो जीवन शांत। मन दु:खी तो जीवन दु:खी, मन सुखी तो जीवन सुखी। मन भोगी तो जीवन भोगी, मन योगी तो जीवन योगी।मन रागी तो जीवन रागी, मन वीतरागी तो जीवन वीतरागी। उपनिषद् में भी कहा है कि ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:’’ इस प्रकार सम्पूर्ण उत्थान और पतन का कारण मन ही होता है।
पवन कुमार जैन श्री सुधर्म विद्यापीठ, एस.बी.बी.जे. बैंक के पास,
चांदीहॉल, जोधपुर (राजस्थान) अनेकान्त जुलाई -सित्म. २०१३