-डॉ. रमेशचन्द जैन सामाजिक संरचना-
मुस्लिम धर्म को मानने वाले मुसलमान कहलाते हैं। मुसलमान का अर्थ है वह व्यक्ति जो यह मानता है कि खुदा या ईश्वर एक ही है। किसी मुस्लिम परिवार में उत्पन्न होने वाला ही मुसलमान नहीं बनता, अपितु जो कोई भी मुस्लिम या ईसाई धर्म को स्वीकार कर ले और मुस्लिम कलमा (‘‘ला इलाही इल अल्लाह मुहम्मदुर रसूल उल्लाहा’’) पढ़ ले वह मुस्लमान कहा जा सकता है। मुस्लिम धर्म अरब में उत्पन्न हुआ तथा हजरत मोहम्मद ने इसको वर्तमान सुधरा हुआ रूप प्रदान किया था। मुसलमानों का धार्मिक ग्रन्थ कुरान शरीफ है जिसमें मुसलमानों को अच्छा आचरण करने तथा समाज की प्रगति करने की सीख दी गई है। कुरान शरीफ की आदतों में मुसलमानों के पारिवारिक संगठन, विवाह, न्याय, सहकारिता, सहयोग, धर्मप्रचार, रस्म रिवाजों के पालन, अनाथों व अपाहिजों की देखभाल आदि के संबन्ध में स्पष्टतया नियम या आदेश दिए गए हैं। प्रत्येक मुसलमान के लिए कुरान शरीफ की हदीसों (हिदायतों या निर्देशों) को मानना आवश्यक होता है।
जिनेन्द्र भगवान् को मानने वाले जैन कहलाते हैं। जैन शब्द जिन से बना है, जिसका अर्थ विजेता होता है। जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे, वही सच्चा विजेता है। जैनों के अनुसार ईश्वर एक नहीं अनेक हैं। ईश्वर पूर्णकाम हैं, वे कृतकृत्य हैं। जैन मात्र वही नहीं है, जिसका जैन परिवार में जन्म हुआ हो, अपितु जो जैनधर्म के नियमों का पालन करे, वह जैन है। आचार्य सोमदेव का कहना है कि ‘नाम्ना स्थापनातो वा सर्व जैनायतेतराम्’ अर्थात् नाम की अपेक्षा तथा स्थापन निक्षेप की अपेक्षा सभी जैन हैं। जैनधर्म अनादि अनन्त है। समय समय पर तीर्थंकर जन्म लेकर इसका उपदेश करते हैं। इस द्वादशांग वाणी के आधार पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए। द्वादशांग वाणी के अन्तर्गत वर्तमान का समस्त ज्ञान विज्ञान निहित है। प्रत्येक जैन को जिनवचनों में श्रद्धा रखना आवश्यक है।१
मुस्लिम धर्म के प्रवर्तक हजरत मोहम्मद के कुछ उपदेश इस प्रकार हैं-२
माताओं के पैरों के नीचे स्वर्ग (जन्नत) होता है। -वह सच्चा ईश्वर का उपासक नहीं है, जो अपने भाई के लिए उस वस्तु की कामना नहीं करता है, जिसकी वह स्वयं अपने लिए करता है। – कुचले हुए की – चाहे वह मुस्लिम हो या अमुस्लिम, सहायता करो। – रात को एक घण्टे पढ़ाना सारी रात पूजा करने से अधिक अच्छा है। – क्या तुम अपने खुदा को जिसने तुम्हें पैदा किया है, चाहते हो? पहले अपने साथियों को चाहो। – अपना खाना खाने के लिए बैठने से पहले यह पता लगा लो कि तुम्हारे पास पड़ौस में कोई भूखा तो नहीं रह गया है। उसके मांगने से पहले गरीब को दे दो। – तीन तरह के लोगों के लिए जन्नत के दरवाजे बन्द होते हैं- शोषक, शोषकों के सहायक या समर्थक और जो शोषण को सहन कर लेते हैं। – जो कोई भी विद्वान् तुम्हें मिले, उसके सेवक बन जाओ। – तुम्हारी कमजोरियाँ छिपी होंगी, जब तक कि किस्मत तुम्हारे साथ है। – यह ख्याल मत रखो कि कौन कह रहा है, बल्कि यह सोचो कि वह क्या कर रहा है। जैनधर्म में पांच समिति और तीन गुप्तियाँ अष्टप्रवचन मातृकायें कहलाती हैं, जो माता के समान पूजनीय है। जिनवाणी को भी माता कहा जाता है। इनसे स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति तो होती ही है, ये मोक्ष की भी कारण है। क्षेमं सर्वप्रजानां’ कहकर जैन धर्म में सभी के कल्याण की कामना की गई है। क्लिेष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं कहकर जैनधर्म में दीन दुःखी जीवों पर करुणा भाव रखने का उपदेश दिया गया है। मेरी भावना में हम पढ़ते हैं-
‘‘दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे।’’
जैन धर्म में कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक सभी पापों का निबंध किया गया है। कहा गया है- समरंभसमारंभ आरंभ मन, वच, तन कीने प्रारम्भ। कृत कारित मोदन करके क्रोधादि चतुष्टय धरिके। शत आठ जु भेद भए इम तिनके वश पाप किए हम। (आलोचना पाठ) जैनधर्म में अतिथि संविभाग व्रत की महत्ता बतलाकर पात्रों के अनुसार उसका फल बतलाया गया है। यह शक्तिस्त्याग भावना के अंतर्गत समादिष्ट होता है।
१. ‘‘विसमिल्लाह एल रहमान अल रहीम (दयालु और विशाल हृदय ईश्वर के नाम में) से कोई भी कार्य आरंभ किया जाता है। ईश्वर से ही हम आते हैं और ईश्वर के पास ही हम लौट जाते हैं।’’ इस विचार से मुसलमानों की सभी क्रियायें पथ प्रदर्शित होती हैं।
२. ‘‘ला इलाही इल अल्लाह’ (ईश्वर के अलावा और कोई देवी देवता नहीं है) मुसलमानों का सर्वोच्च धार्मिक सिद्धान्त हैं।
(क) एक ईश्वर में विश्वास करना।
(ख) प्रतिदिन पांच बार नमाज (प्रार्थना) करना।
(ग) रमजान के महिने में रोजा (उपवास) करना।
(घ) जकात (गरीबों के लाभार्थ) कर देना।
(ड.) जीवन में एक बार अरब में स्थित मुसलमानों के पवित्र तीर्थस्थान मक्का की धार्मिक यात्रा अवश्य करना।
४. मुसलमानों के पवित्र त्योहारों में प्रमुख हैं- रमजान और ईद उल अजहा। ५. संयुक्त परिवारों को उत्तम माना जाता है।
६. मुस्लिम परिवारों में बड़े बूढ़ो, माता-पिता का आदर करने व उनका आदेश मानने पर विशेष बल दिया जाता है।
७. एक मुसलमान एक से अधिक स्त्रियाँ (अधिक से अधिक चार स्त्रियाँ) रख सकता है लेकिन उन सभी को एक ही घर में रखना आवश्यक है और उनके साथ अच्छा व्यवहार करना आवश्यक है।
८. स्त्रियों के चाल चलन को उत्तम बनाए रखने के लिए उन्हें पर्दा या बुरके को ओढ़कर बाहर निकलना आवश्यक माना जाता है।
९. मुसलमानों को मद्यपान करना तथा सूअर का मांस खाना वर्जित है। जैनों में किसी मांगलिक कार्य को करने से पहले निम्नलिखित मंगलाचरण बोला जाता है-
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
(दिगम्बर परंपरा)
जैन धर्म जीवात्मा को ईश्वर का अंश नहीं मानता है, अपितु प्रत्येक जीवात्मा की स्वतंत्र सत्ता मानता है, उसका परलोकगमन उसके कर्म पर निर्भर है ईश्वर न किसी को कहीं भेजता है, वे एक नहीं अनेक हैं। इस प्रकार के परमात्माओं से भिन्न देवी-देवताओं का स्वतंत्र अस्तित्व है। जैनधर्म पंच महाव्रतों को स्वीकार करता है। गृहस्थ इनका एकदेश पालन करते हैं। साधुओं के व्रत, नियम वगैरह श्रावकों से भिन्न हैं। श्रावक तथा मुनि सभी के लिए त्रिकाल सामायिक (ध्यान, समता भावना) का विधान किया गया है। जैन श्रावक या साधु रात्रि भोजन नहीं करते हैं। उपवास के दिनों में दिन और रात्रि को चतुर्विधाहार ग्रहण करने का परित्याग है। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ सूत्र के अनुसार जीवों का कार्य परस्पर उपकार करना है। भोगोपभोग परिमाण या परिग्रह परिमाण रखने और आहारदान, औषधिदान, अभयदान तथा ज्ञानदान देने से गरीब, अमीर सभी प्रकार के जीवों का उपकार होता है। प्रत्येक जैनी जीवन में कम से कम एक बार निर्वाणक्षेत्र (गिरनार, सम्मेदशिखर, चम्पापुर और पावापुर तथा अन्य तीर्थक्षेत्रों की वन्दना करने का भाव अवश्य रखता है।) जैनों के पवित्र अष्टान्हिका, दशलक्षण, दीपावली, महावीर जयंती, अक्षय तृतीया, रक्षाबन्धन, श्रुतपंचमी आदि हैं, इनमें किसी भी प्रकार से बलि आदि कर्म न कर जीवों की रक्षा करने का उपदेश दिया जाता है। सामान्य जीवन में जीव रक्षा प्रत्येक जैन का कत्र्तव्य है। जैनों में संयुक्त परिवार भी होते हैं और परिवारों में विभाजन भी होता रहता है। यह सब आपसी तालमेल पर निर्भर है। प्रत्येक गृहस्थ तथा साधु को विनयभावना रखने का उपदेश दिया गया है।
हिन्दू कोड बिल जैनों पर लागू होने से गृहस्थ एक ही पत्नी रखते हैं, किन्तु जैन साहित्य में जैनों के बहुविवाह के उल्न्लेख भी बहुत हैं। यह अपनी अपनी सामथ्र्य पर निर्भर है, तथापि धर्मशास्त्र एक पत्नीव्रत तथा पतिव्रत रखने का उपदेश देते हैं। स्त्रियों में पर्दाप्रथा जैनों की प्राचीन काल में नहीं थी, किन्तु मुसलमानी काल में उत्तरभारत में यह चालू हो गई थी। अब इसका तेजी से विलोप हो रहा है। जैन परम्परा में मद्य, मांस और मधु का, त्याग प्रत्येक जैनी के लिए अनिवार्य है। इनका सेवन करने वाला श्रावक कहलाने का अधिकारी नहीं है।
‘‘अपनी पसन्द की औरत से विवाह कर दो, तीन अथवा चार, परन्तु यदि तुम्हें भय हो कि तुम उनके मध्य समान न्याय नहीं कर सकते तो तुम केवल एक (औरत) से विवाह४ करो। कुरआन ४ ३0 आमतौर पर लोग यह समझते हैं कि पर्दे का सम्बन्ध केवल स्त्रियों से है। हालांकि कुरान में अल्लाह ने औरतों से पहले मर्दों के पर्दे का वर्णन किया है-
‘‘ईमान वालों से कह दो कि वे अपनी नजरें नीची रखें और अपनी पाकदामिनी की सुरक्षा करें। यह उनको अधिक पवित्र बनाएगा और अल्लाह खूब परिचित हैं, हर उस कार्य से जो वे करते हैं। (कुरआन २४.३०) जैनधर्म में ब्रह्मचर्य व्रत के धारण करने वालों को तन्मनोहरांग निरीक्षण त्याग का उपदेश दिया गया है। कुरान की सूरा निसा में कहा गया है — और अल्लाह पर ईमान रखने वाली औरतों से कह दो कि वे अपनी निगाह नीची रखें और पाकदामिनी की सुरक्षा करें और वे अपने बनाव-शृंगार और आभूषणों को न दिखायें, इसमें कोई आपत्ति नहीं, जो सामान्य रूप से ऩजर आता है और उन्हें चाहिए कि वे अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियाँ ओढ़ लें और अपने पतियों, बापों, अपने बेटों….के अतिरिक्त किसी के सामने अपने बनाव-शृंगार प्रकट न करें। (कुरआन २४.३१) जैनधर्म में उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही ब्रह्मचारी को (और ब्रह्मचारिणी को भी) स्वशरीर संस्कार त्याग का उपदेश तत्त्वार्थसूत्र में दिया गया है। कुरआन में कहा गया है- ‘‘धर्म में कोई जोर – जबर्दस्ती न करे, सत्य, असत्य से साफ भिन्न दिखाई देता है।’’ (कुरआन २.२५६) ‘‘लोगों को अल्लाह के मार्ग की तरफ बुलाओ, परन्तु बुद्धिमत्ता और सदुपदेश के साथ और उनसे वाद-विवाद करो, उस तरीके से जो सबसे अच्छा और निर्मल हो ७।” (कुरआन १६:१२५)
पक्षपातो न मे वीरो न द्वेषः कपिलादिषु।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य परीषहः।।
अर्थात् मुझे वीर से कोई पक्षपात नहीं है, कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष नहीं है, जो वचन युक्तियुक्त हैं, उनका पालन करना चाहिए। आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र ने कहा है-
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्रविरोधि वाक।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।।
अर्थात् आप ही निर्दोष हैं, क्योंकि आपके वचन, युक्ति और शास्त्र के विरोधी नहीं है। अविरोधी इसलिए हैं; क्योंकि जो आपको इष्ट है, वह प्रसिद्ध से बाधित नहीं होता है। 4:3 हजरत मुहम्मद ने शराब को हराम कहा है- ‘‘शराब तमाम बुराईयों की जड़ है और वह बेशर्मी की चीजों में से सबसे बढ़कर है।’’ (हदीस : सुनन इब्ने माजा) हरचीज जिसकी बड़ी मात्रा नशा पैदा करने वाली हो, उसकी अल्पमात्रा भी हराम है।८’’ (हदीश इब्ने माजा) हजरत अनस कहते हैं कि खुदा के पैगम्बर
‘‘शराब के साथ जुड़े हुए दस लोगों पर अल्लाह की ओर से लानत और धिक्कार की जाती है। जो उसकी निचोड़ना या तैयार करता है, जिसके लिए तैयार की जाती है, उसकी पीने वाला, उसको पहुंचाने या भेजने वाला, जिसके पास उसे भेजा जाय या पहुंचाया जाय, जिसे शराब पेश की जाय, उसे बेचने वाला, उसकी आमदनी से फायदा उठाने वाला, उसे अपने लिए खरीदने वाला और दूसरे के लिए उसे खरीदने वाला।9’’ (हदीस इब्ने माजा) जैनधर्म में भी मद्यपान को सात व्यसनों के अन्तर्गत गिनाया है। पण्डित प्रवर आशाधर जी ने सागर धर्मामृत में कहा है-
यदेकविन्दोः प्रचरन्ति जीवाश्चेतत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति।
यद्विक्लवाश्चेदममुं च लोव नश्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्येत्।।
अर्थात् यदि शराब की एक बिन्दु के जीव विचरण करने लगें तो तीनों लोकों को भी भर दें। जिससे दुःखी होकर इस लोक और परलोक विनाश को प्राप्त हो जाए, उस मद्य को अवश्य छोड़ देना चाहिए। इस्लाम और जैनधर्म दोनों में जुआ खेलने का निषेध किया गया है। कुरआन का आदेश है- नाप और तौल को ठीक पूरा करो।10’’ कुरआन ६/५२ तत्त्वार्थसूत्र में अस्तेय व्रत के अतीचारों में विरुद्ध राज्यातिक्रम को गिनाया है। कुरआन (२२:३०) में कहा गया है कि झूठ बोलने से बचो। जैनधर्म में सत्य महाव्रत की महिमा वर्णित है। अप्रशस्त वचन को भी झूठ की संज्ञा दी गई है- असदभिधानं अनृतम् (तत्त्वार्थसूत्र -अध्याय-७) कुरआन (17:32) कुरआन (१७:३1) में कहा गया है – ‘‘पृथ्वी पर अकड़ता हुआ मत चल, इस प्रकार तू न पृथ्वी को फाड़ डालेगा और न बढ़कर पर्वतों तक ही पहुंच जायेगा।’’ ‘‘दयालु खुदा के भक्त धरती पर चलते हैं तो नम्रता के साथ।’’ (कुरआन २५:६३) जैनधर्म में दशलक्षण धर्म में दूसरा धर्म मार्दव धर्म बतलाया गया है, जो मान का त्याग करने का उपदेश देता है, ‘‘उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे नाना भेद ज्ञान सब भासे।।’’ मान महावषिरूप करहिं नीचगति जगत में। ‘‘कोमल सुधा अनूप सुख चाहें प्राणी सदा।’’ (दशलक्षण पूजा)
९वीं शताब्दी में बहुत से जैन मुनि दक्षिण रूस के देशों में गये। उजबेकिस्तान, ओरासान, अजरबाइजान से लेकर वे सीरिया तक गए। १९७८ में जब श्री विश्वम्भर नाथ पाण्डेय सीरिया गए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि जैन मुनि वहां आए थे और प्रसिद्ध मुस्लिम सूफी सन्त अबुलआला अलमुआरी ने उनसे दीक्षा ली थी। दीक्षा लेने के बाद उन्होंने मांस खाना बिल्कुल वर्जित कर दिया था। यहां तक कि वे अण्डे भी नहीं खाते थे। वे अहिंसा का प्रचार करते थे। उन्होंने अपनी सुन्दर अरबी कविताओं में अहिंसा की बड़ी प्रशंसा की है। अरब देशों में एक नया संप्रदाय ‘‘कलन्दर’’ पैदा हुआ। कलन्दर मुनि अहिंसा के परम विश्वासी थे तथा सदैव सत्य बोलते थे। यूनान के दो कलन्दर मुनि एक सुलतान के यहाँ गए। सुलतान की बेगम ने उनका सत्कार किया। उन्हें बरामदें में तख्त पर बैठाया। थोड़ी देर के लिए वह अपने जनानखाने चली गई और अपने हीरों का हार वहीं तख्त पर छोड़ दिया। वहाँ बाग में एक शुतुरमुर्ग चर रहा था। हीरों की जगमगाहट ने उसको आकर्षित किया। वह आया और हीरों के हार को निगल गया। जब बेगम वापिस आयी तो उन्होंने देखा कि हीरों का हार वहां नहीं है। कलन्दरों से पूछा गया कि आप यहाँ बराबर बैठे थे? वे कहने लगे कि इस निरंतर बैठे थे। बेगम ने पूछा कि मैं यहाँ हार छोड़कर चली गई थी, वह हार कहाँ चला गया? कलन्द मौन रहे। उन्हें आरक्षियों को सौंप दिया गया। वे बहुत पीटे गए। खानातलासी ली गई, किन्तु हार नहीं मिला। किन्तु सन्देह उन्हीं पर था कि इन्होंने किसी तरह से हार को गायब कर दिया। उन्हें बेहद मारा-पीटा गया पर वे बोले नहीं। बाद में जब उस शुतुरमुर्ग ने कोई चीज उगली। उसे चीरा गया तो उसके पेट से वह बेशकीमती हीरों का हार प्राप्त हुआ। तब उन कलन्दरों की जांच पड़ताल शुरू हुई। उनसे पूछा गया कि तुमने बताया क्यों नहीं कि शुतुरमुर्ग निगल गया? इतनी मार खाने के बाद भी तुम खामोश क्यों रहे? उन्होंने उत्तर दिया कि हम सत्य बात कहते तो शुतुरमुर्ग के प्राण चले जाते। वह पाप हम अपने ऊपर नहीं लेना चाहते थे। अहिंसा पर उनका परम विश्वास था।
अरबी इतिहास में वर्णन आता है कि शाहसुजा अदरबाईजान के बहुत बड़े सुलतान थे। जैन मुनि का उनके ऊपर प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपरिग्रह की दीक्षा ले ली तथा अपने राजसिंहासन का परित्याग कर दिया। बाद में वे एक कुटी बनाकर बगदार में रहने लगे। उनकी रानी की मृत्यु हो चुकी थी। उनकी एक बड़ी सुन्दर कन्या थी। बहुत लोग तीन दिन का समय मांगा। तीन दिन बाद उन्होंने खोज शुरू की। शाहुजा ने देखा कि एक युवक मस्जिद में ध्यानमग्न होकर ईश्वर का परम भक्त है। इसके साथ ही मैं अपनी कन्या का विवाह करूँगा। जब युवक का ध्यान समाप्त हुआ और उसने आंखें खोलीं तो देखा कि शाहसुजा खड़े हुए हैं। उसने अपने को धन्य माना। शाहसुजा ने उससे पूछा- युवक तुम विवाहित हो? युवक ने उत्तर दिया कि मैं बहुत गरीब हूँ। मेरे पास धन नामकी चीज नहीं है। मैं अपरिग्रह व्रत का पालन करता हूँ। कौन मुझे अपनी कन्या देगा? शाहसुजा ने कहा कि तुम मेरी कन्या से विवाह करो। युवक ने कहा कि आपकी कन्या का पालन पोषण तो राजमहलों में हुआ है, वह अच्छी तरह वैसे रहेगी। शाहसुजा ने कहा कि मैं अपनी कन्या का विवाह तुम्हारे साथ करूँगा। कन्या का विवाह उन्होंने अपरिग्रही गरीब के साथ कर दिया। कन्या जब अपने पति के यहां आई तो देखा कि छोटी से पर्णकुटी में एक तरफ चटाई पड़ी हुई हैं, मिट्टी के पात्र में आधी रोटी रखी हुई है। कन्या ने देखा और पूछा कि यह आधी रोटी वैसी है? युवक ने उत्तर दिया कि मेरे पास श्रम करने के बाद कुछ वेसे आ गए थे, उससे मैंने एक रोटी खरीदी थी। आधी रोटी मैंने कल खायी थी और आधी रोटी आज के लिए रखी है। राजकन्या की आँखों से आँसू गिरने लगे। उसे रोते देखकर युवक ने कहा कि मैं पहले ही समझता था कि आप राजकन्या हैं, मेरी गरीबी के साथ नहीं चल सवेंâगी। आखिर मेरी गरीबी को देखकर आपकी आंखों से आंसू निकले, किन्तु इसका कारण यह है कि मेरे पिता ने कहा था कि तुम नितान्त अपरिग्रही हो, लेकिन जो व्यक्ति एक रोटी, जो उसे कल मिली थी, वह आज के लिए बचाकर रखे, वह अपरिग्रही वैसा? हमारे पिता ने कहा था, किन्तु तुम नितान्त अपरिग्रही नहीं हो। यह आदर्श ऐसे समाज में था, जो समाज परिग्रही समझा जाता है। उस समाज में जाकर जैन मुनियों ने अपने प्रचार द्वारा भावनायें पैदा की, विचार पैदा किया, जिन्होंने उस संस्कृति को नया रूप दिया। इसी तरह सबसे बड़ा प्रभाव वहां के एक मुसलमान श्रीमन्त के ऊपर पड़ा। उनकी १४ बड़ी कोठियां विभिन्न देशों में थी। भारत में एक कोठी थी। उनकी कोठियां स्पेन तक पैâली हुई थीं।
उनका करोड़ों रूपयों का व्यवसाय था, किन्तु जैसे ही वे जैनधर्म में दीक्षित हुए, उन्होंने अपना सारा धन, महल, कोठी आदि दान कर दिया। एक लंगोटी रह गई, सोचा उसका आकर्षण क्यों? उसका भी दान कर दिया और दिगम्बर मुनि बन गए। वे धर्म और प्रेम, अहिंसा सत्य तथा अपरिग्रह की चर्चा करते हुए भारत आए। भारत आकर वे दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में औरंगजेब से भेंट हुई। उनका प्रचार और प्रसार देखकर भारत की जनता उनके प्रति बहुत आकर्षित हुई। हजारों उनके भक्त हो गए। औरंगजेब ने जब उनसे पूछा कि तुम नंगे क्यों रहते हो? तो उस सरमद ने कहा – ‘तन की उरयानी से बेहतर कोई लिवास नहीं (नग्नपन से बेहतर नहीं है कोई लिवास) यह वह जामा है, जिसका कोई नहीं उल्टा सीधा। उनसे पूछा कि अल्लाह और उसके पैगम्बर रसूल को छोड़कर पाश्र्वनाथ और महावीर की तरफ तुम्हारी आस्था क्यों जागी? तो उसने उत्तर दिया – पाश्र्वनाथ और महावीर में मुझको वह भक्ति, वह प्रेम, वह अपरिग्रह की भावना दिखाई दी, जिससे आकर्षित होकर मैंने पाश्र्वनाथ और महावीर की शरण ली। औरंगजेब ने कहा – तुम खुदा को नहीं मानते हो? तो सरमद ने जबाव दिया – यदि कोई खुदा है तो खुद मेरी खबर लेगा। मुझे उसकी खबर लेने से क्या मतलब? चूंकि इस्लाम धर्म को उसने तिलांजलि दी थी, फिर वह मूर्तिपूजा की ओर आया था, इसीलिए उसको औरंगजेब की ओर से फाँसी की सजा मिली। दिल्ली की जामा मस्जिद के बाहर एक छोटा सा मकबरा बना हुआ है, जहां वह श्रेष्ठ जैन सरमद अनन्त निद्रा में विश्राम कर रहा है। जैन उस रास्ते से निकलते होंगे, किन्तु किसी को भी यह भान नहीं होता कि यह टूटी-फूटी कब्र एक महान् करोड़पति व्यवसायी की है, जो जैनधर्म में दीक्षित हुआ और जिसने दीक्षा के कारण अपने प्राण त्याग दिये।१३
१. डॉ. सत्यपाल रुहेला : भारतीय समाज संरचना और परिवर्तन, पृष्ठ-५३ उत्तरप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, १९७३ ई.
२. ऊप त्त्त्ल् व्त्ब् दf घ्ह्ग्a-अम्. १४.१९.६९.
३. डॉ. सत्यपाल रुहेला : भारतीय समाज संरचना और परिवर्तन , पृष्ठ ५४५५
४. डॉ. जाकिर नाइक : गलतफहमियों का निवारण, पृ.१०, प्रकाशक- मधुर संदेश संगम पृ. २०, अबुल फज्ल इंकलेव, जामिया नगर, नई दिल्ली।
५. वही, पृ. १७
६. गलतफहमियों का निवारण, पृ. २५
७. वही पृ. ५०
८. गलतफहमियों का निवारण, पृ. ५१
९. अब मुहम्मद इमामुद्दीन रामनगरी : इस्लाम एक परिचय, पृ. ५८
१०. वही पृ. ५९
११. इस्लाम : एक परिचय पृष्ठ- ५९, प्रकाशक- मधुर संदेश संगम ई.२० अबुल फज्ल क्लेव, जामिया नगर, नई दिल्ली। क
१२. पाश्र्वज्योति ९ फरवरी १९८७ (अहिच्छत्र महोत्सव पर आनन्द रामपुर में महामहिम श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डे, राज्यपाल उड़ीसा द्वारा दिया गया भाषण दि. ५.१०.१९८६)
वर्ष -६५ वाल्यूम-४ अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ से