नरवर, ग्वालियर का समीपवर्ती एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र है। लोदी शासकों के बर्बर आक्रमण से नष्ट हुआ यह कला एंव संस्कृति का केन्द्र सम्प्रति खण्डहर रूप है तथापित इतिहास एवं पुरातत्व विषयक अमूल्य सामग्री को संरक्षित किये हैं। प्रस्तुत आलेख में इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।
नरवर चढ़े न बेड़नी, बूँदी छपे न छींट। गुदनौटा भोजन नहीं, एरच पके न ईट।।
मध्य युगीन कहावत से प्रसिद्ध नरवर का इतिहास बहुत प्राचीन है। नरवर का सर्वप्रथम उल्लेख महाभारत में नेषिद देश के राजा नल व विदर्भ की राजकुमारी दमयन्ती की प्रणय गाथा के रूप में देखने को मिलता है। इसके पश्चात् वहाँ से प्राप्त नागवंशीय शासकों के सिक्के इस क्षेत्र पर नागवंश के शासकों के शासन को निरूपित करते हैं। एरण व ग्वालियर से प्राप्त शिलालेखों से ज्ञात होता है, कि २६० से ६०७ ई. के मध्य यहाँ पर तोरमाण शासकों का आधिपत्य रहा होगा। लगभग ६५० ई. यह क्षेत्र हर्षवर्धन के अधिकार में चला गया। ८८२ ई. के लगभग यह क्षेत्र कन्नौज के शासक भोजदेव के अधिकार में चला गया, यहीं वह समय था जब गोपाचल का अभ्युदय प्रारम्भ हो रहा था व नरवर के साथ—साथ गोपाचल भी राजनीति, वाणिज्य, धर्म व संस्कृति का केन्द्र बनता चला गया। यही कारण है कि गोपाचल का अध्ययन करने के लिये नरवर की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि का अध्ययन करना अति आवश्यक हो जाता है। प्राप्त साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ९७७ ई. के लगभग भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कुशवाह या कछवाह कहलाने वाले शासकों ने इस क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया व ११२९ ई. तक यहाँ अपना शासन किया। पुन: १२२३ से १२३२ ई. तक यहाँ मलयवर्मन के शासन का उल्लेख प्राप्त होता है। इस समय तक भारत के उत्तरी भाग में तुर्क आधिपत्य प्रारम्भ हो चुका था व १२३२ ई. में इल्तमश द्वारा नरवर पर आधिपत्य कर लिया गया था। अभी तक जो नरवर दक्षिण से उत्तर आने का एक प्रमुख मार्ग था, वह अब उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाले आक्रान्ताओं के लिये प्रमुख मार्ग बन गया। इस समय नरवर का किला एक अभेद्य दुर्ग का मूर्त रूप धारण कर चुका था। इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य बनाये रखने के लिये प्रत्येक शासक के लिये यह आवश्यक था, कि वह नरवर को अपने अधिकार क्षेत्र में बनाये रखें। इन्हीं सभी कारणों से नरवर धीरे—धीरे इस क्षेत्र का प्रमुख नगर बन गया, इसका सहज आभास जैन मंदिर में जड़े बीजक से स्पष्ट होता है— ‘श्री पाश्र्वनाथ जी पदानुचरण श्री मूलसंघ बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे कुन्दकुन्दान्वये श्री गोपाचलपट्टे श्री भ. १०८ विश्वभूषण जी देवतस्य मंदिरवारै समां उत्तर मुहानों नग्न नरवर गढ़ राज में पंच जैन ज्ञात मंदिर में धर्म सेवन करियों जैनी आम्नाए घर ७०० न्यतसाखाऐ के माथे मंदिर कर दीने। गजरथ संक्षिप्त प्रतिष्ठा भई भिति माह सुदी ५ शुक्रवार वंसत दो रथ चले सं. १२४९ की साल में श्री रस्तु कल्याण रस्तु, जो कोई बांचे सुनेतिनको धर्म बुद्धि होई। यद्यपि इस प्रशस्ति में तत्कालीन शासक का नाम नहीं दिया गया है लेकिन यह स्पष्ट है कि तत्समय यह क्षेत्र जैन धर्म के एक प्रमुख केन्द्र के रूप में निरूपित हो चुका था। यहाँ पर ७०० घर जैन धर्म के अनुयायियों के विद्यमान थे। १२४९ से १२५४ ई. तक यह गढ़ चाहड़देव तथा आसलदेव के अधिकार में रहा, यद्यपि उनका शासन अल्पकालीन ही था लेकिन इन दोनों शासकों के जैन धर्मानुयायी होने के फलस्वरूप इस काल में नरवर को केन्द्र मानते हुए धर्म का प्रसार व प्रचार के दूर—दूर तक हुआ था। मध्यकाल में इस क्षेत्र पर दिल्ली के सुल्तानों के सदैव आक्रमण होते रहे लेकिन हिन्दू शासक भी दिल्ली पर कमजोर शासक का लाभ उठाते हुए यहाँ पुन: अपना आधिपत्य कर लेते थे। यही कारण है, कि नरवर का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य अत्यधिक जटिल है। विक्रम संवत् १४७५ के लगभग यहाँ पर तोमर वंशी वीरमदेव का शासन था इस वंश ने इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर शासन किया था व गोपाचल की अधिकांश जिन प्रतिमाओं का अभ्युदय इसी वंश के शासन काल में हुआ था। इस वंश का अंत सिकन्दर लोदी के व्रूर आक्रमण से हुआ था। सिकन्दर लोदी का नरवर पर आक्रमण मात्र राजनैतिक पराभव का प्रतीक ही नहीं था वरन् जैन धर्म का उत्थान भी इस क्षेत्र में सदैव के लिये समाप्त हो गया था। इतिहास साक्षी है कि सिकन्दर लोदी को नरवर में इतनी अधिक मात्रा में जिन प्रतिमाओं के दर्शन करने को मिले कि जिन्हें उसकी हजारों सैनिकों की सेना को भी नष्ट करने में पूरे छ: माह लग गये थे, फिर भी वह उन्हें पूर्ण रूपेण धूर धूसिर करने की चाह मन में लिये ही इस संसार से विदा हो गया। यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है कि आखिर ये हजारों की संख्या में हर आकार प्रकार की सौम्य व भव्य प्रतिमाएं एकाएक कुछ ही वर्षों में र्नििमत नहीं हो गई होगी व न ही यें हजारों प्रतिमाएं किन्हीं खुले स्थान पर रखी गई होगी, नि:सन्देह कई सदियों तक यहाँ पर जैन धर्माचरण की धारा प्रवाहित हुई होगी व कई भव्य जैन मन्दिरों का निर्माण कई वंशीय राजाओं, श्रेष्ठियों, व धर्मानुयायियों द्वारा कराया गया होगा, और यह महत्वपूर्ण क्षेत्र जैन आचार्यों के निरन्तर आवागमन व णमोकार मंत्र की मधुर ध्वनि से शोभित होता रहा होगा। आज जिस प्रकार गोपाचल पर स्थित जैन मन्दिर भूगर्भ में समा चुके हैं ठीक वही स्थिति नरवर के जैन मन्दिरों की हैं, यहाँ भी पुरातात्विक खोज परम आवश्यक हैं संवत् १४७५ का एक ताम्रपत्र यहाँ के जैन मंदिर में सुरक्षित रखा हुआ है जिसके अनुसार, राजा वीरमदेव के प्रधान आमात्य कुशराज थे। जो जैन धर्म के पालनकर्ता थे। इस ताम्रपत्र का लेख निम्न प्रकार से हैं— र्निवकल्प शुभं……निश्चया युत्तं व्यवहार नयात्सार। संवत् १४७५ आषाढ़ सुदी ……महाराजाधिकराज वीरमेन्द्र राज्ये श्री कर्षता……संघीन्द्र वंश साधु जैत्र…….णपाल: तयो पुत्र परम: श्रावक: साधु कुशराज भूभ्यदायें धर्म श्री जयतं………इत्यादि परिवारेण समं सा. कुशराजोनित्य यत्र प्रणमीत।’’उल्लेखनीय है, कि इन्हीं साहू कुशराज के अनुरोध पर ही जैन कवि पद्यनाभ जो कायस्थ गोत्रिय थे, भगवान गुण गुणकीर्ति के उपदेश से यशोधर चारित (दयासुन्दर विधान) नामक संस्कृत काव्य लिखा था, इस काव्य मं कवि ने एक स्थान पर उल्लेख किया है। ‘‘इति श्री यशोधर चरिते दया सुन्दराभिधाने महाकाव्ये साधु श्री पद्मनाभेन कुशराज कारापिते कायस्थ श्री विरचितं अभय रूचि प्रभूति सर्वेषां स्वर्ग गमन वर्णनोंनाम नवम सर्ग:। उपर्युक्त ग्रंथ से ज्ञात होता है कि तोमर वंशी नरेश वीरिंसह के पुत्र उदुरेण से वीरमदेव का जन्म हुआ था जो इस क्षेत्र का तत्समय का सर्वश्रेष्ठ वीर व धर्मपरायण शासक था इसका उत्तराधिकारी गणपति देव हुआ, सं. १३८१ में इसका पुत्र डूँगरिंसह इस क्षेत्र का शासक हुआ जिसने गोपाचल पर जिन प्रतिमाओं को उत्कीर्ण कर अपने नाम को अमर किया। डूँगरिंसह व उसके उपरान्त मानिंसह के शासन काल में राजधानी नरवर से हट कर ग्वालियर के गोपाचल पर्वत पर स्थानान्तरित हो गई, जिसके फलस्वरूप यहाँ के प्रमुख अधिकारी श्रेष्ठि व प्रजाजन भी ग्वालियर चले गये व यह नगर इतिहास के पृष्ठों पर नरवर, नरवरगढ़, नलनग्ने इत्यादि इत्यादि नाम मात्र से खंडहरों की नगरी मात्र से जाना जाने लगा, लेकिन नरवर का सामरिक महत्व दक्षिण पक्ष पर स्थित होने के कारण अट्ठारहवीं सदी तक निरन्तर बना रहा। यही कारण है मुगलों ने भी नरवर दुर्ग पर सदैव अपने विश्वसनीय अधिकारी को बनाये रखा। जैन धर्मानुयायियों में सदियों तक इन सिद्ध क्षेत्र के बारे में एक प्रकार की उपेक्षा सी भी बनी रही, लेकिन सन् १९२९ में यकायक दो बैलों की लड़ाई में एक विशाल तल भंवर का पता चला जिसमें सैकड़ों की संख्या में खंडित लेकिन प्रभावशाली जिन प्रतिमायें बहुत ही तरीके से सम्भाल कर रखी हुई थी। यह तलभंवर ६र्० ४र्० १५ फीट के क्षेत्रफल में बना हुआ था जो एक टीले नुमा बस्ती के मध्य स्थापित था। धारणा है कि, सिकन्दर लोदी के आक्रमण के समय इन्हें तलभंवर में सुरक्षा की दृष्टि से रखा गया था, किन्तु ये सभी प्रतिमायें खण्डित होने के कारण उक्त धारण निर्मूल सिद्ध होती हैं, इन र्मूितयों के अवलोकन से सहज अनुमान लगाया जा सकता है, कि १४वीं सदी तक नरवर जैन संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र के रूप में विकसित हो चुका था, यहाँ एक खण्डित शिलालेख भी प्राप्त होता है जो वि. स. १३१९ जैत्रिंसह का है जा आसलदेव व चाहड़देव के समय उच्चाधिकारी था। संभव है, आमात्य रहा हो। इसके द्वारा निर्मित मूर्तियाँ का उल्लेख नरवर दुर्ग के उरवाई दरवाजे पर स्थित जैन प्रतिमाओं से भी ज्ञात होता है, इन्होंने समीपस्थ ग्राम भीमपुर में भी कतिपय जिनालयों की स्थापना की थी। इस तलभंवर में एक प्रस्तर स्तंभ पर उत्कीर्ण लेखानुसार ये समस्त मूर्तियाँ वि. सं. १५१७ में इसमें रखी गई थी। ‘‘श्री वीतरागायनम: श्री काष्ठासंधे माथुरान्वये पुष्करगणे आ. श्री खेमर्कीित देवा स्तस्फट्टे श्री आ. प्रभार्कीित देवान तस्सीति त्रिहितास्यास्ते परि……लेख तस्य सिखनी पोत्रिका संजय श्री पंडित करमचंद वाकल पंडित वाण मंडित जैसवार जाति बारह सेणी साव सं. १५१७ साके १३८२ वदी नोमी चन्द्रवासरो।।’’ वर्तमान में ये सभी प्रतिमाये म. प्र. शासन द्वारा शिवपुरी में जाधवसागर के किनारे एक छोटे किन्तु सुन्दर संग्राहलय में लाकर सुरक्षित रख दी गई हैं। भगवान अजितनाथ—संभवनाथ, संभवनाथ—नेमिनाथ, शांतिनाथ—नेमिनाथ, और शांतिनाथ—महावीर स्वामी के युगल बड़े ही मनोहारी हैं, व तत्कालीन तक्षणकला के उत्कृष्ठ उदाहरण हैं। इन मुर्तियों पर वि. सं. १५१७ में इसमें रखी गई थी। वर्तमान में ये सभी प्रतिमायें म. प्र. शासन द्वारा शिवपुरी में जाधवसागर के किनारे एक छोटे किन्तु सुन्दर संग्राहलय में लाकर सुरक्षित रख दी गई हैं। भगवान अजितनाथ—संभवनाथ, संभवनाथ—नेमिनाथ, शांतिनाथ—नेमिनाथ, और शांतिनाथ महावीर स्वामी के युगल बड़े ही मनोहारी हैं, व तत्कालीन तक्षणकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।इन र्मूितयों पर वि. सं. १३१४,२४,२९,३५ एवं ४६ के लेख उत्कीर्ण हैं। नरवर दुर्ग का प्राचीन मुख्यद्वार जो पश्चिमी भाग में जंगलों में स्थित हैं व उरवाई दरवाजे के नाम से जाना जाता है, अति प्राचीन सिद्ध क्षेत्र है। यहाँ के मंदिरों में काले पाषाण को नेमिनाथ की र्मूित पर उत्कीर्ण लेखानुसार ‘‘सं. १३४० वैसाख सुदी ७ सोमे श्री मूल संघे और पट्टान्वये सा. होलो भार्या उहट्टी पुत्र बीमलाश्वेना नाम चसोन्वणपाल सुभचाहड़ बीसल प्रणमति नित्यं।’’ द्वितीय प्रमिा भी काले पाषाण की हैं’ सं. १३४८ वैसाख सुदी १५ सनौ श्री मूल संधे पौर पट्टान्वये साह शासन भार्या गंगा पुत्र भोपति भार्या मुल्हू पुत्र साते भार्या कल्हू पुत्र शाह रतन भार्या सीता सा. मधे भार्या लखमा सा साटल भार्या सही।’’ तृतीय काले पाषाण की नेमिनाथ प्रतिमा के लेखानुसार ‘‘सं. १३१६ जेठ वदी ५ सोमे नेम्बान्बये पित्सा आलून भार्या’ की हैं। यहीं पर काले पाषाण में अनंतनाथ की भी प्रतिमा विद्यमान है जिस पर ‘सं. १२१३ आषाढ़ सुदी ८ जैसबालान्वये नायक साल्हि पुत्र केल्हा मौत्यदि आमदेव नित्यं।’’ अंकित हैं। यहाँ पर तीन स्थलों पर मुनियों के चरण चिन्ह, पीछी, कमंडलु आदि भी प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण किये गये हैं इनके लेख निम्नानुसार हैं— (१) अथ विक्रम संवसरे १८३४ शाके १६९९ मासोत्तममासे आषाढ़मासे शुभ कृष्णपक्ष सिध्यो बुधवासरे नक्षेत्र वीतनामयोगे कोसलनाम वकुर्रनेन तद्दित मालवदे से भेलसा सिरोंज पट्टे दिगंबराम्नाये सरस्वति गच्छे बलात्कारगणे कुंदकुदाचार्यन्वये भा. श्री राजर्कीित तत्पट्टे आ. श्री उदेर्कीित जी कप्य पादकाचरण कमल मौ स्थापनं। भव्य जनान् नित्यं त्रिशुदु ध्यान प्रणभति च सतजी श्री रस्तु कल्याण भवतु। वद्र्धता श्री मज्जैन शासन श्रेयंस्तनेति मुनय श्रेयोस्तु।’’ (२) सं. १८३४ शाके १६९९ आषाढ़ मासे कृष्णपक्षे तिथों ५ बुधवार आ. श्री उदैर्कीित जी कह्य पंडित श्री रुपचंद जोना पादुक चरण कमल स्थापना प्रतिष्ठा कत्र्तव्यम् ।’’ (३) सं. १८३४ शाके १६९९ आषाढ़वदी ५ बुधबासरे आ. उदैर्कीित कस्य बाईजी श्री चन्द्रवती थी ने पादुकाचरण कमलयो: स्थापना श्रीरस्तु श्रेयोरस्तु। उपरोक्त तीनों लेख नरवर का सम्पर्क सूत्र गोपाचल के अलावा भेलसा व सिरोंज से भी जोड़ते हैं, जैसा, कि विदित है ग्वालियर से दक्षिण की ओर जाने वाला मार्ग नरवर, कोलारस, चन्देरी, थुवौन, सिरोज होता हुआ नर्मदा तट तक पहुँचता था। इस प्रकार नरबर प्राचीन काल से आर्वाचीन काल तक जैन धर्म मार्ग पर एक प्रकाश स्तंम्भ की भाँति कार्य करता रहा है। आधुनिक जैन धर्म जागरण काल में इस क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण एवं महत्वपूर्ण स्थलों तथा यत्र—तत्र बिखरी जिन प्रतिमाओं के संकलन अध्ययन एवं उन्हें समुचित स्थल पर प्रर्दिषत/संरक्षित करने की अति आवश्यकता है।