धर्मग्रन्थों— धर्म—शास्त्रों को आध्यमित्मक श्रद्धाभाव से पढ़ लेना एक धार्मिक परम्परा के रूप में बनता चला जा रहा है। मनन, चिन्तन कर उनसे आदर्श, नैतिक मानवीय, व्यवहारिक, निर्देशों उपदेशों एवं शिक्षाओं को जीवन मेेंं समाहित कर, नैतिक आदर्शों से युक्त जीवन यापन की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए, परन्तु स्वाध्याय में संलग्न अधिकांश साधकों में इस व्यावहारिक तथ्य का नितांत अभाव पाते हैं। केवल अक्षर ज्ञान सीखने वाले बालक की भांति बार—बार आगमों को पढ़ने वाले व्यक्तियों को झूठे गर्व से दम्भित पाया जाता है। उनकी शिक्षाओं और जीवन में समाहित करने वाले पक्षों से विहीन, ऐसे गर्वित व्यक्ति निरर्थक ही ज्ञानी होने का दावा करते रहते हैं। महिलाऐं बड़ी श्रद्धा व अनन्य भक्ति से, धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत होकर जैन पद्मपुराण एवं अन्य आगमों को नित्य—प्रति अध्ययन करती हुई दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु पद्मपुराण में निर्देशित नारी के लिए उपयोगी आदर्शों को जीवन में न अपनाकर ग्रन्थ अध्ययन की महत्ता को पूरा करने में असक्षम रहती हैं। पदमपुराण के कथानकों, विभिन्न नारी चारित्रों से सम एवम् विषम परिस्थितियों में नारी के लिये अति उपयोगी अनुकरणीय आदर्शों, व्यवहारिक जीवन में धारण करने योग्य शिक्षाऐें मिलती हैं। उनको अपने जीवन में समन्वित करने से ही नारियां अध्ययन के उद्देश्य की पूर्ति कर स्व—जीवन लक्ष्य प्राप्त कर, परिवार, समाज, राष्ट्र और भावी पीढ़ी के नव—निर्माण के कार्यों को सुगमता से पारित कर सकती हैं। प्रस्तुत समीक्षात्मक अध्ययन में नारी के लिये उपयोगी शिक्षाओं पर प्रकाश डालते हुए सृष्टि निर्मात्री, पोषक नारी को आदर्श जीवन निर्माण की प्रेरणा देने का प्रयास किया गया है। पितृकुल में अविवाहित कन्या के लिये लज्जाशील होकर, माता—पिता, भाई—बहन एवं परिवार के सदस्यों की सलाह से कार्य करना ही श्रेष्ठतम् पारिवारिक धर्म है। महाभारत १ में इस आर्य सत्य को स्वीकार करते हुए अविवाहित तरुणी, शकुन्तला कहती है कि ‘पिता ही मेरे प्रभु हैं। कुमारवस्था में पिता, जवानी में पति, और बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है।२ अत: स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिए। राजा दशानन की कुंवारी बहन चन्द्रनखा, भाई की आज्ञा का पालन करते हुए, निर्जनवन में स्थित दुर्ग में भी प्रसन्नता पूर्वक रहते हुए, गौरव का अनुभव करती थी।३ कन्याओं को घर में लज्जा—शील होकर ही रहना चाहिये। उपस्थित अतिथियों के साथ लज्जा—युक्त विनम्र व्यवहार का परिचय देना चाहिये।४ वर—,चयन अवसर पर कन्या को लज्जाशील होकर माता—पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। राजा सुग्रीव की पुत्री को जब विभिन्न योग्य वरों के चित्रपट दिखाये गये, तो वह लज्जाशील होकर मौन ही धारण किये रही।५ पद्मपुराण में अनेकानेक अवसर पर योग्य कन्याओं के पिता को स्वयं योग्य वर चयन के लिये अति चिन्तित पाते है।६ योग्य वर की खोज करते हुए, मातापिता न रात में सुख से निद्रा लेते हैं और न दिन में चैन रखते हैं।७ सती अञ्जना के पिता कहते हैं कि‘ मेरा मन तो निरन्तर कन्या के अनुरूप सम्बन्ध ढूंढने की चिन्ता में व्याकुल रहता है। अपनी एक कन्या को योग्य वर देने की चिन्ता मन में हर क्षण विद्यमान रहती है’।८ राजा पृथु अपनी कन्या कनकमाला के वर चयन की स्थिति में नौ गुणों—कुल, शील,धन, रूप समानता, बल अवस्था, देश और विद्यागम पर विचार करने के उपरान्त ‘कुल’, गुण से सन्तुष्ट न होने के कारण दूत को अपनी कन्या, अन्य सभी गुणों से युक्त राजकुमार कुश को देने से इंकार कर देते हैं।९ स्वत: अभिव्यक्त है कि मातापिता कन्या के लिये हर दृष्टिकोण से योग्य वर के लिये स्वयं अत्याधिक—प्रयत्नशील, उद्यमी होकर, योग्यवर प्राप्त होने पर ही उसका विवाह करते हैं। अत: कन्याओं के लिये मातापिता, परिवार जनों से निश्चित किया गया विवाह ही श्रेष्ठ एवं सामाजिक दृष्टि से सम्मानजनक है। पद्मपुराण में जहां अनेक स्थलों पर तरुणियों ने स्वयं वर पसन्द कर विवाह किया, वहां भयंकर युद्ध अवसर उपस्थित हुए।१० विवाह के उपरान्त नारी को पति के मन, हृदय—इच्छा के अनुरूप जीवन—साधना में संलग्न हो जाना चाहिए। उच्च—कुलों की मनीषी नारियाँ पति के अभिप्राय के अनुसार ही परिवार—निर्णयों में उत्साह से भाग लेती है।११ महाभारत १२ में पतिव्रता नारी को निर्देशित किया गया है ‘‘जो हृदय से अनुराग के कारण स्वामी के आधीन रहती है, चित्त को प्रसन्न रखती है, देवता के समान पति की सेवा और परिचर्या करती है, पति के लिये सुन्दर वेश धारण करती है, प्रसन्नचित्त रहती है तथा जो स्वामी के कठोर वचन कहने या दोषपूर्ण दृष्टि से देखने पर भी प्रसन्नता से मुस्कराती रहती है, वही पतिव्रता स्त्री है।’’ कवि कुल गुरु कालिदास ने उपदेशित किया है कि ‘नारी का सौन्दर्य एवं वेष तब ही सार्थक है, जब वह पति को प्रसन्नचित्त कर दें।’’ पति के साथ सुख दु:ख में समभाव से सहभागी होनी चाहिए। पति के कष्टों में होने पर कुलवती नारियों के मुख शोक से कान्ति हीन हो जाते हैं१३ कष्ट आने पर नारी को धैर्य धारण कर बुद्धि से कार्य करते हुए समस्याओं का निराकरण करना चाहिए। क्रोध, उतावलेपन एवं द्वेष की अग्नि परिवार को भस्म कर देती है। पर—स्त्री आसक्त दशानन को पति के कल्याणकारी भविष्य निर्माण की इच्छुक उसकी अग्रमहिषी रानी मन्दोदरी धैर्य व कुशलता से अपने पति के गुणों एवं चरित्र की प्रंशसा करते हुए, व्यवहारिक व ऐतिहासिक कथानकोें एवं उपमाओं से सदमार्ग पर लाने के प्रयास में लगी रहती है।२ मन्दोदरी रावण से प्रार्थना करती है— ‘‘हे विद्वान! हे सुन्दर! …….हे यशस्विन्!विष के समान दुष्ट निन्दनीय तथा परम अनर्थ का कारण जो यह लोकापवाद है, इसका परित्याग करो’’—इस प्रकार प्रयत्न करती तथा उसका परम हित चाहती हुई, मन्दोदरी हस्तकमल जोड़कर रावण के चरणों में गिर पड़ी।३ वास्तव में पतिव्रता नारी प्रारम्भ मेें पति के द्वारा स्नेह से वंचित होने पर भी धैर्य से पति के सुखों की कामना करती हुई, कालान्तर में पति के असीम स्नेह को प्राप्त होती है। सती अन्जना पति के विमुख होने पर भी पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए पति के स्नेह की आकांक्षा रखती है। युद्ध में जाते समय उसका पति अपशब्दों का प्रयोग करता है, तो भी वह शान्ति एवं धैर्य से हाथ जोड़कर प्रार्थना करती है—‘‘हे नाथ! इस महल में रहते हुए भी मैं आपके द्वारा त्यक्त हूं, फिर भी मैं आपके समीप ही रही हूं इतने मण से ही सन्तोष धारण कर अब तक बड़े कष्ट से जीवित रही हूं, पर हे स्वामिन अब आपके दूर गन करने पर मैं आपके सद् वचनरूपी अमृत के स्वाद बिना किस प्रकार जीवित रहूंगी।।’’४ उदार नारी स्वभाव को धारण कर अञ्जना ने कालान्तर में पति का ऐसा स्नेह प्राप्त किया, जिसे प्राप्त करने वाली नारियो सर्वस्व प्राप्त कर, स्वर्गानुभूति करते हुए, ऐतिहासिक बन जाती हैं।५ निर्दोष सती जानकी, राजा राम द्वाराधोखे से जंगली, हिंसक पशुओं से व्याप्त भयंकर वनों में परित्यक्त कर देने पर भी राम के सुखों की कामना करती है।६ स्नेह समन्वित , आगमानुचित, कल्याणकारी, श्रद्धायुक्त भावनाऐं अभिव्यक्त करते हुए कहती है—‘‘हे गुण भूषण! यद्यपि आत्महित को नष्ट करने वाले अनेकानेक विचारों का स्मरण करेंगे, परन्तु पागल की भांति उन्हें हृदय में धारण नहीं करना, विचार पूर्वक ही कार्य करना,….कभी विकार को प्राप्त नहीं होने से सूर्य के समान सबको प्रिय रहना…..क्षमा से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को कृश करना। हे नाथ! आप तो समस्त शास्त्रों में प्रवीण हैं। अत: आपको उपदेश देना योग्य नहीं है। यह जो मैंने कहा है वह आपके प्रेम रूपी ग्रह से संयोग रखने वाले मेरे हृदय की चलता है।’’७ महापुराण में चित्रित किया गया है कि अत्यधिक धैर्यशाली नारी, पर—स्त्री में संलग्न अपने पति के कठोर शब्दों में युक्त सन्देश को भी चुपचाप सहन कर रही थी।८ पत्रिव्रता नारी अन्तोगत्वा परिवार को संजोए रखने में सफल होती है। उसकी अनुपस्थिति में पति उसके गुणों , चरित्र , कार्य—क्षमता आदि गुणोें को स्मरण कर दारुण विलाप में संलग्न हो जाता है। राम, सीता के वियोग में कहते हैें कि ‘‘सूर्य के बिना आकाश क्या? और चन्द्रमा के बिना रागी क्या? इसी प्रकार स्त्री रत्न के बिना अयोध्या क्या?१ सती अञ्जना को न पाकर पवनंजय का हृदय वङ्का से चूर्ण हो गया, कान तपाये हुए खारे पानी से भर गये और वह स्वयं निर्जीव की भांति निश् चल रह गया। शोक—रूपी तुषार के सम्पर्वâ से उसका मुख कमल की भांति कान्ति रहित हो गया।२ इस तरह नारी पति के जीवन का एक पूरक अंग है। महाभारत में युधिष्ठिर को नीति का उपदेश देते हुए, पितामह भीष्म ने कहा कि ‘‘संसार में स्त्री के समान कोई बन्धु नहीं है, स्त्री के समान कोई आश्रय नहीं है और स्त्री के समान धर्म—संग्रह में सहायक भी कोई दूसरा नहीं है।’’३ अस्तु नारी के बिना मनुष्य का जीवन निरर्थक है , नारी विहीन पुरुष को सन्यास लेकर जंगलों में चला जाना चाहिए।४ नारी को अपने शील की सुरक्षा के लिये सबसे अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए। कुमार्ग पर चलने वाली नारी अपने परिवार का विनाश कर देती है। राजा नलकुवार की नारी उपरम्भा रावण पर आसक्त हो गयी, उसने रावण को पाने के अभिलाषा में अपने पति को रावण से पराजित करा दिया, फिर भी वह अपनी पापमयी, भोग इच्छा पूर्ण न कर सकी और अपने चरित्र को कलंकित बना लिया।५ नारी का चरित्र, शील नैतिक जीवन परिवार के लिये अतिआवश्यक है। पतिव्रता शीलवती नारी परिवार में ही अद्वितीय स्थान प्राप्त कर परिवार संचालन में ही सफल नहीं होती है, वरन् समाज और राष्ट्र में भी उसका त्याग, संयम, अनुकरणीय एवं पूज्य होता है। नारी शीलव्रत के पालन से स्वर्गगामिनी होती है।६ पति त्यक्ता सीता, सती—शीलवती नारी थी, तब ही पराये घर में राजा की कान्ति को धारण करने वाले बड़े—बूढ़े लोग भेंट ले लेकर उसकी वन्दना करते थे। देवतुल्य राजा उसे प्रणाम कर पर—पद पर उसकी अत्यधिक प्रशंसा करते हुए कहते थे कि—‘‘हे मान्ये भगवति! हे श्लाध्ये! तुम्हारे दर्शन से हम संसार के प्राणी निष्पाप और कृत—कृत्य हो गये।७ अस्तु मानव को पतिव्रता, शीलवती नारी का आदर करते हुए उसकी सुरक्षा करनी चाहिए यही मानव धर्म है।८ नारी को पति—कुल में इस तरह समाहित हो जाना चाहिए, मानों वह जन्म से ही उसका एक अंग है। वह अन्यत्र किसी घर से नहीं आई है। पतिकुल के सभी सदस्यों को यथा योग्य पिता— माता, भाई—बहन के अनुरूप मानकर अतिस्नेह से प्रेममयी स्नेह समन्वित प्रीति—कुल का आदर्श—स्थापित करना चाहिए। सास को माँ के समान मानकर आदर से सास के चरणों में नमस्कार कर उसकी सेवा करनी चाहिए।९ सीता अपनी सास को अत्यधिक प्रिय थी, क्योंकि वह अपने सास को माता तुल्य मानकर उसकी सेवा पूजा करती थी। सास को भी अपनी बहू को स्व—पुत्री के समान स्नेह देना चाहिए। रानी कौशल्या ने हृदय से एक आदर्श सास का चरित्र प्रस्तुत किया है। वह सीता के वियोग में इतनी व्याकुल है, मानों उसकी स्वयं की पुत्री उससे दूर है। वह दारुण विलाप करते हुए कहती है—‘‘सुख से जिसका लालन पालन हुआ तथा जो वन की हरिणी के समान भोली है, ऐसी राजपुत्री बेटी सीता बन्दीगृह में पड़ी हुई दु:ख से समय काट रही होगी……..हाय मेरी पतिव्रते बेटी सीते! तुम समुद्र के मध्य इस भयंकर दु:ख को कैसे प्राप्त हो गयी?’’१ सती अञ्जना के गर्भवती होने पर उसकी सास ने धैर्य और बुद्धि से कार्य नहीं किया। उसने निर्दोष अञ्जना पर चरित्रहीन का आरोप लगाकर घर से बाहर निकाल दिया।२ अञ्जना दीन वचनों से अपनी सास के प्रति मन में कोई अनादर की भावना न रखते हुए उसके उतावलेपन को स्पष्ट करते हुए स्मरण करती है—‘‘हे सास! बिना परीक्षा किये ही उपाय हैं।३ यही अंजना की सास जब सत्य से परिचित होती है, तो घर का विनाश की सीमा पर पहुँचने की अवस्था में पश्चाताप करते हुए स्वीकार करती है ‘‘कि सत्य को जाने बिना मुझे पापिनी ने क्या कर डाला, जिससे पुत्र जीवन संशय को प्राप्त हो गया।’’४ नारी को पति—बहन (ननन्द) के प्रति भी अति स्नेह का भाव रखते हुए उसके सफल भावी जीवन में सहायक होना चाहिए। रावण की बहन चन्द्रनखा को जब विद्याधर राजा हर कर ले गये, रावण उन्हें मारने के लिये उद्यत होकर युद्ध करने के लिये चला , तो मन्दोदरी ने अपनी ननन्द के उचित भविष्य के स्वरूप की व्याख्या करते हुए, रावण को स्नेह से समझाया।५ अत: वास्तव में घर—परिवार का स्थायित्व एवं परम सुख तभी विद्यमान रहता है, जब घर में सभी नारियां राग द्वेष से मुक्त होकर, धैर्य, लज्जाशील, बुद्धि—प्रवीण होकर, एक दूसरे का गहन विश्वास कर, गृहस्थ—कार्यों की पूर्ति धर्मानुकूल करने में प्रयत्नशील होकर, परिवार, कुल—वंश, के सम्मान की सुरक्षा में अपने व्यक्तिगत हितों को गौण कर तत्पर हो जाती है। परिवार में नारी का पति के भाइयों के साथ उज्जवल सम्बन्ध होते हुए नैतिक आदर्शों, मधुर, स्नेह एवं सम्मान से युक्त व्यवहार होना चाहिए। पति के ज्येष्ठ भ्राता (जेठ) को पिता तुल्य मानकर, उनकी आज्ञाओं के पालन में सचेत हरना चाहिए। भरत के गृह—परित्याग के समय भरत की रानियां—अपने जेठ राम की आज्ञा मिलने पर ही उपस्थित हुर्इं थी।६ देवर लक्ष्मण अपनी भाभी सीता का मां तुल्य आदर करते हुए, उनको चरणों में नमस्कार करते थे, सीता भी लक्ष्मण को महाज्ञानी मानकर अतिस्नेह एवं आदर करती थीं।७ भरत जब दीक्षा लेने के लिये उद्यत होता है, तो उसकी भाभियां हार्दिक स्नेह से उससे परिवार में ही रहने की प्रार्थना करती हुई कहती हैं—‘हे देवर! हम पर प्रसन्न होईये हम लोग आपके साथ जलक्रीड़ा करना चाहती हैं।’८ लक्ष्मण ने एक निस्वार्थी ईष्र्यारहित, बुद्धिमान देवर के आदर्श का परिचय तब दिया, जब राम, सीता के परित्याग का विचार विमर्श उनके साथ कर रहे थे। लक्ष्मण ना केवल स्नेह से वरन् बुद्धि से कहते हैं कि हे राजन्! सीता के विषय में शोक नहीं करना चाहिए, समस्त सतियों के मस्तक पर स्थित एवं सर्व प्रकार से अनिन्दित सीता को आप मात्र लोकापवाद के भय से क्यों छोड़ रहे हैं?…..कुत्ते के भौंकने से हाथी लज्जा को प्राप्त नहीं होता है…..चुगली करने में एवं दूसरों के गुणों को सहन नहीं करने वाला दुष्ट— कर्मादुष्ट मनुष्य निश्चित दुर्गति को प्राप्त होता है।’९ परिवार में लक्ष्मण और सीता का देवर—भाभी सम्बन्धी स्वरूप अति आदर्शमयी शिक्षा—प्रद है। भाभी के शील, गौरव, चरित्र एवं उज्जवलता की सुरक्षा करने वाले लक्ष्मण जैसे देवर का निर्मल चरित्र, आधुनिक युग के परिवारों के लिये अत्यधिक अनुकरणीय है। नारी को पति—कुल को ही अपना स्थायी घर समझकर अपने पितृकुल को आवश्यकता से अधिक महत्व न प्रदान कर सद् बुद्धि से कार्य करना चाहिए। स्त्रियों को भाई—बन्धुओं के घर अधिक रहने से उनके कीर्ति, शील तथा पतिव्रत धर्म का नाश होता है।१डा० शकुन्तला तिवारी लिखती हैं कि ‘‘भारतीय धर्म—शास्त्रों में स्त्री को पति के घर में ही अधिक रहने से स्त्री की मान—मर्यादा बढ़ती है।’२ व्यवहार में देखने में आता है कि सती; शीलवती पतिकुल त्यक्त नारी को उसके स्नेही माता— पिता भी सम्मान न देकर अपने घर से ही विदा कर देते हैं। सती अंजना के पिता राजा महेन्द ने पतिकुल से त्यक्त प्रिय पुत्री से भेंट किये बिना ही एवं सत्य का अवलोकन किये बिना ही उसे पापकारिणी की संज्ञा देते हुए घर में घुसने ही नहीं दिया।३ अत: नारी जीवन का यही संयम—व्रत होना चाहिए कि पतिकुल में कष्टोें को सहन करते हुए भी शान्ति सन्तोष, उत्साह, आशा से प्रीतिमय वातावरण स्थापित कर घर को स्वर्ग—तुल्य बनाना चाहिए। घर में अपने पितृकुल के सदस्यों से अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं कराना चाहिए। नारी के जीवन का सबसे एक अन्य महत्त्वपूर्ण पद माता के रूप में है। जहां नारी सन्तान को सुयोग्य बनाकर अपने हृदय के प्रेम—स्नेह की क्षुधा को शान्त कर, अपने कत्र्तव्यों का पालन करती है, वहां समाज एवं राष्ट्र के लिये एक सुचरित्र सशक्त युवा—पीढ़ी का निर्माण करती है, जिस पर राष्ट्र का भविष्य टिका हुआ है। माता को सर्वश्रेष्ठ बन्धु की भी संज्ञा दी गयी है।४ माता का कत्र्तव्य है, कि सन्तान को समयानुकूल शिक्षा दे जिससे उनका भविष्य कल्याणमय हो। सीता ने अपने दोनों पुत्रों को युद्ध में उद्यत होने पर रोकते हुए कहा—‘हे बालकों! यह तुम्हारा युद्ध के योग्य समय नहीं है, क्योंकि महारथ की धुरा के आगे बछड़े नहीं जोते जाते हैं।५ महान तपस्विनी, मनीषिनी, सती सीता ने पुत्रों का पिता से मिलन होने के उपयुक्त अवसर पर समझाया—मैं वन में छोड़ी गयी हूं,’ इसका विवाद मत करो। पिता के साथ विरोध करना रहने दो……..बड़ी विनय के साथ जाओ, और नमस्कार कर पिता के दर्शन करो—यह मार्ग न्याय संगत है।’६ संकटग्रस्त काल में भी माता का कर्तव्य है कि वह सन्तान को सुयोग्य पथ की ओर ही अग्रसर करे। एक पतिव्रता ब्राह्मणी स्त्री, जो विधवा और दुखों से पीडित थी वह अपने पुत्र के शिक्षा प्राप्त करने में उद्यमी न होने के कारण, दु:खी होकर उससे पिता की विद्वत को स्मरण दिलाकर स्नेहपर्वूक विद्या प्राप्त करने का आग्रह कर रही थी७ अत: आमा के रूप में नारी को बुद्धि से सन्तान के भविष्य निर्माण के प्रति सचेत होकर, उनमें चारित्रिक गुणों का विकास कर,उनकी जीवन साधना को आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक—गुणों से विभूषित करने में तत्पर रहना चाहिए। इस तरह नारी का जीवन परिवार संचालन में मुख्य भूमिका रखता है। नारी की अवहेलना से परिवार छिन्न—भिन्न हो जाता है। नारी का जीवन परिवार संचालन में मुख्य भूमिका रखता है। नारी की अवहेलना से परिवार छिन्न—भिन्न हो जाता है। नारी वास्तव में पृथ्वी के समान परिवार की पालक है। नारी को सामान्य बुराईयों का परित्याग कर गम्भीरता से अपने कत्र्तव्य पालन में सजग रहना चाहिये। पुराणकार एक नारी के जन्मों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि ‘गुणवती’ समीचीन—धर्म से रहित हो, कर्मों के प्रभाव से तिर्यंचयोनि मेें चिरकाल तक भ्रमण करती रही। वह मोह, निन्दा, स्त्री पर्याय सम्बन्धी निदान तथा आजाद आदि के कारण बार—बार तीव्र दु:ख से युक्त स्त्री—पर्याय को प्राप्त करती रही।१ निरर्थक पर—निन्दा में रत नहीं करना चाहिए। वेदवती नाम की रानी मुनि पर झूठा आरोप लगाकर पर—निन्दा करने से रोग ग्रस्त हुई।२ प्रवीण नारी को निरर्थक गृह—कलह में अभिवृद्धि करने वाले सत्य—तथ्यों को चतुरता एवं गम्भीरता से छिपाकर परिवार की सुरक्षा करनी चाहिये। समयानुवूâल गम्भीर सत्य रहस्यों को प्रकट करने में तत्पर रहनाप चाहिये। जिससे परिवार में सुदृढ़ता एवं एकता बनी रहे। सीता उचित अवसर आने पर अपने पुत्रों को नि:संकोच भाव से अपना पूर्व चरित्र बताते हुए, भावी विनाशकारी युद्ध को रोक कर पितृकुल से मिला दिया।३ अत: नारी धैर्यशील होकर, चंचलता का पत्यिाग कर बुद्धिमानी से परिवार का संचालन कर घर में धर्मसागरमयी वातावरण बनाकर स्वर्ग की स्थापना कर सकती है। इस स्वर्गमयी, धर्मसागर में परिवार के ही नहीं अपितु सम्बन्धित अन्य व्यक्ति भी समाहित होकर स्व जीवन का कल्याण कर सकते हैं। अस्तु नारी का गृह संचालन में सर्वोपरि स्थान है।
१. महाभारत—आदिपर्व—७३/५, तृतीय सं० ।
२. जनको भर्ता पुत्र: स्त्रीणामेतावदेव रक्षा निमित्तम्। रविषेणाचार्य—पद्मपुराण—७८/९ भारतीय ज्ञान पीठ।
३. पद्मपुराण—८/३२ से ३८।
४. पद्मपुराण—८/३४ से ३५।
५. पद्मपुराण—१९/१११ से ११५।
६. पद्मपुराण—८/४—५, १०/७ से १०। देखिये, पुष्पदन्त—जसहरचरिउ—१/२५/१० से १५, सं० एवं अनु० पण्डित हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी।
७. विचिन्तयन्तौ पितरौ च तस्या योग्यं वरं शोभनविभ्रमाया: नत्तंक न निद्रां सुखतो लभेतां दिवा…….पद्मपुराण—१९/११०।
८. पद्मपुराण—१५/२० से २४, १५/८२ से ८५ तक।
९. पद्मपुराण—१०१/१३ से १७ तक।
१०. पद्मपुराण—८/१०० से १२५ तक, ९/२४ से ३० तक।
११. भर्तुच्छान्दानुवर्तिन्यो भवन्ति कुल बालिका (पद्मपुराण ८/११, १७/ ७०)
१२.महाभारत—अनुशासन पर्व १४६/४१—४२।
१३. जिनसेनाचार्य—महापुराण ३५/१५१, भारतीय ज्ञानपीठ काशी
१४. पद्मपुराण ७३/२१ से ११४ तक।
१५. पद्मपुराण ७३/११५—११६।
१६. पद्मपुराण १६/८० से ९२ तक।
१७. पद्मपुराण १६/१७० से २३०,१८ वां पर्व भी देखिये।