यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।
चार्वाकमत के रूप में प्रसिद्ध कथन।
प्राय: संपूर्ण विश्व इस विचारधारा से ग्रस्त है। दूसरी धारा त्यागमयी या निवृत्तिपरक है। इस धारा का उद्देश्य अनन्त एवं असीम भोगों को भोगना और भोगने की इच्छा नहीं, अपितु उन अनन्त एवं असीम भोगों को त्यागना और परिमाण में भोगना है। इस निवृत्तिपरक धारा का प्रतिनिधित्व निग्र्रंथ या जैन परम्परा करती है। निग्र्रंथ परंपरा में मान्य गृहस्थ श्रावक उक्त दोनों परंपराओं के बीच की स्थिति में होता है। यह श्रावक भोगों का पूर्णत: त्यागी न होकर उनकी मर्यादाएँ तय करता है, परिमाण निश्चित करता है। इन्हीं भावनाओं के अन्तर्गत उसके अहिसादि बारह व्रत, अष्टमूलगुण, षडावश्यक आदि आते हैं। श्रावक या श्राविका शब्द का सामान्य अर्थ है सुनने वाला या सुनने वाली। वह आचार्य आदि परमेष्ठी गुरुओं से र्धािमक उपदेश को सुनता या सुनती है। तीर्थंकर रूप परमगुरु की समवशरण सभा में भी यही गृहस्थ मनुष्य धर्मोपदेश का श्रोता होता है। इसीलिए श्रावक की परिभाषा करते हुए कहा गया है—शृणोति गुर्वादिभ्यों धर्ममिति श्रावक:।श्रावकाचार : दिशा और दृष्टि, अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ट्रस्ट, जयपुर सन् २००३, पृष्ठ २३ पर उद्धृत। इस प्रकार श्रावक शब्द का अर्थ सामान्य गृहस्थ से उत्कृष्ट और अर्थगंभीर वाला है। अन्यत्र भी श्रावक की यही परिभाषा की गई है—शृणोति धर्मतत्त्वं य: परान् श्रावयति श्रुतम्।
श्रद्धावान् जैनधर्मे स: सत्क्रियश्रावको बुध:।।
मद्य—मांस मधुत्यागै: सहाणुव्रतपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहूग्र्रहिणां श्रमणोत्तमा:।।.
रत्नकरण्डश्रावकाचार, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् सन् १९९४, श्लोक ६६
आर्चा जयसेन ने अष्टमूलगुणों में पाँच अणुव्रतों के साथ मद्य एवं मांस को स्वीकार करते हुए मधु के स्थान पर द्यूत (जुआ) के त्याग का उपदेश दिया है। कुछ आचार्यों ने (शिवकोटि, जयसेन, अमृतचन्द्र, सोमदेव, रइधू आदि ने) पाँच उदम्बर (बड़, पीपल, गूलर, कठूमर, ऊमर) फलों के त्याग के साथ मद्य, मांस एवं मधु के त्याग को श्रावक के अष्ट मूलगुण बताया है। पं. आशाधार ने तो मद्य, मांस, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पाँच उदम्बर एवं बहुजीवी फल त्याग, नियमित देवदर्शन, जीवदया एवं जलगालन, ये आठ मूलगुण गिनाए हैं।श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि,पृ. ८—९।, पण्डितप्रवर आशाधर ने श्रावक या श्राविका धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि दोष रहित सम्यक्त्व, अतिचार (दोष) रहित अहिसादि पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों (दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत) और चार शिक्षाव्रतों (सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाणव्रत) तथा मरते समय विधिपूर्वक सल्लेखना व्रत ग्रहण, यह सब सागार या श्रावक धर्म कहलाता है—सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते।
सल्लेखना च विधिना पूर्णसागारधर्मोयम्।।
सागारधर्मामृत, श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, पृ. १५१ पर उद्धृत।
श्रद्धा, विवेक और शुद्ध आचरण पूर्वक उपर्युक्त व्रतों (नियमों) का पालन करना तथा अहिंसादि महाव्रतों आदि को धारण करने की भावना (वह घड़ी कब पाऊँ मुनिव्रत धर वन को जाऊँ) भाते रहना और उसके अनुसार प्रयत्नशील रहना, श्रावकाचार है। इस प्रकार श्रावकाचार मुनि योग्य महाव्रतों को धारण करने का आधार है। यहाँ पर अनर्थदण्डव्रत नामक गुणव्रत एवं अतिथिसंविभाग नामक शिक्षाव्रत के विशेष संदर्भ में श्रावकाचार की चर्चा की जा रही है।विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्।
पापोपदेशदान कदाचिदपि नैव वक्तव्यम्।।
वही, पद्य १४२
अत: गृहस्थ श्रावकों को इस तरह के उपदेश—सलाह आदि का त्याग कर देना चाहिए। कुछ शास्त्रकारों का तो यह भी कहना है कि हिसा, झूठ, खेती—व्यापार एवं स्त्री—पुरुष समागम आदि से संबद्ध समस्त उपदेश आदि वचन व्यापार पापोपदेश के अन्तर्गत हैं—जो उवएसो दिज्जदि किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु।
पुरसित्थीसंजोए अणत्थदण्डो हवे विदिओ।।
र्काितकेयानुप्रेक्षा, राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, सन् २००५ पद्य ३४५ एवं टीका।
एक समय था जब व्यापार—उद्योग आदि का निर्णय करते समय यह विशेष ध्यान रखा जाता था कि अमुक व्यापार या उद्योगादि मेंहिंसा तो नहीं होगी परन्तु आज कितने लोग हैं जो इन सब बातों पर विचार करके व्यापारादि कार्य करते हैं।पयसा कमलं कमलेन पय: पयसा कमलेन विभाति सर:।
मणिना वलयं वलयेन मणि: मणिना वलयेन विभाति कर:।।
सुभाषित (अज्ञात)
उसी प्रकार श्रावक—श्राविकाओं से मुनि—आर्यिकाओं,साधु—साध्वियों की शोभा है, अस्तित्व है और मुनि—आर्यिकाओं अथवा साधु—साध्वियों से श्रावक—श्राविकाओं की शोभा है तथा मुनि आर्यिकाओं और श्रावक—श्राविकाओं से समाज, संघ व राष्ट्र की शोभा है, वशर्ते कि दोनों अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करें और अपने—अपने कत्र्तव्यों को समझें। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैनसंघ एवं संस्कृति में श्रावक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जैन साहित्य में निर्देषित श्रावक की आचार संहिता आज के अर्थप्रधान भौतिकवादी युग में और अधिक प्रासंगिक हो गयी है। श्रावकाचार विषयक व्रतों/नियमों का पालन करने से व्यक्ति स्वयं सुख, शांति एवं संतोष का अनुभव तो करता ही है, उसके साथ रहने वाले और संपर्क में आने वाले जन भी उससे प्रभावित होते हैं तथा सुख, संतोष एवं शांति का अनुभव करते हैं। श्रावकाचार के पालन से व्यक्ति घर, समाज एवं देश का सभ्य, सुशील एवं अनुकरणीय नागरिक बन जाता है और अन्त में अपने व्यक्तिगत, सामाजिक, र्धािमक कत्र्तव्यों का आचरण करते हुए आत्म कल्याण कर सकता है। परन्तु आजकल जिस तरह परंपरागत मूल्य एवं मर्यादाएँ निरंतर टूट रहीं हैं, उससे लगता है कि यदि यही क्रम रहा तो जिनधर्म एवं संस्कृति का ह्रास व लोप भी हो सकता है, अत: सभी को सतर्क जागृत एवं संभलने की जरूरत है। १६. सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् २००३, ७.२१.७०३ एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ७८। १७. रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ७९