दृष्टं जिनेन्द्र भवनं सुर-सिद्ध-यक्ष-
गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा ।
संगीत मिश्रित-नमस्कृत- धीर नादै
रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालमू । ।
दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विलसीद्वलोल,
मालाकुलातिललितालक विभ्रमानमू ।
माधुर्यवाद्यलय नृत्य विलासिनीनामू,
लीलाचलद् वलय नुपूर नाद रम्यमू । ।
जैनालयेषु संगीत पटहाम्भोद निस्स्वैन: ।
यत्र नृत्यन्त्य कालेऽपि शिखिन: प्रोन्मदिण्णव । । (४ ?७ ७)
अर्थात्( जैन मंदिर में संगीत के समय जो तबले बजते हैं, उनके शब्दों को मेघ का शब्द समझकर हुर्षोन्मुक्त हुए मयूर असमय में ही, ऋतु के बिना ही नृत्य करने लगते हैं ।यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे,
यद् दीक्षाग्रहणोत्सवे, यदखिलज्ञान प्रकाशोत्सवे ।
यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद् भुव तद्भवै,
संगीत स्तुति मंगलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव: । ।
यो वीतरागस्य परात्मनोऽपि, गुणानुबद्ध गणराग शुद्धम् ।
पुण्यैक लोभात् परया च भक्त्या, गायेत संगीत स तु मुक्तिगामी ।।
इसी ग्रंथ में एक और प्रसंग आया हैसगीतोपनिषद- पद (४/१) जिसका सार-सारांश इस प्रकार है । तीर्थकर के समवशरण सभा में, स्पर्धा पूर्वक सम्मलित स्वर्ग की अप्सराओं ने तत, धन, सुबिर और आनद्ध (अर्थात् क्रमश: वीणा, काँस्य, वंशी और मुरज) इन चार वाद्यों के साथ किये गये नृत्य में उपस्थित जन समूह को प्रसन्न किया । किन्तु इस ललित नृत्य से भी अधिक सुखकर तीर्थकर की दिव्यध्वनि है, जिसे सुनकर सर्वोत्तम आनंद की प्राप्ति होती है ।भूपालयिद धन्वासियिंद सर्व । भूपालि गोडेयन मुदे ।
श्री पुरुनाथ पाडिदरेल्लर । पापलेपव नैदुवंते । ।
अर्थात् संगीत विशारदों ने भूपाली तथा धन्वासी राग मेँ, राज समूह अधियति भरत चक्रवर्ती के सन्मुख श्री वृषभदेव तीर्थकर की स्मृति करते हुए, इस प्रकार गायन किया कि जिसे सुनकर सब श्रोताओं के पाप नष्ट हो जाएँ ।शिव: शिवपदाध्यासात् दुरितारि हरो हर: ।
शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्व भवन्मुखे । ।सहस्रनाम । ।
आचार्य जिनसेन स्वामी ने आदिपुराण में लिखा है कि ऋषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसैन को गीत, वाद्य तथा गान्धर्व विद्या की शिक्षा दी,जिस शास्त्र के सौ अध्याय से ऊपर हैं ।
विभुर्वृषभसेनाय गीतवाद्यार्थ संग्रहम् ।
गन्धर्व शास्त्र माचख्यौ, यत्राध्याया पर: शतमू । ।
(आदिपुराण – १ ६/१ २०)नीलयशा नाम एक, देवी मर्घवा पाठाय, आयु जाकी अंतर महूरत प्रमानिये ।
गावत सुकंठ गीत, नाचत संगीत ताल, बाजत मृदंग वीन, बांसुरी बखानिये ।
नटति नटति आयु पूरी खिर गई देह, देखि जिननाथ जग नाशवान जानिये ।
राजकाज त्याग कीजे, आत्मीक रस पीजे दीजे दुख लीजे सुख, मोह कर्म भानिये । ।
श्री वृषभदेवपुराण 9