प्राचीन कलाओं में भारत में मूर्तिकला सर्वाधिक लोकप्रिय थी । यह मानव जीवन के अभिन्न अंग के रूप में लौकिक परम्पराओं में व्याप्त थी । भारतीय जीवन के विभिन्न .आदर्शो की प्रगति ही मूर्तिकला का उद्देश्य रहा है । मूर्तिकला में हमारी धार्मिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ समाहित हैं । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का समन्वय ही भारतीय मूर्तिकला का आदर्श है । भारतीय कला विशेषकर धर्म से ज्यादा प्रभावित रही है और वैष्णव, बौद्ध, शाक्त्य जैनधर्म आदि धर्मो ने इसे विषय प्रदान किये और इसने भी इनके प्रचार-प्रसार में अपना सहयोग दिया । भारतीय मूर्तिकला विशेषत: काम सत्य है । मूर्तिकला अपनी विविध रूपों से मानव को आह्लादित कर उसमें स्वस्थ मानसिकता का विकास करती है । कला में इच्छा का अपना महत्व है । मूर्तिकला हो या चित्रकत्ना – मनु ने कहा था कि कामाभाव में कोई कर्मसंभव नहीं है । व्यक्ति जो भी कर्म करता है वह इच्छा से ही प्रेरित होता है ।
काम से ही बौद्धिक प्रगति होती है और कल्पनाएँ साकार रूप लेती है । सर्वप्रथम इस बात पर ध्यान दें कि मूर्ति निर्माण के दो उद्देश्य रहे हैं – (१) अतीत का संरक्षण अर्थात् स्मृति को जीवित रखने की (२) अव्यक्त की मूर्त अभिव्यक्ति के लिए । कला सामान्यत: व्यंग्यात्मक होती । कृत्रिमरूप की रचना करना मानवोचित स्वभाव सा है । वृक्ष की एक टहनी को वृक्ष मान लेना, पत्ते का बैल बनाकर आनन्द मनाना, पत्र की नाव बनाकर, उसे पानी में बहाकर तालीपीटना आदि । यही व्यंग्य आध्यात्मिक और धार्मिक भावनाओं के उच्च स्तर का आश्रय लेकर मन्दिर और मूर्ति को पूज्यता प्रदान करने तथा उसमें देवताओं की प्रतिष्ठा करने का प्रधान कारण होती है ओं अ भारतीय मूर्ति में व्यंजना की अद्भुत क्षमता है । यहाँ के कलाकारों नै मूर्ति को अत्याधिक शालीन रूप में प्रस्तुत किया है । सैन्धव काल से. वर्तमान काल तक की अवधि में देशकाल परिस्थिति के अनुसार मूर्तिकला ने अनेक शैलियों में जन्म लिया है । मुरर्ति की शैली में जब-जब परिवर्तन हुआ वह एक युग विशेष की पहचान हो गई । यहाँ, पत्थर का तक्षण करके, धातु को ठालकर, ठप्पा लगाकार, हाथ से बेनी मिट्टी की मूर्तियाँ मिलती है । भारतीय कला में जैन धर्म का विशेष प्रभाव रहा है चाहे चित्रकला हो, चाहे मूर्तिकला जैन दर्शन ने कलाकार की अभिव्यक्ति के लिए उसे अनुभूति के दर्शन का विषय दिया है । मानसिक, इन्द्र कल्पनाओं एवं अनुभूतियों को जब वह साकार करता पै तो निश्चय ही वह दर्शक को कुछ उत्कृष्टता सिद्धि प्रदान करना चाहता है । जैन मूर्तिकला में वास्तव मैं आध्यात्मिक भावना मूर्ति के अन्त: सै झाँकती रहती है, इसलिए यह मूर्तिकला विचार या भाव प्रदान मानी गई है । जैन धर्म की आत्मा उसकी मूर्तिकला में स्पष्ट झलकती है । जैन धर्म में जैन स्थल, मन्दिर मूर्तियाँ, उपासनास्थल या तो पर्वतों की चोटियों पर होते है अथवा शान्त, सुरम्य, हरे-भरे स्थलों में स्थित होते हैं । मूल्त: यह भाव एकाग्र, ध्यान और आध्यात्मिक चिन्तन में सहायक होता है ।२ इन्हीं स्थानों पर मन्दिरों की स्थापत्य .कला और सबसे अधिक मूर्तिमान तीर्थङ्कर मूर्तियाँ व अन्य जैन धर्म की मूर्तियाँ अपनी शांति एकाग्रता, तप व वीतराग के भाव का परम आनन्द प्रदान करती है । जैनधर्म की मूर्तियाँ जैन दर्शन के साथ-साथ उनके निर्माणकर्ताओं की कलासाधना को भी दर्शाती है । विभिन्न क्षैत्रों से प्राप्त कलात्मक मूतियों में जैनकला कावैशिष्ट्य देखने में ‘आता हैं । तीर्थङ्कर भगवतों के दोनों पार्श्व में यक्ष-यक्षणियों की कल मूर्तियाँ मुख्यत: जैन तीर्थङ्करों तथा कला शिल्पियों के लोकजीवन के प्रति अनुराग की प्रतीक है जैन धर्म से सम्बन्धित कई गंथ हैं जिनमें’ इन मूर्ति के शास्त्रीय नियमों का ज्ञान प्राप्त होता है । निर्वाण कलिका, प्रतिष्ठा सारोद्धार, अभिज्ञान चिन्तामणि, वास्तुसार प्रकरण, मानसार, अपराजितपृच्छा, रूपमण्डन, देवतामूर्तिप्रकरण आदि । इन गन्धों में मूति, .वास्तु व स्थापत्य का विवरण दिया गया है । जैन धर्म के आद्य प्रर्वतक भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में प्रमाणित विवरणसर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है । यहाँ उनका उल्लेख .अपने अधीनस्थों को समृद्धि प्रदान करने वाले राजा के रूप में किया गया है । उस समय अधिकांश जैन तीर्थकर क्षत्रिय थे और राजवंशों से सम्बन्धित थे? वैदिक साहित्य में जैनधर्म को स्वंतत्र अस्तित्व के रूप में निश्चित संकेत नहीं है । वैदिक काल के उपरान्त पौराणिक काल में आकर भी जैन तीर्थङ्कर स्वयँ को ब्राह्मण देवताओं से पूर्णतया पृथक नहीं कर पाये थे । शिव पुराण में ऋषभदेव को शिव के योगावतारों में एक कहा गया है ओं तथा इसी पुराण में एक अन्य स्थान पर पुन: शिव के ऋषभावतार का उल्लेख है ।६ भागवत और गरुड़ पुराण में भी ऋषभदेव की गगना वैष्णव अवतारों के अर्न्तगत्( की गई है तथा ऋषभदेव की उत्पत्ति से संबंधित कथाएँ भागवत् पुराण, महापुराण और आदि पुराण में उपलब्ध हैं । ‘ जैन तीर्थङ्करों को विक्ताउ का ‘अवतार बताने की परम्परा मध्यकाल तक चलती रही है – अपराजितपृच्छा में एक स्थान पर स्पष्ट कहा गया है. कि – कलियुग .आने पर विष्णु समुद्र और विजया के पुत्र नेमिनाथ नामक बाइसवे तीर्थकर के रूप में गिरिमस्तक पर जन्म लेगें । अत: यह भी कहा गया? कि – इस बुद्धयुक्त कलियुग में दिगंबर, श्वेताम्बर और केवलिन् भी होंगे । डन ऋषभादि तीड़करो की सख्या २४ होगी, इतनी ही संख्या में उनके शासन देवता और यक्ष तथा प्रत्येक के अलग-अलग आठ प्रातिहार भी होंगें ।’ अपराजितपृच्छा ग्रन्थ में जिनेन्द्र मूर्तिलक्षण-सम्बन्धी विवरण भी वैष्णव धर्म के एक ‘अंग रूप में ही है । रूपमण्डन, अपराजित पृच्छा ग्रन्थों में जैन तीर्थङ्करों करो एवं उनकी यक्ष-यक्षिणियों (शासक देवता) को सुनियोजित विवरण प्रस्तुत है । जैन तीर्थङ्करों के यक्ष व यक्षिणी (शासन देवताओं) के निम्न नामों से जाना जाता है । जैसै
तीर्थकर यक्ष यक्षिणी
( १) ऋषभदेव गोमुख चक्रेश्वरी ( २) अजितनाथ महायक्ष अजितबला रोहिणी ( ६) पद्यनाभ कुसुम मनोवेगा श्यामा (१४) अनन्तनाथ पाताल अंकुशी, अनन्तमति (१ दे धर्मनाथ किन्नर पद्मावती (२३) पार्श्वनाथ पार्श्व पद्मावती (२४) महावीर मातंग सिद्धायिका सभी प्राचीन शास्त्रों में जैन तीर्थङ्करों को सामान्यतया अजानुलम्बबाहु श्रीवत्स से युक्त प्रशान्त, दिगम्बर ., तस्का, रूपवान तथा कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन मुद्रा में स्थित निर्मित करने का निर्देश दिया गया है । जैन तीर्थकर प्रतिमा ‘चामर, तीन छत्र, अशोक वृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि यक्ष-यक्षिणीयो तथा अपने लाँछनों (चिन्हों) से युक्त होना चाहिए । जिन ‘मूर्ति तीन छत्रों सै युक्त एवं’ त्रिरथ प्रकार की होनी चाहिए। अशोक वृक्ष के पत्ते, देव दुन्दुभिवादक, सिंहासन, असुर, गज व सिहों से विभूषित हो। प्रतिमाओं के मध्य में धर्मचक्र एवं. .जनास-पास यक्षिणियाँ निर्मित हो । ऊपर तोरण हो और प्रतिमा के बाह्य पक्ष में गोसिंहादि .से अलंकृत वाहिकायें, विभिन्न देवताओं से -युक्त द्वारशाखायें तथा ब्राह्य, विद्या, ३ चन्दिका जिन, गौरी ((व गणेश से युक्त रथिकायें हो । रूपमण्डन में आदिनाथ के कैलाश, नेमि के सोमशरण पार्श्व का सिद्धिवर्ति एवं महावीर के सदाशिव सिहासनो का उल्लेख है । इन तीर्थङ्करों के साथ धर्मचक्र एवं छत्र निर्मित करने का निर्देश दिया गया हैँ । तीर्थकरों के रंग व उनके ध्वजचिन्ह ( लाञ्छन) का भी निर्देश है । इनकी सूची लगभग ८ वी – १ वीं ई. में बनी तीर्थङ्कर वर्ण लाञ्छन ऋषभनाथ सुवर्णवत वृषभ अजितनाथ सुवर्णवत् गज सम्भवनाथ सुवर्णवत अश्व सुपार्श्वनाथ हरित स्वास्तिक नमिनाथ सुर्वणवत नीलोत्पल नेमिनाथ’ श्याम शंख पार्श्वनाथ हरित् सर्प,, महावीर सर्वणवत- फणी सिंह भारतीय, शिला मैं तीर्थङ्कर प्रतिमायें कुषाण काल से सर्वप्रथम प्राप्त होकर मध्ययुग तक मिलती है । जैन शिला मथुरा -लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, भरतपुर, कोटा, जयपुर, दिल्ली वाराणसी .खजुराहो, बम्बई, नागपुर, श्रीनगर, लंदन आदि संग्रहालयों में सुरक्षित खै । ये तीन प्रकार की प्रतिमायें है – कायोत्सर्ग प्रतिमायें, आसन प्रतिमायें तथा सर्वतोभद्रिका प्रतिमायें । इनमें कायोत्सर्ग या खड़ी म्उद्रा की प्रतिमाओं में तीर्थङ्कर के हाथों को नीचे सीधे लटकाकर बनाया गया है । .आसन प्रतिमाओं में तीर्थङ्कर पद्मासन मुद्रा में बैठे है । तथा सर्वतोभद्रिका प्रतिमाओं में चार तीर्थकरों को चार दिशाओं की ओर मुख करके स्थानक अथवा आसन-मुद्रा में निर्मित किया गया है। कुषाणकालीन जैन तीर्थङ्करों की प्रतिमाओं को लाछंन रहित बनाया है । इनमें ऋन्दभनाथ को जटाधारी, सुपार्श्वनाथ को एक, पाँच व नौ सर्पफणों तथा पार्श्वनाथ को तीन र सात – अथवा ग्यारह फणों व नेमिनाथ को कृष्ण व बलराम से घिरा हुआ बनाया गया है । गुप्तकाल में भी लाच्छन युक्त प्रतिमायें कम हैं । किन्तु गुप्तोत्तरकाल में प्रत्येक तीर्थकरों के पादपीठ पर लाछंन मिलने लगता है । इन सभी मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह है । प्रारम्भ में पादपीठ पर केवल धर्मचक्र, सिहयुग्म और पूजकों को मूर्तियों के साथ बनाया गया है किन्तु बाद के समय में तीन छत्र, दुनदुभिवादको यक्ष-यक्षणियों, गजयुग्म, वृषयुग्म, मृगयुग्म आदि का अंकन भी है । २४ तीर्थकरों में से ज्यादातर प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ तथा महावीर की मिलती है । यह माना जा सकता है कि २४ तीर्थङ्करों की मूर्तभावना ईस्वी पूर्व के प्रारम्भ के कुछ पूर्व ही सूची निर्धारित हुई थी । ये सूचियाँ ४७३ ई. से मिलती है ।१ १ जैनमूर्ति का उत्कीर्णन प्रथमतया लगभग दूसरी सदी ईपू में प्रारम्भ हुआ था जिसका प्राचोनतम उदाहरण पटना के समीप लोहानीपुर से प्राप्त मौर्यकालीन जैन मूर्ति है ।१ २ इसके बाद की मूति ऋषभनाथ की शाहाबाद के चौसा नामक स्थान से प्राप्त हुई जो अब पटना संग्रहालय में है । इसमें तीर्थङ्कर एक ऊँची चौकी पर पद्मासन में विराजमान है । उनके सिर के पीछे पद्माकृत प्रभामण्डल हैतथा कन्धों पर लगती जटाएँ है, यह काँस्य प्रतिमा एक मूर्ति ऋषभनाथ की गया जिले से मिली है जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है । अण्डाकार प्रभामण्डल, कन्धों तक जटायें है । पादपीठ पर वृक्ष लांछन, सिंह युग्म व कई पूजक आकृतियाँ है । यह पत्थर हसी मूति है । दोनों ओर छोटी स्थानक मूर्तियाँ भी बनी है । एक अन्य मूर्ति कांस्य की कायोत्सर्ग मुदा में है । ऐसी कई मूर्तियाँ तीर्थकरों की प्राप्त होती है जो लांछन युक्त व पादपीठ युक्त हैं । राजस्थान और गुजरात में जैन धर्म का व्यापक प्रभाव था तथा जैनमन्दिरों तथा मूर्तियों के निर्माण भी अधिक हुए । एक मूर्ति महावीर की है जो कांस्य प्रतिमा है व महाराष्ट्र में प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम बम्बई में है । इसमें श्वेताम्बर महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा में खडे है । वे अन्गेवस्त्र धारण किये है । सिर के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल है । मूर्ति के शीर्ष पर तीन छत्र है तथा परिकर में पद्मासन मुद्रा में २३ तीर्थकरों, वादकों, विद्याधरों एवं चावरधारियों को उत्कीर्ण किया है । इनके वामपार्श्व में यषरणि सिद्धायिका, दक्षिण पार्श्व में यक्ष मातंग तथा पादपीठ के नीचे सिंह लाछंन भी बनाया गया है । शास्त्रों में केवल २४ तीर्थकरों के ही नहीं वरन् उनकेसाथ यक्ष व यक्षिणीयों की प्रतिमाओं के भी निश्चित लक्षण है । इनमें कुछ यक्ष व यक्षिणीयो का विवेचन निम्नांसुार है-
यक्ष
(१) गोमुख – अलग-अलग जैन ग्रसनी में इसका विवरण भिन्न है किन्तु फिर भी रूपमण्डन के अनुसार गोमुख की गजमुख व हेमवर्ण कहा गया है । इनके हाथ क्रमश: वरद मुद्रा, अक्षसूत्रपाश एवं बीजपूरक युक्त बनाये गये है ।
(२) मतायक्ष – इसका वर्ण श्याम, गज पर आसीन, .अष्टभुज, हाथ क्रमश: वरद्मुदा; अभयमुदा मुद्गर, अक्ष, धाश, अंकुश, शक्ति एवं मातुलिग से युक्त हो । इसको प्राय: अजितनाथ के पार्श्व में ही बनाया गया है ।
(३) त्रिमुख – यह मयूरस्थ, त्रिनेत्र, त्रिवक्व, श्याम बर्ग एवं षड्भुज हो और उनके हाथ क्रमश: पशु, अक्ष., गदा, चक्र, शंख एवं वरद मुद्रा युक्त हो । ऐसे ही चतुरानानद, तुम्बरू, कुसुम, मातंग, विजय, जय, ब्रह्म, यक्षेत्, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नटेश, गरूड़ गन्धर्व, यक्षेत्, कुबे वरूण, भृकुटि, गोमेध, पार्श्व व मातंग का निर्माण उनकी विशेषताओं के साथ है ताकि उन के भेद आसानी से किया जा सके । इसी तरह कुछ शासन देवता (यक्षिणी) का विवरण निम्नांकित है –
चक्रेश्वरी – यह प्रथम जैन तीर्थङ्कर ऋषभदेव की यक्षिणी है । इसका वर्ण सुवण केसमान, वे पद्मासन मुद्रा में गरूड़ पर बैठी हो तथा उनके छह पैर एवं १२ भुजाएँ हो, जिनमें आठ हाथों में चक्र, दो में वज धारण किये हो और शेष २ में मातुलिग एवं अभय मुद्रा युक्त हो । ‘ 3 मूर्तिकला में यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तियाँ प्रचुर संख्या में. उपलब्ध है । ऐसी मूर्ति चित्तौडगढ में पद्मिनी महत्व के निकट बने जलाशय की दीवार पर उत्कीर्ण देखी जा सकती है । रोहिणी – इसका उल्लेख अपराजिता नाम से भी हुआ है । वर्ण गीता और वाहन गोधा हो, उनके चारों हाथ वरदमुद्रा, पाश, ‘अंकुश एवं बीजपूरक से युक्त हो । ‘ 4 कालिका (शांता) – यह सुपार्श्वनाथ की यक्षिणी है । कलिका कृष्णवर्ण, अष्टभुज, और महिष पर विराजमान हो । इनके हाथ क्रमश: त्रिशूल, पाश, अंकुश, धनुष, बाण, चक्र व अभयमुद्रा युक्त हो । ‘ 3 अम्बिका – नेमिनाथ की यक्षिणी जिसकी दो भुजाएँ हो वर्ण हरित हो, वे सिंह पर आसीन हो उनकी दोनों हाथ फल व वरद मुद्रा से युक्त हो । क्रोड में एक शिशु उपासना करता उपस्थित हो । ‘ 6 पद्मावती – पार्श्वनाथ की यक्षिणी रक्तवर्णी चतुर्भुजी, पद्मासना और कुवकुतस्या युक्त हो । हाथ क्रमश: पाशे अंकुश पदम और वरदमुद्रा युक्त हो । ऐसी मूर्ति देवगढ़ की बाह्य भित्ति पर उत्कीर्ण देखी जा सकती है । यह लक्ष्मी के रूप में बनाई गई है । इनके अलावा अन्य यक्षिणीयाँ है जिनके नाम – प्रज्ञावती, वजश्रृंखला (कलिका), नरक्षता (मताकाली), मनोवेगा (श्यामा), भृकुटी (डवालामालिनी), महाकाली (सुताइका), मानवी (अशोका), गौरी (मानवी), (गान्धारी चण्डी), विराटा (विदिता), अनन्तमति, मानसी, निंवागी, जया (बला), विजया अपराजिता (धरणाप्रिया), बहुरूपा, चामुण्डा (गन्धर्वा), सिद्धायिका है । इनके भी विशेष लक्षण बताये गये है । जिनके आधार पर भारतीय मूर्तिकला में इनकी प्रतिमायें बनाई गई है । यक्ष-यक्षणीयों के अतिरिक्त जैन प्रातिहारो, इन्द्र, इन्द्रजय, महेन्द्र, विजय, धरणेन्द्र, पद्मक, सुनाभ और सुरदुन्दुभि के निर्माण प्रतीक का भी संकेत शास्त्रों में निहित है जिसके .आधार पर इनकी भी प्रतिमाएँ बनी है । ” विभिन्न प्रातिहार मूर्तियाँ सतनीस देवरी नामक जैन मन्दिर केप्रवेश द्वारों पर तथा दो जैनकीर्तिस्तम्भ के निकट स्थित महावीर मन्दिर के प्रवेश द्वार पर है। ‘ 8 जैन देव परिवार में तीर्थङ्करों के रक्षक के रूप में जो यक्ष-यक्षिणी या देव तथा देवी आकृतियाँ बनी है वह लक्षणों में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिलिपि प्रतीत होती है । इनके अतिरिक्त जैन धर्म में १६ श्रुत देवता या विद्या देवियाँ है जिनकी अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है । जैन-सरस्वती का पाषाण में प्रारम्भिक मूर्त रूपांकन विक्रम संवत् ५४ (तीसरी ईस्वी पूर्व)मथुरा से प्राप्त होता है ।१ १ भारतीय मूतिकला में जैन धर्म की प्रतिमाओं को शास्त्रों के अनुसार बनाया गया । भारत के विभिन्न स्थानों पर विशेषकर राजस्थान में जैन मंदिर व इससे सम्बन्धित मूर्तियोंकी अधिकता है । कोटा के संदर्भ में देखें तो – कोटा संग्रहालय में राजस्थान की सम्पन्न मूर्तिकला का एक बड़ा केन्द्र है । यहाँ लगभग सभी विषयों की लगभग ८४० मूर्तियों त् २ संग्रह है । यहाँ पर एक जैन मूर्ति संग्रह हेतु जैन कलादीघी का निर्माण किया गया है जहाँ कई अमूल व दुर्लभ जैन मूर्तियों का बड़ा ही रोचक संग्रह है । यहाँ के हिन्दूशासक अन्यधर्मो के प्रति आदरभाव रखते थे । इसी कारण ‘वीं शताब्दी से १३वीं शताब्दी तक काकूनी, अटरू, केशग़ेरायपाटन, झालरापाटन, विलास, रामगढ़ आदि स्थल जैन धर्म, स्थापत्य एवं प्रतिमा शिल्प के प्रमुख केन्द्र बने । यहाँ जैन प्रतिमा कक्ष में जैन तीर्थकरों ऋषभनाथ, अजितनाथ, विमलनाथ, शांतिनाथ, मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि की प्रतिमाएँ जैन मंदिरों के स्तम्भ आदि का संकलन व्यवस्थित रूप में देखा जा सकता । संग्रहालय में आधा दर्जन से अधिक धातु की जैन प्रतिमाएँ भी संरक्षित ९: । चेचट से प्राप्त मिश्रित धातु की, अजितनाथ की श्वेताम्बर प्रतिमा में तीर्थकर सौम्य एवं प्रशान्त मुद्रा में लंगोट धारण किये पद्मासन एवं बद्धपद्मांजलि मुद्रा में पीठिका पर विराजमान है । प्रतिमा में कुंचित केश, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह लम्बी भुजाएँ एवं कर्ण, चांदी के पच्चिकारी युक्त खुले नेत्र .अत्यन्त आकर्षक है । ऐसी कई प्रतिमायें इस संग्रहालय में देखी जा सकती हैं । अत: भारतीय मूर्तिकला में जैन धर्म का भी समन्वित व क्रियान्वित रूप हम देख सकते है । संदर्भ – 1 भारतीय मूर्तिकला पृ. – 96 2 (अ) प्राचीन भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका, पृ. – 1 () 1 ब) झालावाड़ की मूर्तिकला परम्परा, ललित शर्मा पृ. – .1 17 3 वैभव और वैराग्य, पतडेय राकेश – पृ. – 93 4. (The jain Iconography by-BC Bhattachaya, Shama B. N. ) हिन्दु तथा जैन प्रतिमा विज्ञान, डॉ. पंकजलता श्रीवास्तव, पृ. – 357 5. The Jain Iconography 4- B.C. Bhatta chaya p.g. 2, 3, 5- 6 शिव पुराण 7,9,3 .1 7 7 हिन्दु तथा जैन प्रतिमा विज्ञान, डॉ. पंकजलता श्रीवास्तव पृ. – 337 8 रूपमण्डन, श्रीवास्तव बलराम भूमिका – पृ. – 1०० 9 हिन्दु तथा जैन प्रतिमा विज्ञान डॉ. पंकजत्नता श्रीवास्तव रा. – 35४,359 10 . तथा ००० डा. पंकज लता ००j पृ. – 3० 11. मध्यकालीन माण्डप्रतिमालपण मारूतिनदन तिवारी-कमलगिरि, पृ. 264 12. 12 झालावाड .की मृर्तिकला परम्परा ललित शर्मा पेज नं. 119 13 अपराजित पृच्छा आचार्य भुवन्देव पेज 221 , 225, 226 14 देवता मूर्ति प्रकरण मंडन पृ. 221. 36 15 अपराजिता पृचछा पृ. 221, 36 16 अपराजिता पृचछा पृ. 221, 36 17 अपराजिता पृचछा पृ. 220, 33, 34 18 हिन्दू तथा जैन प्रतिमा विज्ञान डॉ पंकजलता पृ. 392 19 दि जैन स्तूप अदर एण्टीक्विटीज दव्तिय संस्करण बी ए स्मिथ पृ. 19, 56