बड़ी भूल की चित्रों को व्यक्तित्व समझ बैठे। हम विज्ञापन को भ्रम से वस्तु तत्त्व समझ बैठे।। (श्री निवास शुक्ल)
मानव समाज को संस्कारित करने के तीन क्षेत्र हैं- १. आचार २. विचार ३. व्यवहार। इनके मर्यादित होने से आत्मविकास होता है। समाज चलता है। व्यक्ति का बचाव होता है। अत: हमें इन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। सद्विचार से सत्कर्म और सत्कर्म से सौभाग्य बनता है। आज भी जैन समाज इस पर विश्वास रखता है। २१वीं सदी में प्रवेश करते समय जैन समाज के सामने वे ही समस्यायें न्यूनाधिक रूप में सामने खड़ी थीं जिनसे २०वीं सदी के अंतिम पांच दशकों से वह साक्षात्कार करता रहा था। २१वीं सदी को प्रारंभ हुए लगभग ११ वर्ष हो चुके हैं। इन ११ वर्षों में यदि हमें अपने जैन समाज की दशा और दिशा का आकलन करना पड़े तो प्रतीत होगा कि हमारे समाज की जो दिशा है वह उतनी ठीक नहीं है जितनी होनी चाहिए और जब दिशा ही ठीक न हो तो दशा भी ठीक कैसे होगी? दूसरी ओर यह भी कह सकते हैं कि हमारी दशा ठीक है इसलिए हम दिशा की ओर से निश्चिन्त हैं और उसके बारे में विचार ही नहीं करते कि हम कहां जा रहे हैं? या हमें कहां जाना है? सबको साधनों की चिंता है, साध्य की नहीं। किसी ने ठीक ही कहा है – रेल, मोटर या कि पुष्पकयान, पहले सोच लो, जाना कहां है? मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्वापर विचार करे, भूत की ओर देखे, वर्तमान को देखे और भविष्य की ओर देखे क्योंकि बिना कारण के कार्य नहीं होते और बिना वर्तमान के कार्य के भविष्य भी नहीं बनता। मैंने जैन समाज की दशा और दिशा को जानने के लिए कुछ बिन्दु निर्धारित किये हैं और उन्हीं पर केन्द्रित होकर मैं कुछ विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ।शंकया भक्षितं सर्वं, त्रैलोक्यं सचराचरम् । सा शंका भक्षिता येन, तस्मै श्री गुरवे नम: ।।
अर्थात् तीनों लोकों के सभी चराचर को शंका ने भक्षित किया है। उस शंका को जिसने भक्षित किया है उन श्री गुरु के लिए नमस्कार हो। जहां २०वीं सदी के प्रारंभ में मुनि दर्शन दुर्लभ थे वहीं २१वीं सदी में वे सर्वजन सुलभ है। वर्तमान में लगभग १३०० साधु-साध्वियाँ हैं।इस स्थिति पर हम सरसरी तौर पर गर्व कर सकते हैं, किन्तु जब हम क्वान्टिटी के स्थान पर क्वालिटी पर ध्यान देते हैं और मूलाचार, भगवती आराधना या अनगारधर्मामृत को इस क्वॉलिटी की कसौटी मानकर देखते हैं तब हमें उतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी होनी चाहिए। जहाँ पहले साधु को रमता जोगी कहा जाता था वहीं आज ऐसे भी साधु हैं जिन्होंने २१वीं सदी में एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार ही नहीं किया। एक ही स्थान पर रहते हुए बार-बार चातुर्मास स्थापना प्रश्नचिह्न खड़ा कराती है। ५०से अधिक साधु ऐसे हैं जो अपनी ही प्रेरणा से बनाये हुए उच्चस्तरीय भवनों में रह रहे हैं। ए.सी., कूलर, हीटर, फ्रीज, टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, फोन आदि आधुनिकतम सुविधाओं से लैस हो रहे हैं। शस्त्रयुक्त सिपाहियों के राजकीय संरक्षण में रह और चल रहे हैं। अन्य भी अनेक आरोप, प्रत्यारोप उन पर लगते रहते है: यह स्थिति ठीक नहीं है। यदि यही स्थिति रही तो साधु का विहार वाला स्वरूप सामने ही नहीं आयेगा। इस दशा को सुधारने के लिए समाज को इस दिशा में बढ़ना होगा – (क) समाज साधु के लिए पीछी, कमण्डलु और शास्त्र के अतिरिक्त कुछ भी ना दे। उनके द्वारा याचना करने पर उन्हें बताये, समझाये कि वे वीतरागी हैं और अयाचक हैं तथा उन्हें याद दिलायें कि जब उन्होंने दीक्षा ली तब उन्होंने क्या-क्या ग्रहण करने का संकल्प लिया था। (ख) साधु के आवास, आहार एवं विहार की अनिवार्य व्यवस्था करें। आज समाज उदासीनता के कारण ही विहार में अकेले पड़ जाने के कारण जानबूझकर साधुओं/आर्यिकाओं को दुर्घटना का शिकार बनाया जा रहा है। समाज का कर्तव्य है कि वह साधु को अपने स्थान से दूसरे गांव तक स्वयं भेजने जाए। (ग) साधु वैयावृत्ति समाज को अवश्य करनी चाहिए। (घ) वृद्ध साधुओं के आवास, स्वास्थ्य, आहार की व्यवस्था एकाधिक तीर्थक्षेत्रों पर स्थायी रूप से होना चाहिए।औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ । अपने सुख को विस्तृत करलो, सबको सुखी बनाओ ।।
हम मेरी भावना में पढ़ते है कि – मैत्री भाव जगत् में मेरा, सब जीवों सेनित्य रहे। तो क्या यह हमारा कत्र्तव्य नहीं है कि अपने परिवार की एकता बनाये रखें। इस हेतु हमें बुजुर्गों के सम्मान की भावना बनानी होगी। आज जैन समाज मे विभिन्न उपजातियों में बंटवारा होने के कारण विवाह की समस्या उत्पन्न हो गयी है। उपजातियां अपना मोह छोड़ नहीं पाती और अपनी घटती संख्या से भी अंजान बनी हुई हैं। ऐसे में उनके सामने वर-वधू के चुनाव की समस्या है। दूसरी ओर शिक्षा और सर्विस की अनिवार्यता ने लड़कियों के सामने अन्य जाति के लड़कों से जो उसी के अनुरूप शिक्षित और सर्विसरत हैं; उनसे विवाह का रास्ता खोल दिया है। समाज की परवाह किसे है? अत: हमें उपजातियों की दीवारें तोड़कर बृहत् जैन समाज की स्थापना करना चाहिए तथा जैन वैवाहिक संस्था/संस्कार को मजबूत करना चाहिए।औरों में और मुझमें, कुछ तो फर्क होना चाहिए । अफसोस तो ये है कि मैं भी औरों जैसा निकला ।।
आज यदि दूध एवं घी तथा गोबर की खाद आदि समस्याओें का समाधान अपेक्षित है। यह तभी सम्भव है जबकि बूचड़खाने बंद हो। इस देश से बूचड़खाने कभी बंदन हीं हो सकते, मांस का व्यापार भी बंद नहीं हो सकता। इस कारण दुग्ध के अभाव की समस्या भी बनी रहेगी। ऐसे में जैन समाज का यह कत्र्तव्य बनता है कि वह पशुपालन को अपने जीवन का अंग बनाये और ऐसी पारमार्थिक गौशालायें स्थापित करें जिनमें दूध नहीं दे रही गाय अथव अन्य जानवर रखे जा सके|दानं भोगो नाशस्तिस्रो गयतो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुड्.तके तस्य तृतीयागतिर्भवति ।।
अर्थात् धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। जो धन न देता है, न भोगता है उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होता है। अत: धन आया है तो उससे अपने प्रयोजन सिद्ध करो और उसका पुण्यमय नियोजन करो। पुण्यमय नियोजन का तात्पर्य दान से है। बिना दान के धन की सद्गति नहीं होती, धनवान की भी नहीं। आज इस मर्म को जैन समाज के बड़े-बड़े उद्योगपतियों को समझाना चाहिए और ‘‘चैरिटी’’ (पारिमार्थिक कार्यों) के लिए दान देना चाहिए। यह एक शुभ सामाजिक लक्षण होगा। आज दान के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा हो रही है। बोली के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में छल हो रहा है जिससे दानदाता/दान आदि के अपेक्षित परिणाम नहीं निकल रहे हैं। अत: हमें आचार्य श्री उमास्वामी की भावनानुसार- विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष:’’ को ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ याद रखें कि दे वहाँ जहाँ जरूरत हो। हमारे यहाँ देना भी सिखाया और लेना भी। गृहस्थ हो तो देना सीखों। देना स्वच्छाा है। साधु हो तो लेना सीखो। लेना बंधनकारी है। आत्मसम्मान पूर्वक लो और दो। छीना झपटी चोरी है। हमें बोलियों का विकल्प ढूँढ़ना होगा ताकि धन का साम्राज्य स्थापित न हो सके।हम इस पर लड़ रहे हैं सरदान कौन होगा । पहले यह तो सोचो कि कबीला बचे कैसे?
हमें ऐसा नेतृत्व चाहिए – A Leader is one who knows the way, goes the way and shows the way. अर्थात् एक नेता- जो खुद रास्ता जानता हो, स्वयम् उस रास्ते पर चलता हो, तथा समाज को रास्ता बताता भी हो। वह जब भी कुछ करे तो अपने आप से पूछे कि इसमें मेरे लिये क्या है और उसके लिए क्या है? जो स्वपरहितैषी होता है वही सच्चा नेता होता है और स्वयं रास्ता खोज सके या बना सके-कमी नहीं है मंजिलों की, राहों की भरमार है । मंजिल वो ही पाता है, जो चलने को तैयार है ।।
देख यूँ वक्त की दहलीज से टकराके न गिर । रास्ते बन्द नहीं, सोचने वालों के लिए ।।
आज समाज को आवश्यकता है कि –