द्रव्य कर्णेन्द्रिय के आधार से भाव कर्णेन्द्रिय के द्वारा जो ध्वनि सुनी जाय उसे शब्द कहते हैं। यह शब्द अनंत परमाणुओं के पिण्ड (स्कंध) से ही उत्पन्न होता है। अनंत परमाणुओं की पिण्ड, स्वभाव से ही उत्पन्न शब्द योग्य वर्गणायें इस लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं। जहाँ-जहाँ शब्द के उत्पन्न करने योग्य बाह्य साधन मिल जाते हैं वहाँ ये शब्द वर्गणायें स्वतः शब्द (नाद) रूप में परिणत हो जाती हैं। महर्षि कणाद शब्द को आकाश का गुण बताते हैं। यदि वास्तव में शब्द आकाश का गुण होता तो कर्णेन्द्रिय द्वारा वह ग्रहण में ही न आ पाता क्योंकि आकाश तो अमूर्तिक है। अमूर्तिक पदार्थ का गुण भी अमूर्तिक होना चाहिये। शब्द तो मूर्तिक है इसीलिये वह मूर्तिक इन्द्रियों, रेडिया, टेपरिकार्ड द्वारा पकड़ा जाता है। शब्द दो प्रकार का होता है-प्रायोगिक और वैशेषिक। जो शब्द पुरुष आदि के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह प्रायोगिक कहलाता है, जो मेघ आदि से उत्पन्न होता है वैशेषिक कहलाता है।
शब्द के दो भेद हैं- भाषा और अभाषा। उसमें भाषात्मक शब्द अक्षर-अनक्षर के भेद से दो प्रकार का है। प्राकृत, संस्कृत आर्य, म्लेच्छादिक भाषा रूप जो शब्द हैं वे सब अक्षरात्मक हैं। जो इन्द्रियातीत जीवों के शब्द हैं तथा केवली भगवान की जो दिव्य ध्वनि है वह अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक हैं। अभाषात्मक के भी दो भेद हैं-प्रायोगिक और वैशेषिक। प्रायोगिक तो तत्, विवत्, धन, सुधिरादि रूप होते हैं तत् शब्द उसे कहते हैं जो वीणादि से उत्पन्न होते हैं। वितत्, शब्द ढ़ाल, नगाड़े आदि के होते हैं। झांझ, करताल आदि से उत्पन्न होने वाले शब्द ध्वनि कहलाते हैं और बांसादि से उत्पन्न हों वे शब्द सुधिर कहलाते हैं। ये समस्त पुद्गलों के स्कंधों मैटर से उत्पन्न होते हैं।तंत वीणादिक ज्ञेयं विततं पटहा दिकम्धन तु कांस्यतालादि सुषिरं वंशादिके विदुःः।। ब्रह्मदक संग्रह टीका, 13, पृ. 51जितने भी भाषा, अभाषा रूप शब्द लोक में होते हैं उनका उपादान कारण ये भाषा वर्गणायें हैं तथा इसके शब्द रूप परिणमन् में निमि कारण स्थूल स्कंधों का परस्पर मिलना (टकराना) है।साक्षर एवं भ वर्ण समूहान्नैव दिनार्थगतिर्जगतिस्मात्। महापुराण, 23/73 एवं The Psychogenetic Foundation of Language by G. Revers, Lingua, P.P. 318, 1955. जैसे ताली बजाना और तालु हिलाना, वाद्य बजाना, धरती पर पग धरना, पानी का परस्पर धक्का होना, वायु का धक्का दीवार आदि को लगना, मेघों का टकराना आदि। इस तरह अंतरंग, बहिरंग कारणों से शब्द पैदा होते हैं, ये शब्द वहीं सुनाई देते हैं जहाँ तक इनकी भाषा वर्गणायें परस्पर एक दूसरे को शब्दायमान करती हुई जा सकें।
आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय, 79. यह निमि कारण के बल के ऊपर निर्भर है। बहुत जोर से तालु हिलाने पर शब्द दूर तक जा सकेगा। यदि मंदता से हिलायें तो कम दूरी तक ही जा सकेगा। शब्द अमूर्तिक आकाश का गुण कभी नहीं हो सकता क्योंकि अमूर्तिक के गुण अमूर्तिक और मूर्तिक के गुण मूर्तिक होते हैं। यदि शब्द अमूर्तिक होता तो कानों से न सुनाई देता न ही वह किसी से रूक सकता। यदि हम अपने हाथों को मुँह के ऊपर लगाकर बोलें तो हम देखेंगे कि शब्द रुक-रुक कर निकल रहा है। श्लोकवार्तिक में शब्द मूर्तिक है।
प्रोक्ता शब्द दि मन्नस्तु पुद्गला स्कंध भदतः तथा प्रमाण सद्भावादन्यथा तद्भावत्।
वृहद जैन शब्दार्णव, वि. पृ. 540 स्कंध रूप से परिणमन करने वाले पुद्गल ही शब्दादि रूप होते हैं, यही बात प्रमाणित एवं सिद्ध है। इस प्रकार शब्द पुद्गल द्रव्य का पर्याय है। पंचास्तिकाय टीका ब्र. शीतलप्रसाद, सूरत, पृ. 348.
(ब) प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्त स्वयंम्भुवा।।
जैन शास्त्रों में पुद्गल के छह भेद किये हैं उनमें शब्द (साउण्ड) ध्वनि को पुद्गल सूक्ष्म-स्थूल रूप कहा गया है। क्योंकि पुद्गल के इस रूप को आंखों से नहीं देखा जा सकता केवल कर्ण इन्द्रिय से सुना जा सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो गया है कि शब्द की उत्पती द्रव्य के परमाणुओं के कम्पन द्वारा होती है।तावार्थ सूत्र, पंचम अध्याय सूत्र, 24, उराध्ययन 28, गाथा 12-13.इस विवेचन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि हमारे जैनाचार्यों को ध्वनि के सम्बन्ध में बड़ा ही वैज्ञानिक, सुन्दर, सही-सही और पूर्ण ज्ञान था। भौतिक विज्ञान की किसी पुस्तक को यदि आप देखेंगे तो ध्वनि उत्पन्न करने की यही क्रिया लिखी मिलेगी-
1. तारों की झनझनाहट
2.प्लेट या रॉड की झनझनाहट
3. तने हुए परदे की झनझनाहट
4. वायु स्तम्भ के कम्पन से शब्द या ध्वनि के संबंध में एक बात विशेष रूप से समझने योग्य है- यदि वस्तु के कणों की स्पंदन गति प्रति सेकण्ड की गति से कम है तो कोई शब्द उत्पन्न नहीं होता।
स्पंदन की गति जब 16 या 20 प्रति सेकण्ड से बढ़ जाती है तो शब्द सुनाई देने लगता है। जैसे-जैसे स्पंदन गति बढ़ती जाती है, स्वर भी ऊँचा होता जाता है किन्तु स्पंदन गति 20,000 प्रति सेकण्ड हो जाने पर और कभी विशेष अवस्थाओं में 40,000 तक शब्द कर्णगोचर होता है अर्थात् सुनाई पड़ता है। स्पंदन की गति 40,000 प्रति सेकण्ड से अधिक होने पर जो शब्द होता है उसे हमारे कान सुन नहीं सकते। शब्द को कर्णगोचर नाद (अल्ट्रासोनिक) कहा जाता है। हारमोनियम के अन्दर जो छोटी-छोटी पीतल की पट्टियाँ (रॉड) लगी रहती हैं वे भी इस प्रकार प्रति सेकण्ड भिन्न-भिन्न संख्या में कंपन करती हैं और इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्वरों की सृष्टि होती है। संभाषण के समय हमारे कंठ में स्थित स्नायु लगभग 130 बार प्रति सेकण्ड की गति से झनझनाते हैं, झनझनाहट की यह क्रिया बालकों तथा नारियों के कंठ से अधिक तीव्र होती हैं, इस कारण उनका स्वर पुरुष स्वर से ऊँंचा होता है। जब हम संभाषण करते हैं तो वायु में लगभग 10 फीट लम्बी तरंगें उत्पन्न होती हैं। ये तरंगें जब कान के परदों तक पहुँचती हैं तो परदा हिलने लगता है और उसके कम्पन करने से हमारे मस्तिष्क में शब्द का बोध होता है किन्तु जब कर्ण अगोचर शब्द की उत्पति होती है तो वायु में ध्वनि की तरंगें केवल एक इंच अथवा आधा इंच की लम्बाई की होती है। इन सूक्ष्म तरंगों की यह विशेषता होती है कि ये एक ही दिशा में बहुत दूर तक बिना हस्तक्षेप किये चली जाती हैं। न केवल ध्वनि की तरंगें अपितु विद्युत तरंगों की भी यही स्थिति है।
इस कारण बी.बी.सी. आदि रेडियो समाचार छोटी लहरों द्वारा ही भेजे जाते हैं। जिस प्रकार आंधी, तूफान बड़े पेड़ों का संहार करते हैं, घास पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इस गुण के कारण कर्ण अगोचर नाद की लहरों का अनेक दिशाओं में उपयोग हुआ है। अल्ट्रा साउण्ड किरणों द्वारा रोगोपचार, रोगों की जाँच आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। आजकल पीजों इलेक्ट्रिक ओसोमीटर यंत्र द्वारा कर्ण अगोचर नाद तरंगों को समुद्र की तली में भेजा जाता है। इस तरंगावली के मार्ग में जब कोई बर्फ की चट्टान आ जाती है तो तरंगें उससे टकरा कर वापिस लौट जाती हैं। तरंगों के जाने और लौटने में जो समय लगता है वह एक घड़ी से नाप लिया जाता है।
चूंकि समुद्र तल में तरंगों की गति ज्ञात है, गणित करने से चट्टान की दूरी का अनुमान हो जाता है और जहाज खतरों से बचा लिये जाते हैं। इन स्वर लहरों में यदि आदमी अपना हाथ कर दे तो उसके हाथ से रक्त की बूँदें टपकने लगेंगी। एक यंत्र किसी अनाज के खेतों के मध्य लगाने से उससे निकली हुई तरंगें सब कीड़ों को नष्ट कर देती हैं या बेहोश कर देती हैं। मन्दिरों में घण्टा आदि बजाने से उसके क्षेत्र के हानिकारक कीड़े-मकोड़े निश्चेतना की स्थिति में हो जाते हैं। कर्ण अगोचर नाद का उपयोग धातु में झाल लगाने के कार्य में हुआ है। अल्ट्रासोनिक सोल्ड्रिंग द्वारा अल्यूमिनियम के बर्तनों में भी झाल लगाई जा सकती है। शब्द शक्ति से इतना ताप उत्पन्न किया जाता है। कि धातु के दो टुकड़े पिघलकर आपस में ही जुड़ जाते हैं। तानसेन की दीपक राग की ऐतिहासिक घटना हम सबके सामने है। नाद संगीतशास्त्र का प्राण पुरुष है। यद्यपि नाद को नितांत संगीत जातिक नहीं माना जा सकता क्योंकि सम्पूर्ण विश्व नादाधिष्ठित है। जैनाचार्यों ने भगवान ऋषभ को शिव रूप में स्मरण किया।आदिपुराण, जिनसेन, 30शिव संगीत के आदि गुरु हैं।श्रीमद् भागवत् 5/31/34.सच्चिदानंद (सत् चित् आनन्द) विभूतियों से सम्पन्न प्रजापति ऋषभ से सर्वप्रथम जिस शक्ति का प्रादुर्भाव होता है वह शक्ति नाद को उत्पन्न करती हैै और नाद से बिन्दु की उत्पति होती है। जैन साहित्य में नाद कला का आकार आधे चन्द्रमा के समान है, वह सफेद रंग वाली है, बिन्दु नीले रंग वाला है।नादश्चन्द्र समाकारी बिन्दुर्नालसमप्रभ कलारूण समाक्रांतं स्वर्णयः सर्वतोमुखः 12, ऋषिमंडल स्तोत्र। नाद की उत्पति ब्रह्म ग्रंथि से होती है। भगवान शंकर नाद तनु हैं, नाद के प्रवक्ता हैं।
संगीतोपनिषद् सारोद्धार में वर्णन है कि नाभि में एक कूर्मचक्र है, उसके कंद पर परभिनी है, उसकी नाल में एक यंत्र है, उसमें एक कमल है, उसमें अग्निप्राण की स्थिति है, उससे अग्निवायु संयोग से सिद्ध ध्वनि उत्पन्न होती है, उसी सिद्ध ध्वनि से नाद की उत्पति होती है।संगीतोपनिषत्साराद्वार, 1/25-27 गायकवाड़ ओरियन्टल सीरिज, बडौदा। एवं E. SAPIR-A study of Phonetic symbosin, PP 61-72., University of California, 1949.ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों नादात्मा हैं। विशुद्ध नाद अनाहतनाद की उपासना पराशक्ति त्रिदेव और ओंकार की उपासना है। जैन साधुओं ने पुद्गल के सूक्ष्मतम व्यक्तित्व को गहराई से खोजा है। हमारे तीर्थंकर और आचार्यों ने रसायन शास्त्र और भौतिकी के तल पर उसकी स्पष्ट व्याख्यायें की हैं। इस मायने में हम तीर्थंकरों को परमाणु विज्ञानी भी कह सकते हैं। वस्तुतः उन्होंने आत्मा को इतना अनावरित कर दिया कि वे मूर्त/अमूर्त तमाम पदार्थों को युगपत् देख सकते थे। या कहें उन्हें यह आपों-आप दिखाई देने लगते थे, समूचा जैनागम परमाणु विज्ञान से भरा-पड़ा है। आवश्यकता इस बात की है कि बारीकियों को विज्ञान की शब्दावली में दुनिया के सामने प्रस्तुत करें। आने वाली पीढ़ी को अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिये हमें जैन दर्शन के इस पक्ष को बहुत स्पष्टता से सामने लाना होगा। हम पुद्गल का जो स्वरूप जैनधर्म में वर्णित है उसे नई भाषा शैली में वैज्ञानिक अक्षरों में प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। हमारा तप क्या है! प्रतिकूल/बाधक परमाणुओं का विरेचन और अनुकूल/साधक परमाणुओं का समन्वयन। आठों कर्म पौद्गलिक हैं। तप पुद्गल के चयापचय से संबंधित हैं। कार्माण वर्गणा की समीचीन समीक्षा से सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट हो जाती है। यदि टेप पर शब्दांकन होता है और हम चुम्बकीय प्रभाव से उसका विरेचन/क्षरण कर सकते हैं तो क्या कार्मण वर्गणा की स्थिति ऐसी नहीं है। ऐसे सैकड़ों क्षेत्र और तथ्य हैं जिन्हें विज्ञान के तल पर प्रवर्तित/प्रतिपादित करने की आवश्यकता है। वनस्पति में प्राण होने के तथ्य को डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने आज से लगभग 1 सदी पूर्व दुनिया के सामने रख दिया। जैन धर्म इस तथ्य को हजारों वर्षों से मानता चला आ रहा है। इन/ऐसे प्रमाणों द्वारा ही हम जैनधर्म के आध्यात्मिक निष्कर्षों की पुष्टि कर सकते हैं। क्या यह संभव नहीं है कि हम देश में एक ऐसी सर्व धर्म सम्पन्न केन्द्रीय प्रयोगशाला स्थापित करें जिसमें जैन समाज के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों को पूरे सुविधा साधन उपलब्ध कराये जायें और फिर उन सारे तथ्यों को जो ‘तवार्थ सूत्र’ जैसे ग्रंथों तथा उसकी टीकाओं से भरे पड़े हैं, पुष्ट किया जाये।