जैन धर्म के विषय में जैसा सभी जानते हैं यह जिन अर्थात् आत्मा का धर्म हैं। आत्मा का वास किसी न किसी शरीर रूपी आवरण में होता है। ठीक इसी प्रकार पर्यावरण भी हमारे चारों ओर का आवरण है जिसका संबंध जीव-अजीव सभी से होता हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जैन धर्म व पर्यावरण में बहुत समानता है या यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि जैन धर्म एक पर्यावरणीय धर्म है जिसमें पर्यावरण के हर पहलू का ध्यान रखा गया हैं, जो निम्नांकित उदाहरणों से स्पष्ट है- मुनि चर्या-मुनियों के पास जो उपकरण रहते हैं, वे हैं- पिच्छी व कमण्डलु, जो कि प्राकृतिक वस्तुएँ हैं, परंतु इनसे पर्यावरण का नुकसान नहीं के बराबर है। पिच्छी का निर्माण मोर द्वारा त्यक्त पंखों से होता है, जिसमें पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहँुचती। कमण्डलु-काष्ठ का बना होता है, जिसको बनाने में पेड़ की शाखा से काष्ठ ली जाती है। अत: इसे हम सीमित नुकसान के दायरे में रख सकते हैं। मुनि में अहिंसा एवं अपरिग्रह का ही भाव प्रधान होता है, जैसे नंगे पैर विहार करना, विहार करते समय घास या अन्य जीवों का संपूर्ण ध्यान रखना, आहार व जल ग्रहण दिन में एक बार (सीमित उपभोग) आदि ऐसी सभी क्रियाएँ पर्यावरण संरक्षण में योगदान व उसके महत्व को प्रतिपादित करती हैं। तीर्थंकर- जैन धर्म में कुल चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। इनके चिन्हों पर हम ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि वे पर्यावरण के ही अंग हैं। इन चिन्हों से हमें उनके पर्यावरणीय महत्व को समझने-जानने का संदेश मिलता है। हमारे प्रथम तीर्थंकर का चिन्ह वृषभ है, जो कि गोवंश का है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि गोवंश पर्यावरण संरक्षण करने व मानव की प्रगति में सहायक है। कहते हंै कि जव भोग- भूमि से कर्म-भूमि के रूप में परिवर्तन हुआ तब तीर्थंकर आदिनाथ भगवान ने आदिमानवों को आधुनिक कला की शिक्षा-असि, मसि, व कृषि के रूप में दी। साथ ही लिपी व भाषा का ज्ञान भी कराया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानव सभ्यता का विकास ही गोवंश के सानिध्य में हुआ। मैं गोवंश सम्मेलन में कह चुका हूँ कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि मानव सभ्यता का विकास गोवंश से जुडा हुआ है व इसके विनाश में हमारा अंत भी सुनिश्चित है। इसी महत्व को प्रतिपादित करने का संदेश हमारे आदि तीर्थंकर के चिन्ह से मिलता है। गौवंश का पर्यावरण में योगदान किसी से छिपा नहीं हैं संक्षेप में मैं कृषि कार्य की ही व्याख्या करू। यदि हम गोवंश की जगह कृषि कार्य के लिए—ट्रेक्टर का उपयोग करें तो ट्रेक्टर बनाने के लिए , लाखों टन लौह अयस्क की आवश्यकता होगी। लौह अयस्क के लिए करोड़ों एकड़ भूमि का उत्खनन करना होगा व इसी अनुपात में जंगलो का विनाश करना होगा। भू-क्षरण व जंगलोें के विनाश से पर्यावरण हृास सुनिश्चित है। लौह अयस्क से लोहा बनाने के लिए लौह कारखाने लगाने होंगे, जिनसे वातावरण में विभिन्न प्रदूषित गैसे व प्रदूषित जल छोडा जाएगा। दूसरे शब्दों में भू-प्रदूषण, जल प्रदूषण व वायु की सुनिश्चितता। ट्रेक्टर बनाने के बाद चलाने के लिए ईधन की आवश्यकता होती है। ईधन के लिए भी हमें पर्यावरण का विनाश करना हैं। इसके विपरीत गोवंश से कृषि कार्य करने में हमारा पर्यावरण पूर्णत: सुरक्षित रहता है। गोवंश से हमें कृषि कार्यों के अलावा बोनस में दुग्ध उत्पादन, औषधि व खाद (गोबर व गो-मूत्रसे ), हानिकारक जीवों से सुरक्षा, विभिन्न वर्गों के लोगों को अजीविका, ईधन आदि प्राप्त होते हैं। इस प्रकार हमें समझना चाहिए कि हमारे आदि तीर्थंकर ने गोवंश के प्रतीक वृषभ चिन्ह अपनाकर मानव सभ्यता को कितना बड़ा संदेश दिया है व यहीं से मानव का पर्यावरण के साथ संबंधों का खुलासा भी हो जाता है। जैन धर्म के २३ वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का चिन्ह सर्प है। सर्प का पारिस्थितिक तंत्र व पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान है। यह चूहों की जनसंख्या नियंत्रित कर पर्यावरण संतुलन बनाए रखता है। सर्प, चूहों द्वारा फसलों को किए जाने वाले नुकसान से बचने में मानव के लिए सहायक होता है। अधिकांश किसान चूहों से फसल की रक्षा के लिए खेत के आसपास कांसव की झुरमुट बागड़ के रूप मेें विकसित करते थे जहां पर सर्पों का वास होता था। इस प्रकार प्राकृतिक रूप से फसलों की रक्षा हो जाती थी, साथ ही पर्यावरण संतुलन भी बना रहता था। इसी प्रकार यदि हम अन्य तीर्थंकरों के चिन्हों की विवेचना करेगें तो अवश्य हमें उनसे पर्यावरण के प्रतिजागरूकता पर्यावरण संरक्षण एवं मानवता की भलाई का संदेश प्राप्त होगा।
अहिंसा परमो धर्मा
जैन धर्म में अहिंसा का भाव सभी धर्मों की अपेक्षा उच्च है। इसमें भाव हिंसा तक का परित्याग है। मतलब, यदि हमारे भाव सकारात्मक है यानि हमारे हृदय में किसी भी जीव-अजीव को नुकसान पहुंचाने की इच्छा नहीं है, तो हमारे पर्यावरण में किसी भी प्रकार का विनाश संभव नहीं है; सभी प्रकार के जीव-अजीव संरक्षित व सुरक्षित रहेंगे। अन्य शब्दों में-न तो जंगलों का विनाश होगा और न ही पर्यावरण प्रदूषित होगा, क्योंकि लाभकारी जीवाणु (भूमि, जल व वायु में) सुरक्षित रह सकेंगे। इस प्रकार पारिस्थितिक तंत्र का चक्रीय संतुलन अपने प्राकृतिक स्वरूप में बना रह सकता है। अपरिग्रह:- भोगवादी संस्कृति के इस युग की मुख्य देन दैत्य रूपी पर्यावरण प्रदूषण है।इसके ठीक विपरीत जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित ‘‘अपरिग्रह का सिद्धांत’’ यानी ‘‘सीमित इच्छावृत्ति’’ इस समस्या से पूर्ण निजात दिलाता है। जैसा कि ऊपर मुनि चर्या में वर्णित किया गया है, यदि हमारी इच्छाएँ सीमित होंगी, तो पर्यावरण की क्षति भी सीमित होगी तथा यह क्षति प्राकृतिक चक्र से पूर्ण होती रहेगी। साथ ही हम पर्यावरण के अंग होकर पर्यावरणीय चक्र के संतुलन को बरकरार रख सवेंगे।।
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण तकनीक
जैन धर्म के अन्य सिद्धांत इस दैत्य रूपी पर्यावरण प्रदूषण से निजात दिलाने में सहायक हैं।इस संदर्भ में मैं चर्चा कर रहा हूँ इस युग के आदि से प्रतिपादित पानी छानकर पीने की क्रिया का। इस क्रिया का वर्णन एवं पालने की सलाह जैन धर्म की विश् व को सबसे बड़ी देन है। इसका उदाहरण आधुनिकता के इस युम में भी डब्ल्यू.एच. ओ द्वारा अविकसित व साधन विहीन अप्रकी देशों को मोटे सूती कपड़े की चार तहों द्वारा पानी छानकर पीने की सलाह देना है आज हम जानते हैं कि जैनधर्म में युगों पूर्व पानी की एक बूंद में जीवाणुओं की संख्या व प्रकार चित्रित कर बताए गए थे, इनमें हानिकारक व लाभकारी दोनों प्रकार के जीवाणु रहते हैं। अत: हमें यह बताया गया कि पानी छानकर पियें व पानी छानने के बाद जीवाणी उसी स्रोत में करें जहाँ पानी लिया गया है। इस क्रिया के पीछे संदेश है कि छना हुआ पानी पीने से हानिकारक जीवाणुओं से आपको नुकसान नहीं होगा वहीं जीवाणी से स्रोत से आपको सदैव स्वच्छ पानी मिलता रहेगा। पर्यावरण तकनीक में प्रदूषण जल उपचार संयंत्रों मेंं आधुनिक तकनीकी के रूप में इन्हीं दोनों तकनीकों का समावेश किया जा रहा है। मेरा ध्यान इन तकनीकों की तरफ जैन के अनुयायी होने से अनायास ही गया व मैंने इन्हें प्रदूषित जल को स्वच्छ करने की क्षमता में अति उपयोगी पाया। विश्व के लगभग १२० देशों में लाभकारी जीवाणुओं का उपयोग कृषि कार्यों एवं प्रदूषित जल स्रोतों को स्वच्छ करने में किया जा रहा है। दूसरे शब्दोें मे जीवाणी को प्रदूषित स्रोतों मे डाला जा रहा है। छानने की क्रिया का उपयोग विश्व में सभी देशों में जलप्रदाय करने के लिए किया जाता है। बड़े-बड़े जल शोधन संयंत्र लगाए जाते हैं, जिनमें पानी छानने की प्रक्रिया रेत कणों द्वारा की जाती है। दूसरी विधि में महीन मेम्ब्रेन का उपयोग कर किया जाता है। इस मेम्ब्रेन, जिसे रिवर्स ऑसमोसिस मेम्ब्रेन कहते हैं, के नीचे वाली सतह के अंदर पाईप से छना हुआ शुद्ध जल व सतह के ऊपर-जैसा कि छन्ने के ऊपर जीवाणी रहते हैं, से रिजेक्ट जल यानि जीवाणी प्राप्त होता है। पेयजल में जल स्रोत के पास ही रिजेक्ट जल को जीवाणी के समान छोड़ दिया जाता है, जबकि प्रदूषित जल के शुद्धिकरण में रिजेक्ट को री-साईकिल (चक्रीयकरण) करने का सोच जीवाणी से मिलता है। प्रदूषित जल के रिजेक्ट को लाभकारी जीवाणुओं द्वारा शुद्धिकरण करने के पश्चात उद्योगों/ कॉम्पलेक्स के आसपास हरितपट्टी लगाकर वातावरण को खुशहाल बनाया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म के स्थूल सिद्धांतों से ही पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा मिलती है। यदि हम सूक्ष्म में विभिन्न सिद्धांतों का अवलोकन करेंगे तो हम हमारे पर्यावरण को सदियों तक अक्षुण्ण बनाए रख सकते हैं। आज हमें जरूरत है तो बस धर्म में आस्था, विश्वास व स्वास्थ्य की। मेरा ऐसा मानना है कि यदि हम जैन संस्कृति की रक्षा कर सवें व जैन दर्शन को विश् व के सामने रखें तो हम आधुनिक मानव को जीवन जीने की कला का ज्ञान देकर मानव सभ्यता के विनाश को रोकने में सहायक हो सवेंगे जिसका कि अंत पर्यावरण विनाश के साथ सुनिश्चित है। अंत में आचारांग सूत्र में वर्णित २४वें तीर्थंकर महावीर की पर्यावरण के प्रति सघन चेतना का साक्षात्कार कराते हुए उक्त पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ-