जैन सिद्धांत प्रवेशिका के अमर रचनाकार पंडित गुरू गोपालदास जी बरैया
हिन्दी के शुरूआती माह चैत्र में हम याद कर रहे हैं पंडित गुरू गोपालदास जी बरैय्या को जो इसी माह में आगरा के श्री लक्ष्मणदास जी बरैय्या के घर पैदा हुए थे। पं. टोडरमलजी को ‘आचार्य कल्प’ तथा पं. बनारसीदास जी को ‘कविवर’ के नाम से जैसी जैन जगत में प्रसिद्धि है। ठीक उसी तरह पं.गोपालदास जी बरैय्या की ‘गुरू’ के नाम से प्रसिद्धि है। जो उचित ही है, क्योंकि उन्होंने जैन दर्शन को आम लोगों तक सहज रूप से घर घर में पहुँचाने का गुरुतर कार्य किया है। करणानुयोग के कठिन विषय को सरल कर सहज बनाया। छोटी छोटी परिभाषाओं के माध्यम से गुंथित लघु सिद्धांत प्रवेशिका की रचना उनके नाम को गौरवान्वित कर रही है। बचपन में ही पिताजी का वियोग हो जाने से आपकी व्यवहारिक शिक्षा केवल मिडिल तक ही हो पाई । कुशाग्र बुद्धि के धारक पंडितजी ने अपने समय में जैन सिद्धांतों का पठन पाठन का ऐसा सिलसिला शुरू किया कि आज भी जिनागम के गूढ़ सिद्धांतों को समझने में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता है। आश्चर्य की बात है कि पंडितजी को बचपन में अध्यात्म और धर्म की कतई रूचि न होते हुए भी यथा समय आपने जैन सिद्धांतों को न केवल गहराई से समझा/ समझाया, बल्कि अपने जीवन में व्यवहार में और आचरण में कठोरता से पालन किया। युवावस्था तक आपमें युवकोचित शौक, मौज मस्ती, तम्बाकू, सिगरेट का सेवन किया तथा शेर और शायरी करना आपका नित्य कर्म था। १९ वर्ष तक ही उम्र तक आपको जैन धर्म के प्रति इतना भी अनुराग नहीं था कि नित्य जिनेन्द्र दर्शन कर लें। गृहस्थ दशा का प्रारंभ होते होते अजमेर में आप रेलवे में नौकरी करने लगे, उसी दरम्यान आपका परिचय पं. मोहनलाल जी नाम के एक जैन विद्वान से हुआ।, जिनकी संगत के असर से आप जैन ग्रंथों के स्वाध्याय में रूचि लेने लगे। इस समय तक आपका विवाह हो गया था। संवत् ४५ में एक पुत्र जो अल्पकाल ही जीवित रहा। सं. ४७ में पुत्री कौशल्या एवं ४९ में पुत्र माणिकचंद्र का जन्म हुआ। पंडितजी को गृहस्थी का सुख बिल्कुल भी प्राप्त नहीं हुआ। सुकरात के समान आपकी पत्नी का स्वभाव भी व्रूर, कठोर, कर्कश, जिद्दी तथा अद्र्धविक्षिप्त जैसा था। समाज में जहाँ पंडितजी आदरणीय थे, वहीं पंडितानी की निगाह में वे दो कौड़ी के भी नहीं थे। वो पंडितजी को बहुत परेशान करती थी। झगडती रहती थी। किन्तु वस्तु व्यवस्था के पारगामी विद्वान पंडितजी न जाने किस मिट्टी के बने हुए थे, वे हर प्रतिकूल परिस्थिति में भी शांत रहते थे। रोज रोज की कलह, अशांति तथा पंडितानी के अनावश्यक उपद्रव से बिल्कुल भी विचलित नहीं होते हुए अपने कार्य में लगे रहते थे। ऐसा लगता था कि जिनागम के शास्त्रों का न केवल पठन पाठन, स्वाध्याय करते थे, बल्कि उसके मर्म को अंतरंग में ग्रहण कर जीवन में प्रयोग करते थे। उनकी यह जीवन शैली न केवल स्तुत्य है, बल्कि उदाहरणीय है। दो वर्ष बाद ही आपने रेलवे की नौकरी छोड़कर रायबहादुर सेठ मूलचंदजी नेमीचंदजी के यहाँ २०/—रूपये प्रतिमाह में ६-७ वर्षों तक नौकरी की और अजमेर में ही रहते हुए संस्कृत, लघु कौमुदी, जैन व्याकरण तथा न्याय दीपिका एवं गोम्मटसार जैसे जैन ग्रंथों का अध्ययन किया। इसी बीच आपका संपर्क अजमेर के सुप्रसिद्ध पंडित मथुरादासजी तथा ‘प्रभाकर’ के संपादक बाबू बैजनाथजी से हुआ। संवत ४८ में सेठ मूलचंदजी आपको दक्षिण की यात्रा पर साथ ले गये और लौटते समय जब आप बम्बई आये तो यहीं रहने का निश्चय किया। पंडितजी का गणित का ज्ञान अच्छा था तथा हिसाब किताब के मामले में होशियार थे। इस कारण बम्बई में एस.जे.टेलर नामक एक कम्पनी में आपको ४५/—रूपये मासिक पर नौकरी मिल गई। आपके काम से खुश होकर कुछ ही समय बाद आपकी वेतन वृद्धि ६०/— रूपये मासिक कर दी। इसी दरम्यान माताजी का देहान्त हो जाने से बिना छुट्टी लिये आगरा जाने से आपको नौकरी से हाथ धोना पड़ा। बाद में आप बम्बई में ही सेठ जुहारमल मूलचंदजी के यहाँ मुनिमात करने लगे, किन्तु एस.जे.टेलर आपके काम से खुश थे, अत: कम्पनी ने पुन: आपको काम पर रखा जहाँ कई वर्षों तक काम करते रहे। सं. ५१ में नौकरी छोड़कर दिल्ली वाले श्यामलालजी जौहरी के साथ कमीशन एजेण्ट का काम करने लगे किन्तु अचौर्य तथा सत्यव्रत का पालन न होने से यह काम छोड़ कर गोपालदास लक्ष्मणदास नाम से गल्ले का व्यापार करने लगे, लेकिन दुर्भाग्य से नुकसानी होने से ५-६ माह बाद सं. ५२ में धन्नालाल कासलीवाल के पार्टनरशिप में रूई , अलसी, चाँदी आदि की दलाली ३-४ वर्षों तक सं. ५६ में इसी व्यवसाय को स्वतंत्र रूप से करने लगे। सं. ५८ में सेठ रामचंद्र नाथाजी के परिचय में आने पर मुरैना में सेठजी की साझेदारी में मुरैना में आढ़त का व्यवसाय करने लगे, लेकिन यथेष्ठ लाभ न होने से मुरैना छोड़कर २ वर्षों तक शोलापुर में व्यवसाय किया और पुन: मुरैना आकर गोपालदास माणिकचंद के नाम से स्वतंत्र व्यवसाय करने लगे। इसी बीच माधव जिनिंग फैक्ट्री प्रारंभ की, किन्तु अनेक कारणों से इसे भी छोड़ना पड़ा। वापिस सेठ नाथारंगजी के साथ एवं बाद में रा.ब. सेठ कल्याणमलजी तथा उसके बाद रा.ब. सेठ कस्तूरचंद जी के साथ काम करने लगे। आपका सार्वजनिक जीवन की शुरुआत सं. ४९ से हुई , जहाँ पर पं. धन्नालाल के सहयोग से दिगम्बर जैन सभा की स्थापना करी, दोनों मिलकर समाज के लिये अथक परिश्रम करते थे। इसी वर्ष खुरई के प्रतिष्ठा महोत्सव में अपार जनसमूह जमा हुआ और अपने महासभा की स्थापना का प्रयत्न किया, किन्तु मथुरा के मेले में पूर्व से ही महासभा का निर्णय हो जाने से आपको सफलता नहीं मिल पाई । सं. ५३ में भारतवर्षीय दिग.जैन परीक्षालय की स्थापना कर उसका ८ वर्षों तक सफल संपादन किया। सं. ५६ में दिगम्बर जैन सभा बम्बई से ‘जैनमित्र’ निकालना शुरू किया, जहाँ से आपकी विद्वता मुखरित हुई। पत्र के माध्यम से कई सामाजिक आंदोलन सफलता के शिखर चूमने लगे। सं. ५८ में बम्बई प्रांतिक सभा की स्थापना में पहला अधिवेशन अकलूज की प्रतिष्ठा पर हुआ। प्रांतिक सभा के ८—१० वर्षों तक मंत्री पद का सफलतापूर्वक दायित्व निभाया। इस दरम्यान संस्कृत विद्यालय बम्बई , परीक्षालय, तीर्थक्षेत्र उपदेश भण्डार आदि संस्थाओं ने आपके कारण नाम कमाया। कठिन परिस्थितियों में बड़े ही परिश्रम में आपने मुरैना में एक पाठशाला प्रारंभ की जिसने बाद में ‘जैन सिद्धांत विद्यालय’ के नाम से प्रसिद्ध पाई, जिसके माध्यम से जैन सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने वाले अनेक विद्वान पंडित तैयार हुए। ग्वालियर महाराजा ने पंडितजी को ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद देकर सम्मानित किया। बम्बई प्रातिक सभा ने ‘ स्याद्वाद वारिधि’, इटावा की जैनत्व प्रकाशिनी सभा ने ‘वादी गजकेशरी’, कलकत्ता के शासकीय संस्कृत कॉलेज के पंडितों ने ‘ न्याय वाचस्पति’ के पद पर सभापति पद से सुशोभित किया। अनेक पदवियों से सम्मानित होने पर भी आप निरभिमानी रहे। जीवन भर विद्यार्थी रहे। अध्ययन , अनुभव, स्वावलंबनशीलता और निरंतर अध्यवसाय से प्राप्त पांडित्य एवं ज्ञान रटे हुए ज्ञान से कहीं अधिक था। यह आश्चर्य का विषय है कि जिस संस्कृत के वे पंडित कहलाये उन्होंने उसकी व्याकरण भी अच्छी तरह से नहीं पढ़ी, फिर भी न्याय और धर्मशास्त्र के बेजोड़ विद्वान थे, जिसे कलकत्ता के बड़े से बड़े महामहोपाध्याय और तर्क वाचस्पतियों ने भी स्वीकारा। विक्रम की २०वीं सदी क आप सबसे बड़े दिगम्बर जैन पंडित के रूप में विख्यात हुए। आपकी प्रतिभा, स्मरण शक्ति, व्याख्यान शैली, विलक्षण और असाधारण थी। आपकी सिद्धांत दपर्ण , सुशीला उपन्यास और जैन सिद्धांत प्रवेशिका की रचनाएँ काफी चर्चित रहीं। सार्वधर्म जैन जॉगरफी आदि छोटे छोटे निबंध ने भी समाज को नई दिशा दी। जैन सिद्धांत प्रवेशिका तो जैन धर्म के लिये एक पारिभाषिक कोश का काम देती है, जिसकी उपयोगिता आज भी बनी हुई है। आपमें गजब की चारित्र दृढ़ता थी। विपरीत परिस्थितियों में भी अपने उज्जवल चारित्र पर दृढ़ रहते थे। दैनिक जीवन हो, व्यापार का क्षेत्र हो, या गृहस्थाश्रम सभी क्षेत्रों में सत्य और अचौर्य का जीवन भर पालन करते रहे। एक बार मण्डी में आग लगी। अन्य व्यवसाईयों के साथ आपको भी नुकसान हुआ, किन्तु अन्य व्यक्तियों की तरह अधिक नुकसान बता कर आपने एक के जमांदार ने खूब सताया किन्तु आपने रिश्वत नहीं दी।१०/—रूपये रिश्वत नहीं देने के बदले जमांदार ने अनेक बाधाएँ दीं। मुकदमा चला, सैंकडों रूपये खर्च हुए किन्तु रिश्वत नहीं दी और अतं में विजय आपकी हुई । बम्बई से आगरा जाते समय घर पर हिसाब लगाते हुए मालूम हुआ कि ३ वर्ष के बालक का टिकिट नहीं लिया, तुरंत स्टेशन मास्टर के पास जाकर क्षमायाचना सहित रुपये उनकी टेबल पर रख दिये, स्टेशन मास्टर ने बहुत समझाया भले ही ढाई वर्ष से ऊपर के बालक का टिकिट लेना चाहिए, पर कोई भी इसका पालन नहीं करता। परंतु पंडितजी नहीं माने। चालाक और धूर्त दुनिया के लिये पंडितजी भले ही बनारसीदासजी की तरह मूर्ख रहे हों, किन्तु इस मूर्खता का रहस्य उन्हें जीवन भर समझ में नहीं आया और आजीवन इसी प्रकार की मूर्खता करते रहे। एक बार पंडितजी अयोध्याप्रसादजी के साथ में व्यापार करते थे। अयोध्याप्रसादजी का किसी व्यापारी से लेन देन के संबंध में झगड़ा था, उन्होंने पंडितजी को निर्णय देने की मंजूरी दी, किन्तु सच्चे न्यायधीश के समान फैसला अपने ही साझेदार के विरूद्ध कर दिया, जिससे साझेदार पंडित जी से न केवल नाराज हुआ, बल्कि संबंध भी तोड़ दिये। किन्तु पंडित जी को इसका जरा भी मलाल नहीं था।बाद में पंडितजी की न्यायप्रियता, सत्यवादिता, निष्पक्षता और नैतिकता को साझेदार ने स्वीकारा। सत्यप्रेमी पंडितजी बड़े बड़े धनवानों कऔर समाज के प्रतिष्ठितों को भी खरी खोटी सुनाने में संकोच नहीं करते थे। यह सासह केवल पंडितजी में ही था। इस कारण आपको कइयो का कोप भाजन भी बनना पड़ा। पंडितजी को जैन शास्त्रों पर प्रगाढ़ श्रद्धा थी, वे अच्छे विचारक तो थे ही, उन्होंने अनेक गुत्थियों को सुलझाया था। उनकी सफलता का कारण निस्वार्थ सेवा और परोपकारी गुण था। विलक्षण स्मरण शक्ति के धारक पंडितजी को एकाग्रता का अच्छा अभ्यास था। आप परीक्षा प्रधानी भी पूरे थे। जैसे ही उन्होंने यह जाना कि सोमदेव कृत त्रिवर्णाचार आर्र्षग्रंथ नहीं है, उन्होंने उसी समय इस ग्रंथ के आधार पर जिन लोगों ने पूजा पद्धति अपना रखी थी उनका पुरजोर विरोध किया तथा जो भूलें थीं, उन्हें उजागर किया। आज जो तत्वचर्चा घर घर में फैली हुई है, उसमें मूल रूप से पंडितजी की ही देन और मेहनत है तथा उनके कठिन परिश्रम का फल है। जैन सिद्धांत प्रवेशिका ने तो पंडित जी को अमर कर दिया।