भारतीय धर्मों/दर्शनों में जैन धर्म/दर्शन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही एक दर्शन है जो पूर्णत: व्यक्ति स्वातन्त्र्य की घोषणा करता है। जैनधर्म/दर्शन की प्राचीन भाषा प्राकृत रही है। प्राकृत भाषा में स्तोत्र वे लिए ‘थुई’ और ‘थुदि’ इन दोे शब्दों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत में स्तोत्र के लिए ‘स्तुति’, ‘स्तव’, ‘स्तोत्र’ आदि शब्द व्यवहृत है। प्रारंभ में ‘स्तुति’ और ‘स्तव’ में अंतर था। यथा ‘‘एक: श्लोक: दौ श्लोकौ, त्रिश्लोका: वा स्तुतिर्भवति परतश्चतु: श्लोकादि: स्तव:। अन्येषामाचार्याणां मतेन एक श्लोकादि: सप्तश्लोकपर्यन्ता स्तुति: तत: परमष्टश्लोकादिका: स्तवा:।’’संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ.५५१। इसी प्रकार ‘स्तव’ तथा ‘स्तोत्र’ में भेद बताते हुए कहा गया है कि ‘स्तव’ गंभीर अर्थ वाला और संस्कृत भाषा में निबद्ध होता है तथा ‘स्तोत्र’ विविध छंदों वाला और प्राकृत भाषा में निबद्ध होता है।संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ.५५१। आजकल यह अंतर समाप्त प्राय: है और ‘स्तुति’, ‘स्तव’, ‘स्तवन’, ‘स्तोत्र’ आदि शब्द समानार्थी हो गये हैंं। आचार्य समन्तभद्र ने स्तुति को प्रशस्त परिणाम उत्पादिका कहा है-‘स्तुति: स्तोतु: साधो: कुशल परिणामाय स तदा’स्वयम्भू स्तोत्र २१/१।। विद्वानों ने ‘पूजाकोटिसमं स्तोत्रम्’ कहकर एक स्तोत्र के फल को एक करोड़ पूजा के फल के समान बताया है। स्तोत्र पाठ से पुण्य का अर्जन केवल मनुष्य ही नहीं देवता भी करते हैं। नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों में देव सदैव पूजा अर्चना किया करते हैं।ऐसे में स्तोत्रादि का पाठ स्वाभाविक ही है। पं.जुगलकिशोर मुख्तार ने भावपूजा को स्तुति ही कहा हैस्तुति विद्या, भूमिका,पृ. १०। इस संदर्भ में सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य मानतुंग का है। वे भक्तामर में कहते हैं-मैं उस जिनेन्द्र की स्तुति करता हूँ, जो देवताओं द्वारा चित्त को हरण करने वाले स्तोत्रों के द्वारा संस्तुत हैं।